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14 जून 2010

आज के कवियों का लेखन निरुद्देश्य है- बोधिसत्व (अंतिम क़िस्त)

(पिछली क़िस्तों में बोधिसत्व ने हिन्दी कविता की परंपरा, उसके कुछ जातीय लक्षणों आदि पर विस्तार से बात की। इस अंतिम क़िस्त में वह इसी रोशनी में पिछले बीस साल की कविता को देखते हैं)

(पाँच)

तो आज के जो भी कवि लिख रहे हैं उनके लेखन का ऐसा कोई बड़ा उद्देश्य नहीं है। वे केवल लिख रहे हैं। निरुद्देश्य लेखन का इतना बड़ा साम्राज्य शायद ही कभी हिंदी कविता में आया हो। आज साम्प्रदायिकता के खिलाफ लिखने का फैशन कमजोर हो गया है तो ऐसा लग रहा है कि लेखकों के पास कहने और कहने को कुछ बचा ही नहीं है। दलितों की समस्या, स्त्रियों की दुनिया, किसानों की सूखी रूखी भूमि से सुखी समाज के लेखकों का कोई वैसा नाता नहीं है। तथ्य यह भी है बहुत कम लेखक ऐसे है जो किसान-घर से आकर भी किसान जीवन पर नहीं लिखते। आज हिंदी कवियों की दुनिया एक खाते कमाते सुखी लोगों को लोक है। उसकी संबद्धता किसी बड़े व्यापक जन आंदोलन से नही जुड़ती।


बातें शायद मैं कुछ अटपटी कर रहा हूँ लेकिन क्या यह तथ्य नहीं है कि जो आज कविता के नाम पर लिखा जा रहा है वह सब खाना पूरी सा है। इसीलिए पिछली कई पीढ़ियों से कविता के भूगोल में कोई बड़ा बदलाव नहीं दिखा है। आज न कोई वाद है न कोई आंदोलन न कोई काल विभाजन। कितना दुर्भाग्य है हिंदी कविता का कि आज उसका कोई नाम नहीं है। आठवें दशक की कविता कहने से आप किस कवि और किस कविता का चेहरा देख पाते हैं। मेरी सबसे बड़ी समस्या यह है कि 1990 से 2010 तक कविता को क्या कह कर पुकारूँ। पिछले बीस सालों की ही क्यों 1970 से 1990 तक की कविता का भी तो कोई नाम नहीं है। सचाई यह है कि हिंदी साहित्य में आखिरी नाम शायद प्रयोगवाद या नई कविता का है या नकेन वाद-प्रपद्य वाद का। एक नामकरण हुआ था जिसमें साहित्य के एक दौर के लेखकों को भूखी पीढ़ी, नंगी पीढ़ी आदि कह कर पुकारा गया। लेकिन आज न वे लेखक हैं न उनके वंशज। नई कविता और नई कहानी के बाद के तो किसी भी विधा का कोई नामकरण हुआ ही नहीं। एक रोचक और दुखदाई तथ्य यह है कि हिंदी उपन्यास में कभी कोई नामकरण हुआ ही नहीं। प्रेमचंद पूर्व-प्रेमचंद कालीन-प्रेमचंदोत्तर यह है तीन काल विभाजन और नामकरण हिंदी उपन्यास के। यानी आज तक का पूरा हिंदी उपन्यास 1936 से अब तक प्रेमचंदोत्तर उपन्यास है और अगले नामकरण तक वह प्रेमचंदोत्तर ही बना रहेगा। यह नामकरण का शुभ कार्य शायद किसी रामचंद्र शुक्ल के पुनर्जन्म की प्रतीक्षा में स्थगित है। क्योंकि आज के आलोचक बड़े संकोची हैं किसी का नामकरण करके अपनी मर्यादा की सीमा तोड़ना नहीं चाहते। आंचलिक उपन्यासों को छोड़ दे तो पूरा कथा साहित्य बेनाम है।


तो मैं क्या करूँ। आज की कविता को क्या कह कर संबोधित करूँ, क्या नाम दूँ। क्या कहूँ नवे दशक की कविता दशवें दशक की कविता 1990 से 2000 तक की कविता या 2000 से 2010 की कविता। या फिलहाल के लिए यह नामकरण का कार्य किसी आलोचक के लिए छोड़ कर 20 साल की कविता और उसके कवियों पर अपनी राय दूँ और चुप रहूँ। तो मैं यही करता हूँ।

आज के कवियों का बड़ा हिस्सा ऐसा है जो गाँव में जन्में और छोटे शहरों के रास्ते होते महानगरों में में पहुँचे हैं। गिनती के कुछ ही कवि हैं जो गाँवों के करीब के जनपदों और कस्बों में रह रहे हैं।


बड़े नगरों या महा नगरों के कवियों में बहुधा गाँव छूटने का दर्द या गाँव में छूट गए सामानों की याद से भरा पड़ा है। कुछ कवियों ने तो खोज-खोज कर ऐसे सामानों की सूची बनाई फिर उसे कविता के रूप में पेश किया। उनका नाम यहाँ लेना जरूरी नहीं समझता। ऐसे कवियों ने कविता को लगभग निंबध की तरह पूरा किया। उनके लिए आम का अचार और पीतल का लोटा, भी एक पूरी कविता का माध्यम बना। ऐसे घरू मोह कविताओं से हिंदी कविता का परिदृश्य अक्रांत है। और इस तरह की कविता लिखने का दौर थमता नहीं दिखता। अक्रिय घरू मोह क्योंकि हर नई पीढ़ी इस तरह से अपने गाँव को याद करेगी और हिंदी कविता को ग्राम-वियोग के भावों से भरेगी। ऐसा नहीं कि मैं इस तरह की कविता के खिलाफ हूँ। ऐसा लेखन तो होगा ही। लेकिन उसमें कोई नया पन तो हो।

(छ:)

जिन कवियों ने अपनी कविताओं कुछ नया कहने की कोशिश की है उनमें शिरीष कुमार मौर्य, हरि मृदुल, हरे प्रकाश उपाध्याय, राकेश रंजन, कुमार अनुपम, निशांत, मनोज झा, जैसे कवियों का नाम लेना चाहूँगा। इनकी कविता में ऐसा नहीं कि घरू मोह नहीं है। किंतु इन्होंने अपने कथन से कविता को एक नया पन दिया है। इन कवियों ने कहीं भी अपने पीछे के कवियों से प्रभाव ग्रहण करने की कोशिश नहीं की है। उदाहरण के लिए राकेश रंजन के संग्रह चाँद की वर्तनी में संकलित गाय शीर्षक कविता को देख सकते हैं।

जब भी कोई उत्सव होता
बाबा उसे सजाते थे
कभी-कभी तो उसे पूजते
आरती दिखाते थे।

यही कविता यदि कोई निबंध वादी कवि लिख रहा होता तो बहुत देर तक वह गाय के रूप रंग पर लगा होता। लेकिन राकेश रंजन को तो वह कहना है जो लोग नहीं कह रहे हैं। ऐसी गाय जो कि सब सह लेती थी और कुछ भी नहीं कहती थी। वह आँसू पीकर खूँटे से बधी रहती थी। ऐसी गाय को जब लाचार बाबा ने बेंच दिया। तब राकेश रंजन लिखते हैं-

चली गई वह देह सिकोड़े
मुँह लटकाए रोती सी
संझा के बोझल पलछिन में
दृग से ओझल होती सी

कहाँ गई वह चिर दुखियारी
बस्ती या बिराने में
हरे भरे से चरागाह में
या फिर बूचड़ खाने में ?
यह गाय नहीं एक गरीब की बेटी के बिकने की अन्तर्कथा है। यह कविता मुझे भिखारी ठाकुर के बेटी-बियोग कथा की याद दिलाती है। जहाँ एक पिता अपनी सब कुछ सहने वाली चुप रहने वाली पुत्री को किसी के हाथ बेंचता है। भिखारी ठाकुर की एक पंक्ति है-
चेरिया के छेरिया बनवले हे बाबूजी

यानी अपनी पुत्री को बकरी बना कर बेंच दिया पिता ने। राकेश रजन से एकदम अलहदा ढंग से शिरीष मौर्य ने अपनी कविता को एक नया पन दिया है। उनके यहाँ कोई अतिकथन का माहौल नहीं है। ट्रैक्टरों के खेतों में उतरने से एक तरफ किसान को सहूलियत हुई है तो वहीं इस बदलाव से एकांत में छूटते जा रहे एक कमजोर हल का दुख दर्ज करते हैं। यह हल अकेला हल नहीं बल्कि वह कम जोत वाला किसान भी है जो   
कही छूटता जा रहा है-

दिन भर की जोत के बाद पहाड़ में
मेरे घर की दीवार से सट कर खड़ा वह
मुझे किसी दुबके हुए जानवर की तरह
लगता है

आज के ये युवा कवि निश्चय ही अपने पीछे के कवियों से राह बनाना सीख रहे हो फिर भी ये किसी के पद चिन्ह पर चलते नहीं दिख रहे। एकांत श्रीवास्तव, निलय उपाध्याय, मोहन डहेरिया, हरिओम राजौरिया, अष्टभुजा शुक्ल बद्री नारायण, आदि कवियों की काव्य चेतना से अप्रभावित है इन कवियों की ग्राम चेतना। हरे प्रकाश उपाध्याय आज के गाँव का न बदलता सच अपनी इस बरस कविता में रेखांकित करते हैं-

बढ़ई इस बरस चीरेगा लकड़ी
लोहार लोहा पीटेगा
चमार जूता सिएगा
और पंडीजी कमाएँगे जजमनिका
बेदमन्त्र बाँचेंगे
पोथी को हिफ़ाज़त से रखेंगे
और सबकुछ हो पिछले बरस की तरह
आशीर्वाद देंगे ब्रह्मा, विष्णु, महेश....!


हरि मृदुल के यहाँ पहाड़ की दुनिया है। शायद हरि अकेले कवि है जो पहाड़ को बिना अतिरिक्त लाग लपेट के दर्ज कर पाते हैं।

ऐसा नहीं कि जिस कविता ने आज की समकालीन कविता के परिदृश्य को भरा है उनमें सिर्फ वे कवि है जो ग्रामीण चेतना से भरे हैं। उन कवियों में ऐसे भी कई कवि हैं जो अपनी ऊर्जा तो अपने ग्राम जीवन से पाते हैं लेकिन उनकी दृष्टि से शहरी समाज और उसका सच कभी भी ओझल नहीं हो जाता। पिछली पीढ़ी में भी कई कवि ऐसे हैं जिन्हेंने अपने लेखन से हिंदी कविता को समृद्ध किया है इनमें संजय कुंदन, अनिल कुमार सिंह, सुंदरचंद ठाकुर, हेमंत कुकरेती, आर चेतल क्रांति, पवन करण, नरेश चंद्रकर का नाम प्रमुखता से सामने आया था। आज के शहरी परिवेश में जिन कवियों ने अपन लेखन में दर्ज किया है उनमें बसंत त्रिपाठी, तुषार धवल, रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति, रविकांत, उमा शंकर चौधरी अंशुल त्रिपाठी, प्रांजल धर, रमेश पाण्डेय, विशाल श्रीवास्तव, भरत प्रसाद का नाम प्रमुख है। बसंत त्रिपाठी की कविता में उनका स्वअर्जित काव्य कौशल है जिसके सहारे वे एक अलग कोटि की कविता बुनने में कामयाब हो जाते हैं। तबी तो वे एक अधेड़ स्त्री की धार्मिकता के पाखण्ड को ठीक से देख पाते है-
वह साल में एक बार
बृंदावन जरूर जाती है
और निठल्ले भक्तो के साथ
राधे-राधे करती बृंदावन की गलियाँ घूमती है
और.......

अपनी बड़ी बेटी की प्रेम पाती पकड़ते ही
पिछले साल
उसे गर्म सलाख से दाग दिया था।
यह एक अलग तरह का वर्ग है जो प्रेम पर पहरे लगाने के लिए ही समाज में बना हुआ है जैसे। तुषार धवल कम लिखते हैं लेकिन उनका काव्य बोध अलग होता है। अपनी एक कविता में बहनें में एक अलग शब्दावली में बहनों का दुख दर्ज करते हैं-
आंगन में बंधे खम्भे से
लट सी उलझ जाती हैं
बहनें
और
दर्द की एक सदी
खुली छत की गर्म हवा में
कबूतर बन उड़ जाती है।
यदि तुषार के यहाँ संबंधों का एक पहलू है तो प्रांजल धर की कविता में बहने आज भी भाइयों के लिए अपनी उमर तक का दान देती दिखती हैं। लेकिन उस चिट्ठी के लिए भाई के घर में कूड़े दान के अलावा कोई जगह नहीं है-
फूलदार लकीरों से रेखांकित शब्द थे
बहन की चिट्ठी में
आई जो बहुत दूर से थी
भैया को मेरी उमर लग जाए।
विशाल ने कुछ बहुत ही अलग तरह की कविताएँ लिखी हैं। वे कम लिखते हैं लेकिन इनका स्वर उन बहतु सारे सव्रों को दर्ज करता है जो मुन्नू मिसिर की तरह कहीं इतिहास के पन्नों और भव्य सभाओं में जगह नहीं पाते-
बहुत पक्का गला है मुन्नू मिसिर का
अद्भुत गाते हैं मुन्नू मिसिर
फिर भी भव्य सभाओं में नहीं जाते मुन्नू मिसिर
कहीं किसी किताब में नहीं छपा है उनका नाम
उनके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं
रमेश पाण्डेय शायद अकेले कवि हैं जिनकी कविता में जंगल का जीवन दिखता है। किसान दिखता है और वे उस किसान में को रोता नहीं बल्कि किसी और रूप में देखना चाहते हैं, वे अच्छा होता कविता में कहते हैं कि-
मुझे अच्छा नहीं लगता
मेड़ पर बैठकर
सिसकता किसान
अच्छा होता
अब सुबह शाम वह
पुरबी कुएँ की जगत पर
घिसता अपनी कुल्हाड़ी।

उमाशंकर ने अपनी कविता में उस स्त्री को दर्ज किया है जिसका जीवन एक खिड़की के आस पास बीत जता है। यह दृश्य शायद शहर के लोगों के लिए दर्ज करने लायक न हो लेकिन उमा शंकर इस तरह के जीवन की त्रासदी को ठीक से देख पाते हैं। वे देख पाते हैं कि किस तरह वह औरत उस खिड़की से संसार को देखने में लगी है-
वह औरत उस छोटी खिड़की से
देखती है गली में, उस सब्जी वाले को
देती है आवाज गली में खेलते अपने बच्चों को
और करती है इंतजार काम पर से
अपने पति के लौटने का।
छोटी खिड़की कभी बंद नहीं होती।

कुमार अनुपम के यहाँ भरा पूरा घर संसार है। उसमें वे बड़ी बुआ का दुख देख पाते हैं। हमारे घरों में किस तरह लड़कियाँ बिन ब्याही रह जाती है सालों साल। वे घर में बैठ कर गिनती रह जाती है उमर और घर की लड़किया खत्म हो जाती हैं जैसे बड़ी बुआ खोत्म हो गई शायद-
बड़ी बुआ बस बटोरती रहीं
गिरे बाल और नेग।

रविकांत का लिखने का अपना ढंग है। उनका जीवन को लेकर सोचने का ढंग थोड़ा सूफियाना है। वे हर घटना और उसके हर पहलू की पड़ताल करके इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि रुकना बेमानी है । अपने संग्रह यात्रा की एक कविता गिरे तो क्या हुआ कविता में वे कहते हैं-
मुसाफिरी से भरा यह जीवन
जो मिला सो मिला
गलियों में छूटते बच्चे
जो हुआ सो हुआ

अंशुल त्रिपाठी की कविता अपने मित कथन के लिए ध्यान खीचती है। वे बोलना कम चाहते हैं और उनकी कविता सवाल बड़े खड़ी करती है। वे स्त्री जाति के लिए बहुधा चिंतित दिखते हैं। इतिहास में स्त्रियों का स्थान खोजते दिखते है। वे प्रश्न करते हैं कि इतिहास में सित्रियाँ कहाँ थी-
अपने बाँझपन का इलाज कराने में व्यस्त
रानियाँ थीं
गर्भ सम्हाले टहलती हुई दासियाँ थीं
आखेट पर जाकर न लौटने वाली दासियाँ थीं
मकबरे पर रोने को थी वेश्याएँ
इतिहास में स्त्रियाँ कहाँ थी।

भरत प्रसाद न इधर बड़े श्रम से कविता लिखने की कोशिश की है। उन्होंने कुछ अछूते विषयों को कविता के संसार में दाखिला दिलवाया है। एक समय था कि जब प्रकृति की ओर लौटने की बात की जाती थी। लेकिन भरत प्रसाद प्रकृति की सुंदरता से आत्म विभोर हो जाते हैं। तभी तो प्रकृति की ओर कविता में वे लिखते हैं-

मैं तो अल्हड़ बचपन से
झुकी हुई सांवली घटाओं में
धारासार दूध बरसता हुआ
देखता चला आ रहा हूँ।

आत्मविभोर कर देने वाला
यह विस्मय
मुझे प्रकृति के प्रति
अथाह कृतज्ञता से
भर देता है।

मनोज कुमार झा को पिछले साल का भारत भूषण सम्मान मिला है। उनकी उपस्थिति हिंदी कविता को थोड़ा और बल प्रदान करती है। उनकी भाषा बड़ी तरल है और उनमें
एक अलग तरह का शब्द संस्कार भी झलकता है। उनकी कविता में एक भरा पन है तो बड़ी प्रतीक्षा के बाद हिंदी कविता के इलाके में आ पाया है। मनोज की एक कविता है प्रतीक्षा जिसमें एक छुपी हुई दैहिक सांद्रता है-

देह छूकर कहा तूने
हम साथ पार करेंगे हर जंगल
मैं अब भी खडा हूँ वहीं पीपल के नीचे
जहाँ कोयल के कंठ में काँपता है पत्तों का पानी।
(सात)

गीत चतुर्वेदी, गिरिराज किराडू, पीयूष दइया, यतीन्द्र मिश्र, व्योमेश शुक्ल, उन कुछ कवियों में हैं जिनके यहाँ हिंदी कविता का सबसे निर्मल रूप दिखता है। आप शुद्ध काव्य के रूप में इन कवियों की कविता को देख सकते हैं। इनके काव्य संसार में न केवल वर्णन का अपना ढंग है बल्कि इनकी कविता का कथ्य भी अलहदा है। यहां न तो कोई विरोध है न संघर्ष।

गीत चतुर्वेदी की कविता आलाप में गिरह उनके काव्य सुर की सच्ची गवाही देती है। वहाँ न कोई आग्रह है न आकांक्षा केवल स्थिति है और उसका उल्लेख है- पढ़े पूरी कविता

जाने कितनी बार टूटी लय
जाने कितनी बार जोड़े सुर
हर आलाप में गिरह पड़ी है

कभी दौड़ पड़े तो थकान नहीं
और कभी बैठे-बैठे ही टप् से गिर पड़े
मुक़ाबले में इस तरह उतरे कि उसे दया आ गई
और उसने ख़ुद को ख़ारिज कर लिया
थोड़ी-सी हँसी चुराई
सबने कहा छोड़ो भी
और हमने छोड़ दिया
गिरिराज किराड़ू की कविता के बारे में यही कह सकता हूँ कि उनका शब्द संसार मुझे उलझन में जालता है। वे बीतरागी की तरह दुनिया पर एक निगाह डालते हैं-
सुंदर भी वैसे ही नष्ट करता है
यह मेरे न रहने के बाद होती हुई बारिश है
उतना ही खिलाती हुई उतना ही ढहाती हुई
यह मेरे न रहने के बाद मरती हुई दुनिया है
उतनी ही सम्मोहक उतनी ही अवसन्न 
पीयूष दइया हमेशा ही छोटी कविताएँ लिखते हैं। उनका कथन संस्कृत सूक्तियों की याद दिलाता है। उनकी छु्अन कविता देखें-
आवाज़ के पता होने में
छुअन है
बारिश की
बूंदों के जोड़ से बनती

उफ़ !
यह दिल बना है
चलते-चलते

पूरा होता
किस्तों के भेस में
हमेशा वास्ते

यतीन्द्र मिश्र ने बहुत तेजी से हिंदी कविता में अपना मुकाम हासिल किया है। उनके पास एक बहुत सधी हुई भाषा है। कभी-कभी उनकी शब्द सम्पदा देख कर अचम्भा होता है।
इस भूगोल का अपना सुनील जल
काँपता रहता हर पल नई तान पर
संशय का एक पीला पत्ता इसमें गिर जाने से
बदल देता तान को नए सिरे से।

व्योमेश शुक्ल की कविता पर लोगों का ध्यान उनके कथन के कारण गया था। आज भी उनके कहने का ढंग निराला है, उनकी कविता की निष्पतियाँ आकर्षित करती हैं। दीवार पर शीर्षक उनकी एक कविता देखें-
गोल, तिर्यक, बहकी हुईं
सभी संभव दिशाओं और कोणों में जाती हुईं
या वहाँ से लौटती हुईं
बचपन की शरारतों के नाभिक से निकली आकृतियाँ
दीवार पर लिखते हुए शरीफ बच्चे भी शैतान हो जाते हैं 

(नौ)

हिंदी में इतनी कम कवयित्रियाँ सक्रिय हैं कि लज्जा आती है। ले देकर कुल 7 या 10 कवयित्रियाँ के नाम हैं जिनके इर्द-गिर्द पूरा हिंदी समाज पिछले 15 20 सालों से घूम रहा है। अनामिका, गगन गिल, तेजी ग्रोवर, सविता सिंह, अनिता वर्मा जया जादवानी और निर्मला गर्ग। इनके बाद जो पीढ़ी आई है उनमें  नीलेश रघुवंशी, संज्ञा सिंह,  राजुला शाह, रंजना जायसवाल, रंजना श्रीवास्तव, का नाम लिया जा सकता है। संथाली मूल की कवयित्री निर्मला पुतुल का नाम भी लिया जा सकता है। तो भी हिंदी कविता का समकालीन परिदृश्य बहुत सघन नहीं दिखता है।
राजुला शाह की कविता में
इस जनम में

फिर भी
इस जनम में
तुमसे ही
बाकी सब
अपनी जगह पर है
इसलिए
मैं कहीं भी रहूँ
तुम यहीं रहना
मैं कुछ भी कहूँ
तुम यही कहना
मैं हूँ
मैं रहूँगी।

रंजना जायसवाल काफी दिनों से लिख रही हैं। और उनके लेखन की प्रौढ़ता उनकी कविता में दिखती है। उनकी आकांक्षा कविता में एक स्त्री के अधूरे सपनों का दुख दिखता है-
स्त्री
निचोड़ देती है
बूँद-बूँद रक्त

फिर भी
हरे नहीं होते
उसके सपने।
संज्ञा सिंह ने एक समय पर बहुत सारी और अच्छी कविताएँ लिखी थीं। अभी तो मैं यह भी नहीं कह सकता कि वे कहाँ हैं। लिख भी रही हैं या नहीं। उनकी कुछ कविताएँ जो मेरे पास हैं उनके आधार पर कह सकता हूँ कि उनकी कविता में एक सहज गंभीरता है। कविता है। अनुराग तुम्हारा कविता में उनके मन का स्नेह भाव बहुत मार्मिकता से व्यक्त हुआ है-
अखंडित
अनुराग तुम्हारा
राग बना रहा मेरे लिए

खंडित दलित
प्यार मेरा
कहीं से भार नहीं बना
तुम्हारे लिए

तुम सब कुछ करते रहे
आह में चाह के स्वर
सहेजे

मै
तुम्हारे लिए
न बचा सकी
ख़ुद को


रंजना श्रीवास्तव हिंदी की उन कवयित्रियों में हैं जिन्होंने अपने मन की व्यथा को खुल कर सामने रखा है। तभी तो वे रोबोट कविता में कह पाती हैं कि-
लड़की से कहा गया कि
वह कविता न लिखे
इस तरह उसे
जीते जी मार दिया गया


नीलेश रघुवंशी हिंदी कविता का सबसे मेधावी मुखर स्वर है। उनकी कविता का स्वर कभी भी बहुत कमजोर नहीं पाता। वे लगातार लगातार लिख रही हैं। और उनकी कविता में एक भावुक भोले पन के साथ ही एक समझदारी भी बनी रहती है, वे घनघोर आत्मीय क्षण में भी सजग रहती है, सचेत रहती है-


जब जब हारी खुद से आई तुम्हारे पास
मेरे जीवन का चौराहा तुम
रास्ते निकले जिससे कई कई !
वो कौन सी फाँस है चुभती है जो जब तब
डरती हूँ अब तुमसे मिलने और बतियाने से
मिलेंगे जब हम करेंगे बहुत सारी बातें

(10)

अंशु मालवीय अशोक कुमार पाण्डे, कुछेक कवि हैं जिनकी कविता में वाम-वैचारिक-दृढ़ता साफ-साफ देखी जा सकती है। आज जब विचार को बोझ कह कर प्रचारित किया जा रहा है। उस दौर में ये कुछ कवि हैं जो विचारवान होकर कविता कर रहे हैं। आज अंशु मालवीय का विचार बोध उनकी शक्ति है। मेरे हिसाब से वे कुछ एक कवियों में हैं जिनकी कविता बैचारिकता से कमजोर न होकर सबल ही होती है। उनके संग्रह दक्खिन टोला को जितना चर्चा में आना था वह तो नहीं हुआ। आलोचकों ने भी उनकी कविता को दरकिनार किया। फिर भी अंशु अपनी कविता की गभीरता को न केवल बरकरार रख पाए हैं बल्कि उनका कथन और खरा हुआ है। उनकी दृष्टि व्यापक हुई है। तभी तो वे उस खतरनाक सच को ओझल नहीं होने देते जिसमें एक पूरा तबका केवल खटता है और एक पूरा तबका उस श्रम को बेभाव अपने हिस्से में प्रयोग करता है। संताने हतभागी कविता में अंशु लिखते हैं-

धरती के भीतर का पानी
खींचा हमने खेत सधाए
पानी बंधुआ बोतल में
साँस नमी की घुटती जाए
जब से भूख तुम्हारी जागी
पानी बिका
बिकी पानी की संतानें हतभागी
पांड़े कौन कुमति तोहे लागी !  

अंशु की तरह ही अशोक कुमार पाण्डेय की कविता में एक वैचारिक सजगता दिखती है। उनकी कोई कविता मुझे ऐसी नहीं दिखी जिसमें विचार से बचने का कोई आग्रह हो। उन्हें व्यवस्था का बेढ़ंगा पन सालता है और वे चुप रहने के खिलाफ हैं । इसीलिए वे जो चुप हैं उनको अशोक अपनी कविता से कुरेदते उकसाते हैं-

वे चुप हैं
कि उन्हें मालूम हैं आवाज़ के ख़तरे
व चुप हैं कि उन्हें मालूम हैं चुप्पी के हासिल
चुप हैं कि धूप में नहीं पके उनके बाल
अनुभवों की बर्फ़ में ढालते विचारों की शराब
वे चुप हैं।


हालाकि इन कवियों और कवयित्रियों के अलावा और भी युवा स्वर हैं जो लिख रहे हैं लेकिन न तो मैं सब को समेट सकता हूँ न मेरी ऐसी कोई कोशिश ही है। बस यही कह सकता हूँ कि हिंदी कविता का प्रतिनिधत्व करने वाले कवि इसी तरह की कविता लिख रहे हैं। यह कैसी है इसका भविष्य क्या है यह तो समय ही तय करेगा। लेकिन हजारों कवियों के बीच भी अभी वह स्वर आना बाकी है। जिसके लिए हिंदी को प्रतीक्षा है।


12 जून 2010

हिन्दी साहित्य में जातियों का दबाव- बोधिसत्व के लेख की तीसरी क़िस्त

इस लेख की पिछली कड़ियों में बोधिसत्व ग़ुलामी के दौर के साहित्य की प्रवृतियों और उनके स्रोतों की तलाश की कोशिश की थी। इस कड़ी में वह जाति की भूमिका पर कुछ सवाल खड़े कर रहे हैं। भारतीय समाज में जाति एक महत्वपूर्ण सच्चाई रही है और इससे कोई इन्कार नहीं करता। लेकिन विमर्शों के जोश में कई बार इसे एकमात्र और सबसे बड़ी सच्चाई बनाकर भी पेश किया जाता है…देखना होगा कि यह कितना 'सच' है।

(चार)

जिस साहित्य के अतीत में जातियों का दबाव लगातार बना रहा हो। अधिकतर लेखक सवर्ण या अगड़ी जाति से आते रहे हों और आज भी मुख्यधारा के लेखन और चिन्तन पर उसी खास तबके का कब्जा हो। जिसमें आज तक औरते आजाद नहीं हैं। उन्हें शिक्षा का कोई हक नहीं है अशिक्षा आज भी जहाँ व्याप रहा है। उस समाज से उपजा लेखक कितना आगे जा सकता है। ऐसे समाज से निकले लेखक से बहुत आशा रखना उचित नहीं है। मैं साफ-साफ कहना चाहता हूँ कि आज भी हिंदी कविता और साहित्य में अगड़ी जातियों और उच्च वर्ग  से आए लेखकों का दबदबा है। इस तबके के लेखकों का दायरा और मानसिक बनावट बहुत सीमित या कहें कि अघाया हुआ है। इनके लिए लेखन एक करियर है आगे बढ़ने और समाज में रुतबा हासिल करने का एक रास्ता है। कवि कहलाने से समाज में मान सम्मान मिलता है सो अलग। जो कवि अगड़े तबकों से नहीं आते उनके लेखन पर भी बहुत अधिक दबाव है। साहित्य के बड़े गोल ने छोटे गोल के लोगों को घेर रखा है। इस बड़े गोल के लिए कविता खेल है। कोई जीवन मरण का प्रश्न नहीं है। कहीं नहीं जाना है कोई सच कोई यथार्थ का वर्ण नहीं करना है बस खेल कर समय बिताना है। एक अन्तायक्षरी है इस तबके से उपजे लेखकों के लिए।

मैं अपनी बात दो उदाहरणों को सामने रख कर करना चाहूँगा। यदि भारत भूषण अग्रवाल सम्मान को हिंदी कविता का प्रतिनिधि सम्मान माना जाए और उस सम्मान से पुरस्कृत कवियों को प्रतिनिध कवि मान जाए तो भी पता चल सकता है कि किस कदर हिंदी कविता पर एक खास प्रभु वर्ग का कब्जा है। और इसी के चलते हिंदी कविता इतनी एकांगी और निरस और दोहराव का शिकार है। यहाँ जिन जातियों के रचनाकार सबसे मेधावी रचनात्मक दिख रहे हैं वे हैं ब्राह्मण, कायस्थ और क्षत्रिय । घूम फिर कर इन्हीं तीन को भारत भूषण सम्मान मिला है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि यही तीन अगड़ी जातियाँ देश की रचनात्मकता का प्रतिनिधित्व कर रही हैं।

30 सालों के पुरस्कार में कोई कवि दलित नहीं हैं। कोई मुसलमान नहीं है। कोई अछूत जातियों से नहीं हैं। आर चेतन क्रांति जैसे दो एक कवि जो पिछड़ी जातियों से हैं उनके आधार पर हम यह नहीं कह सकते कि हिंदी साहित्य में हर तबके के लेखक सक्रिय हैं। और जिस भाषा साहित्य की मुख्य धारा में हर तबके से लेखक न हों उसका दायरा संकुचित होना ही है।

माना कि मान्य आलोचकों और पुरस्कार दाताओं के पैमाने पर पिछड़ी जातियों के साहित्यिक सरोकार उतने सुघड़ नहीं हो सकते हैं। लेकिन उनमें लोकगीत रचने की शक्ति तो अभी भी है। उनके लिए साहित्य के द्वार क्यों नहीं खोले जाते । क्यों नहीं लोक और शास्त्र का एक साहित्य संगम हो। किंतु नहीं ऐसा होते ही एक खास तबके का बर्चस्व टूटेगा और खास तरह की सजी सवरी कविता का साम्राज्य बिखरेगा। तो पिछड़ों के लोक विधाओं के लिए कैसा भी समादर हिंदी साहित्य में नहीं हुआ न होगा और वे विजन वन बल्लरी पर जैसी कोमल कान्त पदावली तक अपने संस्कार नहीं विकसित कर पाएँगे। फिर उनके लिए साहित्य के दरवाजे अतीत में बंद थे आगे भी बंद रहेंगे। नाई धोबी चमार पासी आज तक हिंदी साहित्य के अंधेरे का ताला नहीं खोल पाए। एक टाट बिछा कर, समता का पाठ पढ़ने पढ़ाने की बात तो आज भी कविता में ही सम्भव है। साहित्य की हवेली में तो प्रभु वर्ग के रचनाकार ही प्रमुख हैं, मुखिया हैं। पिछड़े और दलित तो आज भी हिंदी की मुख्यधारा के साहित्य में पात्र भर हैं कर्ता और सर्जक तो वे आज भी नहीं हैं। और जो हैं सर्जक हैं वे हाशिए पर हैं। मुख्यधारा में तो अगड़ों का ही साम्राज्य है। जबकि लोक गीतों का केवल अनुवाद करके कितने ही हिंदी के कवि बहुत प्रमुखता से अपना स्थान बनाये हुए हैं। जमें हुए हैं।

यह भारत भूषण सम्मान की बात तो एक उदाहरण हैं। सरकारी अर्ध सरकारी संस्थाएँ भी जिनमें साहित्य अकादमी भी आती है इस तरह के भेदभाव से बरी नहीं है। मुझे नहीं पता कि किसी दलित या मुसलमान लेखक को कोई अकादमी सम्मान हिंदी में मिला हो। जब से अकादमी सम्मान शुरू हुए तब से आज तक कोई दलित और मुसलमान लेखक इस कोटि का नहीं हुआ जिसके लेखन को सम्मानित करने का दुस्साहस करती यह संस्था। इससे एक बात तो साफ होती है कि हिंदी साहित्य में एक खास तबके के लोगों को ही लिखने और अपनी बात कहने की सुविधा है। बाकी तबके के लोग यदि नहीं लिखते तो हिंदी के लिए फर्क क्या पड़ता है।


आज यदि जन गणना जाति के आधार पर हो रही है तो समय आ गया है कि लेखकों के जाति का भी निर्धारण हो। पता तो चले कि कौन किस कुल गोत्र का है और अपने साहित्य से वह किस समाज का यथार्थ का वर्णन चित्रण कर रहा है।

10 जून 2010

गुलाम भारत के साहित्य में अंग्रेज़ सरकार का विरोध नहीं दिखता- बोधिसत्व


बोधिसत्व - abodham@gmail.com


बोधिसत्व के लंबे आलेख की पहली क़िस्त पर आयी टिप्पणियों में आमतौर पर अगली के इंतज़ार की बात थी। आज प्रस्तुत है उसकी दूसरी क़िस्त जो गुलाम भारत के मुख्यधारा के लेखन की प्रवृतियों की पड़ताल करती है। ख़ासतौर पर उसके सवर्ण जातीय संरचना से उभरी प्रवृतियों की। अगली किस्तों में बात आज़ादी के बाद की।


हिंदी कविता का पिछला बीस साल


(तीन)

गुलाम भारत में भी मुख्य धारा का लेखन निर्बाध और निर्विरोध चलता रहा। भला किस में शक्ति थी कि मुख्यधारा के प्रवाह को रोकता या मुख्यधारा का लेखन इतना किताबी था कि उसे रोकने की कोई आवश्यकता ती ही नहीं। वह तो खुद कटा-छटा और सजा संवरा था, सेंसर्ड था। वहीं जो उच्छिष्ट साहित्य रचने वाले लोग थे वे रोज जेलों की हवा खा रहे थे। मुकद्दमें झेल रहे थे। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से सत्येन्द्र कुमार तनेजा के सम्पादन में प्रकाशित होने जा रहे उन नाटकों की सूची देख कर आप मेरे कहे को परख सकते हैं। जिन नाटकों पर रोक लगाई गई उनमें उग्र को छोड़ कर कोई कुलीन या मुख्यधारा का लेखक नहीं है। जिन सात नाटकों को छापा जा रहा है उनका और उनके लेखकों के नाम हैं- जख्मी पंजाब- किशन चंद जेबा-1922, शासन की पोल-देव दत्त-1922, पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र-लाल क्रांति के पंजे में-1924, बरबादिए हिंद-गोबिंद राम-1929, रक्त ध्वज-अज्ञात-1931, लवण लीला-बुद्धिनाथ झा कैरव-1931। इन लेखकों में आपने उग्र जी के अलावा और शायद ही किसी का नाम सुना हो। निश्चय ही खोज करने पर ऐसे प्रतिबंधित और साहित्य का पता चलेगा। लेकिन इनमे कोई रचना प्रमुख धारा के लेखकों की न हो न होगी। क्योंकि प्रमुख धारा का लेखक बहुत विनम्र और संकोची हो चला था। उसे बहुत सुंदर और सुकोमल कथन कहने थे। उसे बाले के बाल जाल में तो नहीं उलझना था लेकिन जिस जगत को वह सामने रख रहा था उससे उसको कोई खतरा भी नहीं था।

ऐसा नहीं था कि अंग्रेजों की ज्यादतियों को साहित्य के देश से निकाला मिल गया था। देश भर में लगातार ऐसा लेखन होता रहा जिससे अंग्रेज सरकार की दिक्कतें बढ़ती रहीं। लेकिन उनके लेखक महान नहीं थे। वे किशन चंद जेवा थे या देव दत्त थे । वे संस्कारी लेखक नहीं थे कला कौशल की भाषा उनके पास न थी। वे यशपाल और अज्ञेय जितने कुशल चितेरे न थे। जो अंग्रेजों के खिलाफ आजादी के युद्ध में क्रांतिकारी भूमिका तो निभा सकते हैं लेकिन लेखक के रूप में आते ही उनके मन में भरा सारा बारूद भूसा हो जाता है।

उग्र जेल जाएँगे लेकिन निराला का लेखन इतना निराला था कि कभी उन्हें उनके लिखे के लिए सरकार से एक नोटिस तक न मिली। हालावादी और प्यालावादी लेखकों पर भला कोई सरकार क्यों प्रतिबंध क्यों लगाए।

तो आज किसान मरते है तो मरें। आत्महत्या करते हैं तो करें मुख्य धारा के साहित्य में उनके लिए कोई जगह नहीं है। दिल्ली का कवि हो या बनारस का या मुंबई भोपाल का उसके लिए खास कट की कविता भली है। जो थोड़ी अच्छी हो थोड़ी सलोनी हो, थोड़ी सरस हो थोड़ी लंतरानी हो जिसमें बस काम बन जाता है तो और करने की क्या आवश्यकता है

हमारे लिए साम्प्रदायिकता का मुद्दा अहम है। हमारे लिए दुर्घटनाएँ हैं न लिखने को। सामाजिक सच्चाइयाँ हमें प्रेरित नहीं करतीं। हमारे लिए वह यथार्थ काम का नहीं है जो शाम के खाने का स्वाद बिगाड़ दे। हमारे लिए उसके विश्लेषण की गुंजायश नहीं है। हमारे लेखकों और कवियों आलोचकों को उन मुद्दों से मितली आती है। भला उन लोगों पर क्या लिखना जो आत्म हंता होते हैं। आत्महत्या करने वाले भला किस प्रकार प्रमुख पात्र के रूप में दर्ज किए जा सकते हैं। वे नायक नहीं हो सकते। उन पर लिख कर कोई लेखक अपनी लेखनी को क्यों अपवित्र करेगा। देश में औसतन तीन किसान रोज मरते हैं। किंतु देश में हर साल उन पर तीन कविता तीन कहानी तीन नाटक नहीं लिखा जाता। यह है हमारे साहित्य का यथार्थ ।

जिस प्रकार गुलाम भारत के साहित्य में अंग्रेज सरकार का विरोध नहीं दिखता उसी प्रकार लेखकों का एक बड़ा हिस्सा सवर्ण श्रेष्ठता का हिमायती रहा है। उसके लिए कुल वंश से बड़ा होना बहुत अहम था। परिचय में साफ-साफ लिखा जाता था कि फला कुल के पाण्डे हैं और नाना बड़े ज्ञानी थे और दलितों के प्रति उनमें दया भाव था। उस काल में प्रेमचंद को छोड़ दें तो दबे-कुचले लोगों पर लिखना एक फैशन जैसा था। दया का दिखावा था। न कि कोई वैचारिक आग्रह।

हिंदी लेखक सत्ता से समझौता करके चलने वाला एक सामाजिक है…

बोधिसत्व

(अब प्रौढ़ हो रहे हिन्दी के युवा कवियों में बोधिसत्व अपने बेबाक रवैये और अध्ययनशीलता के लिये जाने जाते हैं। अभी परिकथा के युवा कविता अंक में उनका आलेख पढ़कर जब मैने उसे अपने ब्लाग के लिये मांगा तो उन्होंने बताया कि वह उनके एक लंबे आलेख का हिस्सा है। उस पूरे आलेख को यहां तीन-चार क़िस्तों में लगाने की योजना है। 
आमतौर पर हम हिन्दी कविता को प्रतिरोध की कविता कहते हैं लेकिन बोधिसत्व ने उस प्रतिरोध की सीमाओं की पड़ताल की है जो नई बहस की ज़रूरत की ओर इशारा करती है।)
हिंदी कविता का पिछला बीस साल
(एक)

मेरा पहला ही सवाल है कि क्या कविता को दशक और पंच वर्षीय योजनाओं में विभाजित किया जा सकता है। उत्तर है कि कुछ लोग तो हर साल की सर्वश्रेष्ठ कविता खोज लेते हैं। और कुछ तो इस शोधन-कला में इतने पारंगत हैं कि वे चाहें तो हर महीने हर हप्ते हर दिन हर पल की कविता में श्रेष्ठ और घटियाँ का निर्णय कर सकते हैं। लेकिन मैं इतना गुणी और पारखी नहीं हूँ और मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मेरे पास इस तरह का कोई पैमाना नहीं है कि मैं हिंदी कविता को दस-दस साल के खाँचे में फिट करके उसका मूल्यांकन कर सकूँ।

मान्यता है कि 20 साल की एक पीढ़ी होती है। तो मैं कोशिश करता हूँ कि 1990 से 2010 तक की कविता पर अपनी राय दे सकूँ। यदि 1986 से जोड़ूँ तो 24-25 साल से हिंदी के साहित्य संसार में भटक रहा हूँ। थोड़ी बहुत पढ़ाई कविता के इतर जो लेखन हो रहा है या हुआ है उसकी भी की है। लेकिन थोड़ी ही। बहुत नहीं। पिछले 9-10 सालों से उस तरह लग कर न पढ़ पा रहा हूँ न लिख पा रहा हूँ। यहाँ मुंबई के रस हीन साहित्य समाज में तो साहित्य चर्चा के लिए भी दो चार नाम नहीं हैं। और जो हैं उनके मन में सब फ्रीज फिक्स हो गया है। उनसे आप गप्प कर सकते हैं, बतरस हो सकती है बतकुच्चन हो सकती है साहित्य विमर्श नहीं। यहाँ आलोचना शत्रुता का कारक है और प्रसंशा करने वाले बौद्धिक माने जाते हैं।

20 सालों यानी एक पीढ़ी की कविता पर बात करने के पहले मैं कुछ दो चार बातें हिंदी साहित्य की मनोदशा पर करना चाहूँगा। ये बातें मेरी अपनी समझ और मनोदशा की भी परिचायक हैं। यदि हम 1900 से 2010 तक के साहित्य को अपनी सुविधा के लिए आजादी के पहले और बाद के साहित्य में विभाजित कर दें तो मेरी बात समझने में थोड़ी सहूलियत होगी। 1947 के पहले के साहित्य को यदि हम गुलाम भारत का साहित्य माने जो कि एक कड़वा सच है भी। और इस कड़वे सच की साखी में उस दौर के साहित्य को परखें तो बड़े दिल दहलाने वाले नतीजे सामने आते हैं। क्या आप उस दौर के साहित्य को पढ़ कर यह नतीजा निकाल सकते हैं कि भारत पर अंग्रेजों की हुकूमत थी। अंग्रेजों की भारत की गई ज्यादतियाँ शून्य के बराबर भी आपको किसी उपन्यास कहानी कविता में दर्ज शायद ही मिलें। छायावाद के दौर की बात करें या प्रगतिशील लेखकों द्वारा सृजित साहित्य को देखें। कहीं भी खलपात्रों में भी अंग्रेज नहीं हैं जब कि कई कहानियाँ और कविताएँ मिल जाएँगी जिनमें मुसलमान शासकों को खल पात्र के रूप में चित्रित किया गया है। प्रेमचंद, प्रसाद, निराला और पंत जैसे महान शिल्पियों ने भी अपने किसी लेखन में कहीं सीधे सीध अंग्रेजों के अत्याचारों को अपने लेखन से रेखांकित करने की कोशिश की हो ऐसा मुझे नहीं दिखा। जब्तशुदा तरानों में भी इन मुख्यधारा के शिल्पियों का लेखन गौड़ रूप से भी शामिल नहीं है।

(दो)

यदि अंग्रेज सरकार द्वारा जब्त गीतों या कविताओं की बात करें तो उनमें मुख्याधारा के कवियों की रचनाएँ बहुत कम हैं। जिन कवियों की रचनाओं पर रोक लगी उनमें शामिल हैं माखन लाल चतुर्वेदी( पुष्प की अभिलाषा), जयशंकर प्रसाद( हिमाद्रि तुंग), सुभद्रा कुमारी चौहान(आजादी की देवी), सोहन लाल द्विवेदी( खादी गीत)। राम प्रसाद विस्मिल, श्याम लाल गुप्त पार्सद, विचारान्नद सरस्वती जैसे कवियों का स्थान कितना और किस हिंदी साहित्य में हैं आप सबसे छिपा नहीं है। सोहन लाल द्विवेदी औरक माखन लाल जी का कितना मान हैं मैं भी जानता हूँ।

मेरे कहे पर निश्चय ही कई आलोचकों और पाठकों को उलझन होगी। लेकिन आप खुद सत्यता की जाँच परख कर लें। गोदान से लेकर कफन तक हर कहीं खल पात्र और वर्ण्य विषय कौन है आप आसानी से देख सकते हैं। कहीं ऐसा भी संकेत नहीं है कि अंग्रेजों की लूट और देश को उपनिवेश मानने समझने के चलते भारतीय जन की यह दुर्दशा है। निराला किसी कविता में नहीं लिखते या संकेत करते कि जो लोग लूट रहे हैं उन्हें भगाओ। जागो फिर एक बार जैसी कविताएँ किस तरीके से अंग्रेजी शासन का विरोध कर रहीं थीं मेरी तो समझ में नहीं आता। जबकि उन्हीं निराला जी के यहाँ शासन करते थे मुसलमान जैसी पंक्तियाँ बड़े शान से लिखी जाती रही हैं। इसके अलावा कुछ उग्र हिंदू राजाओं के नाम लिखी उनकी कविताएँ उनकी मानसिक बनावट का साफ संकेत करती हैं। लेकिन उनके यहाँ भूल कर अंग्रेजों के प्रति कोई ऐसा वाक्य मेरे देखे में नहीं मिला। यदि हो तो आप या निराला के आलोचक उन पंक्तियों को समाज के सामने रेखांकित करके रखने की कृपा करें। कुकुरमुत्ता में भी निराला जी नवाब तक ही हमला कर पाते हैं।

यह मानने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि तत्कालीन परिस्थितियाँ अंग्रेज सरकार के खिलाफ कुछ भी लिखने या कहने की छूट नहीं देती रही होंगी। ऐसी ही परिस्थितियों में धनपत राय को प्रेमचंद बनना पड़ा था। लेकिन यह या ऐसी ही तमाम घटनाएँ क्या एक लेखक को सच कहने या यथार्थ का वर्णन करने से रोक देती हैं। या हम यह कहें कि गुलाम भारत के लेखकों ने एक स्वचालित प्रतिबंध लगा रखा था। लोगों के मन में अंग्रेज सरकार का एक भय बस गया था और लोग अपने आप से उन मुद्दों को नहीं उठाते थे जिससे सरकार की नाराजगी मोल लेनी पड़े।

मैं अंग्रेजों के गुलामी में रचे गए सारे साहित्य के न तो पारखी हूँ न मेरा उतना व्यापक अध्ययन है। मैंने जितना पढ़ा है वह बहुत कम और छिछला सा ही पठन मानता हूँ। उसके आधार पर कह रहा हूँ कि हिंदी लेखक सत्ता से समझौता करके चलने वाला एक सामाजिक है। इसका अपना एक समुदाय है। वह सत्ता से दूर रह सकता है। वह कुंभन दास हो सकता है और संतन को कहाँ सीकरी सो काम का राग अलाप सकता है। लेकिन घनाननंद की तरह वह किसी सुजान के लिए हाथी के पैरों तले रौंदा जाना अपने हिस्से में नहीं रखता। वह सत्ता से परहेज कर सकता है सत्ता से किसी मुद्दे पुर टकराना उसके चरित्र में नहीं है। वह टकराव का चरित्र भारतीय बुद्धिजीवियों का स्वभाव नहीं है। इसीलिए लेखक और कवि होना भारतीय समाज में कायरता की निशानी मानी जाती है

1947 के थोड़ा पहले और बाद के साहित्य में कुछ और बातें जो मुझे खटकती हैं वह है यथार्थ का एक कल्पित संसार। कुछ लेखकों जिनमें प्रेमचंद और उनके रास्ते पर चलने वाले लेखक थे को छोड़ दिया जाए तो अधिकतर को यथार्थ से परहेज है। मैं एक बड़ा आक्षेप लगा रहा हूँ और यह सोच समझ कर कह रहा हूँ कि हिंदी का कवि लेखक मूल रूप से कल्पना जीवी है। उसे यथार्थ से कोई मतलब नहीं होता। यह आप मध्यकाल की कविता से लेकर आज तक के लेखन में देख सकते है। कबीर और जायसी मीरा आदि तीन चार कवियों को छोड़ दें तो पूरा भक्ति काव्य मोक्ष के लिए तड़पते भक्तों की आर्त वाणी है। देश भले ही किसी और दशा में हो तुलसी का मन राम चरित में रमा है और सूर का साहित्य गोपियों के श्याम के तुतलाहट से लेकर किलकारी तक और माखन चोरी से लेकर बंशीबट के बीच हिंडोले पर झूलता रहता है

मैं मध्यकाल के महान कवियों पर कोई दोषारोपण नहीं कर रहा। मैं तो उनके कथ्य और उनके तत्कालीन समाज के यथार्थ के बीच एक तालमेल बैठाने की कोशिश कर रहा हूँ। लेकिन कहाँ मध्यकाल का उथल पुथल भरा समाज और कहाँ मध्यकाल की कविता। कहाँ इतिहास में घटती घटनाएँ और कहाँ उस दौर के कवियों का साहित्य। क्या हम पूरे भक्ति साहित्य को सामने रख कर भारत का एक मध्यकालीन इतिहास रच सकते हैं। क्या उसकी एक झलक भी बनती दिख सकती है। वहाँ भी भूषण आदि इक्के दुक्के कवि ही हैं जो तत्कालीन परिस्थियों पर कुछ लिखते दिखते हैं लेकिन उनका स्वर भी कितना साम्प्रदायिक और अपने संरक्षकों के प्रति श्रद्धा से भरा है। तो वहाँ भी जो यथार्थ है वह श्रद्धा से विगलित यथार्थ है। उस यथार्थ में नस्लवाद की हुँकार है।

 (क्रमशः)