07 मार्च 2013

स्त्री मुक्ति , बाजार और विकल्प

- प्रखर मिश्र विहान 




बिखरे हुए बालों में लुटी पिटी सी स्त्री , बेहद कम कपड़ो में शेविंग क्रीम या कंडोम बेचती स्त्री ,सजी सावरी रिश्तों की पूजा करती गृहणी मिडिया में स्त्रियों के कुछ स्थापित मानक है एक तरफ संस्कृतिक एकाधिकार से बिंदी और बुरके में घुटती स्त्री तो दूसरी तरफ प्रचार में खुद को आइटम(उत्पाद) कहलाने की भावना में क्लबों और डिस्को में थिरकती स्वतंत्रता पाती स्त्री , स्त्री मुक्ति कामना पर इन दोनों व्यवस्थाओं  ने स्त्री को धोखे में रखा है संस्कृतिक सामंतवाद की घुटन से आजाद होने की भावना, स्त्री को बाजारीकरण की तरफ धकेल रही है जो उसकी स्वतंत्रता व मुक्ति कामना का प्रयोग उसको उत्पाद बनाने के लिए करती है l हाल ही में हुए यौन अपराध और स्त्री सशक्तिकारण की विवेचनाएँ देश की मिडिया द्वारा खासी चर्चित हो रहीं हैl मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि ऐसी कोई भी विवेचना बाजार को बिना समझे नहीं हो सकती l अगर ऐतिहासिक सन्दर्भ में बात करें तो मात्र सत्ता  से पितृ-सत्ता में कन्वर्जन का मुख्य कारण पुरुषों का स्त्री मस्तिष्क में उत्पाद या प्रोपर्टी होने की भावना को स्थापित कर देना रहा हैं l उन्होंने यह लक्ष स्त्री मस्तिस्क में चरित्र ,इमानदारी,इज्जत जैसे शब्दों के प्रति छद्म चेतना उत्त्पन कर प्राप्त कर लिया अब स्त्री खुद में एक प्रोपर्टी हो चुकी थी जहाँ किसी एक नर के पास उसकी देह व संवेदनाओं का सम्पूर्ण कॉपीराईट होता था आज भी वो क्रम चला आ रहा है हमारे दिमाग में स्वामी होने व स्त्री को प्रोपर्टी समझने का सोफ्टवेयर बचपन से ही अपलोड कर दिया जाता है किसी भी संपत्ति पर लगने वाले सामान्य आर्थिक नियम स्त्री पर भी लागू होते हैं जैसे ...उसकी रैपिंग (बहरी साज सज्जा ) से उसकी मांग बढ़ जाती है , प्रापर्टी जितने लोगों के पास जाती है उसके मूल्य घटते जाते हैंl यह बात स्त्री के विषय में भी लागू होती है , हम अपनी प्रोपर्टी पर लट्ठ  लेकर उस पर अपना हक साबित करने की का प्रयास किया करते हैं व दूसरे का दखल बर्दास्त नहीं करते ठीक वैसे ही कई पुरुष अपनी गर्ल फ्रेंड,बेटी ,बहन,बीवी से कहते फिरते हैं ''उस से बात मत करना ,उस से मिली क्यों'' आदि l



 गर हम स्वयं को एक प्रगतिशील समाज कहते हैं तो ऐसे में हमारा कर्तव्य है की हम स्त्री को देह या संपत्ति नहीं बल्कि एक पूर्ण इंसान माने जिसकी अपनी संवेदनाएं ,साथी का चुनाव,या यौन इच्छाएं  होना बहुत ही स्वाभाविक व सामान्य बात है l सामाजिक संरचना में कुछ बातें गौर करने वाली हैं , समाज में पूंजी शक्ति का केन्द्रीय भाव है , सत्ता और यौनिकता पर पुरुष का कॉपीराईट है , पुरुष ने स्त्री मस्तिष्क में उत्पाद होने की छद्म चेतना भर दी है इसलिए स्त्री स्वयं ही पुरुष कामुकता को पूर्ण करने वाली एक संपूरक वस्तु बन कर रह गयी है l शब्द उत्पत्ति से इस सामाजिक संरचना पर प्रकाश डाला जा सकता है क्योंकि भाषा समाज के व्यक्तित्व का रिफ्लेक्शन होती है शब्दों व उसने जुड़े भावों से मनोवृतियों की संरचना को समझा जा सकता है इसे आज समाज में प्रचलित कुछ उदाहरण आपके सामने रख रहा हूँ ,इस युग की भाषा के दो प्रचलित शब्द हैं casanova व whore अर्थों में बहुत समीप होने पर भी इन शब्दों का आलंबन एक सा नहीं है दोनों शब्दों का अर्थ काम भावनाओं की उन्मुक्तता से जुड़ा है जहाँ casanova कहने पर किसी भी पुरुष की बांछे खिल जाती है और वह गर्व का अनुभव करता है वही लड़की के लिए whore किसी गाली से कम नहीं है इसके पीछे का मुख्य कारण स्त्री का दर्पणग्रस्त व्यक्तित्व होता है जहाँ वह पुरुषो की नज़रों से खुद को तौला करती है l एक ओर पुरुष शारीर को बलिष्ठ मांसल बना कर खुद को अधिकाधिक काम उपभोग के लिए तैयार करता हैं तो वहीँ नारी चेहरे पर लीपापोती करती है ,दुबली होती है , गोर होने के प्रयास में रहती है, कुल मिला कर स्त्री वह सब करती है जो वह नहीं है बल्कि पुरुष उसे बनाना चाहता है , असल में स्त्री जितनी दयनीय, कमजोर और पुरुष द्वारा स्थापित चरित्र और सौन्दर्य की परिभाषाओं को स्वीकारेगी उसके प्रति उतने ही यौन अत्याचार बढ़ते जाएँगे निश्चित ही जबरन यौन संसर्ग एक अमानुष कुक्र्त्य है लेकिन इसको स्त्री की अस्मिता से जोड़ देने पर स्त्री स्वयं का ही नुकसान करती है,एक तो वह पितृसत्तात्मक  समाज को यह सन्देश देती है की यह मेरी दुखती रग है इस पर वार करो और तुम विजयी दूसरा स्त्री मानस में संसर्ग को अस्मिता से जोड़ने से उपजा यह डर पुरुष को शक्तिशाली शिकारी होने का एहसास करता और चार दिवारी में परतंत्र रखने का प्रासंगिक ब्लैकमेलिंग विकल्प भी उपलब्ध करा देता है l 

मुझे लगता है यह स्त्री अस्मिता से अधिक पुरुष अंध कामुकता और पाशविक-प्रवृति का मसला होना चाहिए स्त्री को समझना होगा कि स्वयं को दयनीय,कमजोर और शक्तिहीन दिखाने से कुछ हासिल नहीं होगा ,पितृसत्ता अब जड़ हो चुकी है किसी कांक्रीट की तरह जिसको मोड़ा नहीं जा सकता सिर्फ और सिर्फ तोडा जा सकता है क्युकी इस व्यवस्था में दूसरे पक्ष में होती हुई भी स्त्री दुसरे पक्ष में नहीं है बाजार ने उसकी मुक्ति कामना को ख़ुद के फायदे के लिए भुना लिया है ,जहाँ वह अंतिम छोर पर होती हुई भी व्यवस्था के बीचो-बीच उत्पाद हो जाने को खड़ी है l



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प्रखर मिश्र विहान 

वामपंथी रुझान वाले युवा फिल्मकार और एक्टिविस्ट 

2 टिप्‍पणियां:

चूल्हा-चौका ने कहा…

बधाई आशीष,आज के दिन यह साहस करने के लिए...आज की पीढ़ी जिनसे सीख रही है, दरअसल वह शिक्षक वर्ग ही पोंगापंथी और माथा टेकने में यकीन रखता है, धर्म और बाज़ार के गठजोड़ से बननेवाली सत्ता उनका आदर्श बनाई जाती है...स्कूल, महापुरुषों की कहानियाँ...ये सब क्या है, जरूरी है व्यवस्था का बदलना...जब तक बाजार रहेगा, धर्म उसके सहयोग से और अधिक मानवताविरोधी वेश रखकर बहुत बड़ी संख्या में गुलाम बनाता रहेगा।

Unknown ने कहा…

नेहा जी ,माफ़ी चाहता हूँ लेकिन ऊपर दी गई पोस्ट के सम्बन्ध में आपकी टिपण्णी को मैं समझ नहीं सका .