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यह हम सब की सहिष्णुता का इंतिहान है! |
13 मई 2010
इन निरुपमाओं का क्या दोष था?
27 जनवरी 2010
विश्विद्यालय यानि डिग्री डिस्ट्रिब्यूशन सेन्टर

( गोरखपुर विश्विद्यालय से जुड़ी मेरी स्मृतियां सिर्फ़ अर्थशास्त्र विभाग तक महदूद नहीं हैं। मुझे याद है कि कैसे इसके लेक्चर थियेटरों में अपने समय के बेहतरीन विद्वानों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के भाषण और उनसे बहस-मुबाहिसे ने मुझे देश-दुनिया को समझने का नया नज़रिया दिया। लेकिन अब विश्वविद्यालय न पढ़ने-लिखने की जगह रहा न बहस-मुबाहिसे की। अब वह बस डीडीसी - डिग्री डिस्ट्रिब्यूशन सेन्टर बनकर रह गया है। पढ़िये वहां से चक्रपाणि की रिपोर्ट)
गोरखपुर विश्वविद्यालय: सामाजिक गतिविधियों पर पाबंदी-
विश्वविद्यालय साहित्य, संस्कृति, कला, राजनीति का एक प्रमुख केन्द्र होता है। यहाँ हो रहे राजनीतिक साहित्यिक सामाजिक आयोजनों का प्रभाव न सिर्फ छात्र-छात्राओं पर पड़ता है बल्कि इससे हमारा समाज भी प्रभावित होता है। गोरखपुर विश्वविद्यालय का अतीत भी कुछ ऐसा ही रहा है। लेकिन पिछले चार वर्षो से गोरखपुर विश्वद्यिालय ने अपना ऐसा चरित्र उद्घाटित किया है जिससे इसके गैर लोकतांत्रिक चरित्र को हम बखूबी देख सकते है। पिछले कुछ वर्षो में परिसर में घटी कुछ प्रमुख घटनाओं को देखकर हम विश्वविद्यालय प्रशासन के लोकतंत्र विरोधी चरित्र को समझ सकते हैं।
अभी हाल ही में 18 जनवरी को परिवर्तनकामी छात्र संगठन (पछास) विश्वविद्यालय इकाई तथा स्ववित्तपोषित एवं वित्तविहीन महाविद्यालय शिक्षक एसोशिएसन के संयुक्त तत्वावधान में कला संकाय भवन में प्रख्यात शिक्षाविद् एवं दिल्ली विवि के पूर्व आचार्य प्रो. अनिलसद् गोपाल का ‘‘शिक्षा पर नव उदारवादी हमला और भारत का भविष्य’’ विषय पर एक व्याख्यान आयोजित किया गया। उक्त आयोजन के लिए विवि के सभी जिम्मेदार अधिकारियों से सम्पर्क किया गया था लेकिन किसी ने भी उक्त व्याख्यान के लिए स्थान आवंटित नहीं किया जबकि विवि परिसर में दो बड़े-बड़े आडिटोरियम (संवाद भवन व दीक्षा भवन) मौजूद हैं जिसमें पूर्व में सभी आयोजन निःशुल्क होते थे। स्थान आवंटन के लिए आयोजकों ने कुलपति के यहाँ भी आवेदन किया लेकिन उन्होंने मिलने से मना कर दिया। परेशान होकर आयोजकों ने कला संकाय के एक विभागाध्यक्ष से इस संदर्भ में बात कर एक कमरें के लिए सहमति ली। स्थान तय होने के बाद आयोजक प्रचार कार्य करने लगे परिसर मे हस्तलिखित पोस्टर लगाये गयें लेकिन विवि प्रशासन ने अपनी बेशर्मी की सारी हदों को पार करते हुए उक्त आयोजन में अवरोध डालना शुरू कर दिया।पहले तो मुख्य नियंता ने परिसर में लगे सभी पोस्टर फाड़वा डाले। अगले दिन जब दोनो संगठनों के कार्यकर्ता विवि मुख्य द्वारा पर वैनर बांध दिये तभी से परिसर में खलबली मच गई। चीफ प्राक्टर ने अपने गार्डो को वैनर उतारने का निर्देश दिया। जब आयोजक उक्त कमरे पर पहुँचे तो वहाँ ताला बंद कर दिया गया था। पता करने पर ज्ञात हुुआ कि चीफ प्राक्टर ने ऐसा करने को कहा है। चीफ प्राक्टर के इस रवैये से आक्रोशित होकर आयोजक अधिष्ठाता कला संकाय से मिले उनका कहना था कि ‘‘ जिस विषय पर व्याख्यान होना है वह राजनीतिक है इस पर सरकार विरोधी बातें होगी; इस विषय का यहां से कोई लेना देना नहीं है, वहीं स्ववित्तपोषित अध्यापकों के साथ ‘पछास’ ने यह कार्यक्रम रखा है अतः इसमें तमाम मुद्दों पर बात होगी। जिससे हमें कल जवाब देना पड़ सकता है ऐसे मे यह आयोजन यहां कत्तई नही होने दिया जाएगा। उन्होने कहा कि जब कुलपति ने आपको संवादभवन नहीं दिया तो हम कला संकाय नही दे सकते हैं। अनुशासन विगड़ जाएगा, मारपीट हो सकती है यह विषय सरकार विरोधी विषय है। डीन, चीफ प्राक्टर सभी का घंटो चक्कर लगाने के बाद आक्रोशित आयोजको और छात्रों ने यह तय किया कि हम जेल जाएगे लेकिन अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा के लिए हम यहीं कार्यक्रम करेंगे। कमरा न0 144 में ताला बंद था उसके बगल वाला कमरा खुला था कार्यक्रम बगल वाले कमरे में शुरू हो गया । एक तरफ प्रो. सद्गोपाल व्यख्यान दे रहें थे। दूसरी ओर चीफ प्राक्टर कार्यक्रम न करने तथा न मानने पर पुलिस बुलाने की सूचना भेजवा रहे थे। व्याख्यान के दौरान समूचा हाल छात्रों, नागरिकों से खचाखच भरा हुआ था कई घंटों तक चले इस आयोजन के समाप्त होने तक विवि प्रशासन परेशान रहा। इसके पूर्व आयोजकों ने राजनीतिशास्त्र के अध्यक्ष से विभाग में एक कमरा देने का निवेदन किया तो उनका कहना था कि प्रो. सद्गोपाल हमारे विषय के नहीं हैं। और कुलपति जी ने मना किया है कि दीक्षांत समारोह होने तक कोई बाहर से नहीं आएगा। ऐसे मे हम कमरा नहीं दे सकते!ज्ञात हो कि यह कोई पहली घटना नही है; पिछले नवम्बर माह में परिवर्तनकामी छात्र संगठन (पछास) के कार्यकर्ता उत्तराखंड की अपनी कार्यकर्ता ‘मीनागोला कृतिका’ के परिजनों द्वारा हत्या करने के विरोध में विवि में जुलूस निकाल रहे थे ऐसे में चीफ प्राक्टर ने यह कहते हुए उनका बैनर छीन लिया था कि यह उत्तराखंड का मामला है यहाँ जुलुस नहीं निकाला जा सकता उन्होंने बैनर आज तक नहीं दिया। वही विगत वर्ष जे.एन.यू. के छात्र संघ अध्यक्ष संदीप सिंह की एक सभा एन.सी. हास्टल में रखी गयी थी। जिसको भी विवि प्रशासन ने यह कहते हुए रोक दिया था कि बाहरी व्यक्ति आकर कोई सभा नहीं कर सकता है, वहां उपस्थित छात्रों, नागरिकों, बुद्धजीवियों के विरोध के बाद वे शांत हुए।
सामाजिक संगठनों के सहयोग से आयोजित होने वाला फिल्मोत्सव तीन वर्षो में संवाद भवन में होता रहा है लेकिन पिछले वर्ष यह कहते हुए नही मिला अब यह गैर विश्वविद्यालीय कार्यक्रमों के लिए नहीं दिया जाता है। छात्रों के लिए भी नहीं आवंटित होता है। ज्ञात हो कि सेवाद भवन शहर का एक मात्र ऐसी जगह है जहां राष्ट्रीय अन्र्तराष्ट्रीय आयोजन होते रहें है। नामवर सिंह से लेकर राजेश जोशी, मैनेजर पाण्डेय समेत सैकड़ो विद्वान दैनिक जागरण द्वारा आयोजित ‘‘संवाद 2001’ मे उसी संवाद भवन में शामिल थे। इस स्थान के सुलभ होने से परिसर में एक रचनात्मक माहौल बना रहता था। लेकिन आज पूरे परिसर में सन्नाटा फैला हुआ है , कहीं कोई साहित्यिक-सास्कृतिक गतिविधि नहीं होने पा रही है। यह वही परिसर है जहां कि प्रो. श्रीमती गिरीश रस्तोगी के निर्देशन में यहां के छात्र-छात्राओं ने पूरे देश में रंगमंच में माध्यम से विवि का नाम रौशन किया था। नवोत्पल ने इसी संवाद भवन दीक्षा भवन में छात्र-छात्राओं के कई सांस्कृतिक आयोजन कर एक रचनात्मक माहौल निर्मित करने का काम किया था। लेकिन पिछले दिनों प्रशासन का एक तालिबानी फरमान आया जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र पर ही सवाल खड़ा कर देता है। फरमान यह था कि कोई भी शिक्षक विवि के बारे में मीडिया में कोई बयान नही दे सकता है इसे विवि कार्य परिषद ने पास भी कर दिया था। आश्चर्य जनक यह था कि किसी भी शिक्षक ने इस हमले के खिलाफ एक शब्द नहीं बोला। विवि प्रशासन अपने खिलाफ एक शब्द भी सुनना पसंद नही करता है। ज्ञात हो कि यह विवि पिछले कई वर्षो से भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा हुआ है। प्रबंधकों की सेवा में प्रशासन सर झुकाये खड़ा है। बिना कुशल अध्यापकों के चलने वाले दो सौ से अधिक महाविद्यालयों को संचालित करने का ठेका लेने वाला विवि तंत्र अपने खिलाफ कैसे सुन सकता है। प्रवेश परीक्षा और परिणाम देने के लिए बनी ये शैक्षणिक दुकाने छात्रों के भविष्य के साथ घटिया मजाक कर रही हैं। विवि तंत्र इनकी सुरक्षा की पूरी गारंटी लेेता है। यहाँ ज्ञान, नैतिकता और आदर्श की कोई बात नही होती। यहाँ अनैतिकता, घूसखोरी, भ्रष्टता के लिए हमेशा दरवाजा खुला हैं। लेकिन ज्ञान, विज्ञान, संस्कृति, कला, साहित्य, राजनीति की कोई जगह नहीं है। यहाँ के संवाद भवन में चुनाव के समय में ड्यूटी करने वाले कर्मचारी ठहरते हैं। यहाँ के छात्रसंघ भवन में पी.ए.सी. के जवान मच्छरदानी लगाये सोये रहते हैं और बेहयायी की हद तो तब देखने को मिलती है जब यहाँ के एन.सी. हास्टल में महीनो तक आर.ए.एफ. के सिपाही अपनी छावनी बनाये रहते हैं। छात्रावासों की फीस में बेतहासा वृद्धि कर छात्रों को बाहर कर देने के बाद छात्रावासों का उपयोग सेना के जवान करते हैं। अनुशासन और नैतिकता की बात करने वाला विवि प्रशासन अनुशासन बनाये रखने के नाम पर छात्रावासों को चारो तरफ से दीवारों से घेर दिया हैं तथा छात्र सिर्फ एक गेट से निकले इसके लिए दूसरी पक्की सड़क को न सिर्फ बुल्डोंजर लगाकर तोड़ दिया गया है बल्कि बड़े-बड़े गढ़्ढे खोद दिये गये हैं यह है विवि का छात्रों के लिए अनुशासन। प्रबंधकों, ठेकेदारों और सशस्त्र लोगो के परिसर में घूमते रहने पर कोई पाबंदी नहीं है। बल्कि विवि प्रशासन, कुलपति उनकी प्रत्येक इच्छा को बखूबी पूरा करते नजर आते हैं। ऐसे में यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि गोरखपुर विवि प्रशासन की मंशा क्या है। यह किस के पक्ष में खड़ा है। प्रबंधकों, शिक्षा माफियों या छात्रों के पक्ष में।
‘ज्ञान और विज्ञान का यह सतत् जागृत केन्द्र, कला और साहित्य का यह चिर समाहत केन्द्र’ जैसे पवित्र कुलगीत का गायन करने वाला विवि जहाँ साहित्य, संकृति, कला, विज्ञान आदि क्षेत्र में अपनी पहचान खोता जा रहा हैं वहीं भ्रष्टाचार, घूसखोरी अनैतिकता की सारी सीमाओं को पार कर नयें तरह का कीर्तिमान स्थापित कर रहा हैं।
30 सितंबर 2009
गोरखपुर के मज़दूर आन्दोलन की रपट
प्रिय साथियो,
हम यहाँ पूर्वी उत्तर प्रदेश में स्थित गोरखपुर के दो कारख़ानों के आंदोलनरत मज़दूरों की ओर से जारी एक अपील प्रस्तुत कर रहे हैं। अगस्त के पहले सप्ताह से 1000 से ज़्यादा मज़दूर न्यूनतम मज़दूरी, सुरक्षा के बुनियादी इंतज़ाम, जॉब कार्ड, ई।एस.आई. जैसी मूलभूत मांगों को लेकर आंदोलन कर रहे हैं लेकिन उद्योगपतियों, प्रशासन और स्थानीय भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ सहित राजनीतिज्ञों के एक हिस्से ने उनके ख़िलाफ़ गँठजोड़ बना लिया है। इन लोगों ने मीडिया की मदद से मज़दूर आंदोलन के विरुद्ध कुत्साप्रचार अभियान छेड़ दिया है और मज़दूर नेताओं को ''माओवादी आतंकवादी'' और मज़दूर आंदोलन को पूर्वी उत्तर प्रदेश में अस्थिरता फैलाने की ''आतंकवादी साज़िश'' कहकर बदनाम करने की कोशिश की जा रही है। भाजपा सांसद मज़दूर आंदोलन में चर्च के शामिल होने का आरोप लगाकर इस मुद्दे को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिशों में भी जुट गए हैं!
29 अगस्त 2009
ताकि सच ज़िन्दा रहे
(यह ख़बर गोरखपुर से मित्र चक्रपाणि ने भेजी है। चक्रपाणि वहां छात्र आंदोलन में सक्रिय हैं।)
गोरखपुर। पूरे देश में नक्सलवाद-माओवाद के नाम पर सरकार तथा पंूजीवादी मीड़िया आमजन में दहशत का माहौल निर्मित करने का बखूबी प्रयास कर रहे हैं। हर जनान्दोलन को नक्सलवाद का नाम देकर उसे कुचुलने का प्रयास किया जा रहा है।
ऐसी ही एक खबर पिछले दिनों 22 अगस्त 09 को गोरखपुर के प्रतिष्ठित दैनिक समाचार पत्र (अमर उजाला) में प्रकाशित हुई। खबर का शीर्षक लगाया गया था ‘‘नक्सली आमद ने उड़ाये होश’’। समाचार के बीच में एक तस्वीर थी जिसमें एक व्यक्ति बंदूक लिए, अपने मँुह को बाॅधे हुए एकदम आतंकी जैसा प्रतीत हो रहा था।
खबर में यह बताया गया था कि पुलिस को सूचना मिली कि नक्सली महानगर में प्रवेश कर चुके हैं तथा स्टेशन स्थित किसी होटल में ठहरे हैं। पुलिस ने जब सैकड़ों की संख्या में वहाँ छापा डाला तो वहाँ कोई माओवादी या नक्सलवादी नही मिला बल्कि तीन निर्दोष युवक पकड़े गये जिन्हे जांॅच के बाद छोड़ दिया गया।
खबर के द्वारा यह जाना जा सकता है कि गोरखपुर में नक्सलियों की सुगबुगाहट मात्र एक वर्ष पूर्व से हुई है। जब से गोरखपुर विश्वविद्यालय के दो छात्र नक्सलियों के प्रदेश कार्य समिति में चुने गये हैं। खबर में इस बात का हवाला दिया गया है कि जून 2008 में नैनीताल में देश के सारे नक्सली एकत्रित हुये थे। जिसमें बरेली के छात्रनेताओं को अध्यक्ष व उपाध्याक्ष चुना गया था।
खबर को पढ़ने से यह ज्ञात होता है कि कुछ माह पूर्व कुशीनगर में भी यही बातें प्रकाश में आयी थी। पत्रकार महोदय की माने तो देवरिया और कुशीनगर में नक्सलियों ने अपना नेटवर्क तैयार कर लिया है तथा गोरखपुर-बस्ती की ओर प्रयासरत है।
शाबाश! ‘अमर उजाला’ के मेहनती पत्रकार महोदय इतनी मेहनत से आपने खबर लिखी। शायद इतनी मेहनत अगर आपने अपने अखबार के लिए ‘विज्ञापन’ जुटाने में किया होता तो आपको कुछ फायदा हुआ होता। लेकिन आपने तो अपनी असलियत ही दिखा दिया। पत्रकार महोदय अगर आपको पूर्वांचल के लोगों से इतना ही प्रेम है तो आप ‘इंसेफलाइटिस’ जैसी जानलेवा बीमारी के बारे में जन प्रातिनिधियों और सरकार के खिलाफ खबरे क्यों नही लिखते? आप ‘मैत्रेय परियोजना’ के खिलाफ खड़े किसानांे की मांगो के समर्थन में खबर क्यो नही लिखते? वर्षो से ‘खाद कारखाना’ बंद है उसे खोलने के लिए सरकार पर खबर लिखकर दबाव क्यों नही बनाते? विश्वविद्यालय में सीट वृद्धि की समस्या के बारे में प्रमुखता से क्यों नही लिखते? पूर्वाचल के शिक्षा माफियों के खिलाफ खबरे क्यों नही लिखते? लेकिन शायद आपकी चिन्ता का विषय यह खबरें नही बनती। क्योंकि आप जैसे पत्रकारों ने तो देश में भय का माहौल कायम करने का ठेका ले रखा है।
उक्त समाचार को पढ़कर कुछ सवाल खडे होते हैं कि सम्मानित पत्रकार महोदय यह बतायें कि गोरखपुर के आसपास के जिलों में जिनकी आप चर्चा करते हैं आज तक कितनी नक्सली घटनायें हुई है। होटल में जब पुलिस छापा डालती है तो इसका समाचार सिर्फ केवल आपके ही सामाचार पत्र में छपता है क्या अन्य अखबार वाले सो गये थे। क्या आपने कभी विश्वविद्यालय प्रशासन से यह जानना चाहा कि उसके यहाँ दो छात्र नक्सली हैं उन्होने परिसर में कितनी वारदातों को अंजाम दिया है?
बतातें चलें कि एक वर्ष पूर्व भी जब ‘परिवर्तनकामी छात्र संगठन’ का ‘छठा सम्मेलन’ समाप्त हुआ था तब भी गोरखपुर के एक प्रमख हिन्दी दैनिक ‘राष्ट्रीय सहारा’ ने भी इसी तरह की खबर प्रकाशित की थी। फिर हद तो तब हो गई थी जब ‘रामनगर नैनीताल’ से प्रकाशित ‘‘नागरिक अधिकारों को समर्पित’’ (हिन्दी पाक्षिक)के पाठको तथा वितरको के ऊपर प्रशासन द्वारा हमले शुरू कर दिये गये। ‘नागरिक’ पढने वालो को अखबार पढ़ने से रोका गया, अखबार को नक्सल समर्थित बताया गया। पाठको में भय का माहौल निर्मित करने का प्रयास प्रशासन के अधिकारियों ने किया। कई स्थानो पर तो नागरिक पाठको से वसूली तक की गई।
कुल मिलाकर सच तो यह है कि अगर आप इस जनविरोधी पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ बोलते है, लिखते है, पढ़ते हैं तो आप सरकार की नजर में ‘नक्सलवादी-माओवादी’ हैं। ऐसे में पंूजी के इस लोकतंत्र में व्यक्ति या संगठनों को बोलने तक की आजादी नहीं रह गयी है। इस देश की मीडिया भी सरकार के साथ इस खेल मे शामिल है।
31 जुलाई 2009
एक और बाबरी?
अगर मस्जिद के बजाय किसी हिन्दू मंदिर पर इस प्रकार की विध्वंसक कार्यवाही हुई हाती तोे, सडक से लेकर संसद तक बवाल मचगया गया होता लेकिन यह मामला अल्पसंख्यक समुदाय का होने के नातें कोई बोलने को तैयार नही है पढा-लिखा मुस्लिम तबका शांतिपूर्ण तरीके से अपना विरोध दर्ज करा रहा है। वह कोई उग्र कार्यवाही से बच रहा हे वह नही चाह रहें है कि शहर का माहौल बिगडे क्योकि मौका पातें ही हिन्दु युवावाहिनी के लम्पट तत्व शहर को सामप्रदायिकता की आग में जला डालेगे । मुस्लिमों के बीच भय का माहौल सिर्फ गोरखपुर मे ही नहीं बल्कि पूरे देश में व्याप्त है हर जगह अल्पसंख्यक समुदाय के ऊपर अक्सर हमले होतें रहे है। बतादे कि जबसे गोरखपुर में यह घटना घटी है तबसे पुलिस प्रशासन द्वारा पुलिस बल को दंगा भडकने की स्थिति में कैसे कार्य किया जाता है इस बात का प्रशिक्षण दिलाया जा रहा है। गली मुहल्लों में सौकडो की संख्या में पुलिस मार्च कराया जा रहा है। पुलिस अधिकारियों द्वारा बताया जा रहा है कि यह सब जनता की सुरक्षा द्वारा के लिए किया जा रहा है। लेकिन प्रशासन की मंशा साफ है वह पुलिसया मार्च करा कर आमजन को भयग्रस्त करना चाहते है।
खैर यह घटना चाहे प्रदेश की बसपा सरकार के इशारे पर हुई हो या किसी साम्प्रदायिक व्यक्ति के इशारे पर अगर शहर में कोई साम्प्रदायिक दंगा फैलता है तो नुकसान यहां के निर्दोष नागरिकों का ही होगा। साम्प्रदायिक ताकतें तो हमेशा की भांति फसल काटने की तैयारी करेगी। इतना तो तय है कि ये प्रतिक्रियावादी ताकतें भले ही ऐसी कार्यवाही प्रायोजित कर अपनी क्षुद्र राजनीतिक रोटी सेकने का प्रयास करें लेकिन बुद्ध, कबीर, प्रेमचन्द्र, फिराक, बिस्मिल की जमीन के अमन पसन्द नागरिक शहर का माहौल बिगडने नहीं देगें।
(लेखक, समाजिक कार्यकर्ता है।)
सम्पर्क सूत्र- 09919294782
16 जुलाई 2009
मेरा शहर मरा नही है
अपने शहर मे आए अपने प्रिय कथाकार की इस शर्मनाक हरकत पर हम सिर्फ सर ही झुका सकते थे। और हमे कहने में कोई ‘शर्म नहीं है कि हमनें इस ‘शर्म को दिल से महसूस किया। कारण कि हमारे ‘शहर में उदय प्रकाश जी की तरह अभी कोई इतना ‘जहीन’ लेखक नही पैदा हुआ है जो हत्यारे हाथों से पुरस्कृत होने की हिमाकत भी करे औ अपने कृत्य पर लज्जित होने की बजाय उनके इस कृत्य पर सवाल उठाने वालों को ‘‘देख लेने’’ की धमकी देने का साहस भी कर सके।