
(यह शायद कुछ मित्रों को गढ़े मुर्दे उखाड़ना लगे लेकिन जब कोई भ्रष्ट वक़ील जबरन हत्या को आत्म्हत्या साबित करने पर लगा हो तो कोई और चारा भी तो नहीं होता!)
अर्द्ध सत्यों की वाग्मिता
(वागर्थ सितंबर, 09 का संपादकीय 66 लेखकों द्वारा जारी उस पत्र की भर्त्सना था जिसमें उदय प्रकाश द्वारा गोरखपुर में स्वामी आदित्यनाथ से पुरस्कार लेने पर निराशा जाहिर की गई थी। इस हस्ताक्षरित संपादकीय में विजय बहादुर सिंह ने वामपंथ को भी जमकर गरियाया था और वामपंथी लेखक संगठन पर अतार्किक आक्रमण किया था। इस संपादकीय में मुझे विशेष कर लक्षित किया गया क्यों कि यह वक्तव्य समयांतर में छपा था। संपादकीय का उत्तर देना इसलिए आवश्यक था। मैंने 15 सितंबर को ही अपना पक्ष लिख कर भेज दिया था। अपने पत्र में मैंने सिर्फ उन बातों का जवाब दिया था, जिनसे सीधा मेरा संबंध था। इसकी एक प्रति वागर्थ की प्रबंध संपादक और भारतीय भाषा परिषद की प्रमुख कुसुम खेमानी को भी प्रेषित कर दी गई थी। जब यह पत्र अक्टूबर तो छोड़ नवंबर में भी नहीं छपा, तो मैंने विजय बहादुर सिंह से फोन कर जानना चाहा कि क्या वह मेरा उत्तर छाप रहे हैं? उन्होंने कुल मिला कर यह कहा कि मैं पत्रा छापूंगा पर उसमें कुछ संशोधन करूंगा और अपना स्पष्टीकरण भी लगा दूंगा। मैंने कहा आप संपादक हैं, जैसा उचित लगे करें। पर पत्र दिसंबर में भी नहीं छापा। दूसरी ओर संपादक महोदय ने उस संपादकीय के पक्ष में सिर्फ अक्टूबर अंक में ही पांच पत्र छापे। नवंबर में भी आत्मप्रशंसा का यह सिलसिला जारी रहा और दिसंबर में भी इसकी छायाएं देखी जा सकती हैं। कई पत्र तो लेखकों के हाथ के ही लिखे हुए यथावत रिप्रोड्यूस किए गए, मानो वे अमूल्य दस्तावेज हों। ऐसा क्यों किया गया, यह अपने आप में कम मजेदार नहीं है। शायद असुरक्षित संपादक यह सिद्ध करना चाहते थे कि उनके समर्थन में लिखे गए पत्र जाली नहीं हैं। (लगता है संपादक महोदय को हस्तलिखित सामग्री को यथावत छापने का विशेष शौक है। बेहतर है वह पूरी पत्रिका ही हस्तलिखित कर दें, इससे कम से कम परिषद का कंपोजिंग का पैसा तो बचेगा और उन्हें भी संपादन और प्रूफ पढ़ने के झंझट से मुक्ति मिलेगी। तब संभव है वह ज्यादा तार्किक तरीके से वामपंथ पर आक्रमण का सिलसिला जारी रख सकेंगे)। यह पत्र इसलिए भी प्रकाशित करना जरूरी लगता है कि संभव है इससे वे लेखक भी कुछ सबक लेंगे जो संपादकों के आग्रह पर या खुशामद में लंबे-लंबे पत्र बिना सोचे-समझे अगले ही दिन उनकी सेवा में हाजिर कर देते हैं। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि वामपंथ और लेखक संगठनों पर किए जा रहे इस आक्रमण का जवाब देने की जगह पहली खेप में उनकी खुशखत में जनवादी लेखक संघ दिल्ली इकाई की उपाध्यक्षा मैत्रेयी पुष्पा का पत्र प्रकाशित हुआ है । प्रस्तुत है वागर्थ संपादक को तीन माह पहले लिखा गया वही पत्र। पर पहले उस संपादकीय से कुछ उद्धरण दिए जा रहे हैं जिससे विजय बहादुर सिंह और पत्र लिखने वालों में प्रमुख मैत्रेयी पुष्पा के इरादों को सही परिप्रेक्ष्य में रखा जा सके। - लेखक )
‘‘देखना है कि किसका चरित्र बचता है। उनका जो चोर दरवाजों से होकर जहां-तहां से घुसपैठ में व्यस्त हैं या फिर उस लेखक का जिसने विचारधारा के अनुगामियों के दुर्दांत आचरणों से तंग आ कर इन सब का परित्याग कर दिया है।’’
‘‘पुलिस की तरह सहमत के लोग तब (1992 प्रसंग) पहुंचे जब अयोध्या और फैजाबाद के लोग बुरी तरह घायल हो चुके थे। इनके कारनामों ने वहां जो नमक छिड़का उससे घाव और बढ़ा। सूचना के अधिकार के तहत यह क्यों नहीं पता लगाया जाना चाहिए कि केंद्र की सरकार ने उन्हें अयोध्या जाने के लिए कितने में तय किया था।’’
‘‘वर्ण व्यवस्था पोषित सामंतवाद और पुराणधर्मी हिंदुस्तानी पूंजीवाद का चेहरा तो अब अनपहचाना नहीं रहा। भारत की राजनीति अब भी इन्हीं दोनों की चपेट में है। भारत के सामाजिक जीवन पर इनकी भयावह छायाएं सिर्फ अंधों और बहरों को नहीं दिख रही हैं। चरम अवसरवादी बौद्धिकता से आक्रांत लेखक संगठनों ने अभी तक इस संबंध में अपना कोई खुलासा नहीं किया है। शायद उनकी आका पर्टियों ने उन्हें यह कहने की आजादी अभी सौंपी नहीं है।’’ (सभी उद्धरण किस की नहीं टूटी हैं कमंद, सितंबर, 2009 के वागर्थ के संपादकीय से)
‘‘आपका संपादकीय लाजवाब है। दो टूक बात कहने के दिन तो कब के लद गए। इसलिए भी आपका खरा-खरा संपादकीय रोमांचित करता है। उदय प्रकाश पर बेशुमार हमले हुए हैं। जैसे जांचा जा रहा हो कि कितने ऊंचे ताप पर फौलाद पिघलेगा। ऐसा गुनाह हो गया कि जो आता है, वही अपने नाम का पत्थर मार कर चैन की सांस लेता है। आपने जिस तेवर में लिखा है, काश यहां कोई महान साहित्यकार उन बातों को धीमे स्वर में ही बोल देता। मगर यहां दोस्तों को ऐसे विकट समय में सज्जनता भरी चुप्पी की आदत है।’’ (- मैत्रोयी पुष्पा के वागर्थ, अक्टूबर अंक में प्रकाशित पत्र से।)
संपादकीय में कुछ बातों के संदर्भ में मेरा भी नाम आया है। इसमें जो मुद्दा उठाया गया है महत्वपूर्ण है पर अर्द्धसत्यों से भरा होने के कारण स्पष्टीकरण जरूरी है। शुरू पुरस्कार-संदर्भ से करते हैं।
1 सामान्य शिष्टाचार और मर्यादा का तकाजा रहता है कि पुरस्कारों की समिति के लोग, कम से कम यह नहीं बतलाते कि किसने किस उम्मीदवार का समर्थन किया और किस का विरोध। एक बार निर्णय हो जाने के बाद घोषित पुरस्कार सामूहिक निर्णय माने जाते हैं, बशर्ते कि असहमत सदस्य ने अपने को तत्काल निर्णय से अलग न कर लिया हो। वैसे भी जिस पुरस्कार समिति में मुझे विजय बहादुर सिंह के साथ बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, वह दूसरे दौर की थी। इसलिए जिस निर्णायक समिति में हम थे, उसका कोई विशेष महत्व नहीं था, क्योंकि अंतिम दौर के निर्णायकों पर दूसरे दौर के निर्णायकों की सिफारिशें बंदिश नहीं होतीं और जहां तक मैं जानता हूं, वहां भी नहीं थीं। ऐसा भी नहीं है कि विजय बहादुर सिंह ने उन सभी नामों का अनिवार्य रूप से विरोध या समर्थन ही किया, जिन्हें अंततः पुरस्कृत किया गया या जो पुरस्कार पाने से रह गये थे। दुर्भाग्य से विजय बहादुर सिंह ने मर्यादा का ख्याल नहीं रखा है इसलिए मजबूरी में बाकी बातों को भी स्पष्ट करना जरूरी हो गया है। पहली बात तो यह है कि मैं वहां विजय बहादुर सिंह का अंधा समर्थन करने के लिए उपस्थित नहीं था, उसी तरह जिस तरह वह, आंख मूंद कर मेरा समर्थन करने के लिए, भोपाल से नहीं बुलाए गए थे। विजय बहादुर का पहला अर्द्धसत्य यह है कि जब उदय प्रकाश का नाम आया, तो मैं चुप रहा। सत्य यह है कि मैं चुप नहीं रहा बल्कि मैंने समर्थन नहीं किया और वह स्पष्ट शब्दों में था। मैंने ऐसा क्यों किया यह बतलाना जरूरी है। ये पुरस्कार असल में केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के थे। जिस पुरस्कार की वह बात कर रहे हैं, वह साहित्य और पत्राकारिता की श्रेणी के लिए विचाराधीन था। यानी इसकी सीमाएं स्पष्ट थीं। इसके लिए कई नाम हमारे सामने थे, उनमें एक रमेश उपाध्याय का था। चूंकि रमेश उपाध्याय ने हिंदी पत्राकारिता, अध्यापन और रचनात्मक लेखन, तीनों लंबे समय तक किया है तथा वह अब भी हिंदी में अपनी तरह की विशिष्ट पत्रिका निकाल रहे हैं, इसलिए मैंने उनके नाम का समर्थन किया था। उदय प्रकाश को साहित्य अकादेमी पुरस्कार नहीं मिला है तो इसकी क्षतिपूर्ति के तौर पर एक ऐसे पुरस्कार को दे दिया जाए जो कि किसी और उद्देश्य के लिए हो, और जिसका एक बेहतर हकदार आपके सामने हो, मुझे न तब सही लगा था और न ही आज लगता है। वैसे साहित्य अकादेमी पुरस्कार के बारे में बेहतर हो उनसे पूछा जाए जो छह वर्ष पहले तक अकादेमी को, स्वयं और अपनी प्राॅक्सियों के बल पर, दशकों तक कब्जाए रहे और अपने हिसाब से पुरस्कार देते रहे।
सत्य यह है कि कोई भी पुरस्कार किसी भी तरह से श्रेष्ठ लेखन का किसी भी तरह का मानदंड नहीं होता, चाहे वह नोबेल ही क्यों न हो। और ‘महानता की ओर बढ़ते’ किसी लेखक के लिए तो शायद ही इनका कोई अर्थ होता हो। इस पर भी, उदय प्रकाश इस समय हिंदी के सर्वाधिक ‘डेकोरेडेट’ लेखकों में हैं जिन्हें ओमप्रकाश पुरस्कार से लेकर द्विजदेव और अब कुंवर नरेंद्र प्रताप सिंह पुरस्कार तक, कई तरह के सरकारी-गैर-सरकारी पुरस्कार मिल चुके हैं और मिलते रहते हैं। दूसरी ओर वरिष्ठ होने के बावजूद रमेश उपाध्याय को गिनती के ही पुरस्कार मिले हैं। इस पर भी यह मानने में आपत्ति नहीं हो सकती कि उदय प्रकाश को अकादेमी पुरस्कार मिलना चाहिए पर यह कौन-सा तर्क है कि अगर आपको साहित्य अकादेमी या केंद्रीय हिंदी संस्थान का पुरस्कार न मिले, तो आप सांप्रदायिक ताकतों और खाप पंचायतों से पुरस्कार लेने पहुंच जाएं?वैसे इधर यह चर्चा जोरों पर है कि साहित्य अकादेमी पुरस्कार की एक गली गोरखपुर होकर भी निकलती है।
2 दूसरा अर्द्ध सत्य यह है कि विजय बहादुर सिंह ने रायपुर और गोरखपुर का तो नाम लिया है, पर अपने चार पृष्ठों के संपादकीय में यह नहीं बतलाया कि वहां क्या हुआ, विशेष कर गोरखपुर में और लेखकों ने ऐसी प्रतिक्रिया क्यों की? रायपुर में क्या हुआ, शायद इससे उनका ज्यादा सरोकार भी नहीं है। उनका सारा सरोकार उदय प्रकाश को लेकर लगता है, इसलिए बतलाना जरूरी है कि गोरखपुर में उदय प्रकाश ने हिंदू फासिस्ट नेता आदित्यनाथ के हाथों कुंवर नरेंद्र प्रताप सिंह पुरस्कार लिया। इसका विरोध 66 लेखकों ने एक संयुक्त पत्रा में किया। पत्र में कहा गया थाः ‘‘ प्रतिष्ठित और लोकप्रिय साहित्यकार उदय प्रकाश ने ... योगी आदित्यनाथ जैसे कट्टर हिंदुत्ववादी, सामंती और सांप्रदायिक सांसद के हाथों से (पुरस्कार) ग्रहण किया है जो ‘उत्तर प्रदेश को गुजरात बना देना है’ जैसे फासीवादी बयानों के लिए कुख्यात रहे हैं। हम अपने लेखकों से एक जिम्मेदार नैतिक आचरण की अपेक्षा रखते हैं।’’ समयांतर ने सिर्फ उस क्षोभ और निराशा को अपने अगस्त अंक के संपादकीय में व्यक्त करने की कोशिश की।
वागर्थ के पाठकों को यह बतलाए बगैर बात पूरी नहीं होगी कि आदित्यनाथ गोरखनाथ पीठ के वारिस हैं और यह पीठ सिर्फ हिंदूवादी एजेंडे के लिए ही नहीं बल्कि अपने जातिवादी एजेंडे के लिए भी जानी जाती है। इस के मठाधीश राजपूत ही होते हैं। यानी कुंवर नरेंद्र प्रताप सिंह ही नहीं आदित्यनाथ भी ठाकुर हैं। क्या इसे महज संयोग कहा जाए कि समारोह के आमंत्राण पत्र में उदय प्रकाश का नाम ‘‘उदय प्रकाश सिंह’’ छपा हुआ था। गोकि लेखकों की असहमति मूलतः सांप्रदायिकता से है।
3. अब आते हैं तीसरे तथ्य पर जो कितना सच है, इसका फैसला होना जरूरी है। वागर्थ के संपादकीय में लिखा गया है, ‘‘यों पंकज के आईने में उदय कोई पहले नहीं हैं। इससे पहले वेणुगोपाल वगैरह थे।’’ मैं विजय बहादुर को याद दिलाना चाहूंगा कि पिछले वर्ष जब वेणुगोपाल पर मेरा लेख छपा, उन्होंने मुझे कोलकाता से तत्काल फोन किया था। मुझे अच्छी तरह याद है फोन में उन्होंने उस लेख की तारीफ करते हुए कहा था, ‘‘बातें तो और भी बहुत-सी हैं। वह मेरे साथ विदिशा में रहे थे और मेरे पास उनके कई पत्र हैं। मैं भी लिखूंगा।’’ याद नहीं उन्होंने क्या लिखा। पर मैं उन से इतनी ईमानदारी की अपेक्षा रखता हूं कि वह बतलाएं कि मेरे लेख में किस तरह से वेणुगोपाल पर निशाना साधा गया है? अगर उनमें हिम्मत हो तो वह पूरा लेख वागर्थ के पाठकों के सामने रखें जिससे दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा? अगर उस लेख का उद्देश्य किसी भी तौर पर वेणुगोपाल का अपमान करना सिद्ध हो जाता है, तो मैं सार्वजनिक तौर पर माफी मांग लूंगा और उस लेख को अपनी किसी किताब में शामिल नहीं करूंगा। अन्यथा किसे माफी मांगनी चाहिए, बतलाने की जरूरत नहीं है। अगर विजय बहादुर ने समयांतर पढ़ा होता तो उन्हें याद आ जाता कि अकेले समयांतर ने उदय प्रकाश को दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसरी का पद न देने की खुल कर आलोचना की थी। हमने जो लिखा उद्धृत करना जरूरी हैः
‘‘(दिल्ली विश्वविद्यालय में) दिल्ली से ही की गई नियुक्तियों में जो हुआ सो हुआ, असली चक्कर हुआ पांचवीं नियुक्ति के लिए। इसके एक उम्मीदवार कथाकार उदय प्रकाश भी थे। सुना जाता है उन से पूछा गया आपके पास तो पीएडी की उपाधि नहीं है? इस पर उदय प्रकाश का उत्तर था, मेरी रचनाओं पर कई पीएचडी हुई हैं। आखिर साक्षात्कारकर्ता यों ही तो इतने ऊंचे पद पर नहीं पहुंचते, लिहाजा पटना से आए विशेषज्ञ ने कहा, लेखक होना एक बात है अध्यापक होना दूसरी। लगता है उदय प्रकाश ने यह नहीं कहा कि आचार्य प्रवर अध्यापन की इसी परंपरा के कारण आज हिंदी इस बुलंदी पर पहुंची हुई है कि उसमें डाॅक्टरेट लेना एक मखौल बन चुका है। ... आज सारी दुनिया में साहित्य के विभागों में रचनात्मक लेखकों को बड़े सम्मान से बुला कर रखा जाता है और उनकी प्रतिभा का लाभ उठाया जाता है, उसे देखते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय से यह अपेक्षा की जानी चाहिए थी कि वे उदय प्रकाश को साक्षात्कार के लिए नहीं बल्कि सीधे पद संभालने के लिए आमंत्रित करता और यह उसके लिए गौरव की बात होती।’’ (अक्टूबर, 2004, समयांतर )
उदय प्रकाश को समकालीन भारतीय साहित्य पत्रिका के संपादक का पद न मिलने का भी एकमात्र विरोध समयांतर ने ही किया था और वह भी इसी अंक में प्रकाशित हुआ था।
कुछ बातें और भी हैं, पर सब का उत्तर देना जरूरी नहीं है। पर अंत में यह कहना जरूरी है कि पंकज बिष्ट हरिश्चंद्रीय आचरण की नहीं, बल्कि उसी आचरण की बात करते हैं जिसे 66 लेखकों ने संयुक्त पत्र में ‘‘एक जिम्मेदार नैतिक आचरण’’ कहा है। अगर किसी को इस दौर में यह हरिश्चंद्रीय आचरण की मांग लगता है, तो यह समय का फेर है और समयांतर में उसी को रेखांकित करने की कोशिश की गई थी, जिसके बदले में वागर्थ का संपादकीय सामने है। दुर्भाग्य से वागर्थ का यह संपादकीय गलतबयानी ही नहीं बल्कि अपनी अतार्किकता के लिए भी याद किया जाएगा। इसे पढ़ने से ऐसा आभास होता है मानो इसका लेखक बिस्मिल, प्रेमचंद, माखनलाल चतुर्वेदी, और सुभद्रा कुमारी चैहान जैसे आदर्शवादी लेखकों के पक्ष में है जबकि वह ‘डिफेंड’ समकालीन अवसरवादियों को कर रहा है। इससे कम-से-कम यह तो साफ है कि विजय बहादुर आदित्यनाथ से पुरस्कार लेने को गलत नहीं मानते। निश्चय ही न अब गांधी बचे हैं और न हरिश्चंद्र, पर मूल्यपरक आचरण और मार्यादाएं हर दौर की आवश्यकता होती हैं। उनके लेख की अंतिम पंक्तियां रही-सही कसर भी पूरी कर देती हैं। जिस अंदाज में विजय बहादुर ने लिखा है कि ‘‘यह पूछने का सही वक्त आ गया है’’ कि ‘‘हरिश्चंद्रीय आचरण की मांग...करने वालों में कितने हरिश्चंद्र और कितने गांधी हैं।’’ और ‘‘यह पूछकर कौन अपनी जान को जोखिम में डाले’’ इससे उनका रहा-सहा एजेंडा भी साफ हो जाता है। कम से कम हमारा अनुभव तो इसकी ताकीद ही करता है।