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24 मई 2011

कोटड़ा, एन जी ओ, झारखंड वगैरह


संदेश और चेतावनियां
  • रामशरण जोशी

उदयपुर से करीब 130 कि.मी. के फासले पर कोटड़ा आदिवासी बाहुल्य तहसील है। इसे आदिवासी क्षेत्रों में गुजरात का प्रवेश द्वार भी कहा जाता है। करीब 30-32 वर्ष बाद फरवरी में इस तहसील की पुनर्यात्रा का मौका मिला। इस संक्षिप्त यात्रा के आरंभ में कोटड़ा के वर्तमान परिदृश्य पर एक मार्के की टिप्पणी सुनने को मिली। क्षेत्र के एक सामाजिक कार्यकर्ता का कहना था,'कोटड़ा में जो थोड़ा-बहुत विकास दिखाई दे रहा है, यह भय का परिणाम है। मेरी उत्सुकता थी, 'वो कैसे? किस प्रकार का भय? उसका सहज उत्तर था, 'जिले की नौकरशाही नक्सलवादियों-माओवादियों से आतंकित है। इसे आशंका है कि यदि इस पिछड़ी तहसील में ईमानदारी के साथ विकास-कार्य नहीं किया गया तो इस इलाके में भी लघु रूप में झारखंड-छत्तीसगढ़ पनप सकते हैं। यह संक्षिप्त कथन कई संदेशों और चेतावनियों को ध्वनित करता है।

कोटड़ा दक्षिण राजस्थान की सबसे पिछड़ी तहसील है। जंगलों, पहाड़ों और पिछड़ेपन से घिरी। कहते हैं 1857 के असफल विद्रोह के पश्चात विद्रोही वीर तात्या टोपे के साथियों ने इस क्षेत्र में शरण ली थी। अंग्रेजों के विरुद्ध थोड़ी-बहुत गुरिल्ला कार्रवाइयां भी चलती रही थीं। यह इलाका अकाल और भूख की मार सहता रहा है। आज इसका नक्शा बदला-बदला दिखाई दे रहा है।

1978 में कोटड़ा पहुंचना जंग जीतने के समान था। जिला मुख्यालय उदयपुर से तहसील मुख्यालय कोटड़ा तक की दूरी तय करने में चार-पांच घंटे लग जाया करते थे। संकरी ऊबड़-खाबड़ सड़क पर इक्की-दुक्की बसें चला करती थीं, और वो भी कमर तोड़। आज न वैसी सड़कें हैं, न हिंडोला बसें। राष्ट्रीय मार्ग-76 के बन जाने से यह यात्रा डेढ़-दो घंटों में सिमट गई है। छह लेन है यह मार्ग। उदयपुर से 50-60 कि.मी. फासले पर देवला पड़ता है। वहां से कोटड़ा के लिए असली सफर शुरू होता है। अब यह मार्ग भी चौड़ा और डामर युक्त है जिस पर लग्जरी बसें, कारें, बड़ी जीपें, मोटर बाइक जैसे वाहन आपके स्थाई सहयात्री बन गए हैं। अब यह मार्ग उपभोक्ताओं के लिए है, न कि पैदलचियों, गाड़ीवानों, साइकिल सवारों और वनवासियों के लिए।

अब पहाड़ नंगे दिखाई दे रहे हैं। उनकी पीठ पर उभरी छिलाइयां उपभोक्ता सभ्यता की हिंसक भूख की कहानियां कह रही हैं। कभी इन पहाड़ों पर हरियाली छितराई हुई थी। पर अब 'जल-जंगल-जमीन के लुटेरों ने इसे पीड़ा से भर दिया है। 'आज ने 'बीते कल को गति से तो समृद्ध किया है, लेकिन इसका काफी कुछ हर भी लिया है ताकि 'आने वाला कल भौतिक रूप से समृद्धतर हो सके। फिर यह अहसास उभरता है कि कोटड़ा—झाड़ोल के जन-जल-जंगल-जमीन 'कल से कल तक की यात्रा से गुजर रहे हैं; इस संक्रांति काल की बिवाइयों से मुक्ति नहीं; ये अपरिहार्य हैं। फिर यह अहसास आपको 'विस्तार से जोड़ देता है। इस विस्तार में दंतेवाड़ा भी समाया हुआ है और झारखंड भी। एक पल में मैंने उन तमाम आदिवासी अंचलों की यात्रा कर डाली जहां आधुनिक राज्य ने कारपोरेट घरानों को जन-जल-जंगल-जमीन को रौंदने की छूट दे दी है या देने की प्रक्रिया में है। विकास अपरिहार्य है, पर इसका मूल्य कौन चुकाए? विकास का रूप कैसा हो? ये प्रश्न तो अभी अनुत्तरित हैं।

इन प्रश्नों के बीच एक सुखद अहसास भी होता है। मैं देख रहा हूं स्कूली पोशाक में बच्चे-बच्चियां टापरों से निकल रहे; हल्के बस्ते हवा में उड़ रहे हैं। यह दृश्य शृंखला का रूप ले लेता है और ताजा 'उपलब्धि की मेंट्री रास्ते भर करता है। 'उपलब्धि इसलिए कि सातवें दशक के अंतिम पहर में ऐसा दृश्य दुर्लभ था। बच्चे थे, पर नंग-धड़ंग। अपवाद स्वरूप ही किसी बच्चे को स्कूली पोशाक में देखा होगा। टापरा में टाबर (बच्चे) थे, पर स्कूल गुम था। आज टापरा हैं, टाबर हैं और स्कूल हैं। स्कूल जाती टोलियों में लड़कों के साथ लड़कियां भी शामिल हैं। भीलों में लड़कियों का स्कूल जाना किसी ऐतिहासिक यात्रा से कम नहीं है।

उदयपुर स्थित स्वयंसेवी संस्था (एन.जी.ओ) 'आस्था के निमंत्रण पर कोटड़ा जाना हो रहा है। आदिवासी विकास मंच द्वारा आयोजित 'आदिवासी वार्षिक सम्मेलन में शामिल होना है। इस निमंत्रण के पीछे भी एक कहानी है। आस्था के कर्ताधर्ता भंवर सिंह और उनके साथियों का अनुरोध था कि इस वर्ष आदिवासी सम्मेलन को संबोधित करूं। इसकी वजह यह थी कि मैं इस क्षेत्र के आदिवासियों के 'चेतना निर्माण और बंधुआ मुक्ति कार्यक्रम से जुड़ा रहा हूं। यहीं मैंने बंधक श्रमिक शिविर में अपनी चर्चित चेतना निर्माण एक्सरसाइज—'आओ शिकार करें, आओ नया गांव बसाएं को ठेठ देसी उपकरणों व प्रतीकों के माध्यम से विकसित किया था। भंवर सिंह और उनके साथियों ने बताया कि उन्होंने भीलों में जागृति पैदा करने के लिए इस एक्सरसाइज का खूब प्रयोग किया है। इस खेल को मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड और राजस्थान के अन्य क्षेत्रों में भी खिलाया गया है। (विस्तार के लिए देखें—आदिवासी समाज और शिक्षा; ग्रंथ शिल्पी, दिल्ली)

क्या कभी मैं कल्पना कर सकता था कि कोटड़ा के मार्ग में मोबाइल टॉवर होंगे, टीवी टॉवर होगा; कोटड़ा कस्बे की दुकानों व घरों में टीवी सेटों से चिपके हुए लोग मिलेंगे; भीलों के कानों से मोबाइल सटे होंगे; भीलनियां ठेठ देसी अंदाज व बोली में बतिया रही होंगी; जगह-जगह रेस्तरां-कम-बीयर बार (स्थानीय लोग व्यंग्य में इसे 'वसुंधरा प्याऊ कहते हैं क्योंकि वसुंधरा राजे के कार्यकाल 2003-8 में देशी-अंग्रेजी शराब के बार खूब खुले थे) उग आए होंगे; बिलायती बीयर देसी बीयर (महुआ) को डकार जाएगी; सरकारी दफ्तरों-अमलों का जाल बिछा होगा; एन.जी.ओ. की संस्कृति कोटड़ा जीवन पर अमरबेल बन फैली मिलेगी।

कोटड़ा के लिए रवाना होने से पहले उदयपुर के आस्था ऑफिस में समन्वय निदेशक भंवर सिंह से एन.जी.ओ. के रोल और कोटड़ा-कायाकल्प को लेकर लंबी चर्चा हुई थी। आस्था के संस्थापक स्व. ओम श्रीवास्तव, भंवर सिंह, आर.डी.व्यास तथा उनके कुछ अन्य साथी कोटड़ा में कार्य आरंभ करने से पहले प्रसिद्ध एन.जी.ओ. 'सेवा-मंदिर से संबद्ध थे। लेकिन मतभेद के कारण 'आस्था की स्थापना हुई थी। वास्तव में यह मतभेद एक बड़े विमर्श का आयाम लिए हुए था। मुद्दा यह था कि एन.जी.ओ. का वैचारिक व कार्य चरित्र कैसा होना चाहिए? क्या एन.जी.ओ. को यथास्थितिवादी होना चाहिए या यथास्थिति विरोधी व परिवर्तनवादी? क्या एन.जी.ओ. को प्रतिवाद व प्रतिरोध की शक्ति से लैस रहना चाहिए या अनुनय-विनय-आवेदन-समर्पणवादी होना चाहिए? क्या
एन.जी.ओ. का कार्य निर्धारित विकास तक सीमित रहे या विकास प्रक्रिया में इसे हस्तक्षेप भी करना चाहिए?
इन सवालों से मुठभेड़ के दौरान यह बात खुलकर उभरी कि अधिकांश एन.जी.ओ. यथास्थितिवादी, औपचारिकतावादी, व्यवस्था सम्मत विकासवादी, हस्तक्षेप विरोधी और सुविधावादी होते हैं। इनका अपना अलग समानांतर सत्तातंत्र होता है। यह किसी सरकारी नौकरशाही से कम नहीं होता है। इसके पदाधिकारियों का अपना एक 'ग्लैमर जगत होता है। वे अपने ग्लैमर व सुविधा तंत्र को बनाए रखने के लिए खतरों-संकटों से पलायन करते रहते हैं और समझौतावादी बनते चले जाते हैं। ओम और उनके साथियों को इस कार्य शैली से असहमति थी...और जिसका परिणाम हस्तक्षेप सफल आस्था के जन्म के रूप में निकला।

चर्चा के दौरान भंवर सिंह ने बतलाया कि उन्होंने ग्रास रूट्स पर हस्तक्षेप कितना और किस प्रकार सफल हो सकता है, इसके लिए कोटड़ा को 'परीक्षण स्थल बनाया। पहले इस क्षेत्र की समस्याओं का अध्ययन किया ;अंतर्विरोधों को चिन्हित किया; संघर्ष की रणनीति तैयार की; लोगो को संगठित किया व चेतना संपन्न बनाया; जल-जंगल-जमीन के मुद्दों पर आंदोलन हुए; सफलताएं भी मिलीं और नाकामियां भी। आस्था के नेतृत्व में कोटड़ा में ही नहीं, दक्षिण राजस्थान के अन्य क्षेत्रों में भी आंदोलन चले। आंदोलन का सिलसिला 1995 से शुरू हुआ तो आज तक चल रहा है। विगत 15 वर्षों में उदयपुर डिवीजन के विभिन्न क्षेत्रों में लोगो के शोषण, उत्पीडऩ, अन्याय व अत्याचार, सशक्तिकरण जैसे मुद्दों को लेकर बहु-आयामी संघर्ष के नियमित प्रयोग किए गए हैं।

गौरतलब यह भी है कि संघर्षों के नेतृत्व के लिए इस जनजाति के लोगों को ही तैयार किया गया। भंवर सिंह का मत था कि बाहर से आरोपित नेतृत्व की अंतर्निहित सीमाएं होती हैं। वह एक सीमा से अधिक प्रभावी व उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकता। बेहतर तो यही है कि भुक्तभोगी समाज से ही नेतृत्व पैदा हो। वही आंदोलन का परचम थामे। फिर से एन.जी.ओ. के कार्य-चरित्र की ओर लौटते हैं। भंवर सिंह के इस मत से किसे असहमति हो सकती है कि इस तरह की संस्थाएं मूलत: 'उफनते दूध में ठंडे पानी की बूंद की भूमिका निभाती हैं। सैद्धांतिक दृष्टि से इसे 'अंतर्विरोधों का डिफ्यूजन ' कहा जाता है। अर्थात् किसी समस्या या टकराव के वैज्ञानिक समाधान के बजाए उसका अधबीच में तात्कालिक हल निकालना। इससे पहले कि समस्या यथास्थिति के लिए चुनौती बने, उसके समाधान की तार्किक परिणति से उसे भटका देना। डिफ्यूजन की शैली शासक वर्ग को काफी रास आती है। स्वयं सेवी संस्थाएं शासक वर्ग के लिए एक प्रकार से अग्रिम पंक्ति के 'सॉफ्ट वेपन का रोल अदा करती हैं। इसका लाभ राष्ट्रीय और वैश्विक शासक वर्गों को मिलता भी है।

यह अकारण नहीं है कि तीसरी दुनिया में सक्रिय लाखों एन.जी.ओ. को यूरो-अमेरिकी राष्ट्रों से भरपूर मात्रा में धन मिलता है। भारत के सभी क्षेत्रों में आज एन.जी.ओ. का नेटवर्क मौजूद है। जहां इन्हें सरकार से अनुदान मिलता है, वहीं अमीर देशों में स्थित डोनर एजेंसियों से विभिन्न रूपों में फंड भी प्राप्त होते हैं। ऐसी भी संस्थाएं हैं जो सिर्फ विदेशी धन पर ही जिंदा हैं। वे सरकारी धन लेना पसंद नहीं करती हैं। पिछले कुछ वर्षों से इन संस्थाओं को भारतीय कारपोरेट हाउसों से भी धन प्राप्त होने लगा है।

इन संस्थाओं की कार्यप्रणाली को लेकर विवाद भी उठे हैं। इनके माध्यम से विदेशी शक्तियां पिछड़े देशों के 'सोशल कल्चरल-पॉलीटिकल डेटा हासिल करती हैं। इन डेटा में सामाजिक तनाव, धार्मिक व जातिगत टकराव, जनजाति अस्मिता उभार, राजनीतिक असंतोष, आर्थिक विषमता, लोगों की क्रय-विक्रय क्षमता, राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों के प्रति दृष्टिकोण जैसे बेशुमार विषय शामिल हैं। दिलचस्प तथ्य यह भी है कि वैश्विक पूंजी की एक लॉबी जहां बड़े बांधों के निर्माण का समर्थन करती है तो दूसरी लॉबी उन संस्थाओं को धन देती है जो बड़े बांधों के निर्माण के विरुद्ध आंदोलनरत हैं। सारांश यह है कि एन.जी.ओ. 'गैर-सैन्य सामरिक रणनीति का महत्वपूर्ण अंग है। यह भी सही है कि जेनुइन स्वयं सेवी संस्थाएं सकारात्मक भूमिका भी निभाती हैं। समाज की समझ को पैना करती हैं। यह सच भी है कि एन.जी.ओ. को देश की वर्तमान व्यवस्था द्वारा स्वीकृत दायरे के अंतर्गत ही अपनी कार्रवाइयां करनी होती हैं। राज्य की एन.जी.ओ. तंत्र से अपेक्षा रहती है कि यह राजनीति से स्वयं को दूर रखेगा और रचनात्मक कार्यों के माध्यम से विकास एवं परिवर्तन की गतिविधियां संचालित करेगा। वह ऐसी विचारधारा और कार्यों से दूर रहेगा जो कि प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से राजनीतिक अस्थिरता व सामाजिक असंतोष का आधार बन सकती हैं।

जाहिर है कोई भी एन.जी.ओ. राज्य का कोपभाजन बनना नहीं चाहेगा। यदि वह ऐसा करता है तो उसके आर्थिक स्रोत (देशी व विदेशी) प्रभावित हो सकते हैं। अत: तयशुदा दायरे के भीतर रह कर ही एन.जी.ओ. काम करते हैं। जब तक वे ऐसा करते हैं देश का शासक वर्ग निश्ंिचत रहता है। जब वे अपनी सीमा लांघने लगते हैं
तब इस वर्ग को बेचैनी होती है। जाहिर है जो रेडिकल एन.जी.ओ. होते हैं वे शासक वर्ग की सीमा को तोड़ेंगे भी। उनकी कोशिश रहेगी राज्य के चरित्र के रेडिकल बदलाव की, एक समतावादी व्यवस्था व परिवेश के निर्माण की। वे अपने संघर्ष, अपनी गतिविधियों को उस छोर तक पहुंचा भी देते हैं जहां से रेडिकल राजनीति की यात्रा शुरू होती है। यह व्यापक आयाम वाली यात्रा होती है। बुनियादी मुद्दा यह है कि एन.जी.ओ. को राज्य व्यवस्था के 'अनौपचारिक अंगÓ के रूप में ही क्यों काम करना चाहिए? जब एन.जी.ओ. जल-जंगल-जमीन, शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, स्त्री सशक्तिकरण, रोजी-रोटी अधिकार, असंगठित श्रमिक, बाल श्रमिक, न्यूनतम मजदूरी, मानव अधिकार, दलित व आदिवासी सशक्ति-करण, भूमि सुधार, बहुराष्ट्रीय निगमों का विरोध, वैश्वीकरण विरोधी आंदोलन, सांप्रदायिकता विरोधी अभियान, फासीवाद विरोधी अभियान, जैसे सरोकार वाले क्षेत्रों से जुड़ेगा तो उसे इन व्याधियों के कारणों की गहराई में उतरना ही होगा। उसे 'कारण और प्रभावÓ के अंतर्संबंधों को समझना ही पड़ेगा। किसानों की आत्महत्या के मूल कारणों को समझे बगैर कोई एन.जी.ओ. अपने काम के साथ कैसे न्याय कर सकता है? जल-जंगल-जमीन की लुटाई कौन कर रहा है?, इससे किसे फायदा पहुंच रहा है?, खनिज संपदा के अवैध दोहन को किसका संरक्षण प्राप्त है?, इन सवालों से एन.जी.ओ. को टकराना ही पड़ेगा। जब वह इनसे टकराएगा तब सत्ता प्रतिष्ठान के छोटे-बड़े कारिंदों से मुठभेड़ें अपरिहार्य हैं। ऐसा करने से एन.जी.ओ. को अपने जन सरोकारों के साथ न्याय करने का सुखद संतोष जरूर प्राप्त होगा। राज्य का गुस्सा उस पर नहीं टूटेगा, इससे इंकार नहीं है। लेकिन किसी स्तर पर वह बदलाव का वाहक बनेगा, क्या यह कम है?

जब इस अनौपचारिक संवाद की गहमा-गहमी से ध्यान छिटक कर सामने की तरफ गया तो देखा मैदान पर आदिवासी परिधानों का बसंत उतर आया है। औरतों ने मरदों को तादाद में मात दे रखी है। इन औरतों का उत्साह देखते ही बनता है। मैं अपनी पहली यात्रा की स्मृतियों की आहट सुन रहा हूं। 32 वर्ष पहले इनकी काया कपड़ों से इतनी लकदक नहीं हुआ करती थी। तन पर फटे-पुराने कपड़े रहा करते थे। औरतों में इतना चमक धमक नहीं था। उभरते बाजार का प्रभाव साफ झलकता है। मरदों की देह-भाषा भी बाजार-प्रभावों की गवाही है। युवकों की कलाइयों पर घडिय़ां हैं। पहले इनकी काया पर परंपरागत गोदन प्रमुखता से हुआ करते थे। अब रागदरबारी के छैलाओं की झलक देखी जा सकती है। शहरी बनने की होड़ में वे शामिल दिखाई देते हैं। आइए, इस मानवता को और समीप से देखते हैं। इस दृश्य के नेपथ्य में भी झांकते हैं। क्या यथार्थ इतना ही सुंदर-सफल-शाइनिंग है, इसे भी तो समझ लें। कोटड़ा बाजार से इस सम्मेलन-स्थल की ओर आ रहा था, तब एक भफल बालक टकराया। मेरे साथ उदयपुर से प्रकाशित समता संदेश के संपादक हिम्मत सेठ भी थे। बालक की आयु 10-12 वर्ष की रही होगी। वह कोटड़ा तहसफल के किसी गांव का था। सिर पर बोझ था, सामान की गठरी रखी हुई थी। नंगे पांव था। आधा जिस्म लगभग उघड़ा हुआ। आंखें धंसने को तैयार थीं। हमसे रहा नहीं गया। चलते-चलते कुछ पूछ ही लिया। उसने भयमिश्रित भाव से अपनी छोटी-मोटी कहानी यूं रखी, अपनी बोली मेें : ''मेरा नाम रमेश है। मैं यहां एक दुकानदार के यहां काम करता हूं। सुबह आठ बजे से रात के नौ बजे तक काम करता हूं। सेठ का सामान ढोना पड़ता है। कोई छुट्टïी नहीं होती है। स्कूल नहीं जा सका। मजूरी से अपना और माता-पिता का पेट पालता हूं। सेठ मुझे दिन में खाना देता है। चाय पिलाता है और 20 रुपए रोजाना देता है। मेरे जैसे कई टाबर (बच्चे) कोटड़ा में काम करते हैं।''

इस कहानी के साथ-साथ 'बाल श्रम' की एक और कहानी का भी पता चला। कोटड़ा कस्बा 'काली सिंध' नदी के किनारे बसा हुआ है। यह नदी कोटड़ा और गुजरात के बीच बहती है। मफलों बहकर यह नदी साबरमती में समा जाती है। सीमांत क्षेत्र होने के कारण गुजराती भाषा की छाप यहां देखी जा सकती है। गुजरात नंबर प्लेट के अनेक वाहन कोटड़ा में देखे जा सकते हैं। एक मायने में क्षेत्र के भीलों की अर्थव्यवस्था गुजरात से भी जुड़ी है। नदी के दोनों छोर के लोगों की आवाजाही रहती है। काम धंधा चलता रहता है। गुजरात में कपास की खेती प्रचुर मात्रा में होती है। कपास के फूल तोडऩे के लिए कोमल उंगलियों को काफी उपयोगी माना जाता है। जाहिर है, कपास की खेती में 'बाल श्रमिकोंÓ की काफी खपत है। इस खपत को कोटड़ा क्षेत्र के आदिवासी बाल श्रमिकों से पूरा किया जाता है। बच्चों के माता-पिता गुजरात के धनी किसानों या श्रम ठेकेदारों से अग्रिम धन ले लेते हैं और अपने बच्चों को स्कूल के बजाए उनके हवाले कर देते हैं। ऐसे बच्चों से खेतों में हाड़-तोड़ श्रम लिया जाता है। उनका बचपन, किशोरपन जल्द ही लुप्त हो जाता है।

सम्मेलन में मौजूद जिलाधीश ने इस बाल श्रम के बारे में स्वीकार भी किया। उन्होंने यह भी बतलाया कि इसकी रोकथाम के कई उपाय किए गए हैं। लेकिन धनी किसान व ठेकेदार भी कम चालाक नहीं हैं। उन्होंने सस्ती दरों पर बाल श्रम का शोषण जारी रखने के लिए ऐसी तरकीब ईजाद की है कि हमारा प्रशासन भी लाचार है। अब ये किसान गरीब भफलों से कोटड़ा में ही कपास की खेती करवाते हैं। भफलों के खेतों को इस्तेमाल में लाया जाता है। जब कपास की फसल तैयार हो जाती है तब आदिवासियों के बच्चों को इस काम में जोत दिया जाता है। अपने ही खेत पर काम करने से बच्चे को कैसे रोका जा सकता है? इस प्रकार 'बाल श्रमÓ इस क्षेत्र में मौजूद है। फिर भी प्रशासन इस नई समस्या के हल का उपाय भी तलाश रहा है। जिलाधीश ने चर्चा में यह भी माना कि इस क्षेत्र में स्कूलों की हालत ठीक नहीं है। शिक्षक गायब रहते हैं। वैसे 51 फीसदी शिक्षकों और 25 फीसदी प्रिंसीपलों का अभाव इस इलाके में है। इस जानकारी से सतह के नीचे की सच्चाई स्वत: स्पष्ट है। जहां 'बाल श्रमिक' हैं, वहीं 'ड्राप आउट' भी रहेंगे ही। दोनों समस्याओं का संबंध निर्धनता व लाचारी से है।

1978 में कोटड़ा और झाड़ोल क्षेत्रों में 'हाली प्रथा' (बंधक श्रमिक प्रथा) काफी प्रचलित थी। राष्ट्रीय श्रम संस्थान द्वारा आयोजित 'चेतना निर्माण शिविर' में 50-60 हालियों ने भाग लिया था। वे महाजनों, सूदखोरों, जमींदारों के बोझ तले दबे थे। क्षेत्र में काफी भूमिहीनता थी। विभिन्न हथकंडों से गैर-आदिवासियों के हाथों में भफलों की भूमि खिसक जाया करती थी। आज इस स्थिति में सुधार माना जाता है। हाली प्रथा पर अंकुश लगा हुआ हैपर यह पूरी तरह समाप्त नहीं हो पाई है। घंटों चले इस सम्मेलन में आदिवासियों ने मंच से अपने शोषण के नए-नए रूपों की शिकायतें भी सामने रखीं। इन शिकायतों में वन अधिकार कानून, 2006 व 2008 के क्रियान्वयन में व्याप्त भ्रष्टाचार; आदिवासियों को वनभूमियों का पट्टïा न देना; लघु वन उपजों पर डाका; बाहरी ठेकेदार व्यापारियों व कर्मचारियों द्वारा लूट-खसोट; मिलीभगत से कृषि व वन उपज का कम मूल्य लगाना; महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण गारंटी रोजगार योजना में व्याप्त फर्जीवाड़ा व भेदभाव; सार्वजनिक वितरण प्रणाली का दुरुपयोग; दबंगों द्वारा इसका दोहन और गरीबों को लाभ से वंचित रखना; राशन कार्डों में मनमानी व घूसखोरी; प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से डॉक्टरों और स्कूलों से शिक्षकों का गायब रहना; स्कूल भवनों की कमी; फॉरेस्ट गार्ड, सिपाही, राजस्व अधिकारी का आतंक; स्वच्छ पेय जल की कमी; लिंक रोड का अभाव; अंधाधुंध शराब बिक्री; नशीले पदार्थों का बोलबाला; ऋण ग्रस्तता व सूदखोरी; काम का अभाव जैसी पीड़ाएं शामिल हैं।

सम्मेलन में आदिवासियों की आत्मलोचनात्मक दृष्टि के भी दर्शन हुए। जहां प्रतिभागियों ने शासन-प्रशासन की तीखी आलोचना की, वहीं अपने समाज में व्याप्त बुराइयों को लेकर समाज-नेतृत्व की भी खिंचाई की। इन बुराइयों में बहुपत्नी प्रथा, बाल-विवाह, डाकण-डायन, चुड़ैल, स्त्रियों का शोषण, मौताणा (किसी के असामयिक ढंग से मरने पर सामूहिक भोज लेना), शराब खोरी, दापा (वधू मूल्य), अशिक्षा व अन्य पिछड़ापन जैसी घटनाएं शामिल हैं। 1978 के चेतना शिविर में भी आदिवासियों ने अपने आंतरिक (समाजगत) और बाहरी शत्रुओं की पहचान की थी। संतोषजनक बात यह है कि यह चेतना जीवित ही नहीं है बल्कि इसमें नए आयाम भी जुड़े हैं।

सरकार और योजना चिंतकों को याद रखना चाहिए कि विगत तीन दशकों में विकास एवं आधुनिकीकरण के पैमाने बदले हैं। इस क्षेत्र के उत्पीडि़त लोगों में नई चेतना व आकांक्षाएं अंकुरित होने लगी है। अब ये अपने परिवेश जगत की शहरी जीवन से तुलना करने लगे हैं। 1978 में आज जैसी कई शिकायतें और मांगें नहीं थीं। पीड़ाएं सीमित थीं। पर आज ऐसा नहीं है। इनमें विवेचनात्मक व तुलनात्मक बोध जन्मा है। यह एक सकारात्मक परिणाम है। इसके साथ ही यह एक सार्विक प्रक्रिया भी है। इस प्रक्रिया के प्रभावों को छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, महाराष्ट्र जैसे राज्यों के दूर-दराज आदिवासी अंचलों में भी देखा जा सकता है। निस्संदेह इस क्षेत्र के आदिवासियों की तुलना में झारखंड, उड़ीसा, बस्तर जैसे इलाकों के आदिवासियों का शोषण-उत्पीडऩ कई-कई गुना अधिक है। वहां खनिज व वन संपदा का दोहन भी निर्ममता के साथ हुआ है इसीलिए वहां अंतर्विरोध अधिक गहरे व पैने हैं। यही कारण है कि वहां अंतर्विरोधों के वैज्ञानिक समाधान के लिए संघर्ष भी है। वहां के अरण्य सुलगे हुए हैं। पर यहां शांत हैं। लेकिन ये कभी अशांत नहीं होंगे, यह कौन दावा कर सकता है।

समयांतर से साभार

31 अक्टूबर 2010

बेचारे गरीब नेता!

निर्धन देश के धनवान सांसद


संतोष खरे
केंद्र सरकार ने सांसदों का वेतन तीन गुना से भी अधिक कर दिया है अब प्रत्येक सांसद 50 हजार रुपये वेतन के रूप में तथा उनके कार्यालय और चुनाव क्षेत्र का भत्ता 45 हजार रूपये साथ ही 10 हजार (कर रहित) संसदीय क्षेत्र का भत्ता दिया जायेगा। उनकी पेंशन की राशि भी बढ़ाकर 20 हजार रुपये कर दी गई है इसके अलावा अन्य सुविधायें जैसे निजी वाहन खरीदने के लिये मिलने वाला ब्याज मुक्त कर्ज चार लाख रुपये तक, सड़क से यात्रा करने पर 16 रुपये प्रति किलोमीटर की दर से, सांसद महोदय की पत्नी या पति अब जितनी बार चाहें एक्जीक्यूटिव श्रेणी से नि:शुल्क विमान यात्रा कर सकते हैं। सांसदों की सुविधा के लिये सरकार दो रुपये में चार चपाती, ढ़ाई रुपये में सादा डोसा, दो रुपये मे भरपेट चावल (बासमती या अच्छे ब्रांड के) बारह रुपये पचास पैसे में चार पांच सब्जी, रायता, रसम और मिष्ठान के साथ मिलने वाली शाकाहारी थाली प्रतिदिन संसद के शानदार भोजनालय मे उपलब्ध रहती है। (भले ही 20 रुपये रोज पर गुजर करने वाली सामान्य जनता साधारण से ढाबे पर इस कीमत पर भोजन प्राप्त न कर सके ) एक अनुमान के अनुसार भारत सरकार प्रति सांसद प्रतिवर्ष लगभग 57 लाख रुपये खर्च करती है।

सांसदों के वेतन भत्ते बढऩे के पीछे सांसदों का कड़ा संघर्ष है जब संसद के केंद्रीय कक्ष में स्वघोषित लालू प्रसाद यादव प्रधानमंत्री, गोपीनाथ मुंडे स्पीकर और मुलायम सिंह यादव संसदीय कार्यमंत्री बने तथा सदन स्थगित होने के बाद इन नेताओं ने अपनी मर्जी से सदन चलाना शुरू कर दिया और लगभग 70 मिनट तक ‘समानांतर संसद’ चलाई तब वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी को मजबूर होकर आश्वासन देना पड़ा कि सांसदों के वेतनवृद्धि के मसले पर पुर्नविचार किया जायेगा तथा पुर्नविचार किया भी गया और दस हजार रुपये मासिक करमुक्त भत्ता स्वीकृत किया गया। यह कुछ उसी तरह हुआ जैसे किसी औद्योगिक संस्थान की ट्रेड यूनियन हड़ताल कर अपनी मांगें मनवा लेते हैं। यह बात अलग है कि सांसद लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के अंर्तगत निर्वाचित प्रतिनिधि होते हैं जबकि कोई भी सचिव या शासकीय कर्मचारी का निश्चित सेवाकाल होता है तथा सेवा में आने के पूर्व उन्हे साक्षात्कार और योग्यताओं से गुजरना होता है वे अपने सेवाकाल में कोई निजी व्यापार अथवा आय का साधन अर्जित नहीं कर सकते, जबकि सांसदों पर ऐसा कोई नियम लागू नहीं होता। सांसद रहते हुये भी वे अपना निजी व्यवसाय/व्यापार कर सकते हैं और नं.2 की कमाई करने के स्रोतों की तो बात ही मत करिये। पैसे के बदले प्रश्र पूछने का घपला कोई बहुत पुराना नहीं है। ऐसी स्थिति में सांसद न रहने के बाद बीस हजार रूपया प्रतिमाह पेंशन लेने के औचित्य पर यदि देश की जनता प्रश्न चिन्ह लगाती है तो उसे गलत कैसे कहा जा सकता है!


लोकसभा में छद्म प्रधानमंत्री बनने के बाद लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव आदि ने एक और मांग की थी कि उन्हें करमुक्त वेतन दिया जाना चाहिये किंतु उनकी मांग को स्वीकार नहीं किया गया। सरकार ने शरद यादव के इस सुझाव को भी स्वीकार किया कि सांसदों के वेतन भत्ते निर्धारित करने के लिये अलग से समिति का गठन किया जाना चाहिये, जिसमें सांसदों की कोई भूमिका न हो किंतु ऐसी समिति के गठन के पूर्व ही सरकार ने सांसदों के वेतन-भत्ते बढ़ा दिये। सरकार सांसदों के वेतन भत्ते बढ़ाने के मामले में भरपूर दरियादिली दिखाती है पर उसकी यह ‘दरियादिली’ पता नही कहां चली जाती है जब वह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई सलाह कि सरकार द्वारा खरीदे गए अनाज के गोदामों की उचित व्यवस्था के अभाव में सडऩे के निकट पहुंच गए लाखों टन अनाज को गरीबों को मुफ्त या कम दाम पर दिया जाना चाहिये, को स्वीकार नहीं करती।


इस लोकसभा में तीन सौ सांसद करोड़पति हैं। आंध्रप्रदेश के कांग्रेस सांसद राजागोपाल के पास 2004 के चुनाव में नौ करोड़ 60 लाख की संपत्ति थी जो अब एक अरब 22 करोड़ हो गई। हरियाणा के कांग्रेसी सांसद नवीन जिंदल की 12 करोड़ 12 लाख की संपत्ति एक अरब 31 करोड़ हो गई है। 2004 में राहुल गांधी के पास 45 लाख की संपत्ति थी, जो 2009 में चुने जाने पर दो करोड़ 32 लाख की हो गयी। सुरेश कलमाड़ी की तीन करोड़ 94 लाख की संपत्ति 12 करोड़ 85 लाख की हो गयी। भाजपा सांसद मेनका गांधी की संपत्ति छह करोड़ 62 लाख की संपत्ति 17 करोड़ 60 लाख रुपये हो गई। लालू प्रसाद यादव की 86 लाख 69 हजार की संपत्ति तीन करोड़ 17 लाख की हो गई। शरद यादव की तीन करोड़ 27 लाख की संपत्ति आठ करोड़ 72 लाख हो गयी। यह श्रृंखला बहुत लंबी है और संक्षेप में कहा जाये तो कांग्रेस के जो करोड़पति सासंद हैं उनमें कमलनाथ, कपिल सिब्बल, श्रीप्रकाश जायसवाल, अजहरूद्दीन, मिलिंद देवड़ा, जितेन प्रसाद, शशि थरूर, महावल मिश्र, शैलजा, प्रिया दत्त, अनु टंडन और कृष्णा तीरथ हैं। भाजपा के करोड़पति सांसद यशोधरा राजे सिंधिया, सुषमा स्वराज, मुरलीमनोहर जोशी, राजनाथ सिंह, नवजोत सिंह सिद्धू, जसवंत सिंह, दुष्यंत सिंह और वरुण गांधी, सपा के करोड़पतियों में मुलायम सिंह यादव, जया प्रदा, उषा वर्मा, रेवती रमण सिंह, ब्रजभूषण दास सिंह और नीरज शेखर प्रमुख है। बसपा के सांसदों में जगदीश सिंह राणा, तबस्समु बेगम, सुरेंद्र सिंह नागर, राजकुमारी चैहान तथा भीष्मशंकर तिवारी आदि प्रमुख हैं। इसी प्रकार जनता दल यूनाइटेड, एन.सी.पी., डी.एम.के., टी.डी.पी. और बीजू जनता दल के सांसदों की संख्या कम नहीं है। कहा जा सकता है कि सभी दलों के सांसद इस मामले में एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। यह भी मानना पड़ेगा कि वेतन और भत्तो की वृद्धि के मामले में सभी दलों के सांसदों में भारी एकता है। और इसी कारण इस मामले में कम्युनिस्ट पार्टी के सांसदों को छोड़ शायद ही कोई सांसद असहमति या विरोध व्यक्त करता हो।


संसद के इतिहास में ‘छद्म लोकसभा’ पहली बार देखने-सुनने को मिली है। 70 सांसदों ने कार्यवाही में हिस्सा लिया। सांसदों की वेतन वृद्धि विधेयक पर चर्चा हुई और स्वघोषित प्रधानमंत्री ने उसे खारिज किया। देश के सामान्य नागरिक यह समझने में असमर्थ हैं कि संवैधानिक ढंग से गठित लोकसभा का अस्तित्व होने के बाबजूद छद्म लोकसभा गठित करने और इस हास्यास्पद/अवैधानिक ‘नाटक’ का क्या औचित्य था? क्या यह सदन की अवमानना नहीं थी? बजाय इसके कि इस कार्यवाही की निंदा या उपेक्षा की जाये, इससे आतंकित होकर सरकार ने उनके भत्तों की राशि में वृद्धि कर दी। आश्चर्य है कि इस असंवैधानिक, अवैधानिक, आधारहीन और हास्यास्पद कार्यवाही का किसी ने विरोध नहीं किया, उल्टे उसे गंभीरता से लिया। यह ‘छद्म लोकसभा’ यदि ‘परंपरा’ की तरह शुरू हुई तो ‘वास्तविक लोकसभा’ की गरिमा कैसे बनी रहेगी? बाद में लालकृष्ण आडवानी और सुषमा स्वराज ने भले ही इस संबंध में गोपीनाथ मुंडे से जबाब-तलब किया पर यह ‘तलबी’ इस आधार पर अधिक थी कि मुंडे ने भाजपा को लालू-मुलायम के पीछे कैसे खड़ा कर दिया? उधर राज्यसभा में अरुण जेटली ने भाजपा सांसदों से कहा कि कोई भी सांसद वेतन की मांग नहीं उठायेगा। उन्होंने तो यह भी कहा कि यदि वे वेतन की राजनीति करने आये हैं तो बेहतर होगा कि कोई और काम कर लें। सांसदों की जिनमें आडवानी, सुषमा और जेटली भी सम्मिलित हैं, वेतन भत्तों के वृद्धि स्वीकृत होने के बाद अब भाजपा के र्शीष नेताओं के द्वारा की गई यह कार्यवाही हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और की तरह नहीं है क्या?



सांसदों की इस वेतन वृद्धि के कारण होने वाले दूरगामी प्रभावों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिये। उपरोक्त वेतन वृद्धि के तत्काल बाद किसी आयोग के सदस्यों ने यहां मांग की है कि उनको मिलने वाले पारिश्रमिक में भी वृद्धि होनी चाहिये। इस तरह की मांग उठाना अस्वाभाविक नहीं। यदि सांसदों की तीन गुने से अधिक वेतन वृद्धि हो सकती है तो औरों की क्यों नहीं? अब तो यह भी संभावना है कि सांसदों की देखा-देखी विधायकों, पंचायतों के सदस्य, नगरपालिकाओं के पार्षद, सहकारी समितियों के सदस्य तथा अन्य सरकारी, अद्र्धसरकारी या स्वायत्त संस्थाओं के सदस्य इसी तरह की मांग उठाने लगेंगे। दिल्ली में तो यह हो भी गया है। उस स्थिति में सरकार क्या करेगी? उस दशा में करो का बोझ बढ़ता जायेगा। निर्वाचित सदस्य वे चाहे सांसद, विधायक, पार्षद, पंचायतों के सदस्य आदि कोई भी हो, है तो जनप्रतिनिधि, जिनका मुख्य कार्य जनसेवा है। जनसेवा के साथ ऊंचा पारिश्रमिक कहां तक उचित कहा जा सकता है? जन सेवक कोई वेतनभोगी कर्मचारी में अंतर होता है। गांधी, नेहरू, शास्त्री के जमाने में इस तरह सरकारी धन की बंदरबांट कभी नहीं हुई। यही कारण है कि जब जनप्रतिनिधि स्वयं के लिये वेतन या पेंशन वृद्धि की मांग करते हैं या अधिक सुविधायें चाहते हैं और सरकार उन्हें स्वीकार करती है तो जनता प्रकट में भले ही कुछ न कहे पर उसके मन में उनके खिलाफ असंतोष उपजता है। जनता अपने स्तर पर यही कर सकती है कि अगले चुनाव मे ऐसे ‘लालची नेताओं’ को वोट न दे। पर बिडंबना यह है कि जहां लोकसभा में आधे से अधिक सांसद अपराधी या दागी हों और जो चुनाव जीतने की कला में माहिर हों उनसे देश की जनता किस तरह निपटेगी?



इन पंक्तियों के लेखक ने ‘समयांतर’ (अक्तूबर 2006) मे एक आलेख ‘कितने लाभ लेगे सांसद?’ के माध्यम से यह आशंका व्यक्त की थी कि ‘कानून के निर्माताओ के द्वारा स्वयं के लिये मनमाने ढ़ंग से वेतन या पेंशन बढ़ाने या अन्य सुविधाओ के लिये कानून बनाने की प्रक्रिया पर यदि न्यायालयों के द्वारा रोक नहीं लगाई गई तो इस शक्ति का दुरूपयोग होता रहेगा’………और यह सच्चाई अब सामने आ गई है। सरकार कानून बनाने की शक्तियों का खुला दुरुपयोग कर रही है। स्वंतत्रता के 63 वर्षों के बाद क्या इस देश के लोकतंत्र का यही अर्थ रह गया है?

01 अक्टूबर 2009

हिंद स्वराज के बहाने गांधीवाद की खोज

(यह लेख पहले अर्थात पर लगाया था . अब गांधी जयन्ती पर यहाँ भी )

‘‘ गांधी का आध्यात्मवाद बहरहाल हिंदू पुनरुत्थानवाद के साथ ही मेल खाता है। अतः यह राजनैतिक अलगाववाद की ओर ले जायेगा। आध्यात्मवाद राजनीति में धार्मिक वातावरण, हठधर्मिता तथा आनुष्ठानिकता का पुनर्सृजन करता है। यह धर्मतंत्र की वापसी है तथा यह एक से अधिक धर्मों को मानने वाले देश के लिये दोहरा खतरा पैदा करता है।’’प्रो बेनी प्रसाद, हिंदू-मुस्लिम क्वेश्चन, किताबिस्तान, 1941 इलाहाबाद



मोहनदास करमचंद गांधी भारतीय सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य का एक महत्वपूर्ण , अविभाज्य और लगभग मिथकीय हिस्सा है। देश के स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भूमिका तो महत्वपूर्ण रही ही है, स्वातंत्रयोत्तर भारत में भी उनका नाम अक्सर राजनैतिक धाराओं-प्रतिधाराओं के लिये अपने विचारों को सही प्रमाणित करने के लिये अदालत की उस गीता /कुरान की तरह काम करता है, जिन्हें गंभीरतापूर्वक पढने या पुर्नव्याख्यायित करने की जगह पवित्र कपड़ों में लपेट कर रखा जाना बेहतर समझा जाता है। यह अकारण भी नहीं है। ‘गांधीवाद’ की कोई ऐसी विस्तृत सैद्धांतिकी गांधी ने नहीं लिखी जिसमें उस सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक नियमन का कोई विस्तारित और तार्किक ढांचा प्रस्तुत किया गया हो या जिसके आधार पर एक नयी तथा बेहतर व्यवस्था का निर्माण हो सके। अखबारों में लिखे तमाम छोटे-बडे आलेखों, गीता माता, अनासक्ति योग, सत्य के प्रयोग, हिन्दु धर्म जैसी किताबों के बीच अपने राजनैतिक जीवन के बिल्कुल आरंभिक दौर में लिखी ‘‘हिन्द स्वराज’’ ही एकमात्र ऐसी किताब है जिससे उनकी वैचारिक स्रोतों का पता चलता है। आज आजादी के बासठ वर्षों बाद और इस किताब के प्रकाशन के सौ वर्ष पूरे होने पर भूमण्डलीकृत सामाजार्थिक परिवेश में इसका पुनर्मूल्यांकन, दरअसल , गांधी की भूमिका तथा उनके प्रभामंडल मे पनपे प्रभावों का भी अध्ययन तथा पुनर्मूल्यांकन है।



यह पूरी किताब गुरु-चेला संवाद के रूप में लिखी गयी है- जाहिर है गांधी यहां गुरु के रूप में हैं ( वस्तुतः संपादक) और उनके विचारों पर शंका करने वाले शेष सभी जन उद्दण्ड एवं शंकालु शिष्य (पाठक) के रूप में। )महेश गवास्कर इसे धार्मिक प्रवचन की प्रचलित परम्परा से जोडकर देखते हैं और इस रूप में ’’कृष्णार्जुन संवाद’’ तथा ‘‘उन्नीसवीं सदी के इसाई मिशनरियों की धार्मिक शिक्षा की पुस्तिकाओं‘‘ के करीब पाते हैं (देखें इकोनामिक एण्ड पोलिटिकल वीकली, 5 सितम्बर-2009। पुस्तक का यह शिल्प दो बातों का स्पष्ट परिचायक है, पहला तो यह कि गांधी अपने विचारों पर शंका करने वालों से बातचीत के लिये हमेशा प्रस्तुत हैं और दूसरा यह बातचीत बराबरी के स्तर पर नहीं हो सकती - शंकालु हमेशा निचली सीढ़ी पर ही बैठेगा। दरअसल आगे हम देखेंगे कि गांधी का पूरा राजनैतिक-आर्थिक-सामाजिक दर्शन इसी सूत्र से संचालित होता है ‘‘जहां वह अंततः एक ऐसा तानाशाह के रूप में सामने आते हैं जो विरोध बर्दाश्त नहीं कर सकता।’’ (देखें आर सी मजूमदार, हिस्ट्री आफ दि फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिया, पेज 22)



मै शुरुआत उनके आर्थिक विचारों से करुंगा। गांधी मशीनों के खिलाफ थे यह एक सुपरिचित तथ्य है और चरखे के प्रति उनका अतिमोह भी ( वैसे इसी किताब की प्रस्तावना में मिडलटन का जिक्र है जो कहते हैं कि ’’गांधी जी अपने विचारों के जोश में यह भूल जाते हैं कि जो चरखा उन्हें बहुत प्यारा है वह भी एक यंत्र है और कुदरत की नहीं इंसान की बनाई हुई एक अकुदरती- कृत्रिम चीज़ है।’’) लेकिन यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि इसका उत्स कहां है? गांधी का असल विरोध आधुनिकता से था। यह विरोध इतना प्रखर और इतना अंधा था कि वह आगे बढ़कर स्कूली शिक्षा और आधुनिक चिकित्सा का भी विरोध करते हैं। यह विरोध इस हद तक था कि गुजरात में प्लेग फैलने पर उन्होंने सलाह दी कि लोग ‘‘प्रकृति के कार्य में हस्तक्षेप न करें और चूहों तथा मक्खियों को न मारें और अपने आश्रम में चेचक फैलने पर टीकाकरण को गोमांस खाने के बराबर बताया’’ (देखें गांधी आर गांधीज्म , बी आर अंबेडकर )! इस आधुनिकता के विरोध की असली वजह है उनके भीतर कूट-कूट कर भरा यथास्थितिवादी और वर्णवाद समर्थक मानस। इस विरोध के आध्यात्मिक चोले के अन्दर उनका स्त्री, दलित और मज़दूर विरोधी चेहरा बार-बार आता है। विठ्ठल भाई पटेल के जीवनीकार गोरधन भाई पटेल ने लिखा है कि ‘‘जब 1918 में विठ्ठल भाई ने जातिप्रथा विरोधी विधेयक पेश किया तो गांधी ने उसका विरोध किया’’ ( यहां यह बता देना जरूरी है कि जिन्ना ने इस बिल का समर्थन किया था)। गोरधन भाई का निष्कर्ष है कि ’’कम से कम जाति व्यवस्था के मामले में तो गांधी पूरी तरह पुराणपंथी थे ( देखें, विठ्ठल भाई पटेल-लाईफ एन्ड टाईम्स)।’’ इस किताब (हिन्द स्वराज) के पेज़ 39 पर पश्चिमी सभ्यता में औरतों के काम पर जाने की आलोचना करते हुए वह कहते हैं कि ’’जो स्त्रियां घर की रानी होनी चाहिये, उन्हें गलियों में भटकना पडता है।़़’’ यह साफ़ तौर पर औरतों के काम करने का विरोध और उनके घर की सीमाओं के भीतर क़ैद का समर्थन है, चाहे शब्दावली कितनी भी दयालु क्यों न हो। यही नहीं , पार्लियामेंट के विरोध में उन्होंने जिस बांझ और बेसवा (वैश्या) की शब्दावली का प्रयोग किया है वह भी उनके इसी स्त्री विरोधी मानस का परिचायक है। आगे वह ‘बेसवा’ शब्द की विवेचना करते हुए कहते हैं कि वैश्या वह जिसका कोई मालिक नहीं होता या जो एक मालिक के होने पर भी एक सरीखी चाल नहीं चलती- साफ है कि औरत का मालिक किसी पुरुष का होना जरूरी है।


शिक्षा के प्रति उनका नज़रिया उनके यथास्थितिवाद को और स्पष्ट कर देता है। पेज़ 58 पर वह कहते हैं कि ‘‘हज़ारों साल पहले जैसी हमारी शिक्षा थी वही चलती आयी। सब अपना-अपना धंधा करते रहे।’’ यह अपना अपना धंधा क्या था और क्या थी वह हजार साल से चली आ रही शिक्षा? जिसमें कि दलित को हमेशा ही शिक्षा से वंचित रहना था और ब्राह्मणों को सदा ही बिना हाथ-पांव हिलाये भोजन पाना था ( आगे की पंक्तियों में उन्होंने इस हाथ-पांव हिलाने के काफी गुणगान किये हैं।) गांधी जी को इस अपने-अपने धंधे में कोई सड़ांध नहीं आती, कोई विरूपता नहीं दिखती। जबकि अंबेडकर साफ़ देख पा रहे थे कि यह न केवल उत्पीड़क था अपितु श्रम नहीं ‘‘श्रमिकों का विभाजन’’ था। आगे उनका मंतव्य और साफ़ होता है। पेज 79-80 पर वह लिखते हैं कि ’’एक किसान जिसे मामूली तौर पर व्यवहारिक ज्ञान है उसे अक्षर ज्ञान देकर आप क्या करना चाहते हैं? उसके सुख में आप कौन सी बढ़ती करेंगे? क्या उसकी झोपडी या उसकी हालत के बारे में आप उसके मन में असंतोष पैदा करना चाहते हैं?’’ यह है ग़रीब किसानों और मजदूरों के प्रति उनका प्रेम जो कालांतर में ट्रेड यूनियन आंदोलनों से उनकी नफरत के साथ मिलकर उनके कुटिल यथास्थितिवाद का आख्यान गढ़ता है जिसमें एक शिक्षाहीन किसान को हमेशा वैसा ही बना रहना है और साधन संपन्नों को भी।
यही यथास्थितिवाद उनके आर्थिक चिंतन के मूल में है। वह मशीनों के विरोध में इसलिये हैं कि कहीं उस समय की सामंती व्यवस्था पश्चिम के रिनेसां की तार्किकता वाले पूंजीवाद में रूपांतरित न हो जाये। ठीक वैसे ही जैसे बाद में उन्होंने समाजवादी चेतना से लैस किसानों और मजदूरों के आंदोलनों का विरोध किया कि कहीं समाजवाद पूंजीवाद को प्रतिस्थापित करने मे सफल न हो जाये। यही वजह है कि मशीनों को सारे दुर्गुणों का जड़ बताने के बाद भी मिलों को बंद करने के सवाल पर वह कहते हैं कि ‘‘जो चीज़ स्थायी और मजबूत हो गयी है उसे निकालना मुश्किल है। इसीलिये काम शुरु न करना पहली बुद्धिमानी है। मिल मालिकों की ओर हमें नफरत से नहीं देखना चाहिये।’’ साथ ही वह मिलें खत्म करने का रास्ता बताते हैं कि ’’मिल मालिकों को समझाया जाये कि वे खुद अपना काम धीरे-धीरे कम कर दें।’’ हालांकि इतिहास इस बात की कोई गवाही नहीं देता कि गांधी ने कभी अपने बजाजों या टाटाओं को यह समझाया हो या मिलों को बाहर करने के लिये कोई सत्याग्रह चलाया हो।



यही नहीं, वह अपनी बात को साबित करने के लिये मनगढं़त तथा झूठे तथ्य भी पेश करते हैं जैसे वह कहते हैं कि पहले लोग खुली हवा में जितना ठीक लगे उतना काम करते थे (पेज 39), जब मिलों की वर्षा नहीं हुई थी तो औरतें भूखे नहीं मरती थीं (पेज85) आदि-आदि। इतिहास और अर्थशास्त्र का मामूली विद्यार्थी भी यह जानता है कि अपनी तमाम कमज़ोरियों के बावज़ूद औद्योगीकरण ने लोगों के जीवनस्तर में बढोत्तरी की है और भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था और सामंती शासन में ग़रीब और दलित तबका अपनी मर्जी से खुली हवा में नहीं बल्कि अपने प्रभुओं की मर्जी से नारकीय स्थितियों में गुलामों की तरह काम करता था। साथ ही उस दौर में स्त्री की पराधीनता तथा शोषण अपने चरम पर पर यथास्थितिवाद के चश्में से उन्हें भारत के इतिहास का सब अच्छा लगता था यहां तक कि सामंती शासन भी!



यह सच है कि इस किताब में एकाधिक बार उन्होंने उन तत्कालीन सामंती शासकों की भत्र्सना की है जो अपनी प्रजा को कष्ट देते थे परंतु यह भी सच है कि वह अंततः ऐसी ही अधिनायकवादी व्यवस्था के समर्थक थे। ब्रिटिश पार्लियामेन्टरी शासन व्यवस्था के विरोध का अपना कारण उन्होंने बताया कि वह इसलिये बुरी है ( इस संदर्भ में उनके द्वारा प्रयुक्त शब्दावली मैं पहले बता चुका हूं) कि उसका कोई एक मालिक नहीं होता। इसी क्रम में वह आगे कहते हैं कि ’’ज़्यादा लोग जिस बात को कहें उसे थोड़े लोगों को मान लेना चाहिये यह तो अनीश्वरी बात है, एक वहम है।’’ क्या अर्थ निकलता है इसका? स्पष्टतः यह कि पहला तो जो राज्य व्यवस्था हो उसका मालिक एक हो और वह उसके हिसाब से सीधी राह चले ( हिन्दुस्तानी संदर्भ में पति के आदेश पर चलने वाली एक संस्कारी पत्नी ) और दूसरा, उस पर बहुमत का निर्णय मानने की कोई बाध्यता न हो! यह है गांधी का आदर्श स्वराज - जिसमे अदालतें नहीं होंगीं, होंगी तो पुराने ढंग की (पेज 89)। निश्चित तौर पर यह एक अधिनायकवादी, धर्म संचालित, वर्णव्यवस्था आधारित राज्य व्यवस्था का प्रस्ताव है- जहां शिक्षा भी सीमित और ऐसी ही पुनरुत्थानवादी होगी। इस धर्म आधारित तथाकथित भारतीय सभ्यता से उनका मोह इतना गहरा है कि वह चाहते हैं कि हिंदुस्तानी इससे वैसे ही चिपके रहें जैसे मां से बच्चा (पेज 60)। इस बच्चे का बड़ा होना उनको बर्दाश्त नहीं जबकि ब्रिटिश पार्लियामेण्ट के संदर्भ में वह कहते हैं कि अगर सात सौ बरस (अब इस आंकडे़ के बारे मे क्या कहा जाये? 1909 में ब्रिटिश पार्लियामेण्ट की उम्र सात सौ बरस!) के बाद भी पार्लियामेण्ट बच्चा ही बनी रही तो बड़ी कब होगी?


अपनी बात को येन-केन प्रकारेण मनवा ले जाने के लिये वे कई बार अपनी ही बात से पलट जाते हैं। पेज़ 41 पर वह लिखते हैं कि अंग्रेजों से पहले हिन्दू-मुसलमानों में बैर था और फिर पेज़ 46 पर बताते हैं कि जब अंग्रेज हिन्दुस्तान में नहीं थे तब हम एक राष्ट्र थे और आगे पेज 49 पर लिखते हैं कि हिंदू मुसलमानों में झगड़े तो अंग्रेज़ों ने फिर से चालू करवाये, और यह इकलौता उदाहरण नहीं है।


दरअसल, अपने इस एजेंडे में गांधी का सबसे बड़ा सहारा धर्म है। इस पूरी किताब में धर्म और इश्वर इतनी बार आया है कि यह किसी राजनैतिक चेतनासंपन्न व्यक्ति की जगह किसी अधपढे़ हिंदू संत की रचना अधिक लगती है। धर्म से व्यामोह इस क़दर है कि उन्हें ’’धार्मिक ठग दुनियावी ठगों से बेहतर लगते हैं’’! और ’’धर्म के नाम पर हुई लड़ाईयों में बहा अपरिमित ख़ून सभ्यता के संकट के आगे छोटा लगता है’’। यही नहीं वह बड़े ठंढे स्वर में कहते हैं कि ‘‘जहां भोले लोग हैं वहां ऐसा ही चलता रहेगा और लोग मर गये कि सारा सवाल हल हो गया’’!! (पेज 43)। ऐसे में तो शायद मोदी पटेल की जगह गांधी को अपना नायक मानने में जरा भी नहीं झिझकें।


धर्म की यह पवित्र चादर उन्हें वह सब कहने की इज़ाज़त देती है जिसे अन्यथा कहने पर उस समय भी उन्हें खारिज़ कर दिया जाता। बहुमत के निर्णय के अधिकार का विरोध, वर्ण व्यवस्था, जाति पंचायतों तथा ब्राह्मणवादी शिक्षापद्धति का समर्थन, किसानों तथा मज़दूरों की चेतना के विकास का विरोध यह सब वह धर्म की आड़ मंे करते हैं और इस रूप में एक कट्टर तथा शातिर पुनरुत्थानवादी के रूप में सामने आते हैं। यही वज़ह है कि उनके समकालीन कई नेता धर्म पर उनके इस अतिवाद को लेकर खिन्न रहते थे। डी ई वाचा ने लिखा था कि ‘‘यह व्यक्ति अत्यधिक घमंड तथा व्यक्तिगत महात्वाकांक्षा से भरा है और बहुत बडी संख्या में सोचने समझने की क्षमता से रहित लोग इस असुरक्षित गड़रिये के पीछे पीछे भेडों के झुण्ड की तरह चलने में पूरी तरह से पागल प्रतीत होते हैं, जो कि देश को अराजकता तथा अव्यवस्था के किनारे ले जा रहा है’’ और तिलक का कहना था कि ‘‘मंै गांधी जी का अत्यधिक सम्मान और उनकी प्रशंसा करता हूं परंतु मै उनकी राजनीति को पसंद नहीं करता। यदि वे राजनीति छोड दें तथा हिमालय की ओर प्रस्थान कर जायें तो मैं उन्हें अपनी सम्मान की भावना के चलते प्रतिदिन बंबई से ताजे फूल भेजता रहूंगा।’’ धर्म को लेकर उनकी यह आसक्ति इतनी भयावह है कि वह पूरे रिनेसां को वह बस अच्छे कपड़े, खान-पान और अन्य चीज़ों में परिवर्तन में न्यूनीकृत कर देते हैं और फिर धर्म विरोधी होने के कारण खारिज़। कहीं अलग से न लिखे होने के बावजूद चर्च और राजशाही का उनका यह समर्थन भारत के भविष्य के बारे में उनके विचार का स्पष्ट द्योतक है।


उनका यह प्रतिगामी जीवन दर्शन अंतर्जातीय तथा अंतर्धामिक विवाहों के उनके कटु विरोध में भी अभिव्यक्त होता है। यही नहीं, यह सब इस रूप में भी अभिव्यक्त होता है कि उनकी जीवनपद्धति और आचरण इन सिद्धांतों से कतई मेल नहीं खाते। वह रेल का विरोध करते हैं और कहते हैं कि इससे बुरे लोग बुराई फैलाते हैं और अच्छे लोग इसका कम ही उपयोग करते हैं (पेज 46) परंतु खुद रेलों की निरंतर यात्रा करते हैं ( अब यह तो आप ही तय करिये कि वह गलत कह रहे थे या बुराई फैला रहे थे।), वह आधुनिक शिक्षा का विरोध करते हैं और न केवल खुद पढ़े लिखे हैं अपितु नेहरु जैसे अत्यंत आधुनिक और शिक्षित व्यक्ति को अपना वारिस बनाते हैं, किसी अक्षरज्ञानहीन व्यक्ति को उनकी इतनी निकटता मिली हो यह मुझे तो नहीं पता, वह अंग्रेजी के खिलाफ हैं पर अंग्रेजी में अख़बार निकालते हैं, वह आधुनिक दवाओं के खिलाफ हैं पर 1924 में बीमार पडने पर आपरेशन के लिये पूना मिलेट्री अस्पताल के सर्जन कर्नल मैडाक को चुनते हैं। (देखें ग्कोमी वोल्टन, द ट्रेजेडी आफ गांधी), वह कहते हैं कि बस हांथ-पांव जितना चलायें उतना ही चलो और खुद एक धनी सेठ की दान की हुई कार से चलते हैं, वे यंत्र के विरोधी हैं पर घड़ी-चश्में के बिना उनका काम नहीं चलता और उनके अख़बार उस समय के सबसे अच्छे प्रेस में छपते थे। यही नहीं वह भले आश्रम में रहते थे परंतु उनकी इस सादगी की क़ीमत बहुत ज्यादा थी ( देखें धनंजय कीर , महात्मा गांधी पोलिटिकल सेंट एन्ड एन अनार्म्ड प्रोफेट)। सरोजिनी नायडू के अनुसार तो वह राजनीतिक प्रचार पर लाखों खर्च करते थे, कभी-कभी मात्र उनकी संतुष्टि के लिये प्रथम श्रेणी के डब्बे को तृतीय श्रेणी का बनाया जाता था और महलों को कुटीर कहा जाता था। उनका भोजन और रहन सहन वाकई बहुत महंगा था।( वही)


गांधी की सामन्यतः तर्कों से परे होती थीं और उन्हें लागू करवाने का उनका तरीका भी। इसके उदाहरण सुभाष चन्द्र बोस के अध्यक्ष चुने जाने से लेकर जिन्ना के प्रति उनके रवैये में लगातार दिखती है। पर आश्चर्य यह है कि आर्थिकी से जुडे अपने विश्वासों के लिये यह हठधर्मिता उन्होंने कभी नहीं अपनाई। स्वदेशी के उनके आंदोलन को भारतीय पूंजीपतियों का स्पष्ट समर्थन था परंतु उन्होंने इस स्वदेशी के लिये कभी विदेशी मशीनों के बहिष्कार का नारा नहीं दिया। यह उनकी पक्षधरता को स्पष्ट करता है।
यही वज़ह है कि आज भी भूमण्डलीकरण के खिलाफ गांधी को हथियार बनाने की वक़ालत यथास्थितिवाद के समर्थक और किसी आमूलचूल परिवर्तन के विरोधी ही कह रहे हैं। वे आज किसानों को हल-बैल की तरफ लौटने और गरीबी अपनाने की सलाह दे रहे हैं परंतु किसानांे, मजदूरों और आम जनों की संपत्ति हडपने वालों के प्रति कोई सीधा संघर्ष इनके एजेण्डे में नहीं है। हल-बैल की तरफ लौटकर आज कोई लडाई नहीं लड़ी जा सकती। हां ऐसा क़वायदें किसानों और मजदूरों की लडाई को कुंद जरूर करती है। उनके असली अधिकारों की लडाई तो शांति, समृद्धि और समाजवाद के बैनर पर ही लड़ी जा सकती है।

18 अगस्त 2009

बीमार शिक्षा व्यवस्था को नये आवरण में प्रस्तुत करता -

(शिक्षा के अधिकार पर पेश बिल पर चतुरानन ओझा का आलेख)

बच्चों के लिए मुक्त एवं अनिवार्य शिक्षा विधेयक लम्बे समय से बहस का एक अहं मुद्दा बना रहा है। इसके समर्थकांे एवं विरोधियों के अपने - अपने तर्क रहे हंै, किन्तु आश्चर्य यह है कि वर्तमान केन्द्रिय बजट प्रस्तुत करते समय प्रणव मुखर्जी ने इसका जिक्र तक नहीं किया था। हां बजट प्रस्तुत करने के दूसरे दिन केन्द्रिय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने घोषणा की कि मुक्त एवं अनिवार्य शिक्षा विधेयक इसी सत्र में संसद में पेश किया जायेगा एवं विदेशी विश्वविद्यालय विधेयक भी तैयार पड़ा है इसे भी प्रस्तुत किया जायेगा। उन्होने शिक्षा के क्षेत्र में निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ावा देने वाली नीतियां लागू करने की बात भी कही। उन्होने कहा कि शिक्षा विधेयक पास होने से तीन साल के भीतर देश में नेबर हुड स्कूल ‘पड़ोस में स्कूल’ बन जायेंगे। यह स्कूल किस इलाके में बनेंगे यह तय करना राज्य सरकारों का काम है लेकिन स्थानीय समुदाय का ख्याल रखा जायेगा। आज जब यह विधेयक संसद में पास हो कर कानून का शक्ल ले चुका है,इसकी विसंगतियां और भाषाइ जादूगरी खुल कर सामने आ गयी है।
इसके भीतर छुपा है शिक्षा के बाजारीकरण और गैर बराबरी को पूरी तरह स्थापित करने का मुकम्मल षडयंत्र। विधेयक के विरोध में कुछ सांसदों ने आवाज भी उठायी किन्तु पार्टियों के स्तर पर अपनी ताकत का प्रयोग न कर उन्होंने इसे औपचारिक विरोध तक सीमित करके अंततः यथास्थिति का समर्थन ही किया है। विधेयक पर कपिल सिब्वल साहब के बयान को पढ़कर लगता है कि सरकार प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में कोई ऐसा बड़ा कदम उठाने जा रही है जो अलग - अलग समय में भारतीय संविधान एवं शिक्षा आयोग कि सिफारिशों में सम्मिलित रहा है। वह हैं मुक्त एवं समान शिक्षा को पूरे देश में लागू करने की योजना। तमाम लोगों को यह प्रतीत हो रहा है कि दिसम्बर 2002 में स्वीकृत 86 वें संविधान संशोधन के द्वारा संविधान में जोड़े गये अनुच्छेद 21 (क) के तहत उक्त विधेयक का संसद में पेश होना ही एक ऐतिहासिक कदम होगा। ऐसा लगता है कि विगत साठ सालों से नहीं मिल सका शिक्षा का अधिकार अब गरीब बच्चों की झोली में होगा ओर 1966 में प्रस्तुत कोठारी आयोग की अनुसंशा के अनुरूप पड़ोसी स्कूल के जरिये हरेक को गुणवत्ता युक्त शिक्षा देने का सपना साकार हो जायेगा।
जाहिर है कोठारी शिक्षा आयोग (1966) द्वारा अनुशंसित एंव 1986 की शिक्षा नीति में शामिल समान स्कूल प्रणाली के अनुसार हर बच्चे - बच्ची को चाहे वह किसी भी वर्ग जाति, लिंग, मज़हब अथवा भाषा का हो, उसे अपने पड़ोस के स्कूल में पढ़ना होगा। हमारे संविधान के नीति निर्देशक सिद्वांतों के अनुच्छेद 45 के अंतर्गत 14 साल की उम्र तक के सभी बच्चों को मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा का दायित्व रखा गया। संविधान लागू होने के दस साल के भीतर इसे लागू करना था। इसके अंतर्गत 14 साल की उम्र तक में 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चे भी शामिल थे अर्थात जन्म से लेकर 6 वर्ष तक के बच्चों के पोषण, स्वास्थ्य और पूर्व प्राथमिक शिक्षा को राज्य सरकार की जवाबदेही में शामिल किया गया था। इसके अनुच्छेद 46 के अंतर्गत दलित एवं आदिवासी बच्चों की शिक्षा पर विशेष ध्यान देने के लिए राज्य को निर्देशित किया गया था। जो लक्ष्य संविधान लागू होने के 10 साल के भीतर लागू होने थे आज तक लागू नहीं हो पाये इसके लिए तमाम विमर्श एवं आंदोलन चलते रहे। 1991 में नयी आर्थिक नीतियां लागू र्हुइं। उदारीकरण एवं निजीकरण की आंधी में वैश्वीकरण की बात करते हुए इन शब्दों में नये बाजारवादी अर्थो का आरोपण किया गया। शिक्षा को पूरी तरह बाजार के हवाले करने को सरकार ने अपना उद्वेश्य घोषित कर दिया । यही वह समय था जब शिक्षा के सरोकारों पर बहस सर्वाधिक तेज हुई। इसी का परिणाम था कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सन् 1993 में न्यायमूर्ति उन्नीकृष्णन का ऐतिहासिक फैसला। इसके तहत कहा गया कि संविधान के अनुच्छेद 45 को खण्ड तीन के जीवन के हक वाले अनुच्छेद 21 के साथ जोड़ कर पड़ने की जरूरत है। चूंकि ज्ञान देने वाली शिक्षा के बगैर इंसान का जीवन निरर्थक है। इस तरह सर्वोच्च न्यायालय ने सन् 1993 में 14 साल की उम्र तक के बच्चों के लिए मुत एंव अनिवार्य शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा दे दिया। जाहिर है यह फैसला 1991 में लागू हुई सरकार की बाजारवादी नियोजन से मेल नहीं खाती थी। अब सरकार को स्वास्थ्य एवं शिक्षा का व्यवसायीकरण करना था। निजीकरण के नाम पर सार्वजनिक एंव कल्याणकारी अवधारणा की प्रतिष्ठा को पूरी तरह नष्ट करना था, और यही किया गया। मनुष्यता विहीन विकास एवं गला काटू प्रतियोगिता को स्थापित करते हुए आम जन के अधिकारों को बेमानी कर दया- दान पर निर्भर बनाने के प्रयास तेज हुए। ऐेसे ही माहौल के अनुरूप शिक्षा के व्यवस्थापन के लिए नम्बम्बर 2001 में 86वां संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में पेश हुआ। इस संशोधन के तहत खण्ड तीन में अनुच्छेद 21 क जोड़ा गया जिसके अनुसार 6-14 वर्ष आयु समूह के बच्चों को मुत एवं अनिवार्य शिक्षा का मौलिक अधिकार दिया गया किन्तु इसे राज्य सरकार के कानून के अधीन कर दिया गया। इसकी विशेष प्रतिक्रिया इस सन्दर्भ में हुई कि यह 6 वर्ष से कम उम्र के 17 करोड़ से अधिक बच्चों को उनके पहले से प्राप्त पोषण, सहित एवं पूर्व प्राथमिक शिक्षा के हक से वंचित करता था। फिर भी यह विधेयक सदन में पास हो गया।
यहां मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा के मौलिक अधिकार का रूप क्या होगा यह तय करने का अधिकार राज्य सरकारों को दे दिया गया है। अन्य किसी भी मोलिक अधिकार में सरकार नें इस तरह का प्रावधान नहीं किया है। अर्थात तमाम घालमेल के बावजूद इसे केन्द्रिय स्तर पर कानून की तरह लागू करने की इच्छाशक्ति सरकार में नहीं बची है। मुत एंव अनिवार्य शिक्षा विधेयक दोहरी शिक्षा व्यवस्था ही नहीं बल्कि अनेक स्तरों वाली शिक्षा व्यवस्था को मान्यता देता है और संविधान की समानता और समान अवसरों के सिद्वांत का पूरी तरह निषेध करता है। वस्तुस्थिति तो यह है कि वर्तमान में शिक्षा व्यवस्था के जिन अनेक स्तरों का निर्माण हुआ है उसको पूरी तरह बनाये रखने एवं उसके दुकानदारी को न सिर्फ कायम रखने बल्कि बढ़ानंे और उसकी वीभत्सता को वैधानिक जामा पहनाने का पक्षपाती है। विधेयक में निजी स्कूलों के लिए 25 प्रतिशत सीटो पर मुत शिक्षा का प्रावधान रखा गया है। यहाॅ सरकार इन बच्चों के लिए इन स्कूलों को केवल उतना ही पैसा देगी जो वह सरकारी स्कूल में औसतन एक बच्चे पर खर्च करती है। जिन स्कूलों में ट्यूशन फीस सरकार द्वारा दी गयी राशि से अधिक होगी वहां इन गरीब बच्चों का क्या होगा। इसके लिए विधेयक में कोई प्रावधान नहीं है। निजी स्कूलों में ट्यूशन फीस के अलावा पोशाक पिकनिक आदि तमाम तरह के अन्य खर्चे भी वसूले जाते है। इसे ये गरीब बच्चे कैसे बहन कर सकते है। यहां मुफ़्त शिक्षा का अधिकार आठवी कक्षा में खत्म हो जायेगा फिर आगे की शिक्षा कैसे जारी रखी जा सकेगी। इन सवालों का जवाब इस विधेयक के पास नहीं है। इस विधेयक में निजी स्कूलों के फीस पर नियंत्रण लगाने का कोई प्राविधान नहीं है। निजी स्कूलो को बरकारार रहते हुए कैपिटैशन फीस जो कि अघोषित होती है, रोक लगाने की बात करना बेमानी है। अतः इस तरह के वायदे करना अर्थहीन है।
दरअसल योजना आयोग ने 11 वीं पंचवर्षीय योजना में वाउचर प्रणाली लागू करने की बात करते हुए, या विधेयक के अंतर्गत निजी विद्यालयों में 25 प्रतिशत आरक्षण की बात करते हुए या स्कूली शिक्षा में सार्वजनिक निजी सहभागिता ;च्ण्च्ण्च्द्ध की बात करते हुए जो कार्य किया है वह शासन द्वारा निजी स्कूलों को पिछले दरवाजे से सरकारी धन उपलब्ध कराने और वैश्विक बाजार को मजबूत करने का एक चालाकी पूर्ण तरीका मात्र है।
शिक्षा विदो के बीच स्थापित मत है कि पूर्व प्राथमिक शिक्षा बच्चों के बौद्विक, भावानात्मक एंव कलात्मक विकास के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है। वर्तमान विधेयक के पूर्व इसे विभिन्न स्तरों पर वैधानिक मान्यता भी रही है। किन्तु यह विधेयक इस जिम्मेदारी को स्वीकार नहीं करता। इसके मानदंड में पूर्व प्राथमिक शिक्षा को शामिल नहीं किया गया है। इस विधेयक के लागू होने के बाद भी भेदभाव पूर्ण शिक्षा बरकरार रहेगी। अधिकांश बच्चों को घटिया और उबाऊ शिक्षा मिलती रहेगी। आधे से अधिक बच्चे आठवीं तक पहुंचे बिना पहले की तरह ही स्कूल छोड़ते रहेंगे। विधेयक में दिये गये मानदण्ड वर्तमान स्कूलों की बदहाली को वरकरार रखने एवं उनके स्तर को नीचे गिरने के इरादे से तय किये गये हंै। 37 प्रतिशत प्राथमिक स्कूल महज दो शिक्षक एंव दो कमरे वाले बने रहेंगे। जिनमें एक शिक्षक द्वारा एक ही कमरे एवं एक से अधिक कक्षांए पढ़ाने की वर्तमान स्थिति जारी रहेगी। नियमित शिक्षक का कैडर खत्म कर दिया जायेगा और उसकी जगह अर्हता विहीन कम वेतन वाले ठेका प्रथा में नियुक्त पैरा टीचर ले लेंगे। अलग - अलग राज्य सरकारों द्वारा शिक्षकों का कैडर विभाजन कर वेतन एवं अन्य सेवा शर्ते अपनी - अपनी तरह से निर्धारित करने की खुली छूट मिल जायेगी। म. प्र. में 2500 रूपये में काम करने वाले ‘गुरूजी’ लोग यथावत गुरूजी बने रहेंगे। विधेयक में दावा है कि आठवी कक्षा तक पहुंचने तक न तो किसी बच्चे को फेल किया जायेगा और न ही बाहर निकाला जायेगा। इस प्रावधान को बहुत ही भावनात्मक स्तर पर प्रस्तुत किया जा रहा है। किन्तु साल दर साल अगली कक्षा में बढ़ाते रहना कोई मकसद नहीं दे सकता जब तक उन्हे विकास का समान एवं उच्च गुणवत्ता वाला शैक्षिक माहौल मुहैेया नहीं कराया जाता। सभी कक्षाओं को एक साथ भेड़ो की तरह हाॅकने वाले पैराटीचरों वाले स्कूलो से जवरदस्ती आठवीं पास कराकर छात्रों को बाहर निकालते हुए यह विधेयक उनके लिए कौन सा प्रतियोगी भविष्य और अपने लिए कितना विष्वसनीय वैश्विक आंकड़ा इकट्टा कर पायेगा,हम सहज ही जान सकते हैं। आश्चर्य जनक है कि वह सब मौलिक अधिकार के नाम पर किया जा रहा है। इसमें न तो इस शब्द की स्थापित परिभाषा का सम्मान किया गया है और न ही अपना अगुवा मानने वाले विकसित देशों (अमरीका, फ्रांस, जर्मनी, जापान आदि) की तरह समान स्कूल प्रणाली एंव पड़ोसी स्कूलों की प्रणाली को ही स्वीकार किया गया है। भाषायी स्तर पर मातृभाषाओं को प्रथमिकषिक्षा का आधार बनाने पर भी यह विधेयक मौन है जो कि विकसित देशो की शिक्षा व्यवस्था का अंग है। और तो और जनता के लिए मौलिक अधिकार की बात करने वाला यह विधेयक देश की राष्ट्र भाषा में लोगों को उपलब्ध भी नहीं कराया गया है। संसद में संसदों की भरपूर उपेक्षा के बीच पास हो चुका यह विधेयक वस्तुतः गुणवत्ता युक्त शिक्षा को अभिजातो और नव धनाड्यों के लिए सुरक्षित करते हुए आम जनता के बच्चो को निर्लज्ज तरीके से हाशिए पर फेंक देता है। इसमें न तो समाजवादी षिक्षा व्यवस्था का प्रकाष है और न ही पॅूजीवादी विकसित देषों द्वारा अपने-अपने देष में लागू किये गये समतामूलक प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था का प्रभाव ही है। वस्तुतः आम जनता की समानता की आकांक्षा को लेकर आंदोलनकारी नेतृत्व का अभाव मुनाफाखोरों का प्रतिनिधित्व कर रही भारतीय संसद को यह हौसला प्रदान करता है कि वह जनभावनाओं का गला घोट कर शिक्षा के व्यवसायीकरण के रथ को और आगे ले जा सके। और वह यही कर रहा है।

25 दिसंबर 2008

भूख और भारत

क्या आप जानते है की अपना महान देश दुनिया के भूखे लोगो का सबसे बड़ा ठिकाना है।
डिटेल के लिय चटकाएं
http://www.samayantar.com/roshankanguro.htm