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09 मई 2010

निरुपमा केस - एक प्रेमी की निगाह से

निरुपमा पर जब पिछली पोस्ट लिखी थी तब, ज़ाहिर तौर पर, बेहद व्यथित था…अब भी हूं…

पिछली पोस्ट में एक पिता की तरह चीज़ों को देखने की कोशिश की थी…इस बार प्रेमी की तरह देखना चाहता हूं। मेरे एक दोस्त थे…गोरखपुर के…साथी कार्यकर्ता भी…उन्हें भी प्रेम था…लड़की के परिवार वाले बिल्कुल ख़िलाफ़…घर से निकलना तक बंद…बड़ी मुश्किल से परीक्षा के लिये दोनों निकल पाये…सबने मिलकर प्लान बनाया…परीक्षा के बीच से दोनों बाहर निकले…फिर शहर से बाहर…दोस्तों की मदद से शादी हुई…एम ए में फेल हो गये पर ज़िन्दगी के इम्तिहान में पास…आज मित्र स्थापित पत्रकार है…पत्नी पढ़ाती हैं…सब लगभग ठीकठाक है।

मेरी जब शादी हुई तो मैं भी बेरोज़गार था…पत्नी ग्वालियर में थीं…घर वाले बिल्कुल तलवारे ताने…पर हमने कोर्ट मैरेज़ गोरखपुर में ही की दोस्तों के भरोसे और आज सब ठीक ही है…

जो मै कहना चाह रहा हूं वह यह कि दो पत्रकार जो एक बड़े अख़बार में काम कर रहे हैं…घर से दूर हैं…अपने पैरों पर खड़े हैं…उन्हें शादी का निर्णय लेने से कौन रोक रहा था? आख़िर यह कौन सी बात हुई कि आप सब जानते हुए…ख़ासकर तब जबकि गर्भ जैसी स्थिति है, शादी करने की जगह अनुमतियां बटोर रहे थे?

इस ब्राह्मणवादी समाज में पिता का यथासंभव इस अन्तर्जातीय संबंध को रोकना समझ आता है…उससे और उम्मीद भी क्या किया जाये? लेकिन दो पढ़े-लिखे युवाओं का ऐसी बेचारगी का शिक़ार होना नहीं समझ आता!

जिस नैराश्य या फिर अकेलेपन का शिक़ार होकर निरुपमा ने आत्महत्या की या फिर ऐसी स्थितियों में फंसी जहां उसकी हत्या संभव हुई क्या वे दोनों इसे मिलकर टाल नहीं सकते थे? क्या प्रेमी ऐसी परिस्थिति में आने से पहले शादी का निर्णय नहीं ले सकता था?

मेरा इरादा किसी की व्यक्तिगत ज़िंदगी में झांकना नहीं लेकिन यह पूरा घटनाक्रम एक ग़लत नज़ीर पेश करता है…मेरी समस्या बस इससे है…

06 मई 2010

मैं और क्या करुं निरुपमा?

निरुपमा केवल उस लड़की का नाम नहीं रहा अब जो एक पत्रकार थी, जिसके लिये उसका परिवार बेहद प्रिय था, जो प्रेम करती थी…जिसे प्रेम करने की सज़ा मिली…

हमें माफ़ करना निरुपमा! 
अब यह नाम उन तमाम लड़कियों का है जो इस ग़लतफ़हमी का शिक़ार हो जाती हैं कि प्रेम दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत चीज़ है और इसकी भी कि दुनिया में सब तुम्हारे दुश्मन हो जायें पर मां-बाप का दामन हमेशा तुम्हें समेटने को तैयार होता है। पर वह नहीं जानती थी कि जिस मनु स्मृति को अंबेडकर ने वर्षों पहले जला दिया था वह इस देश के ब्राह्मणवादी सवर्ण समाज में इतने गहरे धंसी है कि साठ साल पुराना संविधान उसके सामने कहीं नहीं ठहरता। हर घर में एक खाप पंचायत है और हर घर में एक यातनागृह जहां धर्मच्युत औरतों को सूली पर चढ़ा दिया जाता है और धर्मपालक औरतों को ज़िंदगी भर तिल-तिल कर मरने का इनाम दिया जा सकता है। वे इसे नारी की पूजा कहते हैं!

और इस आधुनिक समाज में इसके परोक्ष समर्थकों की कोई कमी नहीं जो कहेंगे कि हर मां-बाप का फ़र्ज़ बच्चे को सही सलाह देना होता है। 'क्षमा बड़न को चाहिये' बस बचपन के किस्सों की चीज़ है…वे कभी इस सवाल का जवाब नहीं देंगे कि उन सुख-सुविधाओं का क्या अर्थ है जब ज़िन्दगी के सबसे मुश्किल मुकाम पर वे साथ ही न खड़े हो सकें।

तुझसे नहीं अपने आप से वादा है यह
जब मैने अन्तर्जातीय शादी की थी तब मुझे भी अकेला छोड़ दिया गया था…पर हम खड़े हुए अपने दम पर…बहुत सारे भ्रम टूटे पर मिलकर फ़ैसला लिया था कि अभी झुकेंगे नहीं और अपनी औलाद को कभी अकेला नहीं छोड़ेंगे…आज मे्री 9 साल की बिटिया से मेरा वादा है…तेरी ख़ुशी में न आ सका तो कोई बात नहीं पर तेरे हर दुख में तेरे साथ रहुंगा…

मैं और क्या करुं निरुपमा…?