पंकज बिष्ट, महेश कटारे, शिल्पायन वाले ललित जी और अपन शिल्पायन के स्टाल पर
चार दिन ऐसे बीते कि जैसे चार घण्टे रहे हों।
चारों तरफ़ किताबें, किताबों के शौक़ीन, किताबों की ही बातें…
प्रोफ़ेसर शमसुल इस्लाम, नीलिमा जी,सत्येन्द्र, शिल्पी, पवन मेराज, लाल बहादुर वर्मा और अपन
शब्दों की खुशबू जैसे मदमस्त किये हुए थी…गया था बस एक पिट्ठू लिये लौटा तो चार भरे हुए बैग्स के साथ। मुक्तिबोध और निराला की रचनावलियां, तमाम कविता संकलन, इतिहास, दर्शन और आलोचना की ढेरों किताबें, अनुवाद और पी पी एच से कुछ भूली बिसरी अनमोल किताबें।
बड़ी-बड़ी किताबों के साथ अपन!
और इस बार तो स्टाल पर अपनी किताबें भी लगीं थीं। शिल्पायन से लेखों का संग्रह 'शोषण के अभयारण्य' और संवाद से 'मार्क्स- जीवन और विचार' तथा 'प्रेम'… तो मज़ा दुगना हो गया।
दो साल इसी माहौल की स्मृतियों के सहारे गुज़र जायेंगे। यह विश्वास पुख़्ता हुआ कि शब्द मर नहीं सकते!