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25 मई 2012

निर्मल बाबा ही नहीं ...हम और हमारा समाज भी पाखंडी ही है !!!



  • आशीष देवराड़ी

ग्लोबलाइजेशन और आधुनिकीकरण के इस दौर में अभी हमारे अंधविश्वासों के लिए काफी स्पेस मौजूद है | क्या पढ़े लिखे और क्या गंवार, दोनों ही अंधविश्वास के जाल में जकड़े हुए है | एक के लिए पण्डित मंदिर में उपलब्धय है तो दूसरे के लिए उसके मोबाइल पर ,एक के लिए तीर्थ -दर्शन है तो दूसरे के लिए वर्चुअल-दर्शन ,एक के भगवान खुली छत के नीचे है जो दूसरे के केमरों की सुरक्षा के बीच वातानुकूलित कमरों में बंद | बिन पढ़े लिखो कि बात तो समझ आती है जो अज्ञानता और मजबूरीवश इन अंधविश्वासों में उलझे हुए है परन्तु यदि तथाकथित आधुनिक पढ़े-लिखे लोग भी  इन अंधविश्वासों से पार ना पा सके तो ये उनकी शिक्षा (या कहे हमारी शिक्षा व्यवस्था ) और आधुनिकता पर बड़ा प्रश्नवाचक चिन्ह लगाता है |ये बात रेखांकित कि जानी चाहिए कि वर्तमान सन्दर्भ में  पढ़ने-लिख लेने का मतलब अंधविश्वासों से मुक्ति कतई नहीं है |पढ़े लिखो में अपने अन्धविश्वास पलते है और ये अन्धविश्वास आये दिन हमें अपने आस-पास दिखलाई पड़ते है|                                                                                                  अभी हाल ही में ११/११/११ को ऐसा ही कुछ देखने को मिला | कई पंडितो ने इस तारीख को खरीददारी की दृष्टि से शुभ बताया जिसे तकरीबन तमाम अखबारों ने पहले पन्ने पर जगह दी | इस दिन आम दिनों की अपेक्षा अधिक विज्ञापन भी प्रकाशित हुए | खरीददारी के इस शुभ मुहूर्त को भुनाने में पढ़ा लिखा मध्यवर्ग ही सबसे ज्यादा आगे रहा |कपडे,मोबाइल ,एल.सी.डी, फ्रिज, वांशिग मशीन और भी ना जाने क्या-क्या खरीद लिया गया | कहने की जरुरत नहीं कि शुभ मुहूर्त के चक्कर में अन्धो ने चश्मे और गंजो ने कंघी खरीद ली |बिन जरुरत और बिन मतलब का सामान घर ला दिया गया |और इन सबके बाबजूद भी शुभ क्या हुआ भगवान जाने ???                                                                                       

हमारे अन्धविश्वास थोड़े बहुत थोड़ी ही है जिन्हें किसी एक लेख में लिखा जा सके बल्कि इनकी फेहरिस्त तो इतनी लंबी है कि जिसे लिखने में समुद्र की स्याही भी कम पड़ जाए | चौराहे की ट्रेफिक लाईट भी जिन्हें नहीं रोक पाती वे बिल्ली के रास्ता काटने पर रुक जाते है | किसी के छीक देने पर घर से बहार नहीं निकलते | नवजात बच्चो को जोंसन प्रोडक्ट  के अलावा काला टीका किस घर में नहीं लगाया जाता ?गाडी खरीदने पर मिठाई बाद में बाटी जायेगी ,पूजा पहले हो जाती है | नया कंप्यूटर घर आया नहीं कि उस पर साथिया बना दिया |इलेक्ट्रिक आयटमो पर  टीका और चावल लगाना आम बात है |और भी ना जाने क्या क्या ?                                                                                             

लोगो के अंधविश्वास को किसी और ने समझा हो ना समझा हो हमारे यहाँ के बाबाओं ने बखूबी समझा है | तभी तो पायलट बाबा से लेकर नित्यानंद तक सभी हमारे यहाँ पाए जाते है |सत्य साईं भी इसी अंधविश्वास की उपज ही तो है |सारे बाबाओं से एक कदम जाकर इस बाबा ने खुद को भगवान घोषित किया , फिर क्या था भक्तो का  तांता लग गया और शुरु हुआ ठगी का अंतहीन सिनसिला|अब जरा एक मिनट रूककर  ठन्डे दिमाग से सोचिये कि आजतक भगवान आया ही किस काम है और ये मात्र संयोग भर  नहीं हो सकता कि विश्वविजेता बनने का ख्वाब देखने वाले - सिकन्दर, हिटलर, अंग्रेज, चंगेज खाँ, नेपोलियन सब आस्तिक थे| सत्य साईं हवा से सोना और भभूत उत्पन्न करने का चमत्कार दिखाकर खुद के भगवान होने का प्रणाम देता था | लोगो के मर्ज का इलाज भभूत से करता था |चमत्कार और भगवान दो ऐसे विषय है जिनके बल पर इस मुल्क में अच्छी खासी भीड़ जुटाई जा सकती है |                                                                                                                                                                                            

शुभ मुहर्त , ज्योतिष ,अंक विद्या, हस्तरेखा विधा, कुंडली मिलान ,फेंग-शुई ,जादू टोना ,ताबीज ..सभी अंधविश्वास की  संतति है और पढ़े लिखे अभिजात्य लोगो की अतार्किक सोच ने इन्हें पोषित करने का काम बखूभी किया  है क्योंकि उसके पास ही है ऐसा कुछ जो इन्हें जाने अनजाने बढ़ावा दे रहे है ...और वोह है अर्थ | इन बाबाओं की अथाह सम्पति और हमारे धनवान होते मंदिर, पढ़े लिखे कुलीन लोगो की अंधविश्वासी मानसिकता का ठोस प्रमाण है क्यूकि अनपढ़-गरीब सात जन्मो में भी इन्हें पैसो से इतना लबरेज नहीं बना सकते जितना की ये आज है |याद कीजिये ११/११/११/ के तथाकथित शुभ-मुहर्त पर खरीददारी करने वाले किस वर्ग के लोग थे ???                                                                                         

दरअसल विज्ञान की प्रगति के चलते ये उम्मीद जागी थी कि धीरे -धीरे इस तरह के अंधविश्वासो से समाज मुक्त होता जाएगा | जबकि हुआ ठीक इसके उलट ही | आज ज्योतिषी , भविष्य-वक्ता ,पण्डित किसी खास जगह ही नहीं होते वे हमारे मोबाइल ,टेलीविजन ,इंटरनेट सभी जगह मौजूद है |                                                                                                  

आधुनिक लोग बहुत पाखंडी है |वे धर्म और पाखंड छोड़ते नहीं लेकिन बात विज्ञान और प्रगति की करते हैं |  

05 दिसंबर 2009

धार्मिक कट्टरपंथ तथा आतंकवाद


धार्मिक कट्टरपंथ तथा आतंकवाद एक दूसरे के पूरक हैं। छः दिसंबर भारतीय संविधान तथा साम्प्रदायिक सद्भाव पर आधारित हमारी परम्परा के चेहरे पर बदनुमा दाग़ है। आर एस एस और उसके आनुसांगिक संगठनो ने सत्ता के लोभ में देश के भीतर जो धार्मिक उन्माद पैदा कर लोगों के बीच साम्प्रदायिक विभाजन किया वही आज आतंकवाद के मूल में है। मनमोहन सिंह कहते हैं की माओवाद देश के सम्मुख सबसे बड़ा खतरा है पर वास्तविकता यह है कि हमारे सम्मुख सबसे बड़ा खतरा धार्मिक कट्टरपंथ है। यह बातें आज युवा संवाद की पहलकदमी पर दिसंबर को आयोजित साम्प्रदायिकता और आतंकवाद विरोधी दिवस पर अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए डा मधुमास खरे ने कही।




उल्लेखनीय है कि युवा संवाद, संवाद, स्त्री अधिकार संगठन , प्रगतिशील लेखक संघ, आल इंडिया लायर्स एसोशियेशन, जनवादी लेखक संघ, बीमा कर्मचारी यूनियन, गुक्टू, इप्टा सहित शहर के तमाम जनसंगठनों ने छः दिसंबर को सांप्रदायिकता और आतंकवाद विरोधी दिवस के रूप मे मनाते हुए फूलबाग स्थित गांधी प्रतिमा पर संयुक्त बैठक आयोजित की।




बैठक में इन संगठनों के प्रतिनिधियों ने भारत तथा दुनिया भर में बढते आतंकवाद पर चिंता जताते हुए कहा कि इसके मूल में आर्थिक विषमतायें ही प्रमुख हैं। अजय गुलाटी ने विषय की प्रस्तावना रखते हुए कहा कि आज अंबेडकर की पुण्यतिथि है और उन्होंने बहुत पहले धर्म के अमानवीय स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा था कि अगर कभी हिन्दु राष्ट्र बना तो वह दलितों और महिलाओं के लिये विनाशकारी होगा। अशोक पाण्डेय ने कहा कि इस धार्मिक राजनीति के केन्द्र में न मनुष्य है न इश्वर बस सत्ता है। आज़ादी के पहले मुस्लिम लीग और आर एस एस दोनों अंग्रेज़ों की सहयोगी थीं और बाद में देशभक्त हो गयीं। डा प्रवीण नीखरा ने शिक्षा व्यवस्था में आमूल परिवर्तन पर ज़ोर दिया तो ज्योति कुमारी तथा किरन ने धर्म के महिला विरोधी स्वरूप पर ध्यान खींचते हुए कहा कि हर दंगा स्त्री के शरीर पर हमले से शुरु होता है।
डा पारितोष मालवीय, अशोक चौहान, जितेंद्र बिसारिया, पवन करण, राजवीर राठौर, ज़हीर कुरेशी, फ़िरोज़ ख़ान सहित अनेक लोगों ने बहस में हिस्सेदारी की। अंत में पास एक साझा प्रस्ताव में साम्प्रदायिकता विरोधी ताक़तों को मज़बूत करने तथा शीघ्र मंहगाई पर जनजागरण के लिये एक अभियान चलाने पर सहमति बनी।

17 मई 2009

चलिए अभी खुश हो लेते है!!!

आ गए चुनावों के परिणाम।

किसी ने कांग्रेस की ऎसी जीत की कल्पना नही की थी, न बी जे पी की ऎसी हार की।
तीसरा , चौथा मोर्चा सूटकेसों और मनुहारों की कल्पना से उबर भी नही पाया हो अब तक शायद।

गांधीनगर से दिल्ली के दो वेटिंगटिकट थे - दोनों कन्फर्म नही हुए! इलाहाबाद वाले अब वाया बनारस दिल्ली पहुंचे तो अब टर्राने लगे हैं। इन वेटिंग टिकटों की किस्मत में आर ऐ सी होना भी नही लिखा !

अब शायद यह देश की जनता इन चेहरों के पीछे छिपे खतरनाक मंसूबो को धीरे धीरे पहचान रही है। चलिए मान लेते है और खुश हो लेते हैं। और साथ ही तैयार रहिये निजीकरण की आंधी के लिए.

25 अप्रैल 2009

मोदी , माफी और मज़बूती

देश के पी एम् इन वेटिंग नंबर दो नरेन्द्रमोदी को गुजरात दंगो में माफी जैसा कुछ नही लगता। क्यूँ लगे इतने दिनों संघ के गुरुकुल में जो सीखा था वही तो किया था उन्होंने! फिर काहे की माफी? आख़िर मुसलमानों की ह्त्या कराने या करने में पाप जैसा क्या है? और संविधान को तो बहुत पहले गुरूजी उर्फ़ गुरुघंटाल खारिज कर चुके थे और उनकी मांग तो मनु स्मृति को संविधान बनने की थी जिसमे सवर्णों के अलावा किसी की भी ह्त्या जायज़ है।

माफी माँगने के लिए मज़बूत कलेजा और सिद्धांतो के प्रति गहन निष्ठा की ज़रूरत होती है। जिन लोगो ने आज़ादी के समय अंग्रेजों की चाकारी की हो आज़ादी के बाद गांधी sह्त्या, फिर बैन लगाने पर चाटुकारिता और मौका मिलते ही नफरत फैलाने के इकलौते एजेंडे पर चलते हुए सेठ साहूकारों की सेवा की हो उनसे ऎसी उम्मीद नही की जा सकती।

उन्हें तो बस सज़ा ही दी जा सकती है जो समय देगा ही!!

20 दिसंबर 2008

उन्हें युद्ध चाहिए, हर कीमत पर

संघ के सपनों का खुशहाल भारत (हिरोशिमा पार्ट २ )


सुदर्शन जी को युद्ध चाहिए। अभी एक अखबार को दिए गए साक्षत्कार में उन्होंने उवाचा की इस सारी फसाद का बस एक ही हल है - युद्ध ! यहाँ के अखबारों और टीवी चैनलों के उनके चम्पूओं ने तो इस को दबा ही दिया और सिवाय जनसत्ता के किस्सी ने इसे तवज्जो नही दी, लेकिन पाकिस्तान के प्रमुख दैनिक डॉनने इस को पहले पेज पर जगह दी।



सुदर्शन महाराज चाहते है कि अब युद्ध हो ही जाए, वो जानते हैकि इसमे लाखो लोग मारे जायेंगे और यह तृतीय विश्वयुद्ध का भी रूप ले सकता है , फ़िर भी उनका मानना है कि इसके बाद जो बचेगा वह बेहद सुंदर होगा।



उन्हें पता तो यह भी होगा कि आज के परमाणु अस्त्र हिरोशिमा से कई गुना ज़्यादा संहारक है और दोनों देश इस आसुरी ताक़त से लैस है लेकिन लगता है वो सोचते है कि बम की मार नागपुर तक नही पहुंचेगी।




इस विध्वंश पर वो शायद अपने राजमहल की नींव डालना चाहते है। गले में परमाणु विकरण के शिकार हमारे बच्चो के मुंड लटकाए हार की तरह! शायद पाकिस्तान के वातानुकूलित कमरों में बैठे उनके मुल्ला दोस्त भी यही चाहते है.


सवाल यह है कि हम क्या चाहते है? कितने हिरोशिमा अपने देश में और कितने अपने पड़ोस में?

06 दिसंबर 2008

आतंकवाद तथा साम्प्रदायिकता के खिलाफ

युवा संवाद भोपाल ने भी ६ दिसम्बर को शान्ति मार्च निकाला
ग्वालियर में शान्ति मार्च में लेखक , कलाकार , संस्कृतिकर्मी और आम जन


मोमबत्ती जलाकर श्रद्धांजलि

युवा संवाद, ग्वालियर की पहलकदमी पर नगर के अनेक साहित्यिक, सांस्कृतिक तथा कर्मचारी संगठनों ने आज बंबई में हुई आतंकी घटना के शिकार लोगों को श्रद्धांजलि देने के लिए ‘आतंकवाद तथा सांप्रदायिकता के खिलाफ‘ संयुक्त शांति मार्च निकाला । इसके पहले दो दिनो तक युवा संवाद ने ’शहर के विभिन्न चौराहों ,कालेजों तथा विश्वविद्यालय में पर्चा वितरण कर अभियान चलाया था । शास्त्री प्रतिमा , पड़ाव से आरम्भ हुए इस ’शांति मार्च में युवा संवाद, प्रगति’शील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, इप्टा, परवरिश संवाद, इण्डियन लायस एसोसिये’शन, कर्मचारी मोर्चा नगर निगम, ग्वालियर यूनाइZटेड ट्रेड यूनियन कांग्रेस, जनरल इंश्योरेंस डिविजनल एसोसिये’शन, परिवर्तन समूह, विवेकानंद नीडम, भारतेंदु रंगमंच तथा स्त्री अधिकार संगठन के कार्यकर्ताओं के साथ बड़ी संख्या में लेखकों, कवियों ,बुद्धजिवियों , सामाजिक कार्यकर्ताओं तथा आम लोगों ने भागीदारी की काली पट्टियाँ बांधे लोगों के हाथों में मोमबत्तियां तथा तख्तियां थीं जिन पर ‘आतंक नहीं शांति, ‘क्षेत्रवाद, जातिवाद,सांप्रदायिकता मुर्दाबाद‘,‘ समाजवाद, समृद्धि तथा शान्ति जैसे नारे लिखे थे । गांधी प्रतिमा, फूलबाग पर जाकर यह मार्च आमसभा में बदल गया जिसमें लोगों ने सांप्रदायिकता तथा आतंकवाद के खिलाफ संकल्पबद्ध होने की प्रतिज्ञा की तथा विभिन्न संगठनो से जुड़े लोगों ने आज के हालात में एक शांतिपूर्ण समाज के निर्माण में बौद्धकि वर्ग की भूमिका पर विचार रखे । सभा के अंत में गांधी प्रतिमा पर मोमबत्तियां जलाकर तथा मौन रखकर इस हादसे तथा दे’श भर में सांप्रदायिक, जातीय तथा क्षेत्रवादी हिंसा के शिकार लोगों को श्रद्धांजलि अर्पित की गयी ।

19 अक्टूबर 2008

'अच्छे संदिग्ध' की तलाश

सरहदों के नाम पर आखिर लोग इस कदर एक दूसरे के खून के प्यासे क्यों हो जाते हैं ?
यह सवाल अपने अपने दौर के मनीषियों को हमेशा मथता रहा है। इराक पर अमेरिकी आक्रमण के बाद खुद अमेरिका के अन्दर युध्दविरोधी आन्दोलन के प्रवक्ताओं ने इससे जूझने की कोशिश की है और यह जानना चाहा है कि आखिर प्रबुध्द कहलाने वाला अमेरिकी नागरिक या जनतंत्र का प्रहरी कहलाने वाला मीडिया हुकूमतों द्वारा फैलाये जाने वाले सरासर झूठ पर कैसे यकीन करता है, जिसकी परिणति अन्यायपूर्ण युध्दों में होती हो, जहां हजारों हजार लोग मौत की नींद सो जाते हैं ?
अमेरिका के रैडिकल विद्वान हावर्ड झिन (जिनकी किताब ' ए पीपुल्स हिस्ट्री आफ युनाइटेड स्टेटस' की दस लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं और जो दुनिया के कई अन्य भाषाओं में अनूदित भी हुई है ) ने कुछ समय पहले अपने एक लेख में (Howard Zinn , America's Blinders, April 2006 Issue, Progressive) अपने स्तर पर इसकी विवेचना की थी। उनके हिसाब से इसके दो कारण हैं और उनके मुताबिक अगर इन्हें समझा जा सके तो हम धोखा खाने से बच सकते हैं। वे लिखते हैं : ''एक है समय का आयाम, अर्थात ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य का अभाव और दूसरा है स्थान का आयाम अर्थात, राष्ट्रवाद की सीमाओं के बाहर न सोच पाने की क्षमता।' हावर्ड झिन आगे लिखते हैं कि 'हम लोग दरअसल इस अहंकारपूर्ण विचार के शिकार हैं कि यह मुल्क विश्व का केन्द्र है, अत्यधिक सद्गुणसम्पन्न है, प्रशंसनीय है और श्रेष्ठ है।'
अगर कोई यही प्रश्न हमें पूछे तो हम क्या कह सकते है ?
क्या यही विश्लेषण हमारे लिए काफी होगा या इसमें कुछ बात जोड़नी पड़ेगी, जबकि हम खुद देख रहे हैं कि यहां की सरहदें तो महज भौतिक नहीं हैं, वे तो मानसिक भी हैं, समाजी-सियासी -सांस्कृतिक इतिहास द्वारा गढ़ी भी गयी हैं, जहां हम पा रहे हैं कि मुल्क के अन्दर नयी 'सरहदों' का, नए 'बॉर्डरों' का निर्माण होता दिख रहा है।
फौरी तौर पर कहा जा सकता है कि कर्नाटक में जला दिये गये समुदाय विशेष के प्रार्थनास्थलों की राख से, डांग जिले के एकमात्र मुस्लिम बहुल गांव पर सरकारी शह पर जारी हमलों के बीच से या कंधामाल तथा उड़िसा के विभिन्न हिस्सों से गांवों तथा नगरों से खदेड़ दिए गए और अपने ही मुल्क में शरणार्थी बने लोगों की ''वीरान हो चुकी आंखों से या कुम्हेर, खैरलांजी और गोहाना, हरसौला जैसे दलित अत्याचारों की निशानियों से गणतंत्र हिन्दोस्तां में उभरी इन 'सरहदों' का सवाल फिर एक बार हमारे सामने नमूदार हुआ है और सिर्फ हिंसा के उस प्रगट दौर में ही नहीं बल्कि स्थगित हिंसा के लम्बे दौर में, जब लोग जीवन की सुरक्षा का हवाला देते हुए अपने-अपने 'घेट्टो' में पहुंच रहे हैं।
हावर्ड झिन की बहस को आगे बढ़ाते हुए यह रेखांकित किया जा सकता है कि हुकूमतों के लिए भी यह ज्यादा आसान होता है कि वह 'बाहरी दुश्मनों' के सहयोगी 'आन्तरिक दुश्मनों' पर भी जोर दें ताकि नागरिक न केवल खुशी खुशी अपनी सरकारों के इन खूंरेजी अभियानों में साथ जुड़े बल्कि अपने स्तर पर भी इसी लड़ाई को इन 'आन्तरिक दुश्मनों के खिलाफ तेज करे। 9/11 के बाद अमेरिका ने जहां 'आतंकवाद विरूध्द युध्द' के नाम पर अपने एक समय के सहयोगी ओसामा बिन लादेन के खिलाफ या उसे कथित तौर पर सहयोग प्रदान करनेवाली अफगाणिस्तान की तालिबान हुकूमत के खिलाफ या बाद में इराक पर आक्रमण किया वहीं इसी के समानान्तर उसने एक ऐसा वातावरण निर्मित किया जिसके तहत चन्द जिहादी आतंकवादी नहीं बल्कि 'इस्लाम को ही विश्व शान्ति के लिए खतरे के तौर पर पेश किया गया', जिसका नतीजा हमारे सामने हैं। 'आतंकवाद विरोधी युध्द' के इन सात सालों में कितने बड़े पैमाने पर अमेरिका के अन्दर इस्लाम को मानने वालों को प्रताडित, अपमानित होना पड़ा है, इसका हिसाब लगाना मुश्किल है। विडम्बना यही है कि अमेरिकी अवाम के एक हिस्से ने भी अपनी हुकूमतों का इसमें साथ दिया है और अधिक बारीकी में पड़ताल करेंगे तो हम यह भी देख सकते हैं कि यह कोई स्वत:स्फूर्त किस्म की प्रतिक्रिया नहीं थी, सोविएत रूस के पतन के बाद एवम शीतयुध्द की समाप्ति के पश्चात दुनिया पर अपना प्रभुत्व जमाए रखने के लिए 'सभ्यताओं की टकराहट' की जो थीसिस हंटिगण्टन ने पेश की थी, उसी की यह तार्किक परिणति थी।
हमारे यहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सुप्रीमो गोलवलकर अपनी चर्चित रचना 'बंच आफ थॉटस' में (विचार सुमन) में इसी समझदारी को एक सैध्दान्तिक जामा पहनाते हुए चन्द समुदायों एवम विचारशील समूहों को - मुसलमानों, ईसाइयों एवम कम्युनिस्टों को - देश के आन्तरिक दुश्मन घोषित करते हैं। निश्चित ही उनके गोलवलकर के संकीर्ण एवम एकांगी विचारों को माननेवालों के लिए फिर गुजरात 2002 का जनसंहार या उड़िसा में आज जारी संहार एक तरह से 'देशभक्ति का प्रमाण' बन जाता है।
आजादी के बाद तीन ऐसी राजनीतिक हत्याएं हमारे यहां हुई जिसे किसी न किसी रंग के आतंकियों ने अंजाम दिया। चाहे महात्मा गांधी जैसे विश्वविख्यात नेता की हत्या की बात हो - जिसे हिन्दु महासभा के कार्यकर्ता नाथुराम गोडसे ने गोली मारी, प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी जिन्हें उनके सिख बाडीगार्डों ने मार डाला या पूर्वप्रधानमंत्री राजीव गांधी जो तमिल हिन्दु गुरिल्लों के आत्मघाती हमले में मारे गए, इसके बावजूद हमारे यहां का समूचा वातावरण देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय विशेष के खिलाफ इतना विषाक्त क्यों हुआ है।
निश्चित ही कई छोटे बड़े आतंकी समूह सक्रिय होंगे जो इस्लाम को मानने वाले हों, लेकिन क्या यह जांचा जाना जरूरी नहीं कि हिन्दोस्तान की हुकूमत ने जिन संगठनों पर आतंकी या विघटनकारी संगठनों के तौर पर पाबन्दी लगायी है, उनमें आखिर तीन या चार ही मुस्लिम बहुल क्यों हैं ? इसकी पड़ताल कौन करेगा कि इनमें 'उल्फा' या 'लिट्टे' जैसे हिन्दुबहुल संगठन कितने हैं या कितने सिख, बौध्द या ईसाई बहुल संगठन हैं ?
हाल के समयों में संघ परिवार से सम्बध्द बजरंग दल या विश्व हिन्दु परिषद के कार्यकर्ता कई स्थानों पर बम बनाते पकड़े गए हैं या बम बनाते मारे गए हैं ! अप्रैल 2006 का नांदेड हो, फरवरी 2007 में फिर नांदेड में बम धमाके की घटना हो, जनवरी 2008 का तमिलनाडु स्थित तेनकासी में संघ कार्यालय पर बमों से हमला करने में हिन्दु मुन्नानी संगठन के कार्यकर्ताओं की गिरतारी हो या हाल में महाराष्ट्र के वाशी एवम ठाणे में सिनेमाहालों में बम रखते हुए पकड़े गए 'सनातन संस्था' और 'हिन्दू जनजागृति समिति' के कार्यकर्ता हों या सबसे ताजी घटना के रूप में कानपुर बम धमाकों में बजरंग दल के दो कार्यकर्ताओं की मौत का प्रसंग हो , आदि तमाम घटनाएं एवम प्रसंग हमें क्या बताते हैं ?
क्या आतंकवाद पर समुदायविशेष की इजारेदारी कभी हो सकती है ? या यह मानना उचित होगा कि कोई भी ऐसा धार्मिक, सांस्कृतिक या राजनीतिक समूह ऐसी आतंकी कार्रवाइयों पर उतर सकता है, जब उसे लगे कि उसके 'वास्तविक' या 'आभासी' दुखों का निपटारा ऐसे तरीकों से ही हो सकता है।
पांच साल पहले की बात है। गुजरात 2002 के कतलेआम पर कलकत्ता की कविता पंजाबी और उनके दो सहयागियों ने इस जनसंहार के बच्चों और युवाओं पर असर के बारे में एक मर्मस्पर्शी रिपोर्ट 'अगली पीढ़ी ': जनसंहार की छत्राछाया में ' देखने को मिली थी। वे अपनी इस रपट को पूरी करने के लिए तमाम सारे शिविरों में गयी थीं। जनसंहार ने बच्चों को किस तरह अन्दर से धवस्त किया इसका विवरण यह रिपोर्ट पेश करती है। इस रिपोर्ट में आठ साल का सद्दाम भी है जिसकी तस्वीर भी एक मोहक हंसी के साथ रपट में मौजूद है । कविता पंजाबी बताती हैं कि यह उसके चेहरे का स्थायी भाव है जहां उसने यह कृत्रिम सा मुस्कान चस्पा कर लिया है ताकि कोई यह अन्दाज़ा भी न लगा पाये कि उसने अपनी मां के साथ गन्दा काम होते देखा या उसको काट कर जिन्दा जलाये जाते देखा। उनमें आठ साल का जुनैद भी था। यह वही जुनेद है जिसने न केवल अपने मां बाप को मारे जाते देखा बल्कि अपनी चाचियों या मौसियों को पास के कुएं में मार कर फेंकते भी देखा था जिस कुएं के पास वह और उसके अस्सी साल उम्र के दादाजी घण्टों निहारते बैठे रहे और तीन दिन बाद उसकी चाची उसमें से जिन्दा निकली।
कल बड़ा होने पर सद्दाम या जुनैद या उनमें से कोई अन्य, इन्साफ पाने की सभी सूरतें बेकार पाकर, प्रतिशोध के नाम पर किसी आततायी कार्रवाई में जुट जाये, तो यह समाज क्या यह समझने की कोशिश नहीं करेगा कि इसकी जड़ कहां पर है। क्या समाज अपने गिरेबान में झांक कर नहीं देखेगा कि समाज के मौन, उसकी सहभागिता ने ही हालात को यहां पहुंचाया है या वह टाडा या पोटा के और खतरनाक संस्करण के साथ हाजिर होती हुकूमत की तारीफ में कसीदे पढ़ना अपने कर्तव्य की इतिश्री समझेगा!

सुभाष गाताड़े

नानावटी आयोग का आधा सच

गोधरा कांड की जांच कर रहे नानावटी आयोग ने पहले नरेन्द्र मोदी को क्लीन चिट दे दी और जब इस पर तीव्र प्रतिक्रिया हुई तो आयोग की ओर से अब कहा जा रहा है कि वह तो आधी रिपोर्ट थी और आधी रिपोर्ट अब जारी की जाएगी। पूछा जा सकता है कि नानावटी आयोग को आधी अधूरी रिपोर्ट जारी करने की क्या ज़रूरत थी ? जब छह साल से रिपोर्ट का इंतज़ार किया जा रहा था तो क्या छह महीने और नहीं रूक जा सकता था ? अब आयोग यह भी कह रहा है कि उसने नरेन्द्र मोदी को कोई क्लीन चिट नहीं दी है, जिससे उसकी विश्वसनीयता ही संदेह के दायरे में आ गई है। दरअसल जब आयोग ने नरेन्द्र मोदी को जाकर जांच रिपोर्ट सौंपी थी, तभी यह शक पैदा हो गया था कि कहीं न कहीं कोई गड़बड़ ज़रूर है। जिस आयोग ने पहले नरेन्द्र मोदी को क्लीन चिट दी थी, वही आयोग अब अपनी रिपोर्ट से मुँह क्यों छुपा रहा है ? क्या यह न्यायदान के नैसर्गिक सिध्दांतों का उल्लंघन नहीं है ? इसी के साथ एक महत्वपूर्ण सवाल फिर खड़ा हो गया है कि किसी भी बड़े कांड की जांच किसी आयोग को सौंपना कितना न्यायसंगत है ?
अब जबकि नानावटी आयोग ने आधी रिपोर्ट जारी करने की बात कही है तो यह बात भी उठ रही है कि उस पर भारी दबाव था। ऐसे में प्रश्न सहज ही उठता है कि जब आधी रिपोर्ट जारी करने के लिए दबाव बनाया गया तो पूरी रिपोर्ट जारी करने के लिए कितना दबाव बनाया जा रहा होगा ? सवाल यह है कि आयोग को आधी रिपोर्ट जारी करने की क्या ज़रूरत थी ? क्या वह इसके ज़रिये यह जानने की कोशिश कर रहा था कि देखें, इसकी क्या प्रतिक्रिया होती है और उसी के आधार पर शेष रिपोर्ट जारी की जाए ? जब सब तरफ से इस कथित आधी रिपोर्ट की लानत-मलामत हुई है तो मज़बूरी में आयोग को यह कहना पड़ रहा है कि वह तो आधी रिपोर्ट थी, आधी रिपोर्ट और आना बाकी है। अपनी पहली रिपोर्ट में आयोग ने कहा है कि गोधरा स्टेशन पर ट्रेन में आग एक साज़िश के तहत लगाई गई थी और यही बात नरेन्द्र मोदी शुरू से कहते आ रहे थे। क्या इससे यह नहीं लगता कि आयोग भी मोदी की भाषा बोल रहा है। अब जबकि आयोग गोधरा कांड को एक साजिश बता चुका है, जिसकी भारी आलोचना हुई है तो क्या अब आयोग अपनी दी हुई रिपोर्ट को वापस ले लेगा ? नरेन्द्र मोदी के प्रति आयोग की सहानुभूति उसके इस कथन से भी होती है कि मोदी सरकार ने मानवाधिकार आयोग के निर्देशों का ईमानदारी से पालन किया है। यहाँ यह भी जान लेना ज़रूरी है कि मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा ने नानावटी आयोग के गठन के समय ही तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को चिट्ठी लिखकर कहा था कि इस तरह के जांच आयोग पूरी तरह अनुपयोगी हैं। जिस मानवाधिकार आयोग ने नानावटी आयोग के गठन पर ही सवाल उठाया था, उसकेश् बारे में नानावटी आयोग को यह कहने की क्या ज़रूरत थी कि मोदी सरकार ने मानवाधिकार आयोग के निर्देशों का ईमानदारी से पालन किया है ? क्या इससे नानावटी आयोग की विश्वसनीयता पर सवाल नहीं उठता है ? क्या यह विरोधाभासी तथ्य नहीं है कि मानवाधिकार आयोग ने मोदी सरकार पर अंगुली उठाई थी और नानावटी आयोग उसकी तारीफ के पुल बांध रहा है ? इस विरोधाभास का क्या अर्थ है ? नानावटी आयोग का गठन केन्द्र सरकार ने किया था, लेकिन आयोग ने जिस तरह रिपोर्ट बना कर नरेन्द्र मोदी को सौंपी, उससे लगता है कि उसका गठन मोदी सरकार ने किया था। आखिर आयोग को अपनी आधी -अधूरी रिपोर्ट नरेन्द्र मोदी को सौंपने की क्या ज़रूरत थी ? आयोग ने अपनी विश्वसनीयता खुद ही कटघरे में खड़ी कर ली है।
गोधारा कांड की आधी रिपोर्ट आने और उस पर बवाल मचने के बाद अब यह मांग फिर उठने लगी है कि सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को किसी भी जांच आयोग का अधयक्ष नहीं बनाया जाना चाहिए। यह मांग उठाने की भी एक वज़ह है। जीवन भर सरकारी पद की प्रतिष्ठा और सुविधाओं का लाभ उठाने के बाद जब सेवानिवृत्त न्यायाधीश को फिर से कोई ज़िम्मेदारी मिलती है तो उसकी रूचि जांच कार्य जल्दी पूरी करने में कतई नहीं होती है। उसकी नज़र पद की प्रतिष्ठा और सरकारी सुविधाओं का उपभोग करने पर होती है। इसीलिए वह आयोग का कार्यकाल बार-बार बढ़वाने की ही जुगाड़ करता रहता है। यह सिर्फ नानावटी आयोग की ही बात नहीं है। स्वतंत्र भारत में गठित एक भी आयोग ने अपना काम तय समय सीमा में पूरा नहीं किया है। नानावटी आयोग ने छह साल में आधी अधूरी रिपोर्ट तो जारी कर दी है, जबकि बाबरी विधवंस की जांच कर रहे लिब्रहान आयोग की तो चौदह साल भी कम पड़े हैं और इसकी रिपोर्ट कब तक आएगी, यह कोई ज्योतिषी भी नहीं बता सकता है। ऐसे में इस बात पर गंभीरतापूर्वक विचार करने के बाद अमल भी होना चाहिए कि किसी भी आयोग की जांच सेवानिवृत्त न्यायाधीश को नहीं सौंपी जाए।
न्यायदान के प्रति भारत में कहा जाता है कि अदालत में दूधा का दूधा और पानी का पानी हो जाता है, लेकिन नानावटी आयोग ने अपनी आधी अधूरी रिपोर्ट में दूध का पानी बना कर यह सिध्द कर दिया है कि स्वतंत्र भारत में कुछ भी असंभव नहीं है। तहलका डॉट कॉम ने अपने स्टिंग ऑपरेशन के ज़रिये पहले ही यह साबित कर दिया था कि गोधरा कांड के गवाहों को पैसा देकर किस तरह खरीदा जा रहा है। यह रिपोर्ट जारी होते समय ही यह तय हो गया था कि नानावटी आयोग दोषी लोगों के गिरहबान तक हाथ नहीं डाल सकेगा। अब आयोग की रिपोर्ट आने के बाद तहलका की रिपोर्ट सच साबित हुई है। अपनी आधी रिपोर्ट जारी होने के बाद नानावटी आयोग को अब सफाई देना पड़ रही है और शेष आधी रिपोर्ट देने के बाद उसकी क्या दुर्गति होगी, इसका अंदाज़ लगाना भी मुश्किल है। गोधारा कांड और उसके बाद भड़के दंगे के बारे में पूरा देश जानता है कि नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार के साथ भगवा ब्रिगेड ने गुजरात में कितना उत्पात मचाया था, लेकिन नानावटी आयोग इस सच्चाई को सामने लाने में पूरी तरह नाकाम रहा है। ऐसे में उसकी शेष आधी रिपोर्ट पर भी बदनामी के बादल छाना तय है। किसी भी आयोग के गठन के वक्त अक्सर यह सवाल उठाया जाता है कि यह मामले को ठंडा कर उसे दबाने की चाल है, नानावटी आयोग ने इस धारणा को और पुष्ट किया है।

महेश बाग़ी