(आज सुबह-सुबह आदतन अपने प्रिय ब्लाग कबाड़खाना पर अन्य ब्लागों की नयी पोस्टें देखने गया तो भाई रंगनाथ के ब्लाग पर मार्क्स खींच कर ले गये। आज उनका जन्मदिन है। रंगनाथ ने सुझाया था कि उन सबको जिनकी ज़िन्दगियों पर मार्क्स का असर है, अपने विचार और उन संबधों के बरक्स ब्लाग पर कुछ लिखना चाहिये। आईडिया तुरत क्लिक किया। साथ में बीमारी की वज़ह से ली गयी छुट्टी की सुविधा! तो लिख रहा हूं जुनूं में)
मार्क्स से मेरा परिचय कब हुआ याद नहीं। घर में पापा और उनके दोस्त अक्सर हिन्दू धर्म और ब्राह्मण जाति के गुण गाया करते थे। जिस सरस्वती शिशु मंदिर में पढ़ता था वहां गुरुजी और हेडगेवार परमपूज्यनीय थे…और हम उनके जीवन से प्रेरक प्रसंग याद करते थे। शहर में सब था पर मार्क्स कहीं नहीं दिखते थे। शायद इन्हीं परम विरोधी माहौलों में मार्क्सवादियों को दी जाने वाली गालियां थीं जिन्होंने सबसे पहले मार्क्स से परिचित कराया। और ज़ाहिर था कि मैं भी उन गालियों में शामिल हुआ।
इसी बीच मंडल हुआ फिर बाबरी…नफ़रत और बढ़ी…गालियों की तल्खी भी। अंग्रेज़ी का ट्यूशन पढ़ने श्री डी पी सिंह के यहां जाता था। वह थे नेहरु के लगभग भक्त और सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्ष। पढ़ाने से ज़्यादा बतियाते थे। मेरे नाना जी को भी पढ़ा चुके थे। नाना जी थे लोहियाईट। उनके घर ही पहले पहल सारिका, धर्मयुग जैसी पत्रिकाओं से परिचय हुआ और थोड़ा बहुत समाजवाद से। सांप्रदायिकता शब्द भी पहले-पहल नाना से सुना। जब मंडल के विरोध में ज़ेल में था तो पहले नाना और फिर डी पी सिंह सर ने कहा ,'अगर सही तरीके से सोचोगे तो एक दिन तुम्हें महसूस होगा कि तुम ग़लत थे'। ख़ैर, इन दोनों के ज़रिये मुझे एक धुंधला सा प्रतिसंसार तो मिला ही। शायद मार्क्स से गाली विहीन परिचय भी यहीं हुआ पहले-पहल। फिर भी उससे दूरी तो बनी ही रही।
वह शायद 1992 की कोई शाम थी। कुछ लोग हास्टल में मेरे कमरे पर आये। हाथ में एक अख़बार, कुछ पत्रिकायें और चेहरे पर एक अजब सा तेज़। अख़बार ख़रीदा कि उसमें कुछ कवितायें दिखीं (तब तक कविता ऐसे चढ़ चुकी थी दिमाग में कि उसके नाम पर कुछ भी पढ़ने को तैयार था)। फिर उनसे मिलने-जुलने-लड़ने का सिलसिला शुरु हुआ और पता ही नहीं चला कि कब उनके साथ वही अख़बार बेचने लगा, नुक्कड़ सभायें करने लगा और जिस एहसास की बात नाना और सर ने की थी उसे उन दोनों के सामने स्पष्ट तौर पर कह भी आया। डीपी सिंह सर ने कहा था, 'गुरुजी से सीधे मार्क्स! वाह भाई…तुम अपनी ज़िन्दगी का निर्णय ख़ुद लो तो बेहतर बस एक सलाह याद रखना कि पढ़े-लिखे-समझे बिना सिर्फ़ जज़्बात से कोई निर्णय कभी मत लेना'
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हम ज़रूर जीतेंगे मेरे दोस्त! |
फिर उसके बाद मार्क्स से जैसे दोस्ती हो गयी। मैनिफ़ेस्टो से शुरु हुआ यह सफ़र दर्शन की दरिद्रता, अठारहवीं ब्रूमेर,पूंजी और जाने कहां-कहां तक गया। अब उससे दोस्ती हुई तो उसके दोस्त कैसे दूर रहते तो दुनिया भर के उसके दोस्त मेरे अपने बन गये। शाम उनके साथ गुजरने लगी। मेरे कमरे में वे ऐसे समाये की चारों तरफ़ बस वे ही वे। मां आयी एक बार हास्टल तो कहा ,'अरे एम ए में इतनी किताबें पढ़नी पढ़ती हैं' पापा ने कहा ' जैक आफ़ आल बन रहे हैं तुम्हारे सुपुत्र!' पिता से दूरी बढ़ती ही गयी…
फिर क्या था…संगठन छूटे, दोस्तियां छूटीं, नये बनें पर मार्क्स कभी नहीं छूटा।
लड़ाईयां उससे भी ज़ारी हैं, कई जगह उसके हारने पर मेरा पूरा विश्वास है…और इस पर भी कि हारने के बाद भी वह सिगार सुलगाते हुए कहेगा ' ठीक है चलो अब इस आधार पर काम करते हैं'। आज उसके जन्मदिन पर उस पर लिखी किताब उसी को समर्पित। तुम्हारे ही शब्दों में मेरे दोस्त 'कठिनाईयों से रीता जीवन मेरे लिये नहीं'
यहां क्लिक करके पढ़ें उनकी
अठारह साल की उम्र में लिखी कविता…