स्त्री मुक्ति लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
स्त्री मुक्ति लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

07 मार्च 2013

स्त्री मुक्ति , बाजार और विकल्प

- प्रखर मिश्र विहान 




बिखरे हुए बालों में लुटी पिटी सी स्त्री , बेहद कम कपड़ो में शेविंग क्रीम या कंडोम बेचती स्त्री ,सजी सावरी रिश्तों की पूजा करती गृहणी मिडिया में स्त्रियों के कुछ स्थापित मानक है एक तरफ संस्कृतिक एकाधिकार से बिंदी और बुरके में घुटती स्त्री तो दूसरी तरफ प्रचार में खुद को आइटम(उत्पाद) कहलाने की भावना में क्लबों और डिस्को में थिरकती स्वतंत्रता पाती स्त्री , स्त्री मुक्ति कामना पर इन दोनों व्यवस्थाओं  ने स्त्री को धोखे में रखा है संस्कृतिक सामंतवाद की घुटन से आजाद होने की भावना, स्त्री को बाजारीकरण की तरफ धकेल रही है जो उसकी स्वतंत्रता व मुक्ति कामना का प्रयोग उसको उत्पाद बनाने के लिए करती है l हाल ही में हुए यौन अपराध और स्त्री सशक्तिकारण की विवेचनाएँ देश की मिडिया द्वारा खासी चर्चित हो रहीं हैl मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि ऐसी कोई भी विवेचना बाजार को बिना समझे नहीं हो सकती l अगर ऐतिहासिक सन्दर्भ में बात करें तो मात्र सत्ता  से पितृ-सत्ता में कन्वर्जन का मुख्य कारण पुरुषों का स्त्री मस्तिष्क में उत्पाद या प्रोपर्टी होने की भावना को स्थापित कर देना रहा हैं l उन्होंने यह लक्ष स्त्री मस्तिस्क में चरित्र ,इमानदारी,इज्जत जैसे शब्दों के प्रति छद्म चेतना उत्त्पन कर प्राप्त कर लिया अब स्त्री खुद में एक प्रोपर्टी हो चुकी थी जहाँ किसी एक नर के पास उसकी देह व संवेदनाओं का सम्पूर्ण कॉपीराईट होता था आज भी वो क्रम चला आ रहा है हमारे दिमाग में स्वामी होने व स्त्री को प्रोपर्टी समझने का सोफ्टवेयर बचपन से ही अपलोड कर दिया जाता है किसी भी संपत्ति पर लगने वाले सामान्य आर्थिक नियम स्त्री पर भी लागू होते हैं जैसे ...उसकी रैपिंग (बहरी साज सज्जा ) से उसकी मांग बढ़ जाती है , प्रापर्टी जितने लोगों के पास जाती है उसके मूल्य घटते जाते हैंl यह बात स्त्री के विषय में भी लागू होती है , हम अपनी प्रोपर्टी पर लट्ठ  लेकर उस पर अपना हक साबित करने की का प्रयास किया करते हैं व दूसरे का दखल बर्दास्त नहीं करते ठीक वैसे ही कई पुरुष अपनी गर्ल फ्रेंड,बेटी ,बहन,बीवी से कहते फिरते हैं ''उस से बात मत करना ,उस से मिली क्यों'' आदि l



 गर हम स्वयं को एक प्रगतिशील समाज कहते हैं तो ऐसे में हमारा कर्तव्य है की हम स्त्री को देह या संपत्ति नहीं बल्कि एक पूर्ण इंसान माने जिसकी अपनी संवेदनाएं ,साथी का चुनाव,या यौन इच्छाएं  होना बहुत ही स्वाभाविक व सामान्य बात है l सामाजिक संरचना में कुछ बातें गौर करने वाली हैं , समाज में पूंजी शक्ति का केन्द्रीय भाव है , सत्ता और यौनिकता पर पुरुष का कॉपीराईट है , पुरुष ने स्त्री मस्तिष्क में उत्पाद होने की छद्म चेतना भर दी है इसलिए स्त्री स्वयं ही पुरुष कामुकता को पूर्ण करने वाली एक संपूरक वस्तु बन कर रह गयी है l शब्द उत्पत्ति से इस सामाजिक संरचना पर प्रकाश डाला जा सकता है क्योंकि भाषा समाज के व्यक्तित्व का रिफ्लेक्शन होती है शब्दों व उसने जुड़े भावों से मनोवृतियों की संरचना को समझा जा सकता है इसे आज समाज में प्रचलित कुछ उदाहरण आपके सामने रख रहा हूँ ,इस युग की भाषा के दो प्रचलित शब्द हैं casanova व whore अर्थों में बहुत समीप होने पर भी इन शब्दों का आलंबन एक सा नहीं है दोनों शब्दों का अर्थ काम भावनाओं की उन्मुक्तता से जुड़ा है जहाँ casanova कहने पर किसी भी पुरुष की बांछे खिल जाती है और वह गर्व का अनुभव करता है वही लड़की के लिए whore किसी गाली से कम नहीं है इसके पीछे का मुख्य कारण स्त्री का दर्पणग्रस्त व्यक्तित्व होता है जहाँ वह पुरुषो की नज़रों से खुद को तौला करती है l एक ओर पुरुष शारीर को बलिष्ठ मांसल बना कर खुद को अधिकाधिक काम उपभोग के लिए तैयार करता हैं तो वहीँ नारी चेहरे पर लीपापोती करती है ,दुबली होती है , गोर होने के प्रयास में रहती है, कुल मिला कर स्त्री वह सब करती है जो वह नहीं है बल्कि पुरुष उसे बनाना चाहता है , असल में स्त्री जितनी दयनीय, कमजोर और पुरुष द्वारा स्थापित चरित्र और सौन्दर्य की परिभाषाओं को स्वीकारेगी उसके प्रति उतने ही यौन अत्याचार बढ़ते जाएँगे निश्चित ही जबरन यौन संसर्ग एक अमानुष कुक्र्त्य है लेकिन इसको स्त्री की अस्मिता से जोड़ देने पर स्त्री स्वयं का ही नुकसान करती है,एक तो वह पितृसत्तात्मक  समाज को यह सन्देश देती है की यह मेरी दुखती रग है इस पर वार करो और तुम विजयी दूसरा स्त्री मानस में संसर्ग को अस्मिता से जोड़ने से उपजा यह डर पुरुष को शक्तिशाली शिकारी होने का एहसास करता और चार दिवारी में परतंत्र रखने का प्रासंगिक ब्लैकमेलिंग विकल्प भी उपलब्ध करा देता है l 

मुझे लगता है यह स्त्री अस्मिता से अधिक पुरुष अंध कामुकता और पाशविक-प्रवृति का मसला होना चाहिए स्त्री को समझना होगा कि स्वयं को दयनीय,कमजोर और शक्तिहीन दिखाने से कुछ हासिल नहीं होगा ,पितृसत्ता अब जड़ हो चुकी है किसी कांक्रीट की तरह जिसको मोड़ा नहीं जा सकता सिर्फ और सिर्फ तोडा जा सकता है क्युकी इस व्यवस्था में दूसरे पक्ष में होती हुई भी स्त्री दुसरे पक्ष में नहीं है बाजार ने उसकी मुक्ति कामना को ख़ुद के फायदे के लिए भुना लिया है ,जहाँ वह अंतिम छोर पर होती हुई भी व्यवस्था के बीचो-बीच उत्पाद हो जाने को खड़ी है l



--------------------------------------------------------------


प्रखर मिश्र विहान 

वामपंथी रुझान वाले युवा फिल्मकार और एक्टिविस्ट 

25 अगस्त 2012

दखल का आयोजन - स्त्रियों के प्रति बढ़ती हिंसा और हमारा समाज




यह पोस्टर यहाँ से 

स्त्रियों के प्रति बढ़ती हिंसा और हमारा समाज
‘खुली बहस’
मुख्य वक्ता – प्रोफ़ेसर सविता सिंह, अध्यक्ष, स्त्री अध्ययन विभाग, इग्नू, दिल्ली

अध्यक्षता – प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा, इतिहासकार व संस्कृतिकर्मी
दिन – 2 सितम्बर, रविवार दिन में ग्यारह बजे से   , स्थान – चैंबर आफ कामर्स, ग्वालियर 




 बात ग्वालियर से शुरू करते हैं. दो घटनाएं हुईं पिछले दिनों. पहली घटना में कुछ गुंडों ने एक मासूम छात्रा को कोचिंग के बाहर से अपहृत कर लिया और फिर दुराचार करने के बाद सडक पर फेंक कर भाग गए. दूसरी घटना में माँ-बाप ने अपनी दुधमुंही बच्ची को अपनाने से यह कहकर मना कर दिया कि ‘हमें तो लड़का हुआ था’. बच्ची दो दिनों में मर गयी. बाद में डी एन ए टेस्ट से पता चला कि बच्ची उन्हीं की थी. और इन घटनाओं के बीच भ्रूण हत्या, भेदभाव, दहेज़ ह्त्या, बलात्कार, यौन उत्पीड़न, छेड़छाड़ जैसी तमाम घटनाओं की एक लम्बी श्रृंखला है जिससे देश का कोई कोना अछूता नहीं. ये घटनाएं समाज के स्त्री के प्रति दृष्टिकोण का आइना हैं. अनचाही औलादों की तरह जन्मीं और फिर बचपन से ही डरते-सहमते दोयम दर्जे के नागरिक की तरह किसी न किसी पुरुष की छाया में जीती हुई उसके सुख-सुविधाओं के प्रबंध में जीवन भर खटती हुई औरत एक मुकम्मल इंसान बन ही नहीं पाती. आज जब पढ़-लिख कर वह समाज में अपनी जगह बनाने की लड़ाई लड़ रही है तो भी उसे लगातार उठी हुई उँगलियों के बीच वैसे रहना होता है जैसे बत्तीस दांतों के बीच जीभ. जरा सा फिसली और चोट सहने को मजबूर. आज भी पुरुष समाज उसकी सारी गतिविधियों को नियंत्रित करना चाहता है और उसकी कोई भी गलती उसके लिए जानलेवा बन सकती है, यहाँ तक कि किसी के प्रेम प्रस्ताव का ठुकराना भी. गुवाहाटी में सरेराह उस मासूम लड़की के साथ जो हुआ, वह हमारे समाज की मानसिकता को दिखाता है. तेज़ाब फेंकने, तंदूर में जलाने, अपहरण और बलात्कार, सरेआम बेइज्जती जैसी ये तमाम घटनाएं बता रही हैं कि सामाजिक-आर्थिक प्रगति और स्त्रियों की पढ़ाई-लिखाई व रोजगार में उल्लेखनीय प्रगति के बावजूद समाज का रवैया उनके प्रति और हिंसक हुआ है.

विडंबना यह कि औरतों के प्रति होने वाले अत्याचार के लिए भी उसे ही जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है. बलात्कार इकलौता ऐसा अपराध है जिसमें अपराधी शान से घूमता है और पीड़िता का जीवन नरक हो जाता है. समाज के नेतृत्वकर्ताओं से लेकर पुलिस प्रशासन के अधिकारी और बड़े-बूढ़े तक लड़कियों को ‘ढंग के कपड़े’ पहनने की सलाह देते हुए यह कभी नहीं सोचते कि चार-पांच साल की बच्चियों और गाँव-देहात की गरीब औरतों पर फिर क्यों अत्याचार होता है? ज़ाहिर है, इसके कारण कहीं और हैं? शायद हमारी मानसिकता और सामाजिक बुनावट में, शायद हमारे राजनीतिक ढाँचे में, शायद गैरबराबरी वाली हमारी बुनियाद में.

आइये खुल कर बात करते हैं इस पर कि भविष्य में इन्हें रोका जा सके...छोटा सा सही, पर कदम तो उठाना ही पड़ेगा...आइये कि हम अपनी बच्चियों को एक सुरक्षित और खुशहाल भविष्य देने की दिशा में कदम उठा सकें.

दखल विचार मंच                     स्त्री मुक्ति संगठन
संपर्क - 9425787930 , 9039968068, 08889291748, 9039003253, 9425754524                                         


13 मई 2010

इन निरुपमाओं का क्या दोष था?

यह हम सब की सहिष्णुता का इंतिहान है!
(यह आलेख सुधा तिवारी ने   देवरिया    से भेजा है। सैद्धांतिक बहसों में उलझे हम लोगों के बीच यह निजी अनुभव बहुत सारे नये आयाम खोलता है)


नवजात कन्या वध तथा कन्या भ्रूण हत्या

आज के युग में जहाँ भारतीय नारियाँ घर की चहरदिवारी लाँघ कर खुले आसमान के नीचे कुछ अच्छे संकल्प लेकर विचरण कर रही हैं, चाहे वह राष्ट्र की तरक्की हो, विश्वशांति की बांते हो या कोई भी अच्छा निर्माण कार्य हो, हर क्षेत्र में वे अपनी कुशल भूमिका निभा रही है तथा अन्तर्निहित शक्तियों का और अपनी कुशलता का परिचय दे रही हैं। वही कितने अफसोस कि बात हैं कि नवजात कन्या वध तथा कन्या् भ्रूण हत्या का अपराध नासूर सा विकसित हो रहा हैं। 

हमारे भारत में जहाँ प्रकृति माँ है, पृथ्वी माँ है, हमारी भारत माँ है, मातृ देवी के रूप में हम उनकी पूजा करते हैं,वहीं माँ के ही शरीर से लड़कियों के जन्म पर घर में मातम सा छा जाता है। जैसे कितनी बड़ी विपदा आ गई हो, कितना बड़ा गुनाह हो गया हों। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, उड़ीसा तमिलनाडु जैसे राज्यों में तो नवजात बालिका वध, या कन्या भ्रूण हत्या तो, जैसे सामान्य बात है। 

विचारणीय बात तो यह है कि इन जन्मे या अजन्में बच्चियों की हत्या करते समय न तो इनके, माता पिता को दुःख होता है, न परिवार या समाज को, ‘‘जो इस कुकृत्य मे शरीक हुए रहतें हंै। इन सभी के लिए यह एक आम बात है। प्रायः यही माना जाता है कि इस तरह का अपराध, गरीब, अनपढ़ अविकसित तथा ग्रामीण क्षेत्रों वाले परिवारों में अधिक है, तथा शिक्षित परिवार इससे बचे हैं। लेकिन वास्तव में देखा जाए तो ऐसा नहीं है। 

मेरे अपने विचार से ग्रामीण क्षेत्रों में और शहरी संस्कृति मे इन हत्याओं मे सिर्फ ईतना ही फर्क है कि एक हत्या जन्म के बाद तथा दूसरी जन्म के पहले ही कर दी जाती है’’। दुःख कि बात तो यह है कि दोनों ही स्थितियों में करूणामयी कहलाने वाली माँ की भी भूमिका रहती हैं। अतः इसके लिए सिर्फ पुरूष वर्ग को या परिवार वालें को दोषी ठहराना न तो तर्कसंगत  है न ही न्याय संगत है। 

मैं ग्रामीण या कहे तो अशिक्षित समाज की थोड़ी सी चर्चा करँगी। इसी विषय पर एक गाँव की मालिश करने वाली दाई से मरी बातचीत हुई। उसकी बाँते सचमुच रोंए खड़े कर देने वाले थे। हलांकि इन घटनाओं से उसने खुद को बरी करते हुए बताया कि, नवजात कन्यावध छोटे लोगो के बजाय, ऊँची जाति वाले या उच्च वर्ग वाले ज्यादा करते हैं। 

उसने आगे कहा कि जब दाईयाँ मालिश के लिए जाती है तो घर वाले कहते है किं ‘‘इस लड़की को साफ करों वरना हम तुम्हे साफ कर देंगे। ऐसे में किसे अपनी जान प्यारी नहीं’’। इस दाई ने इस अपराध के कई प्रचलित तरीके भी बताए। कहा कि बच्ची के मुंह में 4 चम्मच नमक, या 3 चम्मच यूरिया खाद डाल कर मुंह दबा देना, या फिर रस्सी से गला कस देना। इसके बदले थोड़ा सा अनाज और रूपएं पैसे दे दिए जाते हैं। और इस बात का खुलासा न हो इसके लिए समय-समय पर धमकी भी मिलती रहती है। 

जहाँ तक शहर की या शिक्षित समाज की बात है, मेरे आस-पास ऐसे कई उदाहरण है जहाँ माताओं ने ही इस अपराध को अंजाम देने में सक्रिय भूमिका निभाई है।

मेरी एक सहेली हैं, आदर्शवादी, उच्चशिक्षित, आधुनिक सोच वाली प्रगतिशील महिलाएँ उसकी आदर्श हुआ करती हैं। जब उसने पहली बेटी को जन्म दिया, हँसी थी लेकिन आन्तरिक खुशी गायब थी। दूसरी बार से लिंग निर्धारण का सिलसिला चालू हो गया। कन्या भ्रूण ही था उसने अपने घर के बड़े बुजूर्ग से भी सलाह लेना उचित नही समझा तथा पति पर दबाव बनाते हुए उसे नष्ट करवा दी। तीसरी बार भी कन्या भ्रूण थी, फिर वही प्रक्रिया, वही हत्या चैथी बार भी वह अपने आप को हत्यारी माँ बनने से नही रोक पाई। उसके शरीर की जो दुगर्ति हुई से अलग। अन्ततः पुत्र पाकर पूजवाकर उसे चैन मिला। दुःख तो मुझे इस बात से होता है कि मेरी सहेली कन्याओं को जन्म देकर उनकी अच्छी परवरिश कर सकती थी लेकिन न तो उसे कोई ताना देता, न ही कोई आर्थिक तंगी थी। फिर भी उसने ममतामयी माँ बनने के बजाएँ, हत्यारी माँ बनना ज्यादा उचित समझा। 

इसी क्रम मे मुझे एक और घटना याद आ रही है, कुछ समय के लिए मै महराजगंज मे थी, वहाँ मेरे मकान मालिक की बेटी ने पुत्र के चाहत में लगातार सात-सात अजन्मी कन्याओं की हत्या करवाई। दुस्साहसी तो इतनी थी कि न तो ससुराल वालों को कुछ बताती थी, न मायकों वालों को। अपनी मनबढ़ता के आगे उसने पति को भी कायल कर रखा था। फलस्वरूप अजन्मी बच्चियों को अपनी कोख से खारिज करते करते गर्भाशय कैंसर को स्थान दे रखा था। अंततः  पुत्र को जनम देने के कुछ दिन बाद इस दुनियाँ से विदा ले ली। 

क्या इनकी सहृदयता पर हम विश्वास करें ? जिन्होने अपनी ही सुता को हलाहल दे दिया। इस तरह का अपराध सिर्फ इन दो महिलाओं ने ही नहीं किया बल्कि, शहर की सभ्य, पढ़ी लिखी, आधुनिक विचारधारा वाली, कई प्रगतिशील बहनें कर रही है। किसी ने सच ही कहा कि ‘‘जिस खेत को मेड़ खाएं, उसे कौन बचाए’’।

पति-पत्नि के अच्छे ताल-मेल से अच्छी सूझ-बूझ से इस अपराध से बचा जा सकता है। मेरे एक रिस्तेदार हैं पहली बेटी होने पर उस दम्पति ने उसे सहज स्वीकार किया, दूसरी बार गर्भधारण करने पर पता चला कि गर्भस्थ शिशु कन्या है पत्नी उसे हटाना चाहती थी, लेकिन पति अपने अच्छे सूझ-बूझ से अच्छे विचार से तथा अच्छे आदर्श प्रस्तुत करते हुए पत्नी को समझाया और उन्होने दूसरी बेटी को जन्म दिया। आज दो परिवार बहुत खुशहाल है, आज उन्हे देखकर यही सोचती हूँ कि पत्नी की इच्छानुसार अगर अजन्मे शिशु की हत्या हो जाती तो उनका आदर्श धरा का धरा रह जाता। आज उनकी पत्नी उसे सोचकर शर्मिन्दा भी होती है, और अपने पति पर गर्व करती है। 

निसंदेह कन्या शिशु की हत्या का यह सिलसिला समाज के माथे पर कलंक है, जो मनुष्य की संवेदनाओं को झकझोर देता है।, लगता है हम संवेदन शून्य होते जा रहे है। इस कुकृत्य में हमें यह भी ध्यान नही रहता  है कि इस भ्रूण हत्या के कारण स्त्री पुरूष के जनसंख्या के अनुपात में अन्तर आने लगा है। फलस्वरूप एक अधूरे और विकलांग समाज की संरचना होने लगी हैं। ऐसे में संभव है कि कन्या भ्रूण हत्या के चलते आने वाले समय में हमारे कुलदीपकों को बहुओं की कमी खलने लगेगी।

समाज को चाहिए कि सिर्फ पुरूष वर्ग या परिवार वाले के माथे ये कलंक न मढ़कर स्त्रीयों को मजबूत बनाएं, उनका हौसला बढ़ाएँ और माँ होकर भावी माँ की हत्या पर थोड़ा विचार करें। 

मेरे साथ की भी घटना कुछ ऐसी ही है। जब मंै इस दौर से गुजरी तो पति द्वारा जाना कि उन्हें पुत्र की प्रबल इच्छा है। मेरे लड़की के नाम लेते ही वो मुझे कुछ घूर कर देखने लगे। खैर पढ़ाई को माध्यम बना कर मै मायके आ गई वहाँ मैने प्यारी सी बेटी को जन्म दिया। लेकिन शायद पति इतने आहत हुए कि हमे देखना या हमारा हालचाल लेना तो दूर पत्र व्यवहार भी बंद कर दिया। लोक-लाज और समाज की टोका-टोकी अपने जगह थी, मै बेटी देने की सजा पति द्वारा तिरस्कृत रूप में पा रही थी। अन्दर ही अन्दर घोर मानसिक अवसाद मे थी। छः माह निकल गए। मैं स्वयं अपनी हिम्मत जगाइ, और इन्हे पत्र लिखा, ‘‘आप- हमारी नही बल्कि मेरी बेटी से मिलने आईए’’ डरिए मत ये मेरी बेटी है’’। पति आए बेटी से मिले, उसे प्यार किया, आज मै एक और बच्चे की माँ हूँ। लेकिन बेटी मेरे पति की, परिवार की समाज की सबकी प्रिय है। उसके अच्छे संस्कार , और पढ़ाई लिखाई पर मेरा पूरा घर परिवार गर्व करता है। सोचती हूँ कि उस समय अगर पति की प्रतिक्रियानुसार कुछ ऐसा वैसा कर बैठती तो इतनी अच्छी बेटी पाने का सौभाग्य न पाती। 

मेरे कहने का मतलब यह है कि अगर हम नारियाँ चाहे तो लाख विरोधाभास के बावजूद भी अपने गर्भ मे पल रही कन्याओं की जान तो बचा ही सकती है। हममें अपरिमित शक्ति और क्षमताएं सन्निहित है। इसका उपयोग हम निर्माण में करे न कि विनाश में। 

मानवीय संवेदना, करूणा, ममत्व और वात्सल्य तो हम नारियों की सामान्य विशेषताएं है ही, तथा जिस क्षेत्र में पुरूषों ने सदियों से अपना अधिकार जमाया था, वहाँ भी हमने प्रवेश करके सिद्ध कर दिया है कि हमारा संकल्प हमें श्रेष्ठता और विशिष्ठता दे सकता है। इतनी विशेषताओं के बावजूद क्या हम अपने गर्भ में पल रही कन्याओं की रक्षा नही कर सकते ? 

जहां तक कन्या वध की बात है, ये कुप्रथा आमतौर पर उन इलाकों में है जहाँ अशिक्षा गरीबी और अपराधों का बोलबाला है। गरीबी का एहसास उन्हें लड़की को पढ़ा-लिखा कर अन्य परिवार मे देने की बात तक नहीं सोचने देता, बेटी का बाप होना उन्हे हीनता का बोध करता है। इसलिए वो बालिका वध कर डालते है। अन्ततः बात ग्रामीण क्षेत्र की हो या शहरी संस्कृति की, हत्याओं में सिर्फ इतना ही अन्तर है कि एक हत्या कन्या के जन्म लेने के बाद होती है तथा दूसरी कन्या के जन्म लेने से पहले ही कर दी जाती हैं। 

यहाँ यह है कि शिक्षा का पर्याप्त प्रचार प्रसार करते हुए गरीबी तथा अपराधी प्रवृत्तियों का उन्मूलन किया जाए, बच्चियों को पालने पोषने के लिए प्रेरित किया जाए। अवंाछित शिशुओं को सरकार या सरकारी संस्थान गोद ले ले। सभ्य शिक्षित और शहरी संस्कृति अपनी कथनी के साथ-साथ अपनी करनी पर भी ध्यान दे। इस अपराध में एक बहुत बड़ी भूमिका ‘महान’ डाक्टरों की भी है। जो पैसा बनाने के चक्कर में यह भूल जाते हैं कि उनका काम जिन्दगी बचाना है न कि गर्भ में ही उन्हें मार डालना। हमारे प्रशासन को चाहिए कि वे मूक-बधिर न बन कर इस जघन्य अपराध के प्रति कार्यवाई करे। 


06 मई 2010

मैं और क्या करुं निरुपमा?

निरुपमा केवल उस लड़की का नाम नहीं रहा अब जो एक पत्रकार थी, जिसके लिये उसका परिवार बेहद प्रिय था, जो प्रेम करती थी…जिसे प्रेम करने की सज़ा मिली…

हमें माफ़ करना निरुपमा! 
अब यह नाम उन तमाम लड़कियों का है जो इस ग़लतफ़हमी का शिक़ार हो जाती हैं कि प्रेम दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत चीज़ है और इसकी भी कि दुनिया में सब तुम्हारे दुश्मन हो जायें पर मां-बाप का दामन हमेशा तुम्हें समेटने को तैयार होता है। पर वह नहीं जानती थी कि जिस मनु स्मृति को अंबेडकर ने वर्षों पहले जला दिया था वह इस देश के ब्राह्मणवादी सवर्ण समाज में इतने गहरे धंसी है कि साठ साल पुराना संविधान उसके सामने कहीं नहीं ठहरता। हर घर में एक खाप पंचायत है और हर घर में एक यातनागृह जहां धर्मच्युत औरतों को सूली पर चढ़ा दिया जाता है और धर्मपालक औरतों को ज़िंदगी भर तिल-तिल कर मरने का इनाम दिया जा सकता है। वे इसे नारी की पूजा कहते हैं!

और इस आधुनिक समाज में इसके परोक्ष समर्थकों की कोई कमी नहीं जो कहेंगे कि हर मां-बाप का फ़र्ज़ बच्चे को सही सलाह देना होता है। 'क्षमा बड़न को चाहिये' बस बचपन के किस्सों की चीज़ है…वे कभी इस सवाल का जवाब नहीं देंगे कि उन सुख-सुविधाओं का क्या अर्थ है जब ज़िन्दगी के सबसे मुश्किल मुकाम पर वे साथ ही न खड़े हो सकें।

तुझसे नहीं अपने आप से वादा है यह
जब मैने अन्तर्जातीय शादी की थी तब मुझे भी अकेला छोड़ दिया गया था…पर हम खड़े हुए अपने दम पर…बहुत सारे भ्रम टूटे पर मिलकर फ़ैसला लिया था कि अभी झुकेंगे नहीं और अपनी औलाद को कभी अकेला नहीं छोड़ेंगे…आज मे्री 9 साल की बिटिया से मेरा वादा है…तेरी ख़ुशी में न आ सका तो कोई बात नहीं पर तेरे हर दुख में तेरे साथ रहुंगा…

मैं और क्या करुं निरुपमा…?

30 अप्रैल 2010

मज़दूर यानि पुरुष मज़दूर?

( आज मई दिवस है यानि कि दुनिया भर के कामगारों के संघर्ष और बलिदान को याद करने का दिन। लेकिन विमर्शों के उत्तर आधुनिक दौर में कुछ ऐसा प्रपंच रचा गया है कि लोगों की एक्सक्लूसिव पहचानों पर तो बहुत ज़ोर है पर सामूहिक पहचाने धुंधली हो गयी हैं। या तो आप दलित हैं, या ग़ैर दलित, नारी, मज़दूर या फिर कुछ और। लेकिन दरअसल एक जटिल समाज में हमारी सामूहिक पहचाने होती हैं और साझे संघर्ष। स्त्री अधिकार संगठन से जुड़ी रुपाली सिन्हा की यह टिप्पणी 8 मार्च और  1 मई के बीच के ताने-बाने को बयान करती है। कामगार दिवस पर क्रांतिकारी अभिनंदन सहित)

मई दिवस और महिलाएं

यह हम सबका दिन है!
दुनियाभर के मुक्ति संघर्षों अत्याचार और उत्पीडन के खिलाफ होने वाले संघर्षों में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उन्होने मर्दो के कंधे से कंधा मिलाकर संघर्षों में अपनी भागीदारी निभाई है। मई दिवस का इतिहास भी मर्दों के साथ-2 औरतों के संघर्षों से लिखा गया है। मजदूर दिवस दुनिया भर के मजदूरों की आकांक्षाओं, अधिकारों और जीत का दिन है। इस दृष्टि से अमेरिका के मजदूर आंदोलन ने कामगार वर्ग को दो अंतर्राष्ट्रीय दिन दिए है आठ मार्च और एक मई।

19 वीं सदी के अंत तक यूरोप और अमेरिका में औद्योगिक कामगारों के रुप मे औरतों ने अपनी जगह बना ली थी। हालांकि उनकी स्थिति और उनके काम की परिस्थितियां मर्दो की तुलना में बहुत बदतर थीं। मार्च 1857 में कपडा उद्योग में काम करने वाली औरतों ने बेहतर काम की परिस्थितियों, काम के 10 घंटे और बराबरी के अधिकार के लिए प्रदर्शन किया जिसका बुरी तरह दमन किया गया। मार्च 1908 में कामगार औरतों का एक और बडा प्रदर्शन हुआ। यह प्रदर्शन बालश्रम पर रोक और औरतों के मताधिकार की मांग को ले कर था। फिर दमन हुआ। 1909 में गारमेंट मजदूरिनों ने अमेरिका में आम हडताल कर दी। 20 से 30 हजार कामगारिनों ने बेहतर वेतन और बेहतर काम की परि0 के लिए भयंकर ठंड के 13 हफ्ते संघर्ष किये। 1903 में महिला ट्रेड यूनियन की स्थापना हुई जिसने गिरफतार हडतालियों को जेल से छुडाने की व्यवस्था की। इस संघर्ष को विशेष दिन का दर्जा दिलाने में क्लारा जेटकिन के प्रयासों से सभी परिचित हैं। 

अंतर्राष्टीय महिला दिवस ने कामगारों के संघर्ष को ताकत दी। रूस की फरवरी क्रांति में इसने महत्वपूर्ण उत्प्रेरक का कार्य किया।

19वीं सदी हलचलों का युग थी आंदोलनों का ज्वार था। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का विचार भी यहीं पनपा था। जब पुरूष कामगार 10 से 8 घंटे काम की मांग कर रहे थे महिला कामगार 1857 में 16 से 19 की मांग कर रही थी। इससे पता चलता है कि औरतों के साथ हर क्षेत्र में भेदभाव होता रहा है।  औरतें एक तरफ अपनी बराबरी और अधिकारों की लडाई लड रही थी दूसरी ओर पुरुष कामगारों के साथ कंधे से कंधा मिला कर संघर्ष में बराबरी से हिस्सेदारी भी कर रही थी। 

 महिलाओं के इस ऐतिहासिक संघर्ष को महिलाओं के संघर्ष के रुप में सीमित करके आंका जाता है जबकि वह भी उस व्यापक मजदूर आंदोलन का हिस्सा था जिसने पूरी दुनिया के मजदूरों को एक नई ताकत और दृष्टि दी थी। ठीक उसी प्रकार जैसे मई दिवस के संघर्ष को अनकहे ही पुरुष कामगारों का संघर्ष मान लिया जाता है। 8मार्च का आंदोलन राजनीतिर्क आर्थिक और सामाजिक अधिकारों का संघर्ष था जो समूची मानवजाति से स्वयं को जोडता था। यह केवल ‘औरतों का मुद्दा’ नहीं था। 

 उदाहरण के लिए जब 1866 में अमेरिका में ‘ नेशनल लेबर यूनियन की स्थापना हुइ थी तो बहुत सी महिला श्रमिक इसका हिस्सा थीं। अमेरिकी कांग्रेस ने 1868 में आठ घंटे के कार्यदिवस का जो कानून पास किया उसकी उत्प्रेरक नेता थीं बोस्टन की मेकेनिस्ट इरा स्टीवर्ड। 

 पिछले कुछ सालों से हम देख रहें है कि महिला दिवस को पत्नी दिवस के रुप में मनाना, कार्ड पर सुंदर कोमल कविताएं लिख कर देना, उपहार देना आदि का प्रचलन बढता जा रहा है। महिलाओ के जुझारु संघर्षों को बेहतर समाज के लिए होने वाले संघर्षो के हिस्से के रुप में नहीं देखा जाता। इस ऐतिहासिक संघर्ष ने यह साबित किया कि महिलाओं की भी राजनीतिक भूमिका है और इसे निभा सकने में वे सक्षम भी हैं। हालाॅकि महिला कामगारों के अधिकारों की हमेशा ही उपेक्षा हुई है। आज भी उनके साथ पुरुष कामगारों की तुलना में अधिक शोषण और उत्पीडन हिंसा और गैरबराबरी का शिकार होना पडता है। संगठित असंगठित दोनों क्षेत्रों में लगभग यही स्थिति है। इस दृष्टि से महिला मजदूरों को दोहरा संघर्ष करना होगा। एक तरफ पितृसत्तात्मक शोषण से तो दूसरी ओर एक कामगार के रुप में

आज महिला कामगारों को संगठित करने की जरुरत को समझना होगा जो पितृसत्तात्मक मूल्यों को चुनौती देने के साथ ही व्यापक मजदूर आंदोलन का भी हिस्सा बनें।




नोट - आज युवा संवाद भोपाल में शाम छः बजे 'मज़दूरों के लिये एक दुनिया' विषय पर प्रो रिज़वानुलहक़ का व्याख्यान  सेंट मेरी स्कूल के पास सेवासदन में आयोजित कर रहा है।
कल दो मई को युवा संवाद, ग्वालियर शाम छः बजे से 'हमारे समय में समाजवाद' विषय पर प्रो कमल नयन काबरा तथा प्रो शम्सुल इस्लाम के व्याख्यान  उत्तम वाटिका में आयोजित करेगा।


मई दिवस के मुताल्लिक तमाम अखबारों और प्रिंट मीडिया के द्वारा इसकी कुछ ऐसी छवि प्रस्तुत की जाती रही है, मानो इस श्रम दिवस से सिर्फ वे ही सरोकार रखते हैं, जो चौराहों पर फावड़े और अन्य औजारों के साथ मालिक का इंतज़ार कर रहे होते हैं. मई दिवस के परिप्रेक्ष्य में अखबार पर आई तमाम ख़बरों को सिरे से पढ़ा जाए, तो मजदूर होने की अवधारणा और परिभाषाओं को न ही छुआ गया है, न ही प्रस्तुत किया गया है, दृष्टिगत बोध में रिक्शे चालक, चौराहों पर खड़े मजदूर, कामगार महिलाओं के चित्रों को मजदूरों के सिम्बोल की तरह प्रस्तुत किया जाता रहा है, जो सिर्फ वर्ष के एक दिन ख़ास तरीके से बस याद करने हेतु ही काम आते हैं. अन्य तमाम बातों से उनका सरोकार न कराया जाता है, न ही ज़रूरत समझी जाती है. मई दिवस उन सभी शहीदों को याद करने का भी दिन है, और मजदूर वर्ग और उनकी चेतना को सही सलीकों से सामने लाना भी  है. जिसमें उभर रहे नए वर्ग को इस गौरव भरे दिन के बारे में सही जानकारी और सही परिभाषाओं का अभाव न हो.

जबलपुर शहर से ७० किलोमीटर दूर ग्राम टिकरिया (जिला मंडला) में एक आम जनसभा रखी गई है. जो मजदूर दिवस और उसके गौरवशाली इतिहास के बारे में स्कूलों, और जिले के कुछ प्रबुद्ध जनों के साथ इस चेतना का प्रसार करेगी. १ मई २०१० को दोपहर ४ बजे  "मजदूर,मार्क्स और महिलाएं" विषय पर जागरूक छात्रों के बीच चर्चा रखी जाएगी. और कविता पोस्टरों के साथ प्रगतिशील कवियों की रचनाओं को छात्रों के बीच वितरण किया जाएगा.

आयोजक - युवा संवाद जबलपुर, नागरिक अधिकार मंच 
                निशांत कौशिक, सत्यम पाण्डेय,अजय यादव  

28 अक्टूबर 2009

फ़्रांस से एक ख़त -- महिला मुक्ति के वही सवाल

(पेरिस में रहने वाली जिनेट बर्तों पिछले साल जब भारत आयीं तो लाल बहादुर वर्मा की सलाह पर ग्वालियर आईं भी और ख़ूब घूमा भी। उसी दौरान उनसे वहां के स्त्रीवादी आंदोलनों, वामपंथी आंदोलनो ,देश- दुनिया के बारे में तमाम बाते हुईं। यह भी तय हुआ कि वे लगातार वहां के हालात बताती रहेंगी और हम यहां के… तो अभी फ़्रांस के अक्टूबर दिवस पर उनका मेल आया। आपसे उसका भावानुवाद शेयर कर रहा हूं)
आज सत्रह अक्टूबर है… रात के आठ बजे हैं और बस अभी घर लौटी हूं। आज मै महिला अधिकारों और महिला कल्याण के पक्ष में हुए एक प्रदर्शन में शामिल थी जिसमें हम बैस्तील के महल से बोलेवार दे इतालियन्स से होते हुए ओपेरा तक गये। इन सडकों ने जाने कितने प्रदर्शन देखे हैं।


लंबे समय से औरतों के आंदोलन में इतने लोग नहीं देखे गये -- 50000। पूरे फ़्रांस के लिहाज़ से यह कोई बडी संख्या नहीं है पर पिछली बार से काफ़ी अधिक। पूरे फ़्रांस से गाडियां आईं थीं-- १०३ संगठनों, पार्टियों और यूनियनों ने इस प्रदर्शन का आह्वान किया था।

औरतों के कल्याण में वृद्धि या फिर कम से उसकी रक्षा का नारा एक ऐसी चीज़ है जिस पर हर वामपंथी दल सहमत होता है। यही वह इकलौता कारण है कि इतने लोग इकट्ठा हुए थे। उस दिन कम्युनिस्ट पार्टी के अख़बार का नारा था कि '' सारी कम्युनिस्ट बिरादरी जैसे महिला अधिकारों के पक्ष मे एक आदमी''। पुरुषों की उपस्थिति को लेकर काफ़ी बहस थी। अंत में तय हुआ कि सबसे आगे नारीवादी नेत्रियां रहेंगी। मेरी दो दोस्तों का नाम मार्टिन है- एक तो है पूंजीवाद विरोधी पार्टी में और पुरुषों के साथ कंधा मिलाकर चलने की समर्थक है तो दूसरी जो एक लेस्बिअन नारीवादी आंदोलन की सदस्य है, इसके बिल्कुल ख़िलाफ़!

बहसें हर जगह हैं। औरतों के चादर ओढने के अधिकार को लेकर नारीवादी आंदोलन दो खेमों में बंटा है। एक का मानना है कि परदे पर बैन हो तो दूसरी इसे औरतों के ऊपर छोडने की वक़ालत करती है। इस पर वामपंथी आंदोलन भी बंटा हुआ है, संसद में भी इसे लेकर बहस है । सेकुलरिज़्म को लेकर भी बहस है और वाम का एक धडा फ़िलीस्तीन के धार्मिक संगठनों का समर्थन इस आधार पर करता है कि वे साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ लड रहा है।

नारीवादी आन्दोलन अब जग रहा है क्योंकि प्रतियोगिता के दौर में औरतों के हालत बुरे हो रहे हैं। स्कूल और कालेज में बेहतर प्रदर्शन के बावजूद औरतें पिछड़ रही हैं क्योंकि बच्चे पैदा कराने के लिए उन्हें काम छोड़ना पङता है और आज भी बच्चे पालने और घर चलाने काम अब भी उनके ही जिम्मे है। गरीब परिवारों में अस्सी प्रतिशत वे एकल परिवार हैं जिनमे सिर्फ़ औरते और बच्चे हैं। सरकार खर्च कम करने के नाम पर सामाजिक खर्चे काट रही है पर वह अमीरों पर टैक्स बढ़ाने को तैयार नही है। अकेले पेरिस में महिला कल्याण के चार केन्द्र बंद कर दिए गए। यहाँ मुफ्त अबार्शन होते थे। साथ ही दक्षिणपंथी ग्रुप भी इसका विरोध कर रहे हैं। कान्ट्रासेप्टिव पिल्स से सबसीडी हटा दी गयी है।

हमने इसका विरोध किया। हमारे नारे थे -- 'दुनिया की औरतों एक हो', 'पूंजीवाद हमे खा जाना चाहता है-हम इसे उखाड फ़ेंकेंगे', 'उठो इससे पहले की बहुत देर हो जाये'

प्रदर्शन के अंत में हमने अपने बैनर ओपेरा हाऊस पर टांग दिये। तीस साल पहले का वक़्त होता तो हम उसपर कब्ज़ा कर लेते … उम्मीद है कोई फिर वैसा करेगा! अफ़सोस हम न कर सके।

14 जून 2009

हर धर्म औरत का दुश्मन है

कल एक पोस्ट देखी जाने-माने ब्लाग मोहल्ला पर जहां एक साहब महिलाओं को दरिंदों से बचने के लिये परदे की वक़ालत कर रहे थे। यह तर्कों के पूरे तामझाम के साथ किया गया था। वैसे तो इस तरह की बातें नयी नहीं हैं पर मोहल्ला पर देख कर दुख हुआ था।

औरतों को ऐसे मशविरे सभी तालिबान देतें हैं--चाहे वे मदरसे के पढे हों या फिर संघी गुरुकुलों के। अभी पिछ्ले दिनों महिला दिवस पर स्थानीय चर्च में हुए प्रवचन मे फादर ने भी औरतों को ऐसे ही उपदेश बांटे थे। दरिंदे को काबू करने की जगह शिकार को क़ैद करने का यह तर्क पुरुष प्रधान सोच के लिये बेहद मौजू है। कोई यह क्यों नहीं बताता कि गावों में जांघिया पहन कर घूमने वाले पुरुषों के ऊपर हमला क्यों नहीं होता?
लेकिन पोस्ट से कम भयावह इस पर हुई बहस नही रही। चूंकि पोस्ट करने वाला मुस्लिम था तो संघी गुर्गों को अपनी घटिया मानसिकता का प्रदर्शन करने का मौका मिला। इनसे कौन कहे कि हिन्दू धर्म भी घूंघट परदे के कतई ख़िलाफ़ नहीं। सतीप्रथा के समर्थक जब दूसरे धर्मों के ऊपर प्रहार करें तो नीयत पर शक़ क्यों ना हो?

सच तो यह है कि हर धर्म स्त्री का दुश्मन है।

27 फ़रवरी 2009

युवा सम्वाद तथा स्त्री अधिकार संगठन का संयुक्त आयोजन

साथियो

आगामी ८ तारीख को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के सौ वर्ष पूरे हो रहे है। इन वर्षो में महिलाओ की सामाजिक , आर्थिक और राजनैतिक स्थिति में व्यापक परिवर्तन आया है। काम के घंटो को १६ से १२ करने की मांग को लेकर शुरू हुआ यह आन्दोलन तमाम पडावो को पार कर आज उस जगह पर पहुँच गया है कि सँवैधानिक स्तर पर अनेक क्रान्तिकारी परिवर्तन दिखायी देते हैं , परन्तु सामाजिक स्तर पर भेदभाव अब भी ज़ारी हैं। साथ ही महिला मुक्ति का प्रश्न आज भी बेहद उलझा हुआ है। विशुद्ध रूप से इसे आर्थिक मुक्ति से लेकर देह को इसका उत्स मानने वाले अनेक लोग अपने अपने तर्कों के साथ परिदृश्य पर मौज़ूद हैं। साथ ही एनजीओ के सतत विस्तार ने भी इसे अपने तरीक़े से प्रभावित किया है।

इन सबके बीच आज कहाँ है दुनिया मे औरत? बाज़ार के सर्वग्रासी विस्तार के बीच उसकी मुक्ति का सवाल अब किस रूप मे उपस्थित है? और इसकी राह किधर है?

इन्ही सब सवालों के इर्दगिर्द युवा सम्वाद ने स्त्री अधिकार संगठन के साथ मिलकर आगामी ७ मार्च को एक खुली बहस का आयोजन किया है। शाम चार बजे से सिटी सेन्टर स्थित स्वास्थय प्रबंधन सन्स्थान मे आयोजित इस कार्यक्रम मे स्त्री अधिकार सन्गठन, दिल्ली से जुडी जानी मानी लेखिका अन्जलि सिन्हा की प्रमुख भागीदारी होगी और अन्नपूर्णा भदोरिया करेंगी ।

आईये मिलकर सोचें -

25 फ़रवरी 2009

दुनिया में औरत



साथियो,


'युवा दखल' का अगला अंक अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के १०० वर्ष पूरे होने के अवसर पर 'दुनिया मे औरत' पर केन्द्रित विशेषांक होगा। गम्भीर वैचारिक लेखो की जगह हमारा ज़ोर विभिन्न जगहों पर औरतों के साथ होने वाले भेदभावो पर ख़ुद उनके अनुभव और विचारो पर केन्द्रित करना है। हम 'घर मे औरत', 'दफ़्तर मे औरत', 'अख़बार में औरत', 'खेल में औरत', 'आन्दोलन में औरत' जैसे विषयों पर इस बार आलेख देना चाहते हैं ।


आप सब इस प्रयास में हमारे साझेदार हो सकते हैं । अपने अनुभव और विचार लिख भेजिये।


आप जानते ही है कि युवा दख़ल एक द्वैमासिक विचार बुलेटिन है जिसे युवा सम्वाद, ग्वालियर अपने ही सन्साधनो से निकालता है और युवाओं के बीच व्यापक स्तर पर वितरित करता है। दो रुपये की क़ीमत वाली इस बुलेटिन को देश भर मे भेजने का प्रयास किया जाता है।


हमारा ई मेल है…

ashokk34@gmail.com
या
naidakhal@gmail.com