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20 फ़रवरी 2010

इस किताब को ज़रूर पढ़िए



मैने अंग्रेज़ी साहित्य बहुत कम पढ़ा है। गोरखपुर हो, नडियाड या फिर ग्वालियर- अव्वल तो उपलब्धता ही नहीं रही और दूसरे जब और जितना मौका मिला अर्थशास्त्र, इतिहास और दर्शन को पहली वरीयता मिली। शायद इतिहास में रुचि का ही परिणाम रहा कि जब हिलेरी मेण्टल की यह किताब पलटकर देखी तो तुरंत ख़रीद ली ( वैसे ईमानदारी से बताऊं तो ४०० की क़ीमत देखने के बाद गीत से फोन पर इसके बारे में पूरी तहक़ीकात करने के बाद ही अपन इसे ख़रीदने की हिम्मत जुटा पाये।) किताब मोटी तो थी ही साथ में फ्रेंच शब्दों की भरमार देख के हिम्मत डोल गयी…फिर एक मित्र ने बताया कि नेट पर फ्रेंच से अंग्रेज़ी अनुवाद भी उपलब्ध हैं तो अपन भिड़ गये।




लेकिन जब एक बार पढ़ना शुरु किया तो बस डूबता चला गया। पता ही नहीं चला कि इतिहास पढ़ रहा हूं या उपन्यास। दोनों की सीमाओं का अतिक्रमण करता हुआ- रोचक … बेहद रोचक। इतना मज़ा शिवप्रसाद सिंह की नीला चांद पढ़ते हुए ही आया था। पूरा पढ़ के अभी उठा ही था तो मालूम पड़ा कि इसका दूसरा भाग भी आने ही वाला है…तो चैन पड़ने की जगह बैचैनी और बढ़ गई।




इस उपन्यास का नायक सोलहवीं सदी के ब्रिटिश कोर्ट का एक प्रख्यात कूटनीतिज्ञ थामस क्रामवेल है। इतिहास की किताबों में उसे लगभग खलनायक के रूप में ही जाना था पर हिलेरी उसे नायकत्व प्रदान करती हैं। आगे…


आप पढ़िये जनाब…ज़रूर पढ़िये!

14 जनवरी 2010

अब हर कवि का बेटा अमिताभ बच्चन तो नहीं हो सकता?

कल बोधिसत्व भाई की अश्क जी के सन्दर्भ में लिखी पोस्ट पढ़ने के बाद मन बहुत देर तक अशांत रहा।

क्या हम सचमुच अपने इतिहास, अपनी परंपरा और अपने पूर्वजों के प्रति कृतघ्नता की हद तक लापरवाह और भुलक्कड़ हैं? क्या हम बस आज में जीते हुए ज़माने की भेड़चाल में शामिल होना जानते हैं? या फिर किसी अपराधबोध या एहसासे कमतरी से इस क़दर घिरे हुए हैं कि अपने देसज अतीत पर किसी आरोपित, आयातित या फिर कल्पित अतीत को वरीयता देते हैं? यह अतीतजीविता और प्रतिगामिता की प्रतिक्रिया में अपनाई गयी कोई दूसरी अति तो नहीं है?



पिछले बीसेक सालों से ( लगभग वही समय काल जिसमें मेरा/मेरी पीढ़ी का लेखकीय/पाठकीय विकास हुआ है) हम लगातार जन्म शताब्दियां मना रहे हैं। प्रेमचन्द, राहुल सांकृत्यायन, सज़्ज़ाद ज़हीर, सुभद्रा कुमारी चौहान और ऐसे ही तमाम आदमक़द साहित्यकारों की, जिन्होंने आधुनिक हिन्दी-उर्दू साहित्य के लिये बुनियादें भी चुनीं और कंगूरे भी बनाये। बड़े ज़ोर-शोर से कार्यक्रम हुए, पत्रिकाओं के विशेषांक निकले, चर्चा-परिचर्चा, थोड़ी कीच धुलेंड़ी भी और ऐसा लगा कि अब तक जो उनको बिसराये रखा गया, अब सारी कसर पूरी कर ली जायेगी। पर हुआ क्या? जैसी ख़ामोशी उन ख़ास वर्षों के पहले थी…उनके बाद भी कमोबेश बनी ही रही।
रामकुमार वर्मा, दिनकर, रांगेय राघव, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल जैसे तमाम दूसरे साहित्यकारों की जन्मशतियां या तो ऐसे ही बीत गयीं या बीत जाने की उम्मीद है।

मैने जबसे लिखना सीखा-- मार्क्सवाद भी सीखा। जुड़ा ही रहा कहीं न कहीं से। अब मार्क्सवादी विचारधारा पर बात चले और सज़्ज़ाद ज़हीर की बात न आये यह मुमकिन ही नहीं। जब उन्होंने प्रलेस बनायी थी तो एकीकृत कम्यूनिस्ट पार्टी थी। तो आज के प्रलेस के ही नहीं वह किसी भी वामपंथी संगठन के साहित्य संगठन के पुरखे हुए। लेकिन सच तो यह है कि उनकी जन्मशती के पहले तक मैं और मेरे तमाम दूसरे दोस्त उनका नाम तक नहीं जानते थे-- या बस नाम ही जानते थे। जन्मशती वाले साल तमाम चीज़ें मूर्खों की तरह पलक झपकाते हुए पढ़ी और लगा -- …अगले ज़माने में कोई मीर भी था उस दौरान मंचों से की गयीं दहाड़ें याद हैं और उसके बाद की बेशर्म चुप के हम गवाह हैं।

सज़्ज़ाद साहब के साथ यह तब हुआ जब प्रलेस आज भी लेखकों का सबसे बड़ा संगठन है। तो राहुल जैसे लड़ाके की कौन बिसात। गोरखपुर में राहुल पर हुए कार्यक्रम का मै गवाह हूं। ऐसा लगा था कि राहुल साहित्य अब जन-जन तक पहुंचेगा। पर हुआ क्या? राहुल फाउण्डेशन बना और एक क्रांतिकारी संगठन की शातिर प्रकाशन गृह तक की यात्रा पूरी हुई!
ऐसा तो नहीं कि ये सब बस हमारे लिये उत्सवीय महत्व की मूर्तियां बन कर रह गये हैं? जैसे कुछ दिन गणेश की पूजा अर्चना कर उनकी मूर्तियां नदी-नालों में बहा देते हैं वैसे ही हम अपने पुरखों को विस्मृति के नालों में?

शायद अब याद बस उनको करते हैं जिनसे वर्तमान में कुछ मिल जाने की संभावना होती है। जीते जी अमर हो जाने/ कर देने की चाह तमाम सम्मान समारोहों, महत्व कार्यक्रमों और संपूर्ण प्रकाशनों में साफ़ झलक रही है। ऐसे वर्तमानजीवियों से इतिहास या भविष्य को क्या उम्मीद हो सकती है?

तो क्या अश्क, क्या शमशेर, क्या प्रभाकर और क्या सज़्ज़ाद-- सबको भुला ही दिया जाना है एक दिन।

अब हर कवि का बेटा अमिताभ बच्चन तो नहीं हो सकता?

04 जनवरी 2010

पंकज बिष्ट का पत्र वागर्थ के सम्पादक के नाम


(यह शायद कुछ मित्रों को गढ़े मुर्दे उखाड़ना लगे लेकिन जब कोई भ्रष्ट वक़ील जबरन हत्या को आत्म्हत्या साबित करने पर लगा हो तो कोई और चारा भी तो नहीं होता!)


अर्द्ध सत्यों की वाग्मिता


(वागर्थ सितंबर, 09 का संपादकीय 66 लेखकों द्वारा जारी उस पत्र की भर्त्सना था जिसमें उदय प्रकाश द्वारा गोरखपुर में स्वामी आदित्यनाथ से पुरस्कार लेने पर निराशा जाहिर की गई थी। इस हस्ताक्षरित संपादकीय में विजय बहादुर सिंह ने वामपंथ को भी जमकर गरियाया था और वामपंथी लेखक संगठन पर अतार्किक आक्रमण किया था। इस संपादकीय में मुझे विशेष कर लक्षित किया गया क्यों कि यह वक्तव्य समयांतर में छपा था। संपादकीय का उत्तर देना इसलिए आवश्यक था। मैंने 15 सितंबर को ही अपना पक्ष लिख कर भेज दिया था। अपने पत्र में मैंने सिर्फ उन बातों का जवाब दिया था, जिनसे सीधा मेरा संबंध था। इसकी एक प्रति वागर्थ की प्रबंध संपादक और भारतीय भाषा परिषद की प्रमुख कुसुम खेमानी को भी प्रेषित कर दी गई थी। जब यह पत्र अक्टूबर तो छोड़ नवंबर में भी नहीं छपा, तो मैंने विजय बहादुर सिंह से फोन कर जानना चाहा कि क्या वह मेरा उत्तर छाप रहे हैं? उन्होंने कुल मिला कर यह कहा कि मैं पत्रा छापूंगा पर उसमें कुछ संशोधन करूंगा और अपना स्पष्टीकरण भी लगा दूंगा। मैंने कहा आप संपादक हैं, जैसा उचित लगे करें। पर पत्र दिसंबर में भी नहीं छापा। दूसरी ओर संपादक महोदय ने उस संपादकीय के पक्ष में सिर्फ अक्टूबर अंक में ही पांच पत्र छापे। नवंबर में भी आत्मप्रशंसा का यह सिलसिला जारी रहा और दिसंबर में भी इसकी छायाएं देखी जा सकती हैं। कई पत्र तो लेखकों के हाथ के ही लिखे हुए यथावत रिप्रोड्यूस किए गए, मानो वे अमूल्य दस्तावेज हों। ऐसा क्यों किया गया, यह अपने आप में कम मजेदार नहीं है। शायद असुरक्षित संपादक यह सिद्ध करना चाहते थे कि उनके समर्थन में लिखे गए पत्र जाली नहीं हैं। (लगता है संपादक महोदय को हस्तलिखित सामग्री को यथावत छापने का विशेष शौक है। बेहतर है वह पूरी पत्रिका ही हस्तलिखित कर दें, इससे कम से कम परिषद का कंपोजिंग का पैसा तो बचेगा और उन्हें भी संपादन और प्रूफ पढ़ने के झंझट से मुक्ति मिलेगी। तब संभव है वह ज्यादा तार्किक तरीके से वामपंथ पर आक्रमण का सिलसिला जारी रख सकेंगे)। यह पत्र इसलिए भी प्रकाशित करना जरूरी लगता है कि संभव है इससे वे लेखक भी कुछ सबक लेंगे जो संपादकों के आग्रह पर या खुशामद में लंबे-लंबे पत्र बिना सोचे-समझे अगले ही दिन उनकी सेवा में हाजिर कर देते हैं। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि वामपंथ और लेखक संगठनों पर किए जा रहे इस आक्रमण का जवाब देने की जगह पहली खेप में उनकी खुशखत में जनवादी लेखक संघ दिल्ली इकाई की उपाध्यक्षा मैत्रेयी पुष्पा का पत्र प्रकाशित हुआ है । प्रस्तुत है वागर्थ संपादक को तीन माह पहले लिखा गया वही पत्र। पर पहले उस संपादकीय से कुछ उद्धरण दिए जा रहे हैं जिससे विजय बहादुर सिंह और पत्र लिखने वालों में प्रमुख मैत्रेयी पुष्पा के इरादों को सही परिप्रेक्ष्य में रखा जा सके। - लेखक )



‘‘देखना है कि किसका चरित्र बचता है। उनका जो चोर दरवाजों से होकर जहां-तहां से घुसपैठ में व्यस्त हैं या फिर उस लेखक का जिसने विचारधारा के अनुगामियों के दुर्दांत आचरणों से तंग आ कर इन सब का परित्याग कर दिया है।’’


‘‘पुलिस की तरह सहमत के लोग तब (1992 प्रसंग) पहुंचे जब अयोध्या और फैजाबाद के लोग बुरी तरह घायल हो चुके थे। इनके कारनामों ने वहां जो नमक छिड़का उससे घाव और बढ़ा। सूचना के अधिकार के तहत यह क्यों नहीं पता लगाया जाना चाहिए कि केंद्र की सरकार ने उन्हें अयोध्या जाने के लिए कितने में तय किया था।’’

‘‘वर्ण व्यवस्था पोषित सामंतवाद और पुराणधर्मी हिंदुस्तानी पूंजीवाद का चेहरा तो अब अनपहचाना नहीं रहा। भारत की राजनीति अब भी इन्हीं दोनों की चपेट में है। भारत के सामाजिक जीवन पर इनकी भयावह छायाएं सिर्फ अंधों और बहरों को नहीं दिख रही हैं। चरम अवसरवादी बौद्धिकता से आक्रांत लेखक संगठनों ने अभी तक इस संबंध में अपना कोई खुलासा नहीं किया है। शायद उनकी आका पर्टियों ने उन्हें यह कहने की आजादी अभी सौंपी नहीं है।’’ (सभी उद्धरण किस की नहीं टूटी हैं कमंद, सितंबर, 2009 के वागर्थ के संपादकीय से)


‘‘आपका संपादकीय लाजवाब है। दो टूक बात कहने के दिन तो कब के लद गए। इसलिए भी आपका खरा-खरा संपादकीय रोमांचित करता है। उदय प्रकाश पर बेशुमार हमले हुए हैं। जैसे जांचा जा रहा हो कि कितने ऊंचे ताप पर फौलाद पिघलेगा। ऐसा गुनाह हो गया कि जो आता है, वही अपने नाम का पत्थर मार कर चैन की सांस लेता है। आपने जिस तेवर में लिखा है, काश यहां कोई महान साहित्यकार उन बातों को धीमे स्वर में ही बोल देता। मगर यहां दोस्तों को ऐसे विकट समय में सज्जनता भरी चुप्पी की आदत है।’’ (- मैत्रोयी पुष्पा के वागर्थ, अक्टूबर अंक में प्रकाशित पत्र से।)


संपादकीय में कुछ बातों के संदर्भ में मेरा भी नाम आया है। इसमें जो मुद्दा उठाया गया है महत्वपूर्ण है पर अर्द्धसत्यों से भरा होने के कारण स्पष्टीकरण जरूरी है। शुरू पुरस्कार-संदर्भ से करते हैं।


1 सामान्य शिष्टाचार और मर्यादा का तकाजा रहता है कि पुरस्कारों की समिति के लोग, कम से कम यह नहीं बतलाते कि किसने किस उम्मीदवार का समर्थन किया और किस का विरोध। एक बार निर्णय हो जाने के बाद घोषित पुरस्कार सामूहिक निर्णय माने जाते हैं, बशर्ते कि असहमत सदस्य ने अपने को तत्काल निर्णय से अलग न कर लिया हो। वैसे भी जिस पुरस्कार समिति में मुझे विजय बहादुर सिंह के साथ बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, वह दूसरे दौर की थी। इसलिए जिस निर्णायक समिति में हम थे, उसका कोई विशेष महत्व नहीं था, क्योंकि अंतिम दौर के निर्णायकों पर दूसरे दौर के निर्णायकों की सिफारिशें बंदिश नहीं होतीं और जहां तक मैं जानता हूं, वहां भी नहीं थीं। ऐसा भी नहीं है कि विजय बहादुर सिंह ने उन सभी नामों का अनिवार्य रूप से विरोध या समर्थन ही किया, जिन्हें अंततः पुरस्कृत किया गया या जो पुरस्कार पाने से रह गये थे। दुर्भाग्य से विजय बहादुर सिंह ने मर्यादा का ख्याल नहीं रखा है इसलिए मजबूरी में बाकी बातों को भी स्पष्ट करना जरूरी हो गया है। पहली बात तो यह है कि मैं वहां विजय बहादुर सिंह का अंधा समर्थन करने के लिए उपस्थित नहीं था, उसी तरह जिस तरह वह, आंख मूंद कर मेरा समर्थन करने के लिए, भोपाल से नहीं बुलाए गए थे। विजय बहादुर का पहला अर्द्धसत्य यह है कि जब उदय प्रकाश का नाम आया, तो मैं चुप रहा। सत्य यह है कि मैं चुप नहीं रहा बल्कि मैंने समर्थन नहीं किया और वह स्पष्ट शब्दों में था। मैंने ऐसा क्यों किया यह बतलाना जरूरी है। ये पुरस्कार असल में केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के थे। जिस पुरस्कार की वह बात कर रहे हैं, वह साहित्य और पत्राकारिता की श्रेणी के लिए विचाराधीन था। यानी इसकी सीमाएं स्पष्ट थीं। इसके लिए कई नाम हमारे सामने थे, उनमें एक रमेश उपाध्याय का था। चूंकि रमेश उपाध्याय ने हिंदी पत्राकारिता, अध्यापन और रचनात्मक लेखन, तीनों लंबे समय तक किया है तथा वह अब भी हिंदी में अपनी तरह की विशिष्ट पत्रिका निकाल रहे हैं, इसलिए मैंने उनके नाम का समर्थन किया था। उदय प्रकाश को साहित्य अकादेमी पुरस्कार नहीं मिला है तो इसकी क्षतिपूर्ति के तौर पर एक ऐसे पुरस्कार को दे दिया जाए जो कि किसी और उद्देश्य के लिए हो, और जिसका एक बेहतर हकदार आपके सामने हो, मुझे न तब सही लगा था और न ही आज लगता है। वैसे साहित्य अकादेमी पुरस्कार के बारे में बेहतर हो उनसे पूछा जाए जो छह वर्ष पहले तक अकादेमी को, स्वयं और अपनी प्राॅक्सियों के बल पर, दशकों तक कब्जाए रहे और अपने हिसाब से पुरस्कार देते रहे।


सत्य यह है कि कोई भी पुरस्कार किसी भी तरह से श्रेष्ठ लेखन का किसी भी तरह का मानदंड नहीं होता, चाहे वह नोबेल ही क्यों न हो। और ‘महानता की ओर बढ़ते’ किसी लेखक के लिए तो शायद ही इनका कोई अर्थ होता हो। इस पर भी, उदय प्रकाश इस समय हिंदी के सर्वाधिक ‘डेकोरेडेट’ लेखकों में हैं जिन्हें ओमप्रकाश पुरस्कार से लेकर द्विजदेव और अब कुंवर नरेंद्र प्रताप सिंह पुरस्कार तक, कई तरह के सरकारी-गैर-सरकारी पुरस्कार मिल चुके हैं और मिलते रहते हैं। दूसरी ओर वरिष्ठ होने के बावजूद रमेश उपाध्याय को गिनती के ही पुरस्कार मिले हैं। इस पर भी यह मानने में आपत्ति नहीं हो सकती कि उदय प्रकाश को अकादेमी पुरस्कार मिलना चाहिए पर यह कौन-सा तर्क है कि अगर आपको साहित्य अकादेमी या केंद्रीय हिंदी संस्थान का पुरस्कार न मिले, तो आप सांप्रदायिक ताकतों और खाप पंचायतों से पुरस्कार लेने पहुंच जाएं?वैसे इधर यह चर्चा जोरों पर है कि साहित्य अकादेमी पुरस्कार की एक गली गोरखपुर होकर भी निकलती है।


2 दूसरा अर्द्ध सत्य यह है कि विजय बहादुर सिंह ने रायपुर और गोरखपुर का तो नाम लिया है, पर अपने चार पृष्ठों के संपादकीय में यह नहीं बतलाया कि वहां क्या हुआ, विशेष कर गोरखपुर में और लेखकों ने ऐसी प्रतिक्रिया क्यों की? रायपुर में क्या हुआ, शायद इससे उनका ज्यादा सरोकार भी नहीं है। उनका सारा सरोकार उदय प्रकाश को लेकर लगता है, इसलिए बतलाना जरूरी है कि गोरखपुर में उदय प्रकाश ने हिंदू फासिस्ट नेता आदित्यनाथ के हाथों कुंवर नरेंद्र प्रताप सिंह पुरस्कार लिया। इसका विरोध 66 लेखकों ने एक संयुक्त पत्रा में किया। पत्र में कहा गया थाः ‘‘ प्रतिष्ठित और लोकप्रिय साहित्यकार उदय प्रकाश ने ... योगी आदित्यनाथ जैसे कट्टर हिंदुत्ववादी, सामंती और सांप्रदायिक सांसद के हाथों से (पुरस्कार) ग्रहण किया है जो ‘उत्तर प्रदेश को गुजरात बना देना है’ जैसे फासीवादी बयानों के लिए कुख्यात रहे हैं। हम अपने लेखकों से एक जिम्मेदार नैतिक आचरण की अपेक्षा रखते हैं।’’ समयांतर ने सिर्फ उस क्षोभ और निराशा को अपने अगस्त अंक के संपादकीय में व्यक्त करने की कोशिश की।


वागर्थ के पाठकों को यह बतलाए बगैर बात पूरी नहीं होगी कि आदित्यनाथ गोरखनाथ पीठ के वारिस हैं और यह पीठ सिर्फ हिंदूवादी एजेंडे के लिए ही नहीं बल्कि अपने जातिवादी एजेंडे के लिए भी जानी जाती है। इस के मठाधीश राजपूत ही होते हैं। यानी कुंवर नरेंद्र प्रताप सिंह ही नहीं आदित्यनाथ भी ठाकुर हैं। क्या इसे महज संयोग कहा जाए कि समारोह के आमंत्राण पत्र में उदय प्रकाश का नाम ‘‘उदय प्रकाश सिंह’’ छपा हुआ था। गोकि लेखकों की असहमति मूलतः सांप्रदायिकता से है।


3. अब आते हैं तीसरे तथ्य पर जो कितना सच है, इसका फैसला होना जरूरी है। वागर्थ के संपादकीय में लिखा गया है, ‘‘यों पंकज के आईने में उदय कोई पहले नहीं हैं। इससे पहले वेणुगोपाल वगैरह थे।’’ मैं विजय बहादुर को याद दिलाना चाहूंगा कि पिछले वर्ष जब वेणुगोपाल पर मेरा लेख छपा, उन्होंने मुझे कोलकाता से तत्काल फोन किया था। मुझे अच्छी तरह याद है फोन में उन्होंने उस लेख की तारीफ करते हुए कहा था, ‘‘बातें तो और भी बहुत-सी हैं। वह मेरे साथ विदिशा में रहे थे और मेरे पास उनके कई पत्र हैं। मैं भी लिखूंगा।’’ याद नहीं उन्होंने क्या लिखा। पर मैं उन से इतनी ईमानदारी की अपेक्षा रखता हूं कि वह बतलाएं कि मेरे लेख में किस तरह से वेणुगोपाल पर निशाना साधा गया है? अगर उनमें हिम्मत हो तो वह पूरा लेख वागर्थ के पाठकों के सामने रखें जिससे दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा? अगर उस लेख का उद्देश्य किसी भी तौर पर वेणुगोपाल का अपमान करना सिद्ध हो जाता है, तो मैं सार्वजनिक तौर पर माफी मांग लूंगा और उस लेख को अपनी किसी किताब में शामिल नहीं करूंगा। अन्यथा किसे माफी मांगनी चाहिए, बतलाने की जरूरत नहीं है। अगर विजय बहादुर ने समयांतर पढ़ा होता तो उन्हें याद आ जाता कि अकेले समयांतर ने उदय प्रकाश को दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसरी का पद न देने की खुल कर आलोचना की थी। हमने जो लिखा उद्धृत करना जरूरी हैः
‘‘(दिल्ली विश्वविद्यालय में) दिल्ली से ही की गई नियुक्तियों में जो हुआ सो हुआ, असली चक्कर हुआ पांचवीं नियुक्ति के लिए। इसके एक उम्मीदवार कथाकार उदय प्रकाश भी थे। सुना जाता है उन से पूछा गया आपके पास तो पीएडी की उपाधि नहीं है? इस पर उदय प्रकाश का उत्तर था, मेरी रचनाओं पर कई पीएचडी हुई हैं। आखिर साक्षात्कारकर्ता यों ही तो इतने ऊंचे पद पर नहीं पहुंचते, लिहाजा पटना से आए विशेषज्ञ ने कहा, लेखक होना एक बात है अध्यापक होना दूसरी। लगता है उदय प्रकाश ने यह नहीं कहा कि आचार्य प्रवर अध्यापन की इसी परंपरा के कारण आज हिंदी इस बुलंदी पर पहुंची हुई है कि उसमें डाॅक्टरेट लेना एक मखौल बन चुका है। ... आज सारी दुनिया में साहित्य के विभागों में रचनात्मक लेखकों को बड़े सम्मान से बुला कर रखा जाता है और उनकी प्रतिभा का लाभ उठाया जाता है, उसे देखते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय से यह अपेक्षा की जानी चाहिए थी कि वे उदय प्रकाश को साक्षात्कार के लिए नहीं बल्कि सीधे पद संभालने के लिए आमंत्रित करता और यह उसके लिए गौरव की बात होती।’’ (अक्टूबर, 2004, समयांतर )


उदय प्रकाश को समकालीन भारतीय साहित्य पत्रिका के संपादक का पद न मिलने का भी एकमात्र विरोध समयांतर ने ही किया था और वह भी इसी अंक में प्रकाशित हुआ था।


कुछ बातें और भी हैं, पर सब का उत्तर देना जरूरी नहीं है। पर अंत में यह कहना जरूरी है कि पंकज बिष्ट हरिश्चंद्रीय आचरण की नहीं, बल्कि उसी आचरण की बात करते हैं जिसे 66 लेखकों ने संयुक्त पत्र में ‘‘एक जिम्मेदार नैतिक आचरण’’ कहा है। अगर किसी को इस दौर में यह हरिश्चंद्रीय आचरण की मांग लगता है, तो यह समय का फेर है और समयांतर में उसी को रेखांकित करने की कोशिश की गई थी, जिसके बदले में वागर्थ का संपादकीय सामने है। दुर्भाग्य से वागर्थ का यह संपादकीय गलतबयानी ही नहीं बल्कि अपनी अतार्किकता के लिए भी याद किया जाएगा। इसे पढ़ने से ऐसा आभास होता है मानो इसका लेखक बिस्मिल, प्रेमचंद, माखनलाल चतुर्वेदी, और सुभद्रा कुमारी चैहान जैसे आदर्शवादी लेखकों के पक्ष में है जबकि वह ‘डिफेंड’ समकालीन अवसरवादियों को कर रहा है। इससे कम-से-कम यह तो साफ है कि विजय बहादुर आदित्यनाथ से पुरस्कार लेने को गलत नहीं मानते। निश्चय ही न अब गांधी बचे हैं और न हरिश्चंद्र, पर मूल्यपरक आचरण और मार्यादाएं हर दौर की आवश्यकता होती हैं। उनके लेख की अंतिम पंक्तियां रही-सही कसर भी पूरी कर देती हैं। जिस अंदाज में विजय बहादुर ने लिखा है कि ‘‘यह पूछने का सही वक्त आ गया है’’ कि ‘‘हरिश्चंद्रीय आचरण की मांग...करने वालों में कितने हरिश्चंद्र और कितने गांधी हैं।’’ और ‘‘यह पूछकर कौन अपनी जान को जोखिम में डाले’’ इससे उनका रहा-सहा एजेंडा भी साफ हो जाता है। कम से कम हमारा अनुभव तो इसकी ताकीद ही करता है।

24 अक्टूबर 2009

साहित्य का आधिक्य और पुरस्कारों की लालीपाप

पिछले दिनों अन्यान्य कारणों से पुरस्कार और उनसे जुड़े तमाम विवाद बहसों के केन्द्र में रहे। वैसे भी इस साहित्य विरोधी माहौल में जब साहित्य कहीं से जीवन के केन्द्र में नही है, बहसों के मूल में अक्सर साहित्य की जगह कुछ चुनिन्दा व्यक्ति, पुरस्कार और संस्थायें ही रहे हैं। पाठकों के निरंतर विलोपन और इस कारण साहित्य के स्पेस के नियमित संकुचन ने वह स्थिति पैदा की है जिसमे व्यक्तियों के प्रमाणपत्र निरंतर महत्वपूर्ण होते गए हैं। ऐसे में यह अस्वाभाविक नही कि पूरा साहित्य उत्तरोत्तर आलोचक केंद्रित होता चला गया और पुरस्कार तथा सम्मान रचना का अन्तिम प्राप्य।
यहाँ यह भी देखना ज़रूरी होगा कि हिन्दी में लेखन का अर्थ ही साहित्य रचना होकर रह गया। अगर कोई कहे के वह हिन्दी का बुद्धिजीवी है तो सीधे-सीधे मान लिया जाता है कि वह या तो कवि है, या आलोचक या उपन्यासकार या फिर यह सबकुछ एकसाथ। हिन्दी का पूरा बौद्धिक परिवेश साहित्य लेखन के इर्दगिर्द सिमटा रहा है और इतिहास, दर्शन, अर्थशाष्त्र, राजनीति आदि पर अव्वल तो गंभीर बात हुई ही नहीं और अगर कुछ लोगों ने की भी तो आत्मतुष्ट साहित्य बिरादरी ने उसे हमेशा उपेक्षित ही रखा। इसका पहला अनुभव मुझे समयांतर के दस साल पूरे होने पर पंकज बिष्ट जी द्वारा आयोजित प्रीतिभोज में हुआ जहां केन्द्र में रखी विशाल मेज़ पर साहित्य के बडे नामों और नये पुराने संपादकों का कब्ज़ा था और सामाजार्थिक विषयों पर वर्षों से पत्रिका में नियमित लिखने वाले तमाम वरिष्ठ लोग परिधि पर स्थित कुर्सियों में सिमटे थे। इनमें ऐसे लोग भी थे जिन्हें अपने-अपने विषयों के बौद्धिक जगत में अन्तरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त है। यह एक ऐसी की पत्रिका के कार्यक्रम का दृश्य था जो मूलतः साहित्य की पत्रिका नहीं है। यह हिन्दी के बौद्धिक परिवेश का एक स्पष्ट रूपक है।
इसका परिणाम यह है कि अन्यान्य विषयों में हिन्दी का बौद्धिक परिवेश अत्यंत एकांग़ी और लचर रहा है। परीकथा के पिछले अंक में गिरीश मिश्र का प्रो अब्दुल बिस्मिल्लाह को दिया जवाब इस पूरे परिदृश्य को बडी बेबाकी से परिभाषित करता है। यह आश्चर्यजनक तो है ही कि पूरा हिन्दी जगत बाज़ारीकरण जैसी भ्रामक और निरर्थक शब्दावली का प्रयोग करता है, नवउदारवाद और नवउपनिवेशवाद जैसे शब्दों का प्रयोग समानार्थी रूप में प्रयोग किया जाता है और भी न जाने क्या-क्या।
यही नहीं, अन्य विषयों की उपेक्षा का ही परिणाम है कि हिन्दी में सारे पुरस्कार बस साहित्य के लिये आरक्षित हैं। पत्रकारिता को छोड दें तो हिन्दी की लघु पत्रिकाओं में अन्य विषयों पर लिखने वालों के लिये न तो कोई प्रोत्साहन है न पुरस्कार। तमाम चर्चाओं, परिचर्चाओं और कुचर्चाओं के क्रम में साहित्येतर विषय सिरे से गायब रहते हैं।
यह किस बात का द्योतक है? साहित्य की सर्वश्रेष्ठता का या हिन्दी के बौद्धिक दारिद्र्य का?

27 सितंबर 2009

मै फिलहाल कहीं नही हूँ

चूंकि मै किसी पद पर तो हूँ नही इसलिए इस्तीफे का कोई अर्थ नही है।

मेरा स्पष्ट मत है कि किसी वामपंथी संगठन को ऎसी संसथाओं से मदद नही लेना चाहिए। और अगर यह अनजाने में हुआ है तो इसके लिए माफी माँगते हुए वह सम्मान वापस कर देना चाहिए। अन्यथा यह वामपंथ की पहले से फीकी हुई रंगत को और बदनुमा करेगा। महासचिव महोदय को इसका स्पष्टीकरण शीघ्र देना चाहिए।

21 सितंबर 2009

हद है नामवर जी ! आख़िर कहाँ-कहाँ जायेंगे आप?

नामवर सिंह जी हिन्दी साहित्य के शीर्ष पर हैं ... प्रलेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं ... महालोचक हैं ... एक बार जिसका नाम ले लें वह कई रात सो नही पाता है… वगैरह-वगैरह

आप किसी भी 'बडे' साहित्यकार से पूछिये और वह शायद यही कहेगा। जिनपे करम नहीं हुआ वे रूठे होंगे पर इस तथ्य से इंकार नहीं करेंगे। जिनके साथ उन्होंने फोटो खींचा ली होगी वे तो ड्राईंगरूम में सजी उस तस्वीर को देखकर ही धन्य-धन्य हो जाते हैं - बाकी मौके की तलाश में रहते हैं। यह सब तब जब कि दशकों से उन्होंने कुछ लिखा नहीं है। फिर भी उनके प्रवचनों को संकलित कर किताब बनाकर छापने की होड लगी रहती है। इन सबके साथ वह हिंदी के वामपंथी लेखकों के प्रतिनिधि तो माने ही जाते हैं।
लेकिन यह भी एक विडम्बना है कि उदय प्रकाश पर पूरे ज़ोर शोर से अपना विरोध दर्ज़ कराने वाला साहित्य समाज नामवर जी पर चुप्पी साध जाता है। एक पुलिस अफ़सर को मुक्तिबोध की पंक्ति में बिठाये तो ख़ैर बहुत वक़्त बीत गया पर हाल में ही वह ज ब भाजपाई जसवंत सिंह की किताब का विमोचन कराने पहुंच गये तो भी सब चुप रहे, फिर अशोक चक्रधर की अध्यक्षता वाली हिंदी एकेडेमी के कार्यक्रम में शरीक़ होने वाले इकलौते बडे और वाम साहित्यकार होने का गौरव प्राप्त किया तो भी वही चुप्पी।
तो साहब यह यहां न रुकना था ना रुका। दो दिन पहले वह पहुंच गये इन्दौर की मध्य भारतीय साहित्य सभा के कार्यक्रम में जो संघ के साहित्यकारों का जमावडा है। इसकी कर्ताधर्ता हैं सुमित्रा महाजन जो ''समाजवादी'' प्रभाष जोशी और ''वामपंथी'' नामवर जी के बीच अपने संघी साथी चतुर्वेदी जी के साथ शान से विराजमान थीं। इंदौर प्रलेस अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष के स्वागत में उपस्थित था या नहीं मै नहीं जानता पर ताई के चेले-चपाटे तो थे ही।
सांप्रदायिकता के सौदागरों यह सिर्फ़ आत्मसमर्पण है… पर आप तो इसे डिफ़ेन्ड करने के तर्क ढूंढ ही लोगे। मेरा सवाल हिन्दी की लेखक बिरादरी से है कि ये चुप्पी कब तक? आखिर कब तक?

12 सितंबर 2009

विष्णु जी इस सच का सच क्या है?

ऐसा लगता है कि साहित्य के क्षेत्र में वैसी ही आपा धापी मची है जैसी कि भाजपा में। यहाँ भी वही निराशा और अदृश्य सत्ता की तलाश सी चल रही है। एक तरफ़ साहित्य आम आदमी की प्राथमिकताओं से ही बाहर नहीं हो रहा बल्कि अपने समय और समाज को प्रभावित करने की ताक़त भी लगातार खोता चला जा रहा है तो दूसरी तरफ़ रोज़ सिकुडते जा रहे इसके स्पेस पर कब्ज़ा जमाने की कोशिशें भी तेज़ होती जा रही हैं। इस आपाधापी में विचारधारा की केंचुल उतर रही है, कहीं पुराने की जगह नये को सेट करने का ''नवोन्मेष'' है, कहीं हर चीज़ का निषेध तो कहीं हर चीज़ का स्वीकार। पाठकों के घोर अभाव झेलते समाज में रोज़ निकल रही नई पत्रिकायें हैं ( जो अपने समकालीन चलन के विपरीत मोटे होने के लिये मरी जा रही हैं)। इसी क्रम में हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि-विचारक विष्णु खरे की हालिया टिप्पणी/आलोचना/आत्मस्वीकार है जो सबद में छपी है।
आज पुरस्कारों की जो स्थिति है, उससे हिन्दी के बचे-खुचे पाठक और खंचिया भर लेखकों का अपरिचय नहीं। सब समझते- बूझते हैं, रसरंजन के दौरान बतियाते भी हैं और चढ़ जाने पर गरियाते भी। भारतभूषण हो , साहित्य एकेडेमी, वागीश्वरी या फ़िर कोई और… विवाद हर जगह मौज़ूद हैं। हालत यह है कि अगर किसी को साल में दो-तीन पुरस्कार मिल जाये तो भाई लोग समझ जाते हैं कि बंदे की सेटिंग मस्त है। यही वज़ह है कि तमाम जुगाडु कवि पुरस्कृत होते रहे और मोहन डहेरिया, हरिओम राजोरिया, अंशु मालवीय जैसे कवि आलोचकों की नज़र से महरूम ही रहे।
लेकिन जिस तरह विष्णु जी ने भारतभूषण प्राप्त कविओं की परत दर परत खोली है वह पहली बार ही हुआ। हमने भी जब इसे पढा तो पहले यही लगा कि चलो किसी ने शुरुआत तो की! पर दुबारा-तिबारा में बात पलटने लगी।
कारण कई हैं- विष्णु जी ३० बरस इस पुरस्कार के निर्णायक मण्डल के सदस्य के हैसियत से जिन कविताओं के प्रशस्ति पत्रों पर हस्ताक्षर करते रहे आज वे अचानक इतनी बुरी क्यों हो गयीं? आखिर यह ग़ुस्सा और इमानदार वक्तव्य ऐसी किसी कूडा कविता के सम्मानित होने के बाद आने की जगह एक ऐसी कविता के चयनित होने के बाद क्यों आया जिसे वह ख़ुद इस पुरस्कार के काबिल मानते हैं? आख़िर वे कौन सी मज़बूरियां/प्रलोभन रहे कि वे तीस सालों तक ख़ामोश रहे? सच का देर और दुरस्त आना ग़लत नहीं पर देरी की वज़ह न बताने से शक़ की गुंजाईश तो होती है ना!
फिर इस सच में भी कई सच दफ़्न हैं। आख़िर कम से कम एक कवि की कविता को तो वह मंच से इस पुरस्कार के योग्य तब बता चुके हैं जब वह पुरस्कृत हुई भी नहीं थी। दूसरी उनके साथ एक पत्रिका में छपी पर उन्होंने छपने से पुरस्कार लेने तक उस पर कोई टिप्पणी नहीं की। अब इन पर अचानक जागे ज्ञानचक्षु ख़ुले तो कैसे? जैसे वह अब तक तमाम कविताओं पर सकारात्मक टिप्पणियां देते रहे हैं आखिर किस मज़बूरी के तहत वैसे ही ख़राब कविताओं पर वह तब सच नहीं कह पाये?
आज विष्णु जी जहां हैं वहां वह नुक्सान-फ़ायदे से ऊपर उठ चुके हैं। अब जब कोई ख़तरा नहीं बचा तो संत वेश धारण करना आसान है। यह सच मारक तब लगता जब उन ख़राब कविताओं के चयन पर वह उठ कर बाहर आ गये होते।
वैसे जिस आलोचक को उदय प्रकाश और अनामिका से बेहतर कवि विनोद भारद्वाज और हेमंत कुकरेती लगते हों उसके विशिष्ट काव्यबोध को समझ पाना आसान नहीं। शायद उन्हें वही कविता जमती है जिसे पढ़ पाना आसान नहीं। अब अंबुज जी पर कुछ कह पाना आसान नहीं था वरना उन्हें भी सिर्फ़ इस बात के लिये ख़ारिज़ किया जा सकता था कि उन्होंने लय को बचा कर क्यूं रखा?
अब इस आपाधापी में पाठक होता तो हम पूछते भाई तुम्हीं कहो कि सच क्या है?
नहीं है तो आलोचक जो कहे वही सच!!!

वैसे राजनीति में ज्ञानचक्षु तब खुलते हैं जब पार्टी बदलनी होती है… यहां क्या माज़रा है राम जाने!

16 जुलाई 2009

मेरा शहर मरा नही है

(अब उदय प्रकाश प्रकरण से सब परिचित हैं। इसी पर कपिलदेव जी की अन्यत्र लगी टिप्पणी यहाँ पोस्ट कर रहा हूं)
गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ के हाथों कुवर नरेन्द्रप्रताप सिंह स्मृति सम्मान ग्रहण करने की पहली खबर अमर उजाला के स्थानीय संस्करण में छपी थी। खबर में उदयप्रकाश का नाम चूंकि ‘‘प्रसिद्ध कथाकार डा् उदयप्रकाश सिंह’’ छपा था, इसलिए सहसा यह समझ पाना मुश्किल था कि यह कौन नया कथाकार है। लेकिन जिन्हें उदय प्रकाश के गोरखपुर आने की खबर थी उन्हें समझते देर नहीं लगी। हम सबको पहले से खबर थी कि उदयप्रकाश अपने उपन्यास के सिलसिले में कुशीनगर जाने वाले हैं। वे गोरखपुर में ही किसी कुंवर नरेन्द्रप्रताप सिंह के यहां ठहरेंगे। वे कुशीनगर गए कि नहीं यह तो नही मालूम, लेकिन लिखने पढ़ने की दुनिया से ताल्लुक रखने हम गोरखपुर वालों के लिए अमर उजाला की वह खबर एक स्तब्धकारी सूचना थी। गोरखपुर के वे साहित्यकार , जिन्हें हम अकसर ही समझौतावादी, दक्षिणपंथी और सवर्णवादी आदि कह कर पीड़ित प्रताड़ित करते रहते हैं, वे भी योगी आदित्यनाथ की अध्यक्षता में आयोजित होने वाले किसी भी आयोजन में जाने से बचते हैं।हम उन्हें निन्दनीय समझते ही इसलिए हैं कि अभी उनमें इतनी लज्जा बची है कि वे मंदिर वाले आयोजनों में जाने में शर्म महसूस करते हैं। दुनिया जानती है कि साम्प्रदायिकता का विषवमन करने के मामले में अशोक सिंघल, तोगड़िया और मोदी के बाद अगर किसी का नाम आता है तो निश्चय ही वह योगी आदित्यनाथ का नाम है। उदयप्रकाश एक प्रसिद्ध साहित्यकार हैं और उनके प्रशंसको की गोरखपुर में कमी नहीं है। लेकिन कुंवर नरेन्द्रपताप सिंह की स्मृति में आयोजित सम्मान समारोह में सिर्फ एक को छोड़ कर यहां का कोई भी लेखक नहीं था। इस सम्मान समारोह में उदयप्रकाश के पुरस्कृत होने के बाद हमारे शहर के साहित्यिकों ने उनसे मिलने ओैर उनके सम्मान में गोष्ठी आयोजित करने का विचार ही त्याग दिया। हम सब एक अजीब तरह की शर्म और आत्मग्लानि में डूब गये थे। हमारी साहित्यिक संचेतना और वैचारिक प्रतिरोध का आईकान एक प्रतिक्रिंरयावादी संकीर्णतावादी हिन्दू साम्प्रदायिक के हाथों हमारी ही आंखों के सामनें झुक कर कोई ताम्रपत्र ले कर गदगद था और भरे मंच सगर्व यह घोषणा कर रहा था कि कुंवर नरेन्द्रप्रताप सिंह को सांस्कृृृृृृृृृृृृृृृृृृृतिक राष्ट्रवाद का प्रबल प्रहरी होने के लिये सदा याद किया जाएगा। सच कहूं तो उदयप्रकाश के सम्मान समारोह का वह दिन हमारे शहर के साहित्यकारेां संस्कृतिकर्मियों और पाठकों के लिए शर्मसार होने का दिन था। मगर मुझे गर्व है कि बात बात पर आपस में लड़ते झगड़ते रहने वाले हमारे ‘शहर का साहित्यिक समाज इस मुद्दे पर पूरी एकमत था कि 5जुलाई का वह मनहूस दिन (जब उदयप्रकाश ने सम्मान लिया) शर्म से डूब मरने का दिन है।
अपने शहर मे आए अपने प्रिय कथाकार की इस शर्मनाक हरकत पर हम सिर्फ सर ही झुका सकते थे। और हमे कहने में कोई ‘शर्म नहीं है कि हमनें इस ‘शर्म को दिल से महसूस किया। कारण कि हमारे ‘शहर में उदय प्रकाश जी की तरह अभी कोई इतना ‘जहीन’ लेखक नही पैदा हुआ है जो हत्यारे हाथों से पुरस्कृत होने की हिमाकत भी करे औ अपने कृत्य पर लज्जित होने की बजाय उनके इस कृत्य पर सवाल उठाने वालों को ‘‘देख लेने’’ की धमकी देने का साहस भी कर सके।

27 दिसंबर 2008

यहाँ भी चोरी

हद है! अब ब्लॉग पर भी चोरी होने लगी ।
मामला ताजा है , फरवरी २००८ में ही कृत्या मॆ धूमिल पर एक आलेख छपा था, लेखक थे जाने माने कवि और आलोचक भाई सुशील कुमार। अब इसी को शब्दशः चुरा कर मुकुन्द नामक व्यक्ति ने कालचक्र पर छाप दिया है। यहाँ तक कि क़ोटेशन भी वही है।
यह ब्लाग की मस्त कलन्दरी दुनिया को गन्दा करने वाला प्रयास है। इसकी लानत मलामत की जानी चाहिये।
सबूत के लिये यहाँ दोनों लिन्क दे रहा हूँ ।
http://www.kritya.in/0309/hn/editors_choice.html इस पर सुशील जी का आलेख फ़रवरी मे छपा।
http://kalchakra-mukund.blogspot.com/2008/09/blog-post_5626.html इस पर है मुकुन्द जी का स्वचुरित लेख है।
फ़ैसला आप ब्लागर देश के नागरिकों का।

09 अक्टूबर 2008



नहीं रहीं प्रभा खेतान
हिन्दी की सुप्रसिद्ध लेखिका प्रभा खेतान का कल देर रात निधन हो गया। दर्शनशास्त्र में स्नातकोत्तर डा. खेतान की की रचनाओं में आआ॓ पेपे घर चलें, पीली आंधी, अपरिचित उजाले, छिन्नमस्ता, बाजार बीच बाजार के खिलाफ, उपनिवेश में स्त्री काफी लोकप्रिय हैं। विश्व विख्यात अस्तित्ववादी चिंतक व लेखक ज्यां पाल सार्त्र पर उनकी पुस्तकें भी काफी चर्चित हैं। लेकिन प्रभा खेतान को सबसे ज्यादा ख्याति फ्रांसीसी रचनाकार सिमोन द बोउवा की पुस्तक ‘दि सेकेंड सेक्स’ के अनुवाद ‘स्त्री उपेक्षिता’ से मिली। 949 में लिखी गई ' द सैकेण्ड सेक्स ' के सन्दर्भ में भारतीय स्त्रियों को लेकर 1989 में लिखे गये प्रभा खेतान के भी उतने ही प्रसंगिक हैं।हमें बड़ी उदारता से सामान्य स्त्री और उसके परिवेश के बारे में सोचना होगा। सीमोन ने उन्हीं के लिये इस पुस्तक में लिखा है और उन्हीं से उनका सम्वाद है‚ विशिष्टों या अपवादों से नहीं। — प्रभा खेतान स्त्री पैदा नहीं होती उसे बना दिया जाता है — सीमोन द बोउवार'स्त्री उपेक्षिता' की भूमिका के अंश प्रभा खेतान " इस पुस्तक का अनुवाद करने के दौरान कभी – कभी मन में एक बात उठती रही है। क्या इसकी ज़रूरत है? शायद किसी की धरोहर मेरे पास है‚ जो मुझे लौटानी है। यह किताब जहां तक बन पड़ा मैं ने सरल और सुबोध बनाने की कोशिश की। मेरी चाह बस इतनी है कि यह अधिक से अधिक हाथों में पहुंचे। इसकी हर पंक्ति में मुझे अपने आस – पास के न जाने कितने चेहरे झांकते नज़र आए। मूक और आंसू भरे। यदि कोई इससे प्रेरणा पा सके‚ औरत की नियति को हारराई से समझ सके‚ तो मैं अपनी मेहनत बेकार नहीं समझूंगी। हांलाकि जो इसे पढ़ेगा‚ वह अकेले पढ़ेगा‚ लेकिन वह सबकी कहानी होगी। हाँ‚ इसका भावनात्मक प्रभाव अलग – अलग होगा।"" आज यदि कोई सीमोन को पढ़े‚ तो कोई खास चौंकाने वाली बात नहीं भी लग सकती है। आज स्त्री के विभिन्न पक्षों पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है‚ लेकिन मैं यह सोचती हूँ कि यह पुस्तक हमारे देश में आज भी बहस का मुद्दा हो सकती है। हम भारतीय कई तहों में जीते हैं। यदि हम मन की सलवटों को समझते हैं‚ तो ज़रूर यह स्वीकारेंगे कि औरत का मानवीय रूप सहोदरा कही जाने के बावज़ूद स्वीकृत नहीं है। हमारे देश में औरत यदि पढ़ी – लिखी है और काम करती है‚ तो उससे समाज और परिवार की उम्मीदें अधिक होती हैं। लोग चाहते हैं कि वह सारी भूमिकाओं को बिना किसी सिकायत के निभाए। वह कमा कर भी लाए और घर में अकेले खाना भी बनाए‚ बूढ़े सास – ससुर की सेवा भी करे और बच्चों का भरन – पोषण भी। पड़ोसन अगर फूहड़ है तो उससे फूहड़ विषयों पर ही बातें करे‚ वह पति के ड्राईंगरूम की शोभा भी बने और पलंग की मखमली बिछावन भी। चूंकि वह पढ़ी – लिखी है‚ इसलिये तेज – तर्रार समझी जाती है‚ सीधी तो मानी ही नहीं जा सकती। स्पष्टवादिता उसका गुनाह माना जाता है। वह घर निभाने की सोचे‚ घर बिगाड़ने की नहीं। सब कुछ तो उसी पर निर्भर करता है? समाज ने इतनी स्वतन्त्रता दी‚ परिवार ने उसे काम करने की इजाज़त दी है‚ यही क्या कम रहमदिली है! फिर शिकायत क्या?"" यह पुस्तक न मनु संहिता है और न गीता न रामायण। हिन्दी में इस पुस्तक को प्रस्तुत करने का मेरा उद्देश्य सिर्फ यह है कि विभिन्न भूमिकाओं में जूझती हुई‚ नगरों – महानगरों की स्त्रियां इसे पढ़ें और अपनी प्रतिक्रिया मुझे लिख कर भेजें। यह सच है कि स्त्री के बारे में इतना प्रामाणिक विश्लेषण एक स्त्री ही दे सकती है। बहुधा कोई पाठिका जब अपने बारे में पुरुष के विचार और भावनाएं पढ़ती है‚ तब उसे लेखक की नीयत पर कहीं संदेह नहीं होता। ' अन्ना कैरेनिना पढ़ते हुए या शरत चन्द्र का 'शेष प्रश्न' पढ़ते हुए हम बिलकुल भूल जाते हैं कि इस स्त्री – चरित्र को पुरुष गढ़ रहा है‚ और यदि लेखक याद भी आता है तो श्रद्धा से मस्तक नत हो जाता है। पर यह बात भी मन में आती है कि यदि 'अन्ना' का चरित्र किसी स्त्री ने लिखा होता‚ तो क्या वह 'अन्ना' को रेल के नीचे कटकर मरने देती? यदि देवदास की ' पारो' को स्त्री ने गढ़ा होता‚ तो क्या वह यूं घुट – घुट कर मरती?"" फ्रांस की जो स्थिति 1949 में थी‚ पश्चिमी समाज उन दिनों जिस आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन के दौर से गुज़र रहा था‚ वह सायद हमारा आज का भारतीय समाज है‚ उसका मध्यमवर्ग है‚ नगरों और महानगरों में बिखरी हुई स्त्रियां हैं‚ जो संक्रमण के दौर से गुज़र रही हैं।"" आज 1989 में हो सकता है कि सीमोन के विचारों से हम पूरी तरह सहमत न हों‚ हो सकता है कि हमारे पास अन्य बहुत सी सूचनाएं ऐसी हों‚ जो इन विचारों की कमजोरियों को साबित करें‚ फिर भी बहुत सी स्त्रियां उनके विचारों में अपना चेहरा पा सकती हैं। कुछ आधुनिकाएं यह कह कर मखौल उड़ा सकती हैं कि हम तो लड़के – लड़की के भेद में पले ही नहीं। सीमोन के इन विचारों में मैं देश तथा विदेश में अनेक महिलाओं से बातें करती रही हूँ। हर औरत की अपनी कहानी होती है‚ अपना अनुभव होता है‚ पर अनुभवों का आधार सामाजिक संरचना तथा स्थिति होते हैं। परिस्थितियां व्यक्ति की नियंता होती हैं। अलगाव में जीती हुई स्त्रियों की भी सामूहिक आवाज़ तो होती ही है। आज से बीस साल पहले औसत मध्यवर्गीय घरों में स्वतन्त्रता की बात करना मानो अपने ऊपर कलंक का टीका लगवाना था। मैं यहां पर उन स्त्रियों का ज़िक्र नहीं कर रही‚ जो भाग्य से सुविधासम्पन्न विशिष्ट वर्ग की हैं तथा जिन्हें कॉन्वेन्ट की शिक्षा मिली है। मैं उस औसत स्त्री की बात कर रही हूँ‚ जो गाय की तरह किसी घर के दरवाजे पर रंभाती है और बछड़े के बदले घास का पुतला थनों से सटाए कातर होकर दूध देती है।हममें से बहुतों ने पश्चिमी शिक्षा पाई है‚ पश्चिमी पुस्तकों का गहरा अध्ययन किया है‚ पर सारी पढ़ाई के बाद मैं ने यही अनुबव किया कि भारतीय औरत की परिस्थिति 1980 के आधुनिक पश्चिमी मूल्यों से नहीं आंकी जा सकती। कभी ठण्डी सांसों के साथ मुंह से यही निकला‚ " काश! हम भी इस घर में बेटा हो कर जन्म लेते! " लेकिन जब पारम्परिक समाज की घुटन में रहते हुए और यह सोचते हुए कि पश्चिम की औरतें कितनी भाग्यशाली हैं‚ कितनी स्वतन्त्र एवं सुविधा सम्पन्न हैं और तब सीमोन का यह आलोचनात्मक साहित्य सामने आया‚ तो मैं चौंक उठी। सारे वायवीय सपने टूट गए। न पारम्परिक समाज में पीछे लौटा जा सकता है और न ही आधुनिक कहलाने वाले पश्चिमी समाज के पीछे झांकता हुआ असली चेहरा स्वीकार करने योग्य था। सीमोन ने उन्हीं आदर्शों को चुनौती दी‚ जिनका प्रतिनिधित्व वे कर रही थीं। औरत होने की जिस नियति को उन्होंने महसूस किया उसे ही लिखा भी। उन्होंने पश्चिम के कृत्रिम मिथकों का पर्दाफाश किया। पश्चिम में भी औरत देवी है‚ शक्तिरूपा है‚ लेकिन व्यवहार में औरत की क्या हस्ती है?"" सीमोन को पढ़ते हुए औरत की सही और ईमानदार तस्वीर आंखों में तैरती है। यह समझ में आता है कि हम अकेले औरत होने का दर्द एवं त्रासदी को नहीं झेल रहीं। यह भी लगा कि हमारे देश की ज़मीन अलग है। वह कहीं – कहीं बहुत उपजाऊ है तो कहीं – कहीं बिलकुल बंजर। कहीं जलता हुआ रेगिस्तान है‚ तो कहीं फैली हुई हरियाली‚ जहां औरत के नाम से वंस चलता है। साथ ही यह भी लगा कि सीमोन स्वयं एक उदग्र प्रतिभा थीं और उनकी चेतना को ताकत दी सात्रर् ने‚ जो इस सदी के महानतम दार्शनिकों में से एक हैं। क्या सात्रर् की सहायता के बिना सीमोन इतना सोच पातीं? हमारी संस्कृति का ढांचा अलग है। सीमोन औरत के जिन भ्रमों एवं व्यामोहों का ज़िक्र करती हैं‚ हो सकता हैवे हमारे लिये आज भी ज़रूरी हों।"" पुस्तक लिखते हुए स्त्री की स्थिति का उन्होंने बिना किसी पूर्वाग्रह के विश्लेषण किया। उन्होंने कहाः " स्त्री कहींं झुण्ड बना कर नहीं रहती। वह पूरी मानवता का हिस्सा होते हुए भी पूरी एक जाति नहीं। गुलाम अपनी गुलामी से परिचित हैं और एक काला आदमी अपने रंग से‚ पर स्त्री घरों‚ अलग – अलग वर्गों एवं भिन्न – भिन्न जातियों में बिखरी हुई है। उसमें क्रान्ति की चेतना नहीं‚ क्योंकि अपनी स्थिति के लिये वह स्वयं ज़िम्मेदार है। वह पुरुष की सहअपराधिनी है। अतः समाजवाद की स्थापना मात्र से स्त्री मुक्त नहीं हो जायेगी। समाजवाद भी पुरुष की सर्वोपरिता की ही विजय बन जाएगा। — सीमोन द बोउवार( द सैकेण्ड सेक्स)"" नारीत्व का मिथक आखिर है क्या? क्यों स्त्री को धर्म‚ समाज‚ रूढ़ियां और साहित्य – शाश्वत नारीत्व के मिथक के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। सीमोन विश्व की प्रत्येक संस्कृति में पाती हैं कि या तो स्त्री को देवी के रूप में रखा गया है या गुलाम की स्थिति में। अपनी इन स्थितियों को स्त्री ने सहर्ष स्वीकार किया‚ बल्कि बहुत सी जगहों पर सहअपराधिनी भी रही। आत्महत्या का यह भाव स्त्री में न केवल अपने लिये रहा‚ बल्कि वह अपनी बेटी‚ बहू या अन्य स्त्रियों के प्रति भी आत्मपीड़ाजनित द्वेष रखती आई है। परिणामस्वरूप स्त्री की अधीन्स्थता और बढ़ती गई।"— प्रभा खेतान ( स्त्री उपेक्षिता की भूमिका के अंश)

समकालीन जनमत से साभार

07 अक्टूबर 2008

कहानी का महाकुम्भ ग्वालियर में

इस बार हिन्दी कहानी का सबसे महत्वपूर्ण आयोजन "संगमन" ग्वालियर में आयोजित किया जा रहा है.२ अक्टूबर १९९३ से नियमित आयोजित हो रहे इस कार्यक्रम की यह चौदहवीं कड़ी है.१९९७ तक कानपूर में आयोजित होने के बाद पिछले ११ सालों में इसने देश के तमाम छोटे बड़े शहरों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है।
इस बार संगमन का पहला सत्र 'स्वतंत्र भारत का यथार्थ और मेरी प्रिय किताब ' पर है तो दूसरा '' बदलता यथार्थ और बदलती अभिव्यक्ति' पर । तीसरे सत्र में युवा कथाकार अरुण कुमार असफल तथा उमाशंकर चौधरी अपनी कहानियाँ पढेंगे।
आयोजन में कमला प्रसाद, गिरिराज किशोर, मंजूर एहतेशाम, विष्णु नागर, पुन्नी सिंह, ओमाँ शर्मा, मधु कांकरिया, लीला धर मंडलोई, गोविन्द मिश्रा, पंकज बिष्ट, प्रकाश दीक्षित, मनीषा कुल्श्रेस्थ, जीतेन्द्र बिसारिया सहित अनेक महत्वपूर्ण रचनाकार भागीदारी करेंगे।
संगमन की वेब साईट है
संगमन.कॉम
संगमन को युवा संवाद परिवार की बधाइयाँ!