24 अक्टूबर 2009

साहित्य का आधिक्य और पुरस्कारों की लालीपाप

पिछले दिनों अन्यान्य कारणों से पुरस्कार और उनसे जुड़े तमाम विवाद बहसों के केन्द्र में रहे। वैसे भी इस साहित्य विरोधी माहौल में जब साहित्य कहीं से जीवन के केन्द्र में नही है, बहसों के मूल में अक्सर साहित्य की जगह कुछ चुनिन्दा व्यक्ति, पुरस्कार और संस्थायें ही रहे हैं। पाठकों के निरंतर विलोपन और इस कारण साहित्य के स्पेस के नियमित संकुचन ने वह स्थिति पैदा की है जिसमे व्यक्तियों के प्रमाणपत्र निरंतर महत्वपूर्ण होते गए हैं। ऐसे में यह अस्वाभाविक नही कि पूरा साहित्य उत्तरोत्तर आलोचक केंद्रित होता चला गया और पुरस्कार तथा सम्मान रचना का अन्तिम प्राप्य।
यहाँ यह भी देखना ज़रूरी होगा कि हिन्दी में लेखन का अर्थ ही साहित्य रचना होकर रह गया। अगर कोई कहे के वह हिन्दी का बुद्धिजीवी है तो सीधे-सीधे मान लिया जाता है कि वह या तो कवि है, या आलोचक या उपन्यासकार या फिर यह सबकुछ एकसाथ। हिन्दी का पूरा बौद्धिक परिवेश साहित्य लेखन के इर्दगिर्द सिमटा रहा है और इतिहास, दर्शन, अर्थशाष्त्र, राजनीति आदि पर अव्वल तो गंभीर बात हुई ही नहीं और अगर कुछ लोगों ने की भी तो आत्मतुष्ट साहित्य बिरादरी ने उसे हमेशा उपेक्षित ही रखा। इसका पहला अनुभव मुझे समयांतर के दस साल पूरे होने पर पंकज बिष्ट जी द्वारा आयोजित प्रीतिभोज में हुआ जहां केन्द्र में रखी विशाल मेज़ पर साहित्य के बडे नामों और नये पुराने संपादकों का कब्ज़ा था और सामाजार्थिक विषयों पर वर्षों से पत्रिका में नियमित लिखने वाले तमाम वरिष्ठ लोग परिधि पर स्थित कुर्सियों में सिमटे थे। इनमें ऐसे लोग भी थे जिन्हें अपने-अपने विषयों के बौद्धिक जगत में अन्तरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त है। यह एक ऐसी की पत्रिका के कार्यक्रम का दृश्य था जो मूलतः साहित्य की पत्रिका नहीं है। यह हिन्दी के बौद्धिक परिवेश का एक स्पष्ट रूपक है।
इसका परिणाम यह है कि अन्यान्य विषयों में हिन्दी का बौद्धिक परिवेश अत्यंत एकांग़ी और लचर रहा है। परीकथा के पिछले अंक में गिरीश मिश्र का प्रो अब्दुल बिस्मिल्लाह को दिया जवाब इस पूरे परिदृश्य को बडी बेबाकी से परिभाषित करता है। यह आश्चर्यजनक तो है ही कि पूरा हिन्दी जगत बाज़ारीकरण जैसी भ्रामक और निरर्थक शब्दावली का प्रयोग करता है, नवउदारवाद और नवउपनिवेशवाद जैसे शब्दों का प्रयोग समानार्थी रूप में प्रयोग किया जाता है और भी न जाने क्या-क्या।
यही नहीं, अन्य विषयों की उपेक्षा का ही परिणाम है कि हिन्दी में सारे पुरस्कार बस साहित्य के लिये आरक्षित हैं। पत्रकारिता को छोड दें तो हिन्दी की लघु पत्रिकाओं में अन्य विषयों पर लिखने वालों के लिये न तो कोई प्रोत्साहन है न पुरस्कार। तमाम चर्चाओं, परिचर्चाओं और कुचर्चाओं के क्रम में साहित्येतर विषय सिरे से गायब रहते हैं।
यह किस बात का द्योतक है? साहित्य की सर्वश्रेष्ठता का या हिन्दी के बौद्धिक दारिद्र्य का?

7 टिप्‍पणियां:

Jandunia ने कहा…

हिन्दी और उससे जुड़े पुरस्कारों पर आपका आलेख पसंद आया...यह जरूर है जो सम्मान हिन्दी को मिलना चाहिए था वो नहीं मिला है...इस मुद्दे पर कहना यही है कि इसके लिए हम खुद ही जिम्मेदार हैं...आजकल हम हिन्दी बोलते तो हैं पर पढ़ने से बचते हैं...रही बात पुरस्कारों की जो होता है वो आपने बयां किया ही है...आगे कुछ कहने की जरूरत ही नहीं।

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

देखिए अशोक जी
पुरस्‍कार मतलब इनाम
इनाम में जुड़ा है नाम
सिर्फ नाम ही नहीं नामा भी
हंगामा भी
तो सभी को चालिए होता है
हंगामा भी और नामा भी।

पुरस्‍कार भी सत्‍कार भी
रचनाकार हो या न हो
रचना होनी काफी है
यही तो पुरस्‍कार की साकी है
आप इसे कैसे दूर करेंगे
लेने वाले लेकर और

देने वाले देकर रहेंगे।

शरद कोकास ने कहा…

साहित्येतर विषयों की अनदेखी आज की बात नहीं है । जब से लेखन शुरू हुआ है तभी से इतिहास विज्ञान आदि के लेखन को गौण लेखन माना जाने लगा यहाँ तक कि साहित्य इतिहास के लेखन को भी साहित्य के बराबर दर्जा नहीं मिला ,इसलिये हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन का कार्य भी एक विदेशी जर्मन लेखक को करना पड़ा । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जिसके 100 साल बाद आये । यह विडम्बना है कि इतिहास लेखन जो सत्य और तथ्यों पर आधारित है उसे ऐतिहासिक कल्पना पर लिखे साहित्य की तुलना में दोयम स्थान दिया गया । मूल विज्ञान तो छोड़िये विज्ञान फंतासी को भी साहित्य में स्थान नही मिला ।वहीं इनसे सम्बन्धित सारा साहित्य बिना इतिहास बोध औअर वैज्ञानिक दृष्टिकोण के लिखा जा रहा है जो पाठकों में भ्रम पैदा कर रह है अथवा उन्हे सही दिशा नही प्रदान कर रहा । सैद्धांतिक समझ के बिना लिखा साहित्य इसी तरह नवउपनिवेशवाद् नवउदारवाद ,नव्साम्राज्यवाद नई आर्तिक नीति ,बाज़ार आदि के अर्थो को गड्ड्मड करके प्रस्तुत करता है । इसलिये इन साहित्येतर विषयों के महत्व को समझने की ज़रूरत है । पत्रकारिता और साहित्य के संघर्ष के विषय मे मुझे श्री विष्णु खरे का एक कथन याद आता है जब उन्होने कविता के लगातार अनुपस्थित होते जाने को लेकर बहुत क्षोभ के साथ कहा था कि पत्रकार के रूप मे कम से कम कुछ लोग मुझे जानते तो हैं । राजनीति पर लिखा साहित्य व्यंग्य मे भी यदि उपस्थित है तो उसे उसका उचित स्थान नही मिला । परसाई जी यदि नहीं होते तो अब तक इस विधा को ही परिधि से बाहर कर दिया गया होता । सम्मान पुरस्कार आदि की असलियत तो अब जग जाहिर है ,हिन्दी के नाम पर बहुत कुछ नकारात्मक भी हो रहा है लेकिन लोग उसके ग्लैमर में ही खोये हुए है इसलिये इस पर कुछ न कहा जाये तो बेहतर ।

chandrapal ने कहा…

par isme yah bhi dekhna chahiye ki ye nai podh hamesha sahitya me kyo falti fulti hai... kon in logo ko sahity ki sankirn me rahne ko lalait karta hai
badhai aapko
jab se aakhar suru huaa hai sab se jyada rachnae vivado par aai hai

विजय गौड़ ने कहा…

विविधता के नाम पर तो हिन्दी का लेखन ही नहीं साहित्य भी विपन्न है अशोक भाई। एक जैसे अनुभवों को ज्यादातर देख सकते हैं।

Rangnath Singh ने कहा…

हालिया स्थिति तो यही है। लेकिन इसका एक कारण यह भी है कि पाठकांे में भी गैर-साहित्यिक लेखकों की लोकप्रियता कम है। उनके पास वो पाठक समूह नहीं है जो किसी साहित्यकार के पास होता है। वैसे बिस्मिल्लिा जी और गिरीश जी का मामला क्या है ? परति परिकथा तो हमारे तरफ आती ही नहीं कि हम जान सकें।

Ashok Kumar pandey ने कहा…

रंगनाथ जी परिकथा शंकर जी द्वारा निकाली जा रही पत्रिका है जिसमे दोनो लोगों के बीच पत्राचार हुआ था। यह पत्रिका तो दिल्ली से ही निकलती है।