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29 अगस्त 2010

युवा संवाद की स्थानीय इकाई भंग

युवा संवाद की स्थानीय इकाई तत्काल प्रभाव से भंग कर दी गयी है।

आज जनरल बाडी में यह फैसला सर्वसम्मति से लिया गया। बैठक में आम राय थी कि अब कार्य को पुनर्संयोजित करने की आवश्यकता है। इसे वैचारिक रूप से और समृद्ध करने तथा कार्यवाहियों को तेज़ करने की योजनाओं पर भी व्यापक परिचर्चा हुई। आम राय यह थी कि इसे एक वैचारिक मंच में तब्दील किया जाय और 'युवा दख़ल' को नियमित रूप से त्रैमासिक निकाला जाय। इस बार भगत सिंह की जन्मतिथि पर आयोजन कराने के बारे में भी निर्णय लिया गया। 

अगली सूचना तक राज्य इकाई के साथ संबंधों को भी स्थगित किया गया है।

03 अगस्त 2010

अब कहां है जाति प्रथा?ब

( यह आलेख हमे युवा संवाद उज्जैन की अपूर्वा ने भेजा है। आमतौर पर यह कहा जाता है कि जाति प्रथा अब ख़त्म हो रही है, कमज़ोर पड़ रही है…आदि-आदि…यह लेख तस्वीर का दूसरा रुख दिखाता है)

उत्तर प्रदेश में स्कूल के कुछ बच्चों ने मिड डे मील खाने से इसलिए इनकार कर दिया क्योंकि इसे दलित महिलाओं ने पकाया था।

बच्चों के बीच ज़हर
 प्राइमरी स्कूल में पढ़ने वाले किसी बच्चे की आयु कितनी होती है? उसे इस आयु में इस बात का बोध नहीं होता कि भोजन पकाने वाली महिला किस जाति या वर्ग की है। स्वाभाविक है कि इन बच्चों के अभिभावकों को जब यह पता लगा होगा कि स्कूल में बच्चों के लिए भोजन पकानेवाली महिला दलित वर्ग से है, तो शायद उन्होंने ही अपने बच्चों को भोजन करने से रोक दिया होगा। अभिभावकों ने केवल अपने बच्चों को वह भोजन खाने से ही मना किया, बल्कि कई स्थानों पर स्कूल के रसोईघर में तोड़फोड़ की और पुलिस पर पत्थर भी बरसाए। मुझे सबसे अधिक अफसोस उन संस्थाओं और उनके स्वनामधन्य नेताओं के प्रति होता है जो हिंदुत्व का एजेंडा लेकर चल रहे हैं और नारा उछालते हैं- गर्व से कहो हम हिंदू हैं। हिंदू समाज की ही एक महिला के हाथ के पके भोजन का तिरस्कार करके उन्हें किस प्रकार के गर्व की अनुभूति हो सकती है? 

हिंदुत्व का एजेंडा लेकर चलने वाली संस्थाओं की प्राथमिकता में अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण की बात है। देश भर में गौवध पर प्रतिबंध लगाने की बात भी है, पाकिस्तान के प्रति कड़ा रुख अपनाने की बात भी है किंतु सारे देश में दलित वर्ग के प्रति जो भेदभाव बरता जाता है, उसे दूर करने का अभियान चलाना उनकी प्राथमिकता में क्यों नहीं है? छुआछूत की इस व्याधि के कारण असंख्य लोगों को मतांतरण करना पड़ा और डॉ. अंबेडकर को यह कहना पड़ा-मैं हिंदू होकर जन्मा अवश्य हूं, किंतु हिंदू रहकर मरूंगा नहीं। 1950 में जब देश में नया संविधान लागू हुआ था, तो उसमें अस्पृश्यता को अपराध घोषित कर दिया गया था। कानून तो बन गया किंतु लोगों की मानसिकता नहीं बदली। 

आज भी देश के विभिन्न भागों से इस प्रकार के समाचार आते रहते हैं कि दूल्हा बने दलित युवक को घोड़ी पर नहीं चढ़ने दिया गया, दलितों को सार्वजनिक कुएं से पानी नहीं भरने दिया गया, किसी दलित को मंदिर में नहीं घुसने दिया गया। देश की संपूर्ण जनसंख्या का पांचवां भाग दलित वर्ग का है। इस पूरे वर्ग को जातिवाद पर आधारित हमारी समाज व्यवस्था में भेदभाव की पीड़ा झेलनी पड़ती है। प्राचीनकाल से ही दलित वर्ग को शिक्षा से वंचित रखा गया। उन्हें भूमि ग्रहण करने या किसी प्रकार की संपत्ति रखने का अधिकार या अवसर तो कभी मिला ही नहीं। देश के लगभग सभी भागों में, विशेषरूप से गांवों में दलित और सवर्ण बस्तियां अलग-अलग बनती रही हैं।

 तमिलनाडु के मदुराई जिले के एक स्थान उत्युपुरम में यह भेदभाव इस सीमा तक है कि सवर्ण जाति के लोगों ने पांच सौ मीटर लंबी दीवार बना ली है, जिससे दलित उनकी बस्ती में न जा सकें। अस्पृश्यता विरोधी कानून, शिक्षा के प्रसार और आधुनिक जीवन के दबाव के कारण, इस व्याधि ने अनेक नए रूप धारण कर लिए हैं। मैला ढोने के काम पर अधिकतर दलितों को ही लगाया जाता है। तमिलनाडु के कुछ गांवों में डाकिये दलितों के घरों में जाकर डाक नहीं देते। स्कूलों में अधिसंख्य अध्यापक सवर्ण जातियों के होते हैं। कक्षा में दलित बच्चों को अलग बैठाया जाता है। सवर्ण जाति के बच्चों के साथ उन्हें पानी नहीं पीने दिया जाता। प्राय: अध्यापक दलित विद्यार्थियों को उनकी जाति के नाम से पुकार कर उनका अपमान करते हैं। यदि किसी दलित विद्यार्थी को अध्यापक शारीरिक दंड देना चाहता है तो यह कार्य किसी दूसरे दलित विद्यार्थी से कराया जाता है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली में उनसे कहा जाता कि सप्ताह के एक विशेष दिन वे अपना राशन लें। 

दलितों ने जब भी इस भेदभाव का विरोध किया सवर्ण जातियों के लोगों ने उनका सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार कर दिया। अधिसंख्यक दलित खेतिहर मजदूर हैं। उन्हें जमीदारों ने खेतों में काम देने से मना कर देते हैं। भूख से मरते हुए लोग संभ्रांत लोगों के समक्ष घुटने टेकने और सभी प्रकार की अन्यायपूर्ण शतर्ें मानने को बाध्य हो जाते हैं। यह स्थिति भी कम खेदजनक नहीं है कि भेदभाव और छुआछूत का समर्थन करने में अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग भी सवर्ण जातियों से पीछे नहीं हैं, जबकि सदियों तक वे स्वयं जात-पात की व्याधि झेलते रहे हैं।  

30 जुलाई 2010

प्रेमचंद जयंती पर

युवा संवाद, ग्वालियर

प्रेस नोट

प्रेमचंद जयंती से खाप पंचायतों के ख़िलाफ़ अभियान


युवा संवाद ने आगामी 31 जुलाई को महान कथाकार प्रेमचंद की जयंती से लेकर 27 सितंबर को शहीद भगत सिंह की जयंती तक खाप पंचायती मानसिकता के ख़िलाफ़ अभियान चलाने का नि्चय किया है। इसकी शुरुआत आगामी 31 जुलाई को शाम 5 वजे से  फूलवाग स्थित गांधी पार्क पर एक ख़ुली गोष्ठी से की जायेगी जिसमें शहर के तमाम सामाजिक कार्यकर्ता, बौद्धिक वर्ग के प्रतिनिधि तथा साहित्यकार हिस्सा लेंगे। इसके अगले चरण में कालेजों, कार्यस्थलों आदि में परचा वितरण, आम सभा तथा गोष्ठियों के माध्यम से जजागरण अभियान चलाया जायेगा।

उक्त जानकारी देते हुए युवा संवाद के संयोजक अजय गुलाटी ने बताया कि प्रदेश के तमाम शहरों में यह अभियान चलाया जा रहा है। इसका उद्देश्य समाज में व्याप्त खाप पंचायती मानसिकता के ख़िलाफ़ माहौल तैयार करना है। उनहोंने शहर के तमाम प्रगतिशील लोगों, छात्रों तथा आम जन से इसमें सक्रिय हिस्सेदारी की अपील की है।

01 जुलाई 2010

खाप पंचायती मानसिकता के ख़िलाफ़

आईये साथ चलें
पिछली पोस्ट में हमने युवा संवाद, ग्वालियर द्वारा ज़ारी पर्चे को पोस्ट किया था। अब यह पर्चा युवा संवाद की विभिन्न इकाईयों द्वारा प्रदेश भर में बांटा जायेगा और खाप पंचायती मानसिकता के ख़िलाफ़ अभियान तेज़ किया जायेगा। ग्वालियर में भी हम हस्ताक्षर अभियान शुरु कर रहे हैं।


आप भी इस अभियान में यहां क्लिक करके आनलाईन भागीदारी कर सकते हैं।
आईये एक बेहतर दुनिया बनाने की कोशिश में साथ चलें।

24 जून 2010

क्या आप हमारे साथ नहीं हैं?

( युवा संवाद द्वारा प्रस्तावित अभियान का पर्चा)

समानांतर न्याय व्यवस्था ओं के खिलाफ एक अभियान
(खाप पंचायतों के विशेष संन्दर्भ में )

हमारे देश की सामाजिक व्यवस्था ‘जाति’ आधारित है। जन्म से लेकर मृत्यु तक ‘जाति’ यहाँ प्रत्येक व्यक्ति की प्रतिष्ठा और पहचान का आधार है। श्रेष्ठताबोध की नींव पर खड़ी बिना खिड़की-दरवाजों वाली इस बहुमंजिला इमारत में, कुछ व्यक्ति तो जन्म से ही श्रेष्ठ, सम्मानीय और ऊँचे मान लिये जाते हैं तो कुछ जन्म से ही घृणित, पतित और नींच।. हजारों साल से शोषण और असमानता पर आधारित इस अमानवीय कबीलाई व्यवस्था ने देश में, कभी न समाप्त होने वाले सामाजिक संघर्ष को जन्म दिया है। देश भर में चौबीसौ घंटे चलने वाले इस गृहयुद्ध में, एक ओर जाति भंजकों ने इसे तोड़ने के जमकर प्रयास किये हैं, तो दूसरी ओर इसके यथास्थितिवादियों ने इस बचाये रखने में भी कोई कोर-कसर बाकी नही छोड़ी है जिसके परिणाम स्वरूप आये दिन देश के किसी न किसी कोने से सामूहिक हत्या, बलात्कार और आगजनी की घटनाएँ होता सुनते-देखते हैं। 

दिलचस्प बात यह है कि जाति के इस विशाल चक्रव्यूह का सबसे बड़ा शत्रु दो विभिन्न जातियों के स्त्री-पुरूष के बीच होने वाला ‘अन्तर्जातीय’ विवाह है! आपसी सहमति के आधार पर हाने वाले इन ‘अन्तर्जातीय विवाहों’ की शुरूआत के साथ ही यह व्यवस्था चरमराने लगती है और समाज का आधारभूत ढाँचा असमानता से समानता में बदलने लगता है। जाति बाहर कर दिये जाने डर से भयभीत लड़का-लड़की के माता-पिता, चाचा-ताऊ और भाई ही अक्सर उन्हें, इज्जत के नाम  मौत के घाट उतार देते हैं। पंचायतों के इन तालिबानी हुक्म और फरमानों के बीच समानता के आधार पर सबको बराबर जीने के अधिकार का वचन देने वाली हमारे संविधान की धाराएं, किसी जज अथवा वकील की पुरानी किताबों के बीच पीले पन्नों में दबी सिसकती रह जाती हैं। देश के किसी न किसी कोने से आये दिन जाति के बाहर अन्तर्जातीय विवाह करने  वाले युवक-युवतियों  की हत्या की खबरें तो हम सुनते ही रहते थे, लेकिन मीडिया की पहुँच में आये देश के दूर-दराज पिछड़े इलाकों से अब हमें जाति के भीतर जाति (गोत्र) में शादी करने वाले विवाहित जोड़ों की हत्याओं की खबर भी अब हमारे सामने आम हो चुकी है। देश की लोकतंत्र प्रणाली और उसकी न्यायव्यवस्था को धता बताकर अपने निर्णय देने वाली देश की ये महापंचायतें और खाप पंचायतें मनुष्यता की हत्यारी हैं। ये हजारों साल पूर्व असमानता और शोषण के आधार पर निर्मित प्रथाओं और परंपराओं में विश्वास ही नहीं करते बल्कि वे उन्हें आज के आधुनिक और वैज्ञानिक युग पर थोपने की पूरी-पूरी कोशिश में हैं। समय रहते यदि हम ने इनके विरूद्ध आवाज नहीं उठाई, तो ये हमारी सारी वैज्ञानिक प्रगति और तार्किक सोच पर हावी होकर हमें हजारों साल पीछे  धकेल सकते हैं। आज समय है देश में जगह-जगह स्थापित ऐसी समानान्तर न्यायव्यवस्थाओं से एकजुट होकर लड़ने और उन्हें समाप्त करने का । 
आज की इस जरूरत को महसूस करते हुए ही युवा संवाद ने इनके खिलाफ अभियान चलाने का निर्णय लिया है। अपने संविधान की रक्षा की इस लड़ाई में आपका सहयोग हमें बल देगा ।
अभिवादन सहित
युवा संवाद
संपर्क- 9425787930,9039968068,9893375309

20 जून 2010

जबलपुर में रंग संवाद

रिपोर्ट
विगत दिनों, जबलपुर मध्य प्रदेश में समागम रंगमंडल एवं युवा संवाद के तत्वाधान में नाटक आयोजित किये गए.जिस से शहर में सांस्कृतिक गरिमामय माहौल तैयार हुआ. रिपोर्ट यूँ है

०३ जून २०१० से ०७ जून २०१० तक आयोजित नाट्य समारोह में ५ नाटक शामिल किये गए. मुख्यतः २ नाटकों को युवा संवाद द्वारा सांस्कृतिक एवं आर्थिक सहयोग द्वारा आयोजित किया गया.

हयवदन  
लेखक -गिरीश कर्नाड
निर्देशक - आशीष पाठक
आयोजक - युवा संवाद, समागम रंगमंडल 

रेड फ्रॉक 
लेखक - आशीष पाठक 
निर्देशक - आशीष पाठक 
आयोजक - युवा संवाद, समागम रंगमंडल 
हरिभूमि


पूर्वरंग - पांच प्रगतिशील रचनाकारों पर पांचो दिवस प्रोफ़ेसर ज्ञानरंजन जी द्वारा परिचय दिया गया, एवं शहर के संगीत समूहों सुर-पराग एवं स्पंदन द्वारा संगीतमयी प्रस्तुति दी गयी. 
 
रंग संवाद-  नाटक के विषय पर नाटकोपरांत उन पर चर्चा की गयी. ये चर्चा नाटक तत्व एवं पूर्व रंग पर केन्द्रित थी.इसपर दर्शकों ने हिस्सा लिया.      

प्रसार योजना - १० जून २०१० शाम नाटक के आयोजन एवं इसकी तमाम प्रक्रिया पर युवा संवाद द्वारा आकशवाणी पर जानकारी दी गयी. जो रविवार सुबह ०८:३० रेडियो पर प्रसारित होगी. 

युवा संवाद नवीन गतिविधियाँ -  युवा संवाद द्वारा महीने के प्रथम रविवार में रानी दुर्गावती संग्रहालय में एक मीटिंग सुबह से शाम रखी जाएगी. 

जिसमें दार्शनिक,सामाजिक,आर्थिक,राजनैतिक एवं प्रगतिशील धारा के मुताल्लिक संवाद रखा जाएगा. जिसमें शहर के प्रगतिशील रचनाकारों को शामिल किया जाएगा, संवाद स्थापित बनाए रखने के लिए. रविवार को ही, संगीत, नाटक, चित्रकारिता एवं साहित्य पर जानकारी प्रस्तुत की जाएगी. ये युवा संवाद की सांस्कृतिक पक्ष को निरंतर बनाए रखने वाली एक गतिविधि होगी.

निशांत
युवा संवाद जबलपुर       

22 मार्च 2010

दुनिया को बचाना है तो इसे बदलना ज़रूरी है…

विचार सत्र में बोलते हुए राज्य संयोजक प्रदीप


  • जिसे आज आमतौर पर भूमण्डलीकरण कहा जाता है वह दरअसल पूंजी का भूमण्डलीकरण है। श्रम आज भी जंज़ीरों में जकड़ा हुआ है। विकास के इस पूरे विमर्श से समानता का तत्व बाहर हो गया है। इसका सही विकल्प केवल बराबरी पर आधारित एक सामाजार्थिक-राजनैतिक व्यवस्था के ज़रिये पाया जा सकता है।



  • आज के दौर में ज़रूरी नहीं कि परिवर्तन बीसवीं सदी की ही तरह हिंसात्मक आंदोलनों के ज़रिये हो। बीसवीं सदी का समाजवाद पिछड़ी हुई अर्थव्यवस्थाओं में युद्ध के असाधारण काल में आया था…तो उसका आऊटलुक भी उसी के अनुरूप था। आज उनकी नक़ल नहीं हो सकती। 
जयवीर, मनोज,इमरान,निशांत और अशोक


  • माओवादी दल आज जिन मुद्दों को उठा रहे हैं वे जायज़ हैं लेकिन हिंसा का जो रास्ता वे अपना रहे हैं वह उन्हें आतंकवाद की ओर ले जा रहा है। यह धीरे-धीरे अराजक ख़ून-ख़राबे में बदल रहा है। ऐसी हिंसा, चाहे राज्य की हो या किसी दल की, उसे उचित नहीं ठहराया जा सकता।


  • महिला आरक्षण बिल सदियों से उत्पीड़ित इस तबके के उत्थान के लिये आवश्यक सकारात्मक पहल है। इसका समर्थन किया जाना चाहिये। साथ ही दलित, पिछड़े तथा अल्पसंख्यक समुदायों की चिंताओं पर भी गौर किया जाना चाहिये।

यहां परिचर्चा में भागीदार महेन्द्र,फिरोज़, प्रदीप

  • आज जाति, धर्म और जेन्डर की पुरोगामी सरंचनाओं के ख़िलाफ़ एक सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन की ज़रूरत है और युवा संवाद इसमें अपनी पुरज़ोर भूमिका निभायेगा।

ये कुछ निष्कर्ष हैं जो युवा संवाद के दो दिवसीय राज्य सम्मेलन में निकल कर सामने आये…विस्तृत रिपोर्ट जल्दी ही


शहीदी दिवस (23 मार्च) पर आप सबका अभिनन्दन!

14 मार्च 2010

युवा संवाद का राज्य सम्मेलन



युवा संवाद का तीसरा राज्य स्तरीय शिविर आगामी २०-२१ मार्च को ग्वालियर में होगा।


राज्य सम्मेलन की कार्यसूची


20/03/2010

पहला सत्र (10 बजे से)
यु्वा संवाद की विभिन्न इकाईयों की रिपोर्ट तथा अब तक के काम की समीक्षा

दूसरा सत्र ( साढ़े 12 बजे से)

भविष्य की योजना और पत्रिका के बारे में

तीसरा सत्र ( साढ़े 3 बजे से)

स्थापना सम्मेलन की तैयारियों पर केन्द्रित

चौथा सत्र ( छह बजे से)

सांस्कृतिक कार्यक्रम

21/03/2010
सुबह छह बजे भगत सिंह की प्रतिमा पर माल्यार्पण और जनगीत गायन


पहला सत्र ( 10 बजे से)

समाज के लोकतांत्रिकरण में युवा संवाद की भूमिका ( साथी प्रदीप)

दूसरा सत्र ( शाम चार बजे से)

खुली बहस : भूमन्डलीकरण और भविष्य का स्वप्न ( साथी संजय/अशोक)


रजिस्ट्रेशन शुल्क - 100/- प्रति व्यक्ति प्रतिदिन

05 मार्च 2010

भविष्यफल और वैज्ञानिकता


(युवा दख़ल पत्रिका पिछले दो सालों से ग्वालियर युवा संवाद द्वारा निकाली जा रही है। इस बार इसमें कुल पन्ने हैं १६ और मूल्य ५ रु… कवर पेज़ बनाया भाई रवि कुमार रावतभाटा ने। मंगाने के लिये मुझे मेल करें या फोन... यहाँ इसी अंक से विष्णु नागर जी का एक आलेख)

भविष्यफल और वैज्ञानिकता
- विष्णु नागर
वैज्ञानिक जंयत नार्लीकर समेत विद्वानों ने फलित ज्योतिष की सच्चाई जानने के संबंध में एक दिलचस्प प्रयोग किया, जिसके बारे में ‘नवनीत’ मासिक के ताजा अंक में एक आलेख छपा है। इन चारों ने मिलकर - जिनमें एक फलित ज्योतिष का ज्ञान रखने वाले भी है- 100 मेधावी और 100 सामान्य छात्रों की अलग-अलग जन्मककुंडलियां बनवाई। फिर इन सारी कुंडलियों को आपस में मिला दिया गया और इन छात्रों की बौद्धिक छमता के बारे में भविष्यवाणी करने के लिए सार्वजनिक रूप से ज्योतिषियों को आमंत्रित किया। 51 ज्योतिषी इतने कम? सामने आए और अपना जवाब भेजने की जहमत इनमें से भी लगभग आधे ज्योतिषियों 27 ने ही उठाई। उन्हें 40-40 कुंडलिया भेजी गई थी। इन 27 ज्योतिषियों ने जो जवाब भेजे, उनका सांख्यिकी विश्लेषण करने पर यह दिलचस्प नतीजा सामने आया कि उनकी भविष्यवाणी उतनी भी ठीक नहीं थीं, जितनी कि सिक्का उछाल कर चित-पट के आधार पर की गई कोई भविष्यवाणी निकलती है। अब ज्योतिषी इसके जवाब में पचास तर्क दे सकते हैं, जन्म समय ठीक नहीं रहा होगा, जन्मकुंडली बनाने वाला ठोक नहीं रहा होगा आदि-आदि, जैसा कि वे हमेशा करते हैं और करते रहेंगे। खैर, इन चार विद्वानों ने अपने आलेख में पश्चिम में हुए दो अन्य प्रयोगों का जिक्र किया है, जिनके नतीजे भी इसी तरह के निकले थे। मिशिगन विश्वविद्यालय में पीएचडी शौध का एक विषय जन्मकुडलियों की सच्चाई का वैज्ञानिक अध्ययन करना था। शोधकर्ता ने शोध के लिए कुल 3,456 जोड़ों को चुना, जिनमें से 2,978 सफल वैवाहिक जीवन बिता रहे थे। बाकी तलाक ले चुके थे या अलग रह रहे थे। इनकी जन्मकुडलियों को भी आपस में मिलाकर दो ज्योतिषियों को दिया गया। उनसे आपसी विचार-विमर्श करके यह तय करने को कहा गया था कि इन जोड़ों की जन्मकुंडलियां आपस में मिलती हैं या नहीं। उन्होंने जो नतीजे दिए, वे खोखले निकले। एक ओर प्रयोग यह किया गया कि क्या जन्म के समय ग्रहों की स्थिति ज्योतिष की मान्यता के अनुसार से उस व्यक्ति के स्वभाव और व्यवहार का निर्धारण होता है और क्या यह कहा जा सकता है कि उसके जीवन में ये-ये प्रमुख घटनाएं भविष्य में होंगी? इस मामले में भी काफी कम भविष्यवाणियां सही निकलीं।
तो यह हाल है उस ज्योतिष का, जिसे विज्ञान बताने के हर संभव प्रयास होते हैं जबकि विज्ञन किसी भी सत्य की परीक्षा प्रयोग के द्वारा करने पर जोर देता है और कोई भी प्रयोग, समान स्थितियों में करें तो वही नतीजे आने चाहिए, जो कि किसी ओर स्थान, समय तथा काल में आए थे। लेकिन यह बात कभी ज्योतिषी पर लागू नहीं होती। बहरहाल, ईश्वर और ज्योतिषी कम-से-कम दो ऐसे विषय हैं जिनमें इनकी अंधश्रद्धा है, उन्हें आप तर्कों से भले ही चुप करा दें, उनके ‘विश्वासों’ से उन्हें नहीं डिगा सकते। इसके कई जटिल कारण हैं। एक तो शायद यह है कि हममें से ज्यादातर को ‘संस्कारों’ से ही अवैज्ञानिकता मिलती है और विज्ञान की थोड़ी-बहुत पढ़ाई और अन्य छिटपुट अध्ययन-पर्यवेक्षण व्यक्ति के उन ‘संस्कारों’ में सेंध नहीं लगा पाते। एक कारण शायद जीवन की अनिश्चितताएं हैं। आजकल जिसके पास जितना ज्यादा है, वह उतना ही ज्यादा आशंकित और अनिश्चत भी है। वह और अधिक पाना चाहता है लेकिन जो उसने पा लिया है, उसके खोने का डर भी उसे लगातार रहता है। एक कारण शायद यह भी है कि हमारे यहां अंधविश्वासों और धर्म का लगभग चोली-दामन का साथ है, दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। इसके अलावा धर्म का आर्थिक साम्राज्य बहुत बड़ा है इसलिए उसका यह आर्थिक साम्राज्य धार्मिक साम्राज्य को कभी नष्ट नहीं होने देता। फिर तथाकथित जितने ‘सेलिब्रिटी’ हैं उनमें से 95 प्रतिशत या और भी ज्यादा धर्म तथा अंधविश्वासो से अपनी नजदीकी बताने में कोई संकोच नहीं करते। हमारे नेता, हमारे पूंजीपति, हमारी फिल्मी हस्तियां सबके सब धार्मिक से ज्यादा, अंधविश्वासी हैं।
इन्हीं सब वजहों से तमाम टीवी चैनल भी धड़ल्ले से और आत्मविश्वासों के साथ अंधविश्वासों का प्रचार करते हैं। फिर हम अखबार वाले भी तो अपना ‘विनम्र’ योगदान देते ही हैं! ऐसे में जयंत विष्णु नार्लीकर कितने कितने ही बड़े वैज्ञानिक हों, कितने ही विषयों पर कितनी ही तर्कपूर्ण बातें पिछले दो-तीन दशकों से करते रहें हों, उन्हें कोई भी सड़क छाप ज्योतिषी झिड़क देगा कि इन्हें आता क्या है? और इनकी बात पहुंची भी कितने लोगों तक है और पहुंचती भी है तो इस पहुंचने में निरंतरता कितनी होती है? और होती भी है तो धर्म तथा अंधविश्वास का प्रसार जिस निरंतरता से होता रहता है, उसके आगे इस वैज्ञानिक निरंतरता की क्या हैसियत? और फिर हमारे देश में तो अंतरिक्षयान भी जब नारियल फोड़ कर भेजा जाता है तो किस वैज्ञानिकता की बात करें? वैज्ञानिक भी जरूरी नहीं वैज्ञानिक दृष्टि वालें ही हों। आज जब विज्ञान का इतना विस्तार हो चुका है, तो विज्ञान भी दरअसल एक तकनीकी काम ज्यादा बन चुका है इसलिए बिना वैज्ञानिक दृष्टि के भी अच्छा सफल वैज्ञानिक बने रहना संभव है। मुझे तो अपना हिंदी लेखक समाज अपनी तमाम बुराइयों-कमियों के बावजूद कई बार ज्यादा वैज्ञानिक दृष्टि-संपन्न लगता है। कम से कम अपने सृजनात्मक व्यवहार में, अपने जीवन में भी ज्यादा समय, हालांकि इस बात को भी ज्यादा दूर खींचना ठीक नहीं। इसकी भी अपनी सीमाएं हैं। बहरहाल, तथ्य और सत्य भले ही धारा कि विपरीत हो, उन्हें सुनने-समझने को तैयार लोग कम हों तो भी उो कहना जरूरी है। तभी इसका दीर्घकालिक असर होता है। एक समय तो पृथ्वी सूर्य के चक्कर लगाती है, इसे भी सत्य मानने को धर्म तैयार नहीं था लेकिन आज है। आज धर्म विज्ञान से सीधी-सीधी मुठभेड़ मोल नहीं लेता। आज धर्म की कोशिश विज्ञान को हजम कर जाने की है, हालांकि विज्ञान में इतनी ज्याद हड्डियां हैं कि उसे पचाना भी आसान नहीं है बल्कि असंभव है। लकिन विज्ञान से ज्यादा मुश्किल है वैज्ञानिक दृष्टि का विकास और प्रसार। यह मनुष्यता की एक जटिल चुनौती है। इसलिए ज्योतिष सहित तमाम अवैज्ञानिक चीजें अपनी अंधविश्वास ताकत भविष्य में दिखाती रहेंगी। पुट्टपार्थी के साईबाबा टाइप लोग चमत्कार दिखा कर फलते-फुलते रहेंगे और उनके द्वारा किए गए ‘चमत्कारों’ के वैज्ञानिक आधार को स्पष्ट करने वाले उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगे। बीसवीं सदी विज्ञान की सदी कहलाती थी और थी भी। लेकिन पता नहीं कौन सी सदी वैज्ञानिक सोच की सदी होगी? क्या यह इक्कीसवीं सदी, जिसका पहला दषक ही अभी चल रहा है?

27 फ़रवरी 2010

आपका घर गच्ची वाला है

( देवास के हमारे साथी सौरभ का यह लेख युवा दख़ल के ताज़ा अंक में प्रकाशित है। होली की मस्तियों के बीच उम्मीद करता हूं आप इन्हें भी नहीं भुलेंगे!)


पूरे के चावल दे दो



देवास की एक बस्ती में करीब 34 लड़कियां हैं जो नियमित रूप से हमारे पास पढ़ने आती हैं। इन बच्चियों में मूल रूप से मुस्लिम और दलित किषोरियां हैं। उन्हें पता नहीं - कि क्यों पढ़ती हैं, बातचीत में पता चला कि उन्हें पढ़ने और स्कूल जाने के बराबर अवसर नहीं मिले और ना ही कभी वे स्कूल की फेंटेसी को जी पाई हैं। जब मैं रोज़ की तरह सेंटर पहुंचा तो बच्चों का हुजुम हमारे पिछे आ रहा था, करीब दो घंटा पढ़ाई के बाद, बात करते-करते एक बच्ची (मुस्कान 8 वर्ष) ने पूछा कि आप कहां रहते हो ? जवाहर नगर में, मैने कहा। उसने फिर पूछा सर आपका घर गच्ची वाला है ? पहले तो मुझे सवाल समझ नहीं आया कि गच्ची वाला का क्या मतलब है ? तो एक साथी ने बताया कि गच्ची वाला याने छत वाला घर। मैने जब मुस्कान से हां कहा तो उसने कहा - सर आप मुझे एक बार वहां ले चलोगे ? इस सवंाद से मुझे पहली बार एहसास हुआ कि घरों की पक्की दिवारों और छतों के भी अपने मायने होते हैं और वे किसी फेंटेसी से कम नहीं होते। इससे पहले शायद ही मैने कभी अपने घर की छत को देखा हो ?


ऐसे ही मैं एक बार बस्ती में किराने की दुकान पर खड़ा था, तभी एक आवाज़ आई, वह आवाज़ नर्गिस की थी। भैया पूरे के चावल दे दो। दुकानदार व्यस्त था शायद वह सुन नहीं पाया। नर्गिस फिर अपार ख़ुशी और आत्मविश्वास से तेज आवाज़ में पैसे रखकर बोली- भैया पूरे के चावल दे दो। यह संवाद मेरे आपे से बाहर का था, मैं पूरी तरह सिहर गया था क्योंकि नर्गीस के पूरे पैसे से मतलब 5 रूपये से था। एक बच्ची सिम्मो मेरे लिये आरिगेमी से कुत्ता बनाकर लाई और उसने अपने हाथ से उस पर मेरा नाम लिखा था। मैं नहीं समझ पा रहा था कि मेरे साथ यह क्या हो रहा है। एक तरफ तो मुस्कान ने गच्ची वाला छत नहीं देखी, नर्गिस को 5 रूपये पूरे लगते हैं और यही बच्चे हमारे लिये तोहफे लायें हैं। यह सबकुछ मेरे लिये अनुपम, अद्भूत और ना जाने क्या क्या था। यह सब मेरे लिये इसलिये भी शायद अजीब और नया था क्योंकि मैं एक साफ्टवेअर इंजिनियर के रूप में एक मल्टीनेषनल कंपनी में काम किया करता था जहां मैं साल भर के 5 लाख रूपये कमाता था और मुझे तो वह भी कम लगते हैं। सौरभ वर्मा

27 दिसंबर 2009

साहित्यकार की जगह सडक नहीं होती







पूर्व घोषित कार्यक्रम के अनुसार युवा संवाद की पहल पर रविवार को शहर के तमाम जनसंगठनों ने पुराने हाईकोर्ट से शहर के हृदयस्थल महाराज बाडे पर पोस्ट आफ़िस की सीढियों के सहारे बने स्थायी मंच से आमसभा का आयोजन किया। रैली में शामिल 75 लोगों की संख्या सभा में दूनी हो गयी। लोग पूरे उत्साह से नारे लगा रहे थे-- कामगार एकता-ज़िन्दाबाद, महंगाई को दूर करो, लेखकों, ट्रेडयूनियनकर्मियों, महिलाओं और वक़ीलों की एकता-- ज़िन्दाबाद, शिक्षा, रोटी और रोज़गार-तीनों बनें मौलिक अधिकार, कैसी तरक्की कौन ख़ुशहाल- कारें सस्ती महंगी दाल!

सभा को संबोधित करते हुए वक्ताओं ने मंहगाई को राष्ट्रीय आपदा घोषित किये जाने, शिक्षा, रोटी और रोज़गार को मौलिक अधिकार बनाये जाने तथा नयी आर्थिक नीति वापस लेने की मांग की। एटक के राजेश शर्मा, कैलाश कोटिया, युवा संवाद के अजय गुलाटी, स्त्री अधिकार संगठन कि किरण, सीटू के श्याम कुशवाह, इण्डियन लायर्स एसोशियेशन के गुरुदत्त शर्मा तथा यतींद्र पाण्डेय, ग्वालियर यूनाईटेड काउंसिल आफ़ ट्रेड यूनियन्स के एम के जायसवाल, एम पी मेडिकल रिप्रेज़ेन्टेटिव यूनियन के राजीव श्रीवास्तव, आयुष मेडिकल एसोसियेशन के डा अशोक शर्मा, डा एम पी राजपूत, जन संघर्ष मोर्चे के अभयराज सिंह भदोरिया, नगर निगम कर्मचारी यूनियन के अशोक ख़ान, प्रलेसं के भगवान सिंह निरंजन सहित तमाम वक्ताओं ने इस संयुक्त मोर्चे को वक़्त की ज़रूरत बताते हुए संघर्ष की लौं तेज़ करने का संकल्प किया। संचालन युवा कवि अशोक कुमार पाण्डेय ने किया।

लेकिन जहां एक तरफ इन तबकों ने अपनी व्यापक एकता का परिचय दिया, शहर के मूर्धन्य काग़ज़ी शेर उर्फ़ साहित्यकार इससे दूर ही रहे। एक साहब को जब हमने फोन लगाया तो उत्तर मिला-- ''अरे भाई यह हमारा काम नहीं है। साहित्यकार की जगह सडक नहीं होती।'' आप को क्या लगता है?

25 दिसंबर 2009

मंहगाई हमारा भी मुद्दा है!




मंहगाई के खिलाफ साझा अभियान



मंहगाई के खिलाफ रैली और धरना आज



नगर के सामाजिक, सांस्कृतिक संगठनों तथा विभिन्न ट्रेड यूनियनों के ‘‘मंहगाई के खिलाफ संयुक्त मोर्चे‘‘ द्वारा पिछले एक सप्ताह से चलाये जा रहे अभियान के अंतिम दिन आज पुराने हाईकोर्ट से बाडे तक एक विरोध रैली निकाली जायेगी। बाडे पर मंहगाई के खिलाफ पैम्फलेट वितरण एवं आम सभा का अयोजन भी किया जायेगा। इसके पहले एक सप्ताह तक चले अभियान में विभिन्न चैराहों, बैंकों, कालेजों तथा मोह्ल्लों में इन संगठनों ने जनजागरण अभियान चलाया। इस रैली में युवा संवाद, इण्डियन लायर्स एसोशियेशन, प्रलेस, एटक, गुक्टु, जलेस, नगर निगम यूनियन, संवाद,इण्डियन डेन्टल एसोशियेशन, जन संघर्ष मोर्चा सहित तमाम जनसंगठनों की भागीदारी होगी।


मोर्चे के गुरुदत्त शर्मा तथा अभय राज सिंह भदोरिया ने इस अवसर पर शहर के तमाम बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, ट्रेडयूनियन कर्मियों तथा आमजनों से व्यापक भागीदारी की अपील की है।



भवदीय
(अशोक कुमार पाण्डेय)


संयोजक, संयुक्त मोर्चा


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निवेदक


युवा संवाद, जलेस, प्रलेस, इप्टा, संवाद, गुक्टु, एटक, सीटू, स्त्री अधिकार संगठन, नगर निगम यूनियन, बीमा कर्मचारी यूनियन, इण्डियन लायर्स एसोसियेशन, आल इण्डिया बैंक इंप्लाईज एसोसियेशन, नागरिक मोर्चा, जूटा, एम पी एम आर यू, बीएसएनएल यूनियन, आई डी ए

05 दिसंबर 2009

धार्मिक कट्टरपंथ तथा आतंकवाद


धार्मिक कट्टरपंथ तथा आतंकवाद एक दूसरे के पूरक हैं। छः दिसंबर भारतीय संविधान तथा साम्प्रदायिक सद्भाव पर आधारित हमारी परम्परा के चेहरे पर बदनुमा दाग़ है। आर एस एस और उसके आनुसांगिक संगठनो ने सत्ता के लोभ में देश के भीतर जो धार्मिक उन्माद पैदा कर लोगों के बीच साम्प्रदायिक विभाजन किया वही आज आतंकवाद के मूल में है। मनमोहन सिंह कहते हैं की माओवाद देश के सम्मुख सबसे बड़ा खतरा है पर वास्तविकता यह है कि हमारे सम्मुख सबसे बड़ा खतरा धार्मिक कट्टरपंथ है। यह बातें आज युवा संवाद की पहलकदमी पर दिसंबर को आयोजित साम्प्रदायिकता और आतंकवाद विरोधी दिवस पर अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए डा मधुमास खरे ने कही।




उल्लेखनीय है कि युवा संवाद, संवाद, स्त्री अधिकार संगठन , प्रगतिशील लेखक संघ, आल इंडिया लायर्स एसोशियेशन, जनवादी लेखक संघ, बीमा कर्मचारी यूनियन, गुक्टू, इप्टा सहित शहर के तमाम जनसंगठनों ने छः दिसंबर को सांप्रदायिकता और आतंकवाद विरोधी दिवस के रूप मे मनाते हुए फूलबाग स्थित गांधी प्रतिमा पर संयुक्त बैठक आयोजित की।




बैठक में इन संगठनों के प्रतिनिधियों ने भारत तथा दुनिया भर में बढते आतंकवाद पर चिंता जताते हुए कहा कि इसके मूल में आर्थिक विषमतायें ही प्रमुख हैं। अजय गुलाटी ने विषय की प्रस्तावना रखते हुए कहा कि आज अंबेडकर की पुण्यतिथि है और उन्होंने बहुत पहले धर्म के अमानवीय स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा था कि अगर कभी हिन्दु राष्ट्र बना तो वह दलितों और महिलाओं के लिये विनाशकारी होगा। अशोक पाण्डेय ने कहा कि इस धार्मिक राजनीति के केन्द्र में न मनुष्य है न इश्वर बस सत्ता है। आज़ादी के पहले मुस्लिम लीग और आर एस एस दोनों अंग्रेज़ों की सहयोगी थीं और बाद में देशभक्त हो गयीं। डा प्रवीण नीखरा ने शिक्षा व्यवस्था में आमूल परिवर्तन पर ज़ोर दिया तो ज्योति कुमारी तथा किरन ने धर्म के महिला विरोधी स्वरूप पर ध्यान खींचते हुए कहा कि हर दंगा स्त्री के शरीर पर हमले से शुरु होता है।
डा पारितोष मालवीय, अशोक चौहान, जितेंद्र बिसारिया, पवन करण, राजवीर राठौर, ज़हीर कुरेशी, फ़िरोज़ ख़ान सहित अनेक लोगों ने बहस में हिस्सेदारी की। अंत में पास एक साझा प्रस्ताव में साम्प्रदायिकता विरोधी ताक़तों को मज़बूत करने तथा शीघ्र मंहगाई पर जनजागरण के लिये एक अभियान चलाने पर सहमति बनी।

27 नवंबर 2009

कितना बर्दाश्त करेगा दलित?




विकास और संवृद्धि के आंकडों में तब्दील होते जाने के साथ ही सामाजिक परिवर्तन और समानता आधारित मूल्यों की जो अनदेखी हुई है उसका पहला शिकार इस देश का वंचित-शोषित जन हुआ है। दलित, स्त्री और असंगठित मज़दूर मुख्यधारा की चर्चाओं से बाहर गये हैं और इसके परिणामस्वरूप देश भर में इनकी मुक्ति के लिये चल रहे आंदोलनों की धार कुंद हुई है। नयी आर्थिक व्यवस्था के समर्थकों के लिये तो मानो यह कोई मुद्दा है ही नहीं। आदिवासियों और आम जनों पर नक्सलवादी होने का ठप्पा लगाकर हमले को उद्धत शासन व्यवस्था यह सोच ही नहीं पाती कि आख़िर वे कौन से हालात हैं जिनके बीच फंसकर एक सीधासाधा इंसान हथियार उठाने को बाध्य हो जाता है।


युवा संवाद की फ़ैक्ट फ़ाईंडिंग टीम जब गाडरवारा मे मृत पशुओं का शव उठाने के ख़िलाफ़ लिये गये फ़ैसले के बाद सवर्ण उत्पीडन के शिकार लोगों का जायज़ा लेने पहुंची तो दिल दहला देने वाले तथ्य सामने आये। कुछ खास निष्कर्ष ये हैं।

१ अहिरवार समुदाय के द्वारा आत्मसम्मान के लिए गया यह निर्णय दरअसल सवर्णों की जातिगत श्रेष्ठता के लिए चुनौती जैसा बन गया है।
2 इलाके में सवर्ण/गैर दलित अपने सामाजिक और आर्थिक रौब दिखाकर अहिरवार समुदाय पर लगातार दबाव बना रहें है।

३ मृत मवेशी उठाना एक खास जाति का ही काम है की सांस्कृतिक-सामाजिक मान्यता को कायम रखने की जिद इस उत्पीड़न की जड़ है।
४ दलितों के संवैधानिक मुल्यों की हिफाजत के बदले प्रशासन सवर्णों के यथास्थिति बनाए रखने के कवायद मंे मौन सहभागी बना हुआ है।

02 नवंबर 2009

इरोम शर्मिला के समर्थन में -- एक रिपोर्ट





(पहले जैसी सूचना दी थी हमने आज भोपाल और ग्वालियर में इरोम शर्मिला के समर्थन में आयोजन किए । पेश है उसकी रिपोर्ट )




भोपाल


2 नवम्बर ,भोपाल सरकार की दमनकारी नीतियों के विरोध में इरोम शर्मिला ने दस साल पहले आज के ही दिन मणिपुर में आमरण अनशन शुरू किया था। उन्हें सरकार घर परही नजरबंद कर रखा है और जबरन नाक के रास्ते खाना खिलाया जा रहा है। वह सैन्य बल (विशेष अधिकार) अधिनियम १९५८ को रद्द करने की मांग कर रही हैं। दरअसल मणिपुर में भारत सरकार का सैन्यबल (विषेष अधिकार) अधिनियम 1958 नामक दमनकारी कानून वहां सेना को महिलाओं और आम नागरिकों पर अत्याचार की खुली छूट देता है। पिछले एक दशक में मणिपुर में फर्जी एन्काउण्टर, महिलाओं के साथ बलात्कार, छेड़खानी और हत्याओं में लगातार वृद्धि हुई है। इसके खिलाफ खिलाफ सैन्य मुख्यालय के समक्ष निःवस्त्र प्रदर्शन व देशभर में विरोध के वाबजूद भारत सरकार की खमोशी और असंवेदनशीलता बरकरार है। उपर से दूसरे राज्यों में भी ऐसे दमनकारी कानून बनाए जाने की कोशिशें जारी हैं। इस मौके पर युवासंवाद और मध्यप्रदेश महिला मंच द्वारा सरकार की दमनकारी नीतियों के खिलाफ इरोम शर्मिला व उनके साथियों के संघर्ष का समर्थन में कैंडल लाइट विजिल का आयोजन ज्योति टाॅकीज के पास किया गया । कार्यक्रम में लोकतांत्रिक अधिकारों का दमन करने वाले सैन्यबल ( विशेष अधिकार) अधिनियम 1958 जैसे तमाम कानूनों को वापस लिए जाने की मांग की। कार्यक्रम में इस बात का भी जिक्र किया गया कि नर्मदा घाटी के कार्यकर्ताओं को हिरासत में ले कर कायरता का काम किया है। इस घटना के विरोध में भूखहड़ताल पर बैठे रामकुवंर और चित्रूपा पालित का समर्थन करते हुए दोनों संगठनों ने इस बात की भर्त्सना की कि सरकार अपना जायज हक मांगने वालों को ही देशद्रोही करार देने पर तुली हुई है। युवासंवाद और मध्यप्रदेश महिला मंच के इस आयोजन में बड़ी तदाद में लोगो ने मोमबत्ती जलाकर अपनी सहभागिता दर्ज की। कार्यक्रम में शहर के साहित्यकर , छात्र व विभिन्न सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधि शामिल होकर अपना समर्थन दिया । इस आयोजन में प्रगतिशील लेखक संघ, भारत ज्ञान विज्ञान समिति, महिला अधिकार संदर्भ केन्द्र, जनपहल, बचपन, मध्यप्रदेश शिक्षा अभियान, नागरिक अधिकार मंच, पीपुल्स रिसर्च सोसाईटी, मुस्कान आदि सस्था एवं संगठन ने एकजुटता जताई।




ग्वालियर




युवा संवाद , ग्वालियर द्वारा मणिपुर की कवियित्री और मानवाधिकार कार्यकर्ता इरोम शर्मिला के आमरण अनशन के दस वर्ष पूरे होने पर उनको नैतिक समर्थन देने के लिये फूलबाग स्थित गांधी प्रतिमा पर एक बैठक का आयोजन किया। ज्ञातव्य है के इरोम शर्मिला पिछले दस सालों से विशेष सशस्त्र बल कानून के ख़िलाफ़ आमरण अनशन कर रही हैं और उन्हें जबर्दस्ती नलियों द्वारा तरल पदार्थ देकर जीवित रखा गया है। इसी क्रम में मणिपुर की महिलाओं का संसद भवन पर नग्न प्रदर्शन भी खासा चर्चित हुआ था लेकिन सरकारों पर इनका कोई असर नहीं पडा। बैठक में भाग लेते हुए ट्रेद यूनियन नेता राजेश शर्मा ने लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि जनता के बीच लोकतांत्रिक चेतना के विस्तार हेतु प्रयास किया जाना चाहिये। आल इण्डिया लायर्स असोशियेशन के गुरुदत्त शर्मा ने कहा कि आज कभी नक्सलवाद तो कभी आतंकवाद की आड मे जो काले कानून लागू किये जा रहे हैं वे अंततः देश को एक फ़ासीवादी रास्ते पर ले जायेंगे। युवा कवि अशोक पाण्डेय ने इसकी जडें इतिहास में तलाशते हुए कहा कि लोकतंत्र भारत मे सिर्फ़ चुनावों तक सिमट गया है। युवा संवाद के अजय गुलाटी ने बताया कि युवा संवाद की भोपाल सहित अनेक इकाईयां इस मुद्दे पर आज कार्यक्रम कर अपना विरोध दर्ज़ करा रही हैं। इस अवसर पर स्त्री अधिकार संगठन की किरण , अशोक चौहान, जितेंद्र बिसारिया, कुलदीप, अविनाश, राजवीर, भगवान सिंह निरंजन सहित तमाम सामाजिक कार्यकर्ता उपस्थित थे। बैठक के अंत में सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पास केन्द्र सरकार से ऐसे काले कानून वापस लेकर पूर्वोत्तर सहित सारे देश में व्यापक लोकतंत्र की स्थापना की मांग की गयी।

31 अक्टूबर 2009

इरोम शर्मीला के समर्थन में

( मणिपुर में ही सेना के अत्याचार के ख़िलाफ़ नग्न प्रदर्शन करने को मजबूर महिलाओं के समर्थन में अंशु की कविता का पोस्टर )

साथी,
इरोम शर्मिला एक युवा महिला हैं जो पिछले 10 वर्षों से आमरण अनश पर हैं। उन्हें सरकार ने घर पर ही नजरबंद कर रखा है और जबरन नाक के रास्ते खाना खिलाया जा रहा है। वह सैन्य बल (विशेष अधिकार) अधिनियम 1958 की वापसी की मांग कर रही हैं। गौरतलब है कि 2 नवम्बर को मणिपुर में सैन्यबल ( विशेष अधिकार) अधिनियम 1958 के विरू़द्ध इरोम शर्मिला अपने आमरण अनशन के दस वर्ष पूरे कर लेंगी। इसमें संदेह नहीं ये वर्ष भारतीय लोकतन्त्र के लिए शर्म में डूबे हुए वर्ष हैं। अब भी भारतीय प्रजातन्त्र के अनुसार सम्मानजनक जीवन की मांग करना आत्महत्या है (भारतीय सरकार का उनके अनशन के प्रति यही रूख़ रहा है) और सैन्यबल विशेषाधिकार सुरक्षा के लिए आवश्यक हक....वो हक जो पूर्वोत्तर के राज्यों में एन्काउण्टर, बलात्कार और हत्याओं को जायज ठहराता है। क्या मणिपुर में महिलाओं द्वारा सशस्त्र राज्य की ताकत के खिलाफ सैन्य मुख्यालय के समक्ष निःवस्त्र प्रदर्शन लोकतान्त्रिक राज्य के प्रचारित गौरव को शर्मसार नहीं करता ? शायद नहीं! क्योंकि दूसरे राज्यों में भी ऐसे दमनकारी कानून बनाए जाने की कोशिशें जारी हैं। हम सरकार की दमनकारी नीतियों के खि़लाफ इरोम शर्मिला व उनके साथियों के संघर्ष का समर्थन करते हैं। हम लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों का दमन करने वाले सैन्यबल ( विशेष अधिकार) अधिनियम 1958 जैसे तमाम कानूनों को वापस लिए जाने की मांग करते हैं।


कार्यक्रम - कैंडल लाइट विजिलदिनांक - 2 नवम्बर (सोमवार)स्थान - ज्योति सिनेप्लेक्स के पासऍम. पी. नगर, भोपाल समय -सांय 5 बजेयुवासंवाद और मध्यप्रदेश महिला मंच द्वारा आयोजित।इस कार्यक्रम में आप सभी आमंत्रित हैं

संपर्क- मनोज - 9754762958 पवन मेराज -9179371433 रिनचिन- ९४२५३७७३४९

युवा संवाद , ग्वालियर और स्त्री अधिकार संगठन इस आवाज़ को बुलंद करने के लिए २ नवम्बर, सोमवार को फूलबाग स्थित गांधी प्रतिमा के समक्ष सुबह साढ़े दस बजे एक बैठक करेगा. आप इसमें सादर आमंत्रित हैं.
ग्वालियर संपर्क : अशोक -- 09425487930 , अजय गुलाटी-- 90399088, फिरोज़ --9329074994

इरोम शर्मिला पर विस्तृत अध्ययन के लिए यहाँ क्लिक करें.

सैन्य बल के मणिपुर और आसाम के लिए विशेषाधिकार क़ानून की विस्तृत जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें.


27 सितंबर 2009

देश को तोड़ता है जातिवाद

देश में एक सामूहिक चेतना के विकास में सबसे बड़ा बाधक है जातिवाद। ब्राह्मणवाद संचालित हमारी जातिव्यवस्था हमेशा से ही अवसरवाद की चरम अनुयायी और पतनशील राज्यव्यस्थाओ की सहभागी तथा सहयोगी रही है। आजादी के दौर में पनपे तीनो विचारधारात्मक सरणियों में क्रांतिकारी विचारधारा के वैचारिक प्रतिनिधि भगत सिंह ने अछूत समस्या पर पहली बार वैज्ञानिक तरीके से व्याख्यायित किया। वह पूरी सामाजिक- आर्थिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन चाहते थे। इसीलिये यथास्थितिवादी कांग्रेस और पुनरुत्थानवादी मुस्लिम लीग और संघ दोनों ही भगत सिंह की वैचारिक विरासत के वाहक नहीं हो सकते। देशभक्ति उनके लिये देश की जनता को साम्राज्यवाद से मुक्ति दिलाकर एक शोषणमुक्त समाज की स्थापना थी । यह कहा भगत सिंह के जन्म दिवस पर युवा संवाद द्वारा आयोजित खुली बहस में भागीदारी करते हुए सेंट स्टीफ़ेंस कालेज के डा संजय ने। विषय था- देश देशभक्ति और भगत सिंह
अध्यक्ष डा जी के सक्सेना ने कहा कि हम हमेशा से दोहरे संस्कारों से घिरे रहे हैं। यहां अपनी गलतियों के लिये माफ़ी का रिवाज़ नही बल्कि उसे झुठलाने की कोशिश की जाती है। शहीदों की मूर्तियां हमने लगवायीं पर विचार तिरोहित कर दिये।
अजय गुलाटी ने कहा कि युवा संवाद जातीय, धार्मिक तथा लैंगिक भेदभाव के ख़िलाफ़ चेतना विकसित करने का काम करता रहेगा। आम जन आगे आकर हमारा सहयोग करें ताकि इस काम में गति आ सके।।
इस अवसर पर ग्वालियर इकाई द्वारा प्रकाशित पुस्तिका '' भगत सिंह ने कहा'' और भोपाल इकाई द्वारा प्रकाशित '' अंबेडकर से नई मुलाकात का वक़्त'' का विमोचन भी हुआ।
कार्यक्रम में युवा संवाद और स्त्री अधिकार संगठन के साथ शहर के बुद्धिजीवियों, युवाओं तथा नaगरिकों ने प्रभावी भागीदारी की।
भगत सिंह के जन्म दिवस पर

13 अगस्त 2009

पंद्रह अगस्त पर युवा संवाद ग्वालियर की खुली बहस


शहीदों का स्वप्न और आजादी के छः दशक

साथियों,विदेशी दासता से हमें मुक्त हुए आधी सदी से अधिक साल गुजर गये। डेढ़ सौ वर्षोें से अधिक चले उस मुक्ति संग्राम में हमारे देशभक्त वीरों ने कठिन संधर्ष किया, अपने प्राणों की आहुति दी और अंततः देश को साम्राज्यवाद के चंगुल से आज़ाद कराने में सफल हुए। लेकिन क्या उनके लिए देश का अर्थ सिर्फ कागज पर बना हुआ नक्शा या नदी, पहाड़ और जमीन था जिसे वे गोरों से मुक्त कराना चाहते थे?ऐसा नहीं था। विदेशी शासन के उनके प्रतिरोध के मूल में थी शोषण और उत्पीड़न की शिकार इस देश की जनता। भूख, ग़रीबी, बेरोज़्ागारी के बोझ से कराहती आम जन की चीख ने उन्हें दुनिया की सबसे ताक़तवर सत्ता के खि़लाफ़ जंग में उतरने पर मज़बूर किया। उनका सपना था कि आज़्ााद भारत में हर आदमी व औरत को सम्मान से ज़िन्दगी जीने का मौका मिले, दो जून की रोटी मिले, रोजगार मिले और अपने सपने साकार करने के मौके। तभी तो भगत सिंह ने कहा था कि ‘अगर आज़्ाादी के बाद गोरे अंगे्रजों की जगह काले अंग्रेज सत्ता में आ गये तो इस आज़्ाादी का कोई अर्थ नहीं होगा’।लेकिन आज ऐसा महसूस होता है कि उनकी आशंकायें सच साबित हुई। पिछले छह दशकों के विकास के सारे दावों के बीच एक तरफ़ सत्तर फ़ीसदी आबादी जीवन की मूलभूत सुविधाओं से वंचित है तो दूसरी तरफ़ देशभक्ति और जातीय तथा धार्मिक भावनाओं के आधार पर उन्माद पैदा कर देश का कई स्तरों पर बंटवारा किया जा रहा है। जाति, धर्म, राष्ट्रीयता तथा लिंग के आधार पर होने वाले भेदभाव कम होने के बजाय बढ़ते ही जा रहे हैं।
‘युवा संवाद’ मध्यप्रदेश के विभिन्न स्थानों पर इन्हीं विसंगतियों के ख़िलाफ काम करने वाले युवाओं का सामाजिक-सांस्कृतिक समूह है। शहीद भगत सिंह तथा उनके साथिओं के विचारों के प्रति प्रतिबद्धता जताते हुए हम भगत सिंह के जन्म दिवस 27 सितम्बर को युवा दिवस के रूप में मनाने के लिये दृढ़ संकल्पित हैं। उनके विचारों को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने के लिए हम चाहते हैं कि उनके लिखे लेख पाठ्यक्रमों में शामिल हों। इन मांगों को लेकर हम प्रदेश भर में हस्ताक्षर अभियान की शुरूआत स्वतन्त्रता दिवस से कर रहे हैं।

हम उन शहीदों का सम्मान करने वाले हर नागरिक से इस अभियान में शामिल होने तथा अपना हमसफ़र बनने की अपील करते हैं। आईए मिलकर साथ चले ताकि शहीदों के सपनों का भारत बन सके।
युवा संवाद
संपर्क : 9425787930, 9229499088,

22 जून 2009

अब दखल है हमारी प्रादेशिक पत्रिका

दोस्तों
जैसा कि आप जानते हैं कि युवा संवाद की ग्वालियर इकाई पिछले दो सालों से युवा दखल का प्रकाशन कर रही थी...ऐसे ही भोपाल से दस्तक और उज्जैन से भी तरकश नाम से एक-एक पत्रिका युवा संवाद की स्थानीय इकाइयाँ निकाल रही थी। पिछले राज्य सम्मलेन में हमने तय किया था कि इन सबको मिलाकर संयुक्त रूप से एक राज्य स्तरीय पत्रिका निकाली जायेगी।
अब इस योजना को मूर्त रूप दिया जा रहा है। नयी पत्रिका का नाम होगा ''युवा संवाद की दखल '' और २० पेजी इस पत्रिका का मूल्य होगा केवल ५ रूपये। पत्रिका विचार, साहित्य तथा रोज़ ब रोज़ के तमाम मुद्दों पर केंद्रित होगी।
पहला अंक २७ सितम्बर ( भगत सिंह के जन्म दिवस पर जिसे हम युवा दिवस के रूप में मनाते हैं) को प्रदेश के अलग अलग जगहों पर लोकार्पित किया जाएगा। यह अंक युवा शक्ति और परिवर्तन के सवाल पर केंद्रित होगा ।
आपके विचार और सहयोग आमंत्रित हैं.

29 अप्रैल 2009

इन्कलाब जिंदाबाद


मजदूर दिवस पर युवा संवाद का क्रांतिकारी अभिनन्दन

Discussion and Cultural evening on 1 May 2009 [Mazdoor Diwas ]

Dear Friends




Yuva Samvad Bhopal going to organized a discussion and cultural evening on 1 May 2009 [Mazdoor Diwas ] at 11 No resourse centre, Sai baba Nagar Bhopal। Sathi Yogesh Dewan will Facilitate the discussion







Discussion and cultural evening

Time…5.30 To 8 Pm
Date…1 May 2009
Place …Community centre, Sai baba Nagar Bhopal

All friends are invited to join the programme

Yuva Samvad
9425667860

भारत का मजदूर आन्दोलन : कल और आज

युवा संवाद, ग्वालिअर द्वारा आयोजित परिचर्चा

१० मई,रविवार

9425787930