निरुपमा पर जब पिछली पोस्ट लिखी थी तब, ज़ाहिर तौर पर, बेहद व्यथित था…अब भी हूं…
पिछली पोस्ट में एक पिता की तरह चीज़ों को देखने की कोशिश की थी…इस बार प्रेमी की तरह देखना चाहता हूं। मेरे एक दोस्त थे…गोरखपुर के…साथी कार्यकर्ता भी…उन्हें भी प्रेम था…लड़की के परिवार वाले बिल्कुल ख़िलाफ़…घर से निकलना तक बंद…बड़ी मुश्किल से परीक्षा के लिये दोनों निकल पाये…सबने मिलकर प्लान बनाया…परीक्षा के बीच से दोनों बाहर निकले…फिर शहर से बाहर…दोस्तों की मदद से शादी हुई…एम ए में फेल हो गये पर ज़िन्दगी के इम्तिहान में पास…आज मित्र स्थापित पत्रकार है…पत्नी पढ़ाती हैं…सब लगभग ठीकठाक है।
मेरी जब शादी हुई तो मैं भी बेरोज़गार था…पत्नी ग्वालियर में थीं…घर वाले बिल्कुल तलवारे ताने…पर हमने कोर्ट मैरेज़ गोरखपुर में ही की दोस्तों के भरोसे और आज सब ठीक ही है…
जो मै कहना चाह रहा हूं वह यह कि दो पत्रकार जो एक बड़े अख़बार में काम कर रहे हैं…घर से दूर हैं…अपने पैरों पर खड़े हैं…उन्हें शादी का निर्णय लेने से कौन रोक रहा था? आख़िर यह कौन सी बात हुई कि आप सब जानते हुए…ख़ासकर तब जबकि गर्भ जैसी स्थिति है, शादी करने की जगह अनुमतियां बटोर रहे थे?
इस ब्राह्मणवादी समाज में पिता का यथासंभव इस अन्तर्जातीय संबंध को रोकना समझ आता है…उससे और उम्मीद भी क्या किया जाये? लेकिन दो पढ़े-लिखे युवाओं का ऐसी बेचारगी का शिक़ार होना नहीं समझ आता!
जिस नैराश्य या फिर अकेलेपन का शिक़ार होकर निरुपमा ने आत्महत्या की या फिर ऐसी स्थितियों में फंसी जहां उसकी हत्या संभव हुई क्या वे दोनों इसे मिलकर टाल नहीं सकते थे? क्या प्रेमी ऐसी परिस्थिति में आने से पहले शादी का निर्णय नहीं ले सकता था?
मेरा इरादा किसी की व्यक्तिगत ज़िंदगी में झांकना नहीं लेकिन यह पूरा घटनाक्रम एक ग़लत नज़ीर पेश करता है…मेरी समस्या बस इससे है…