प्रखर मिश्र विहान
07 मार्च 2013
स्त्री मुक्ति , बाजार और विकल्प
प्रखर मिश्र विहान
25 अगस्त 2012
दखल का आयोजन - स्त्रियों के प्रति बढ़ती हिंसा और हमारा समाज
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यह पोस्टर यहाँ से |
मुख्य वक्ता – प्रोफ़ेसर सविता सिंह, अध्यक्ष, स्त्री अध्ययन विभाग, इग्नू, दिल्ली
अध्यक्षता – प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा, इतिहासकार व संस्कृतिकर्मीदिन – 2 सितम्बर, रविवार दिन में ग्यारह बजे से , स्थान – चैंबर आफ कामर्स, ग्वालियर
13 मई 2010
इन निरुपमाओं का क्या दोष था?
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यह हम सब की सहिष्णुता का इंतिहान है! |
06 मई 2010
मैं और क्या करुं निरुपमा?
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हमें माफ़ करना निरुपमा! |
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तुझसे नहीं अपने आप से वादा है यह |
30 अप्रैल 2010
मज़दूर यानि पुरुष मज़दूर?
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यह हम सबका दिन है! |
मई दिवस के मुताल्लिक तमाम अखबारों और प्रिंट मीडिया के द्वारा इसकी कुछ ऐसी छवि प्रस्तुत की जाती रही है, मानो इस श्रम दिवस से सिर्फ वे ही सरोकार रखते हैं, जो चौराहों पर फावड़े और अन्य औजारों के साथ मालिक का इंतज़ार कर रहे होते हैं. मई दिवस के परिप्रेक्ष्य में अखबार पर आई तमाम ख़बरों को सिरे से पढ़ा जाए, तो मजदूर होने की अवधारणा और परिभाषाओं को न ही छुआ गया है, न ही प्रस्तुत किया गया है, दृष्टिगत बोध में रिक्शे चालक, चौराहों पर खड़े मजदूर, कामगार महिलाओं के चित्रों को मजदूरों के सिम्बोल की तरह प्रस्तुत किया जाता रहा है, जो सिर्फ वर्ष के एक दिन ख़ास तरीके से बस याद करने हेतु ही काम आते हैं. अन्य तमाम बातों से उनका सरोकार न कराया जाता है, न ही ज़रूरत समझी जाती है. मई दिवस उन सभी शहीदों को याद करने का भी दिन है, और मजदूर वर्ग और उनकी चेतना को सही सलीकों से सामने लाना भी है. जिसमें उभर रहे नए वर्ग को इस गौरव भरे दिन के बारे में सही जानकारी और सही परिभाषाओं का अभाव न हो.
जबलपुर शहर से ७० किलोमीटर दूर ग्राम टिकरिया (जिला मंडला) में एक आम जनसभा रखी गई है. जो मजदूर दिवस और उसके गौरवशाली इतिहास के बारे में स्कूलों, और जिले के कुछ प्रबुद्ध जनों के साथ इस चेतना का प्रसार करेगी. १ मई २०१० को दोपहर ४ बजे "मजदूर,मार्क्स और महिलाएं" विषय पर जागरूक छात्रों के बीच चर्चा रखी जाएगी. और कविता पोस्टरों के साथ प्रगतिशील कवियों की रचनाओं को छात्रों के बीच वितरण किया जाएगा.
आयोजक - युवा संवाद जबलपुर, नागरिक अधिकार मंच निशांत कौशिक, सत्यम पाण्डेय,अजय यादव
28 अक्टूबर 2009
फ़्रांस से एक ख़त -- महिला मुक्ति के वही सवाल


लंबे समय से औरतों के आंदोलन में इतने लोग नहीं देखे गये -- 50000। पूरे फ़्रांस के लिहाज़ से यह कोई बडी संख्या नहीं है पर पिछली बार से काफ़ी अधिक। पूरे फ़्रांस से गाडियां आईं थीं-- १०३ संगठनों, पार्टियों और यूनियनों ने इस प्रदर्शन का आह्वान किया था।
औरतों के कल्याण में वृद्धि या फिर कम से उसकी रक्षा का नारा एक ऐसी चीज़ है जिस पर हर वामपंथी दल सहमत होता है। यही वह इकलौता कारण है कि इतने लोग इकट्ठा हुए थे। उस दिन कम्युनिस्ट पार्टी के अख़बार का नारा था कि '' सारी कम्युनिस्ट बिरादरी जैसे महिला अधिकारों के पक्ष मे एक आदमी''। पुरुषों की उपस्थिति को लेकर काफ़ी बहस थी। अंत में तय हुआ कि सबसे आगे नारीवादी नेत्रियां रहेंगी। मेरी दो दोस्तों का नाम मार्टिन है- एक तो है पूंजीवाद विरोधी पार्टी में और पुरुषों के साथ कंधा मिलाकर चलने की समर्थक है तो दूसरी जो एक लेस्बिअन नारीवादी आंदोलन की सदस्य है, इसके बिल्कुल ख़िलाफ़!

बहसें हर जगह हैं। औरतों के चादर ओढने के अधिकार को लेकर नारीवादी आंदोलन दो खेमों में बंटा है। एक का मानना है कि परदे पर बैन हो तो दूसरी इसे औरतों के ऊपर छोडने की वक़ालत करती है। इस पर वामपंथी आंदोलन भी बंटा हुआ है, संसद में भी इसे लेकर बहस है । सेकुलरिज़्म को लेकर भी बहस है और वाम का एक धडा फ़िलीस्तीन के धार्मिक संगठनों का समर्थन इस आधार पर करता है कि वे साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ लड रहा है।
नारीवादी आन्दोलन अब जग रहा है क्योंकि प्रतियोगिता के दौर में औरतों के हालत बुरे हो रहे हैं। स्कूल और कालेज में बेहतर प्रदर्शन के बावजूद औरतें पिछड़ रही हैं क्योंकि बच्चे पैदा कराने के लिए उन्हें काम छोड़ना पङता है और आज भी बच्चे पालने और घर चलाने काम अब भी उनके ही जिम्मे है। गरीब परिवारों में अस्सी प्रतिशत वे एकल परिवार हैं जिनमे सिर्फ़ औरते और बच्चे हैं। सरकार खर्च कम करने के नाम पर सामाजिक खर्चे काट रही है पर वह अमीरों पर टैक्स बढ़ाने को तैयार नही है। अकेले पेरिस में महिला कल्याण के चार केन्द्र बंद कर दिए गए। यहाँ मुफ्त अबार्शन होते थे। साथ ही दक्षिणपंथी ग्रुप भी इसका विरोध कर रहे हैं। कान्ट्रासेप्टिव पिल्स से सबसीडी हटा दी गयी है।
हमने इसका विरोध किया। हमारे नारे थे -- 'दुनिया की औरतों एक हो', 'पूंजीवाद हमे खा जाना चाहता है-हम इसे उखाड फ़ेंकेंगे', 'उठो इससे पहले की बहुत देर हो जाये'
प्रदर्शन के अंत में हमने अपने बैनर ओपेरा हाऊस पर टांग दिये। तीस साल पहले का वक़्त होता तो हम उसपर कब्ज़ा कर लेते … उम्मीद है कोई फिर वैसा करेगा! अफ़सोस हम न कर सके।
14 जून 2009
हर धर्म औरत का दुश्मन है
औरतों को ऐसे मशविरे सभी तालिबान देतें हैं--चाहे वे मदरसे के पढे हों या फिर संघी गुरुकुलों के। अभी पिछ्ले दिनों महिला दिवस पर स्थानीय चर्च में हुए प्रवचन मे फादर ने भी औरतों को ऐसे ही उपदेश बांटे थे। दरिंदे को काबू करने की जगह शिकार को क़ैद करने का यह तर्क पुरुष प्रधान सोच के लिये बेहद मौजू है। कोई यह क्यों नहीं बताता कि गावों में जांघिया पहन कर घूमने वाले पुरुषों के ऊपर हमला क्यों नहीं होता?
सच तो यह है कि हर धर्म स्त्री का दुश्मन है।
27 फ़रवरी 2009
युवा सम्वाद तथा स्त्री अधिकार संगठन का संयुक्त आयोजन
साथियो
आगामी ८ तारीख को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के सौ वर्ष पूरे हो रहे है। इन वर्षो में महिलाओ की सामाजिक , आर्थिक और राजनैतिक स्थिति में व्यापक परिवर्तन आया है। काम के घंटो को १६ से १२ करने की मांग को लेकर शुरू हुआ यह आन्दोलन तमाम पडावो को पार कर आज उस जगह पर पहुँच गया है कि सँवैधानिक स्तर पर अनेक क्रान्तिकारी परिवर्तन दिखायी देते हैं , परन्तु सामाजिक स्तर पर भेदभाव अब भी ज़ारी हैं। साथ ही महिला मुक्ति का प्रश्न आज भी बेहद उलझा हुआ है। विशुद्ध रूप से इसे आर्थिक मुक्ति से लेकर देह को इसका उत्स मानने वाले अनेक लोग अपने अपने तर्कों के साथ परिदृश्य पर मौज़ूद हैं। साथ ही एनजीओ के सतत विस्तार ने भी इसे अपने तरीक़े से प्रभावित किया है।
इन सबके बीच आज कहाँ है दुनिया मे औरत? बाज़ार के सर्वग्रासी विस्तार के बीच उसकी मुक्ति का सवाल अब किस रूप मे उपस्थित है? और इसकी राह किधर है?
इन्ही सब सवालों के इर्दगिर्द युवा सम्वाद ने स्त्री अधिकार संगठन के साथ मिलकर आगामी ७ मार्च को एक खुली बहस का आयोजन किया है। शाम चार बजे से सिटी सेन्टर स्थित स्वास्थय प्रबंधन सन्स्थान मे आयोजित इस कार्यक्रम मे स्त्री अधिकार सन्गठन, दिल्ली से जुडी जानी मानी लेखिका अन्जलि सिन्हा की प्रमुख भागीदारी होगी और अन्नपूर्णा भदोरिया करेंगी ।
आईये मिलकर सोचें -
25 फ़रवरी 2009
दुनिया में औरत

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या
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