18 अगस्त 2009

बीमार शिक्षा व्यवस्था को नये आवरण में प्रस्तुत करता -

(शिक्षा के अधिकार पर पेश बिल पर चतुरानन ओझा का आलेख)

बच्चों के लिए मुक्त एवं अनिवार्य शिक्षा विधेयक लम्बे समय से बहस का एक अहं मुद्दा बना रहा है। इसके समर्थकांे एवं विरोधियों के अपने - अपने तर्क रहे हंै, किन्तु आश्चर्य यह है कि वर्तमान केन्द्रिय बजट प्रस्तुत करते समय प्रणव मुखर्जी ने इसका जिक्र तक नहीं किया था। हां बजट प्रस्तुत करने के दूसरे दिन केन्द्रिय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने घोषणा की कि मुक्त एवं अनिवार्य शिक्षा विधेयक इसी सत्र में संसद में पेश किया जायेगा एवं विदेशी विश्वविद्यालय विधेयक भी तैयार पड़ा है इसे भी प्रस्तुत किया जायेगा। उन्होने शिक्षा के क्षेत्र में निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ावा देने वाली नीतियां लागू करने की बात भी कही। उन्होने कहा कि शिक्षा विधेयक पास होने से तीन साल के भीतर देश में नेबर हुड स्कूल ‘पड़ोस में स्कूल’ बन जायेंगे। यह स्कूल किस इलाके में बनेंगे यह तय करना राज्य सरकारों का काम है लेकिन स्थानीय समुदाय का ख्याल रखा जायेगा। आज जब यह विधेयक संसद में पास हो कर कानून का शक्ल ले चुका है,इसकी विसंगतियां और भाषाइ जादूगरी खुल कर सामने आ गयी है।
इसके भीतर छुपा है शिक्षा के बाजारीकरण और गैर बराबरी को पूरी तरह स्थापित करने का मुकम्मल षडयंत्र। विधेयक के विरोध में कुछ सांसदों ने आवाज भी उठायी किन्तु पार्टियों के स्तर पर अपनी ताकत का प्रयोग न कर उन्होंने इसे औपचारिक विरोध तक सीमित करके अंततः यथास्थिति का समर्थन ही किया है। विधेयक पर कपिल सिब्वल साहब के बयान को पढ़कर लगता है कि सरकार प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में कोई ऐसा बड़ा कदम उठाने जा रही है जो अलग - अलग समय में भारतीय संविधान एवं शिक्षा आयोग कि सिफारिशों में सम्मिलित रहा है। वह हैं मुक्त एवं समान शिक्षा को पूरे देश में लागू करने की योजना। तमाम लोगों को यह प्रतीत हो रहा है कि दिसम्बर 2002 में स्वीकृत 86 वें संविधान संशोधन के द्वारा संविधान में जोड़े गये अनुच्छेद 21 (क) के तहत उक्त विधेयक का संसद में पेश होना ही एक ऐतिहासिक कदम होगा। ऐसा लगता है कि विगत साठ सालों से नहीं मिल सका शिक्षा का अधिकार अब गरीब बच्चों की झोली में होगा ओर 1966 में प्रस्तुत कोठारी आयोग की अनुसंशा के अनुरूप पड़ोसी स्कूल के जरिये हरेक को गुणवत्ता युक्त शिक्षा देने का सपना साकार हो जायेगा।
जाहिर है कोठारी शिक्षा आयोग (1966) द्वारा अनुशंसित एंव 1986 की शिक्षा नीति में शामिल समान स्कूल प्रणाली के अनुसार हर बच्चे - बच्ची को चाहे वह किसी भी वर्ग जाति, लिंग, मज़हब अथवा भाषा का हो, उसे अपने पड़ोस के स्कूल में पढ़ना होगा। हमारे संविधान के नीति निर्देशक सिद्वांतों के अनुच्छेद 45 के अंतर्गत 14 साल की उम्र तक के सभी बच्चों को मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा का दायित्व रखा गया। संविधान लागू होने के दस साल के भीतर इसे लागू करना था। इसके अंतर्गत 14 साल की उम्र तक में 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चे भी शामिल थे अर्थात जन्म से लेकर 6 वर्ष तक के बच्चों के पोषण, स्वास्थ्य और पूर्व प्राथमिक शिक्षा को राज्य सरकार की जवाबदेही में शामिल किया गया था। इसके अनुच्छेद 46 के अंतर्गत दलित एवं आदिवासी बच्चों की शिक्षा पर विशेष ध्यान देने के लिए राज्य को निर्देशित किया गया था। जो लक्ष्य संविधान लागू होने के 10 साल के भीतर लागू होने थे आज तक लागू नहीं हो पाये इसके लिए तमाम विमर्श एवं आंदोलन चलते रहे। 1991 में नयी आर्थिक नीतियां लागू र्हुइं। उदारीकरण एवं निजीकरण की आंधी में वैश्वीकरण की बात करते हुए इन शब्दों में नये बाजारवादी अर्थो का आरोपण किया गया। शिक्षा को पूरी तरह बाजार के हवाले करने को सरकार ने अपना उद्वेश्य घोषित कर दिया । यही वह समय था जब शिक्षा के सरोकारों पर बहस सर्वाधिक तेज हुई। इसी का परिणाम था कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सन् 1993 में न्यायमूर्ति उन्नीकृष्णन का ऐतिहासिक फैसला। इसके तहत कहा गया कि संविधान के अनुच्छेद 45 को खण्ड तीन के जीवन के हक वाले अनुच्छेद 21 के साथ जोड़ कर पड़ने की जरूरत है। चूंकि ज्ञान देने वाली शिक्षा के बगैर इंसान का जीवन निरर्थक है। इस तरह सर्वोच्च न्यायालय ने सन् 1993 में 14 साल की उम्र तक के बच्चों के लिए मुत एंव अनिवार्य शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा दे दिया। जाहिर है यह फैसला 1991 में लागू हुई सरकार की बाजारवादी नियोजन से मेल नहीं खाती थी। अब सरकार को स्वास्थ्य एवं शिक्षा का व्यवसायीकरण करना था। निजीकरण के नाम पर सार्वजनिक एंव कल्याणकारी अवधारणा की प्रतिष्ठा को पूरी तरह नष्ट करना था, और यही किया गया। मनुष्यता विहीन विकास एवं गला काटू प्रतियोगिता को स्थापित करते हुए आम जन के अधिकारों को बेमानी कर दया- दान पर निर्भर बनाने के प्रयास तेज हुए। ऐेसे ही माहौल के अनुरूप शिक्षा के व्यवस्थापन के लिए नम्बम्बर 2001 में 86वां संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में पेश हुआ। इस संशोधन के तहत खण्ड तीन में अनुच्छेद 21 क जोड़ा गया जिसके अनुसार 6-14 वर्ष आयु समूह के बच्चों को मुत एवं अनिवार्य शिक्षा का मौलिक अधिकार दिया गया किन्तु इसे राज्य सरकार के कानून के अधीन कर दिया गया। इसकी विशेष प्रतिक्रिया इस सन्दर्भ में हुई कि यह 6 वर्ष से कम उम्र के 17 करोड़ से अधिक बच्चों को उनके पहले से प्राप्त पोषण, सहित एवं पूर्व प्राथमिक शिक्षा के हक से वंचित करता था। फिर भी यह विधेयक सदन में पास हो गया।
यहां मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा के मौलिक अधिकार का रूप क्या होगा यह तय करने का अधिकार राज्य सरकारों को दे दिया गया है। अन्य किसी भी मोलिक अधिकार में सरकार नें इस तरह का प्रावधान नहीं किया है। अर्थात तमाम घालमेल के बावजूद इसे केन्द्रिय स्तर पर कानून की तरह लागू करने की इच्छाशक्ति सरकार में नहीं बची है। मुत एंव अनिवार्य शिक्षा विधेयक दोहरी शिक्षा व्यवस्था ही नहीं बल्कि अनेक स्तरों वाली शिक्षा व्यवस्था को मान्यता देता है और संविधान की समानता और समान अवसरों के सिद्वांत का पूरी तरह निषेध करता है। वस्तुस्थिति तो यह है कि वर्तमान में शिक्षा व्यवस्था के जिन अनेक स्तरों का निर्माण हुआ है उसको पूरी तरह बनाये रखने एवं उसके दुकानदारी को न सिर्फ कायम रखने बल्कि बढ़ानंे और उसकी वीभत्सता को वैधानिक जामा पहनाने का पक्षपाती है। विधेयक में निजी स्कूलों के लिए 25 प्रतिशत सीटो पर मुत शिक्षा का प्रावधान रखा गया है। यहाॅ सरकार इन बच्चों के लिए इन स्कूलों को केवल उतना ही पैसा देगी जो वह सरकारी स्कूल में औसतन एक बच्चे पर खर्च करती है। जिन स्कूलों में ट्यूशन फीस सरकार द्वारा दी गयी राशि से अधिक होगी वहां इन गरीब बच्चों का क्या होगा। इसके लिए विधेयक में कोई प्रावधान नहीं है। निजी स्कूलों में ट्यूशन फीस के अलावा पोशाक पिकनिक आदि तमाम तरह के अन्य खर्चे भी वसूले जाते है। इसे ये गरीब बच्चे कैसे बहन कर सकते है। यहां मुफ़्त शिक्षा का अधिकार आठवी कक्षा में खत्म हो जायेगा फिर आगे की शिक्षा कैसे जारी रखी जा सकेगी। इन सवालों का जवाब इस विधेयक के पास नहीं है। इस विधेयक में निजी स्कूलों के फीस पर नियंत्रण लगाने का कोई प्राविधान नहीं है। निजी स्कूलो को बरकारार रहते हुए कैपिटैशन फीस जो कि अघोषित होती है, रोक लगाने की बात करना बेमानी है। अतः इस तरह के वायदे करना अर्थहीन है।
दरअसल योजना आयोग ने 11 वीं पंचवर्षीय योजना में वाउचर प्रणाली लागू करने की बात करते हुए, या विधेयक के अंतर्गत निजी विद्यालयों में 25 प्रतिशत आरक्षण की बात करते हुए या स्कूली शिक्षा में सार्वजनिक निजी सहभागिता ;च्ण्च्ण्च्द्ध की बात करते हुए जो कार्य किया है वह शासन द्वारा निजी स्कूलों को पिछले दरवाजे से सरकारी धन उपलब्ध कराने और वैश्विक बाजार को मजबूत करने का एक चालाकी पूर्ण तरीका मात्र है।
शिक्षा विदो के बीच स्थापित मत है कि पूर्व प्राथमिक शिक्षा बच्चों के बौद्विक, भावानात्मक एंव कलात्मक विकास के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है। वर्तमान विधेयक के पूर्व इसे विभिन्न स्तरों पर वैधानिक मान्यता भी रही है। किन्तु यह विधेयक इस जिम्मेदारी को स्वीकार नहीं करता। इसके मानदंड में पूर्व प्राथमिक शिक्षा को शामिल नहीं किया गया है। इस विधेयक के लागू होने के बाद भी भेदभाव पूर्ण शिक्षा बरकरार रहेगी। अधिकांश बच्चों को घटिया और उबाऊ शिक्षा मिलती रहेगी। आधे से अधिक बच्चे आठवीं तक पहुंचे बिना पहले की तरह ही स्कूल छोड़ते रहेंगे। विधेयक में दिये गये मानदण्ड वर्तमान स्कूलों की बदहाली को वरकरार रखने एवं उनके स्तर को नीचे गिरने के इरादे से तय किये गये हंै। 37 प्रतिशत प्राथमिक स्कूल महज दो शिक्षक एंव दो कमरे वाले बने रहेंगे। जिनमें एक शिक्षक द्वारा एक ही कमरे एवं एक से अधिक कक्षांए पढ़ाने की वर्तमान स्थिति जारी रहेगी। नियमित शिक्षक का कैडर खत्म कर दिया जायेगा और उसकी जगह अर्हता विहीन कम वेतन वाले ठेका प्रथा में नियुक्त पैरा टीचर ले लेंगे। अलग - अलग राज्य सरकारों द्वारा शिक्षकों का कैडर विभाजन कर वेतन एवं अन्य सेवा शर्ते अपनी - अपनी तरह से निर्धारित करने की खुली छूट मिल जायेगी। म. प्र. में 2500 रूपये में काम करने वाले ‘गुरूजी’ लोग यथावत गुरूजी बने रहेंगे। विधेयक में दावा है कि आठवी कक्षा तक पहुंचने तक न तो किसी बच्चे को फेल किया जायेगा और न ही बाहर निकाला जायेगा। इस प्रावधान को बहुत ही भावनात्मक स्तर पर प्रस्तुत किया जा रहा है। किन्तु साल दर साल अगली कक्षा में बढ़ाते रहना कोई मकसद नहीं दे सकता जब तक उन्हे विकास का समान एवं उच्च गुणवत्ता वाला शैक्षिक माहौल मुहैेया नहीं कराया जाता। सभी कक्षाओं को एक साथ भेड़ो की तरह हाॅकने वाले पैराटीचरों वाले स्कूलो से जवरदस्ती आठवीं पास कराकर छात्रों को बाहर निकालते हुए यह विधेयक उनके लिए कौन सा प्रतियोगी भविष्य और अपने लिए कितना विष्वसनीय वैश्विक आंकड़ा इकट्टा कर पायेगा,हम सहज ही जान सकते हैं। आश्चर्य जनक है कि वह सब मौलिक अधिकार के नाम पर किया जा रहा है। इसमें न तो इस शब्द की स्थापित परिभाषा का सम्मान किया गया है और न ही अपना अगुवा मानने वाले विकसित देशों (अमरीका, फ्रांस, जर्मनी, जापान आदि) की तरह समान स्कूल प्रणाली एंव पड़ोसी स्कूलों की प्रणाली को ही स्वीकार किया गया है। भाषायी स्तर पर मातृभाषाओं को प्रथमिकषिक्षा का आधार बनाने पर भी यह विधेयक मौन है जो कि विकसित देशो की शिक्षा व्यवस्था का अंग है। और तो और जनता के लिए मौलिक अधिकार की बात करने वाला यह विधेयक देश की राष्ट्र भाषा में लोगों को उपलब्ध भी नहीं कराया गया है। संसद में संसदों की भरपूर उपेक्षा के बीच पास हो चुका यह विधेयक वस्तुतः गुणवत्ता युक्त शिक्षा को अभिजातो और नव धनाड्यों के लिए सुरक्षित करते हुए आम जनता के बच्चो को निर्लज्ज तरीके से हाशिए पर फेंक देता है। इसमें न तो समाजवादी षिक्षा व्यवस्था का प्रकाष है और न ही पॅूजीवादी विकसित देषों द्वारा अपने-अपने देष में लागू किये गये समतामूलक प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था का प्रभाव ही है। वस्तुतः आम जनता की समानता की आकांक्षा को लेकर आंदोलनकारी नेतृत्व का अभाव मुनाफाखोरों का प्रतिनिधित्व कर रही भारतीय संसद को यह हौसला प्रदान करता है कि वह जनभावनाओं का गला घोट कर शिक्षा के व्यवसायीकरण के रथ को और आगे ले जा सके। और वह यही कर रहा है।

1 टिप्पणी:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

आप ने सही वक्त पर चेतावनी दे दी है। जब योजना का क्रियान्वयन होगा तब लोगों की समझ में आएगा कि क्या किया गया है?