आशीष देवराड़ी
मैं शिवरात्री के पर्व को आस्थावादी नजरिये से देखने से इतर एक दूसरे ही नजरिये से देखना पसंद करता हूँ । वह दूसरा नजरिया है ' हमारी शिक्षा की असफलता के रूप में '। शिवरात्री के पर्व और शिक्षा की असफलता के बीच क्या सम्बन्ध हो सकता हैं यह पूछे जाने की आवश्यकता हैं। संबध हैं ,बिलकुल हैं और वह यह कि हमारी शिक्षा वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने में पूर्णतः असफल रही हैं ।
गरीब अशिक्षितों की बात ही क्या की जाए जब हमारे समाज का शिक्षित और साधन सम्प्पन तबका आज व्रत रखने और मंदिरों में लम्बी लाइनों में लगने को आतुर हैं । वह रेलवे की टिकट खिड़की पर आधे मिनट खड़े होने पर बैचैन होने लगता हैं पर यहाँ वह घंटो बिना नाक सिकोड़े घंटों खड़ा रह लेता हैं । कपड़ों से लेकर कारों तक उसे सब विदेशी पसंद हैं पर मंदिरों की लम्बी कतारे उसे भारतीय ही पसंद आती हैं ।
दरअसल समाज के शिक्षित वर्ग ने हमेशा देश को धोके में रखा हैं। वह बात कुछ करता हैं और आचरण कुछ। बेचारा गरीब और अशिक्षित तो अपनी परिस्तिथियों के मारे अंधविश्वास के जाल में जकड़ा हुआ हैं पर समाज का वह तबका जो न्यूनतम श्रम में अधिकतम उपभोग करता हैं और खुद को शिक्षित कहता हैं क्यों इस अंधविश्वासों से खुद को मुक्त नहीं कर सका हैं ? वैज्ञानिक चीजों से अपने जीवन को खूब आधुनिक बना चुके तथाकथित शिक्षित वर्ग के ये लोग आज भी वैज्ञानिक चेतना से कोसों दूर क्यों हैं ? और हम चिंतित रहते हैं अशिक्षितों को शिक्षा देने के लिए पर शिक्षितों का हाल देखने की फुर्सत और समय भी हमें अब जुटाना चाहिए ।
कमी शायद हमारी शिक्षा में ही रही हैं । बड़ी बड़ी डिग्रियां और विश्वविद्यालीय शिक्षा सामाजिक बुराइयों से लड़ने और समाज को बेहतर दिशा में ले जाने के लिए हमारी रत्ती भर भी सहायता नही करती । वह वैज्ञानिक नजरियों को विकसित नही करती। किसी भी घटना को तर्क के आधार पर समझने की क्षमता पैदा नही करती। वह समाज को जस का तस बनाएं रखने वाले पैरोकारों को पैदा करने का कारखाना मात्र हैं । हमारा शिक्षा का चरित्र यथास्थितिवादी हैं । इसलिए आज जब हम शिक्षा को जन जन तक पहुचाने के लिए चिंतिंत हैं हमें इस बात पर सर्वप्रथम विचार करना चाहिए कि क्या हमारी शिक्षा हमें वह दे पा रही हैं जिसकी हमें उससे उम्मीद हैं , यदि नही तो हम क्यों शिक्षा के अधिकार और साक्षरता के आकड़ों पर मोहित हों ? ऐसी शिक्षा से तो बेहतर हैं मेरा देश और मेरे अशिक्षित लोग ।
5 टिप्पणियां:
वैज्ञानिक चेतना का समर्थन मै भी करता हूँ और इसके लिए काम भी करता हूँ लेकिन मै आपकी इस पोस्ट से बिल्कुल भी सहमत नहीं हूँ ..मंदिर जाने और व्रत रखने से मुझे नहीं लगता कि इस चेतना को कोई नुकसान पहुचता है ..मै वाह्य आडम्बर और पाखण्ड का बहुत बड़ा विरोधी हूँ लेकिन पूजा और प्रार्थना करना तो बहुत विज्ञान सम्मत भी है ...प्रार्थना से सकारात्मक तरंगे निकलती है ,मन को शांति भी मिलती है ..कुलमिलाकर मै यह कहना चाहता हूँ कि आडम्बर और पाखण्ड के बिना प्रार्थना का बहुत विज्ञानिक महत्व है ,,आइंस्टीन ने भी कहा था कि धर्म के बिना विज्ञान अंधा है और विज्ञान के बिना धर्मं लंगड़ा है ..वैसे भी साइंस का लैटिन में मतलब ज्ञान ही होता है ...
शशांक द्विवेदी
लैटिन में साइंस का अर्थ ज्ञान है। वेदों ने भी इसका अर्थ ज्ञान ही बताया है। साइंस की उपयोगिता इसके प्रयोग पर निर्भर है। हिटलर जैसे तानाशाह के जरिए साइंस महाविनाश की वजह बन सकता है, पर किसी आध्यात्मिक व्यक्ति के जरिए वह मानवता के कल्याण का हथियार। विज्ञान की एक सीमा है। मसलन अब तक इसने किसी ऐसी दवा का इजाद नहीं किया जो बेईमान को ईमानदार बना दे और दुखी व्यक्ति को खुश। खुशी से मेरा मतलब फुलफिलमेंट से है। भविष्य की दुनिया का निर्माण इसी खुशी पर निर्भर है। स्वामी विवेकानंद, मदर टेरेसा और गांधीजी जैसे लोगों को अपने काम में ऐसी ही खुशी मिलती थी।
यहीं ज्ञान के साथ आध्यात्म का महत्व बढ़ जाता है। पश्चिम में तो सदियों तक विज्ञान और धर्म में कौन श्रेष्ठ है, इसके लिए संघर्ष चला। भारत जहां वेदों ने साइंस को ही ज्ञान माना है, वहां विज्ञान और आध्यात्म के समन्वय का क्रम हजारों वर्ष पुराना है। मानवता के कल्याण के लिए यह समन्वय जरूरी है।
शशांक जी , नारों के ललित निबंध सुन्दर अवश्य होते हैं लेकिन यथार्थ से कहीं दूर रहते हैं . नाजीवाद स्वयं में एक राजनैतिक ही नहीं जीवन दर्शन भी है अब यहाँ पर मैं दर्शन और अध्यात्म सम्बन्ध की विवेचना की जरूरत नहीं समझता . हकीकत में सत्ता और धर्म मानव संघार के लिए अध्यात्म और विज्ञान दोनों के कोकटेल का प्रयोग करता है . आर्य को जेनेटिक रूप से श्रेष्ठ मान कर हिटलर ने यहूदियों को मारा ,ब्रूनो से लेकर वैनिनी तक कितने वैज्ञानिकों की हत्या की है धर्म ने वह भी आध्यात्म का सहारा ले ...धर्म आलोचना नहीं सहता वह स्वयं को श्रेष्ठ मानता है इसीलिए वह जड़ है जबकि विज्ञान की नीव ही आलोचनात्मक द्वंदात्मक प्रयोगों पर टिकी है और वह प्रगतिशील है अब एक जड़ और रुकी हुई संस्था दूसरी प्रगतिशील संस्था के समन्वय की बात करना ललित निबंध लिखना और सपने देखना मुझे किसी स्तर पर सही नहीं लगता .
हम वैज्ञानिक सोच तो रखते है ,पर आस्था हम पर हाबी है ,हम घर में प्रयोग करने वाली रोजमर्रा कि वस्तुए विज्ञानं कि करते है ,पर आस्था याने भय के कारण उसमे भी हम अध्यात्म को याने भगवान को जोड़ देते है |जब तक हम भय का भुत दिलो-दिमाग से नही निकल दते तब तक हम वैज्ञानिक चेतना से दूर रहेंगे ,हमें विज्ञानं का ज्ञान तो है ,लेकिन कही न कही हम उस अद्रश्य कही जाने वाली शक्ति से भयभीत है ,,,रविन्द्रनाथ टैगोर को १९१३ में जो गीतांजलि के लिए पुरुस्कार मिला वह लेखन व नई सोच के लिए मिला ,,,,न कि गीता ,रामायण याद करने के लिए दिया जाता है
न आस्था को विज्ञान से कोई आपत्ति है न विज्ञान को आस्था से कोई द्वेष!! फिर हम आपस में दोनो को परस्पर विरोध में खड़ा करके कौन सी मंशा सिद्ध कर लेंगे?
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