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01 दिसंबर 2009

सैमसंग से कौन डरता है?


जनसत्ता के पिछले रविवारी में वरिष्ठ कवि तथा आलोचक विष्णु खरे का आलेख अभी सबद में प्रकाशित हुआ तो मुझे लगा कि समर्थन में टिप्पणियों की भरमार हो जायेगी। जाके टीप भी आया … पर दो दिन के इंतज़ार के बाद महज़ बारह टीपें! उसमें भी दो हमारी यानि कायदे के लोगों कि बस दस!!! भाई विजय जी की टीप नहीं लगी तो उन्होंने पोस्ट ही लगा दी। पर वहां भी बस कायदे के दो लोग पहुंचे… वो भी पहले सबद पर आके टिप्पणी दे ही चुके थे।


तो क्या बस यही लोग हैं सैमसंग प्रायोजित पुरस्कार से क्षुब्ध, व्यथित या फिर डरे हुए? बाकि? पलक पांवडे बिछाने वाले कुछ तो होंगे ही, कुछ इसमें शामिल लेकिन निश्चित तौर पर सबसे बडी संख्या उन लोगों की होगी जो बस चुपचाप हवा का रुख भांप रहे होंगे।


वैसे मेरा डर अलग है… अब विभाजक रेखायें साफ़ खिंचेंगी। साफ़ पूछा जायेगा-- जब मंत्रियों, संत्रियों, सेठ-साहूकारों और दलालों से पुरस्कार लेने में नहीं हिचके तो इनके अब्बा से काहें डर रहे हो? अमेरिका और इंगलैण्ड जाने के लिये लार टपकाते शर्म नहीं आई तो जब आका ख़्हुद ही घर आके ईनाम देना चाह रहा है ति नौटंकी किसलिये? और तब यह देखना कितना भयावह होगा कि हमारे तमाम आदर्श चेहरे छुपाये चुपचाप रेखा के उस ओर सरक जायेंगे।


आप क्या कहते हैं? एक अभियान चलाया जाये कि भैया यहां खून जलाने आये थे हम… अपनी जनता के पक्ष में आवाज़ बुलन्द करने और इसके लिये हमें जनता का ख़ून चूसने वालों से इनाम नहीं चाहिये। लिखना सुविधायें जुटाने का नहीं असुविधा बटोरने का काम है। भाड में जाये पुरस्कार हमे जनता का प्यार चाहिये!


शायद यही निर्भय करेगा हमें सैमसंग से!

11 नवंबर 2009

इस ज़िद को बचाये रखना अल्पना जी


इतिहास विजेताओं का ही होता है अक्सर


और साहित्य का इतिहास? एक वक़्त था जब इसमे वो दर्ज़ होते थे जिनके कलाम से उनका समय आलोकित होता था। वे जो अपने वक़्त के साथ ही नहीं बल्कि ख़िलाफ़ भी होते थे…वो जो बादशाह के मुक़ाबिल खडे होकर कह सकते थे-- संतन को कहां सीकरी सो काम।


पर अब शायद इतना इंतज़ार करने का वक़्त नहीं किसी के पास। सो वही दर्ज़ होगा जिसके हाथों में पुरस्कार होगा, गले में सम्मान की माला और दीवारों पर महान लोगों के साथ सजी तस्वीर। और सब तरफ़ इतिहास में दर्ज़ होने की आपाधापी के बीच किसे फ़िक्र है अपने वक़्त की या फिर उन ताक़तों की जो एक टुकडा पुरस्कार के बदले न जाने क्या-क्या छीन लेते हैं।


अभी दिल्ली के एक बेहद गंभीर और प्रतिबद्ध संस्कृतिकर्मी से बातचीत हो रही थी तो अपने पुराने दोस्त हबीब तनवीर से हुई बातचीत का खुलासा करते हुए उन्होंने बताया कि जब इमरजेंसी के दौरान कांग्रेस ने उनसे राज्यसभा की सदस्यता के लिये प्रस्ताव दिया तो पांच मिनट थे फ़ैसला करने को…और तीसरे मिनट में वह ललच गये। तो जब मेरे उन मित्र से अभी कुछेक साल पहले यही प्रस्ताव दोहराया गया तो उन्होंने बस पहले ही मिनट में तय कर लिया -- नहीं। पर इतिहास? वहां तो हबीब साहब ही दर्ज़ होंगे ना?


ऐसे माहौल मे जब मुझे एक मित्र ने बताया कि युवा रचनाकार अल्पना मिश्र ने उत्तराखण्ड सरकार द्वारा प्रस्तावित एक पुरस्कार ( जो उनके साथ बुद्धिनाथ मिश्र को भी मिला है) यह कहते हुए ठुकरा दिया कि ''मुझे किसी राजनेता से पुरस्कार नहीं लेना'' तो मेरा सीना गर्व से चौडा हो गया। न तो अल्पना जी से मेरी कोई जानपहचान है ना ही उनकी कहानियों का कोई बहुत बडा प्रशंसक रहा हूं, लेकिन उनके इस कदम ने मुझे इतनी खुशी दी कि अब वह अगर एक भी कहानी न लिखें तो भी मै उनका प्रशंसक रहुंगा। इसलिये भी कि उन्होंने इस बात का कोई शोरगुल नहीं मचाया न ही किसी आधिकारिक पत्र का
इंतज़ार किया। यह सामान्य सी लगने वाली बात अपने आप में असामान्य है।


अल्पना आपकी इस हिम्मत के लिये मै आपको सलाम करता हूं।
इस ज़िद को बनाये रखियेगा…आपका एक आत्मसमर्पण न जाने कितनों को कमज़ोर बना देगा !
*** अभी अल्पना जी ने बताया है कि यह पुरस्कार राज्य सरकार का नहीं है अपितु किन्हीं धनंजय सिंह जी द्वारा अपने किसी रिश्तेदार की स्मृति में दिया जाना है जिसे उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री या संस्कृति मंत्री के हाथ से दिया जाना है।

24 अक्टूबर 2009

साहित्य का आधिक्य और पुरस्कारों की लालीपाप

पिछले दिनों अन्यान्य कारणों से पुरस्कार और उनसे जुड़े तमाम विवाद बहसों के केन्द्र में रहे। वैसे भी इस साहित्य विरोधी माहौल में जब साहित्य कहीं से जीवन के केन्द्र में नही है, बहसों के मूल में अक्सर साहित्य की जगह कुछ चुनिन्दा व्यक्ति, पुरस्कार और संस्थायें ही रहे हैं। पाठकों के निरंतर विलोपन और इस कारण साहित्य के स्पेस के नियमित संकुचन ने वह स्थिति पैदा की है जिसमे व्यक्तियों के प्रमाणपत्र निरंतर महत्वपूर्ण होते गए हैं। ऐसे में यह अस्वाभाविक नही कि पूरा साहित्य उत्तरोत्तर आलोचक केंद्रित होता चला गया और पुरस्कार तथा सम्मान रचना का अन्तिम प्राप्य।
यहाँ यह भी देखना ज़रूरी होगा कि हिन्दी में लेखन का अर्थ ही साहित्य रचना होकर रह गया। अगर कोई कहे के वह हिन्दी का बुद्धिजीवी है तो सीधे-सीधे मान लिया जाता है कि वह या तो कवि है, या आलोचक या उपन्यासकार या फिर यह सबकुछ एकसाथ। हिन्दी का पूरा बौद्धिक परिवेश साहित्य लेखन के इर्दगिर्द सिमटा रहा है और इतिहास, दर्शन, अर्थशाष्त्र, राजनीति आदि पर अव्वल तो गंभीर बात हुई ही नहीं और अगर कुछ लोगों ने की भी तो आत्मतुष्ट साहित्य बिरादरी ने उसे हमेशा उपेक्षित ही रखा। इसका पहला अनुभव मुझे समयांतर के दस साल पूरे होने पर पंकज बिष्ट जी द्वारा आयोजित प्रीतिभोज में हुआ जहां केन्द्र में रखी विशाल मेज़ पर साहित्य के बडे नामों और नये पुराने संपादकों का कब्ज़ा था और सामाजार्थिक विषयों पर वर्षों से पत्रिका में नियमित लिखने वाले तमाम वरिष्ठ लोग परिधि पर स्थित कुर्सियों में सिमटे थे। इनमें ऐसे लोग भी थे जिन्हें अपने-अपने विषयों के बौद्धिक जगत में अन्तरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त है। यह एक ऐसी की पत्रिका के कार्यक्रम का दृश्य था जो मूलतः साहित्य की पत्रिका नहीं है। यह हिन्दी के बौद्धिक परिवेश का एक स्पष्ट रूपक है।
इसका परिणाम यह है कि अन्यान्य विषयों में हिन्दी का बौद्धिक परिवेश अत्यंत एकांग़ी और लचर रहा है। परीकथा के पिछले अंक में गिरीश मिश्र का प्रो अब्दुल बिस्मिल्लाह को दिया जवाब इस पूरे परिदृश्य को बडी बेबाकी से परिभाषित करता है। यह आश्चर्यजनक तो है ही कि पूरा हिन्दी जगत बाज़ारीकरण जैसी भ्रामक और निरर्थक शब्दावली का प्रयोग करता है, नवउदारवाद और नवउपनिवेशवाद जैसे शब्दों का प्रयोग समानार्थी रूप में प्रयोग किया जाता है और भी न जाने क्या-क्या।
यही नहीं, अन्य विषयों की उपेक्षा का ही परिणाम है कि हिन्दी में सारे पुरस्कार बस साहित्य के लिये आरक्षित हैं। पत्रकारिता को छोड दें तो हिन्दी की लघु पत्रिकाओं में अन्य विषयों पर लिखने वालों के लिये न तो कोई प्रोत्साहन है न पुरस्कार। तमाम चर्चाओं, परिचर्चाओं और कुचर्चाओं के क्रम में साहित्येतर विषय सिरे से गायब रहते हैं।
यह किस बात का द्योतक है? साहित्य की सर्वश्रेष्ठता का या हिन्दी के बौद्धिक दारिद्र्य का?

27 सितंबर 2009

मै फिलहाल कहीं नही हूँ

चूंकि मै किसी पद पर तो हूँ नही इसलिए इस्तीफे का कोई अर्थ नही है।

मेरा स्पष्ट मत है कि किसी वामपंथी संगठन को ऎसी संसथाओं से मदद नही लेना चाहिए। और अगर यह अनजाने में हुआ है तो इसके लिए माफी माँगते हुए वह सम्मान वापस कर देना चाहिए। अन्यथा यह वामपंथ की पहले से फीकी हुई रंगत को और बदनुमा करेगा। महासचिव महोदय को इसका स्पष्टीकरण शीघ्र देना चाहिए।

12 सितंबर 2009

विष्णु जी इस सच का सच क्या है?

ऐसा लगता है कि साहित्य के क्षेत्र में वैसी ही आपा धापी मची है जैसी कि भाजपा में। यहाँ भी वही निराशा और अदृश्य सत्ता की तलाश सी चल रही है। एक तरफ़ साहित्य आम आदमी की प्राथमिकताओं से ही बाहर नहीं हो रहा बल्कि अपने समय और समाज को प्रभावित करने की ताक़त भी लगातार खोता चला जा रहा है तो दूसरी तरफ़ रोज़ सिकुडते जा रहे इसके स्पेस पर कब्ज़ा जमाने की कोशिशें भी तेज़ होती जा रही हैं। इस आपाधापी में विचारधारा की केंचुल उतर रही है, कहीं पुराने की जगह नये को सेट करने का ''नवोन्मेष'' है, कहीं हर चीज़ का निषेध तो कहीं हर चीज़ का स्वीकार। पाठकों के घोर अभाव झेलते समाज में रोज़ निकल रही नई पत्रिकायें हैं ( जो अपने समकालीन चलन के विपरीत मोटे होने के लिये मरी जा रही हैं)। इसी क्रम में हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि-विचारक विष्णु खरे की हालिया टिप्पणी/आलोचना/आत्मस्वीकार है जो सबद में छपी है।
आज पुरस्कारों की जो स्थिति है, उससे हिन्दी के बचे-खुचे पाठक और खंचिया भर लेखकों का अपरिचय नहीं। सब समझते- बूझते हैं, रसरंजन के दौरान बतियाते भी हैं और चढ़ जाने पर गरियाते भी। भारतभूषण हो , साहित्य एकेडेमी, वागीश्वरी या फ़िर कोई और… विवाद हर जगह मौज़ूद हैं। हालत यह है कि अगर किसी को साल में दो-तीन पुरस्कार मिल जाये तो भाई लोग समझ जाते हैं कि बंदे की सेटिंग मस्त है। यही वज़ह है कि तमाम जुगाडु कवि पुरस्कृत होते रहे और मोहन डहेरिया, हरिओम राजोरिया, अंशु मालवीय जैसे कवि आलोचकों की नज़र से महरूम ही रहे।
लेकिन जिस तरह विष्णु जी ने भारतभूषण प्राप्त कविओं की परत दर परत खोली है वह पहली बार ही हुआ। हमने भी जब इसे पढा तो पहले यही लगा कि चलो किसी ने शुरुआत तो की! पर दुबारा-तिबारा में बात पलटने लगी।
कारण कई हैं- विष्णु जी ३० बरस इस पुरस्कार के निर्णायक मण्डल के सदस्य के हैसियत से जिन कविताओं के प्रशस्ति पत्रों पर हस्ताक्षर करते रहे आज वे अचानक इतनी बुरी क्यों हो गयीं? आखिर यह ग़ुस्सा और इमानदार वक्तव्य ऐसी किसी कूडा कविता के सम्मानित होने के बाद आने की जगह एक ऐसी कविता के चयनित होने के बाद क्यों आया जिसे वह ख़ुद इस पुरस्कार के काबिल मानते हैं? आख़िर वे कौन सी मज़बूरियां/प्रलोभन रहे कि वे तीस सालों तक ख़ामोश रहे? सच का देर और दुरस्त आना ग़लत नहीं पर देरी की वज़ह न बताने से शक़ की गुंजाईश तो होती है ना!
फिर इस सच में भी कई सच दफ़्न हैं। आख़िर कम से कम एक कवि की कविता को तो वह मंच से इस पुरस्कार के योग्य तब बता चुके हैं जब वह पुरस्कृत हुई भी नहीं थी। दूसरी उनके साथ एक पत्रिका में छपी पर उन्होंने छपने से पुरस्कार लेने तक उस पर कोई टिप्पणी नहीं की। अब इन पर अचानक जागे ज्ञानचक्षु ख़ुले तो कैसे? जैसे वह अब तक तमाम कविताओं पर सकारात्मक टिप्पणियां देते रहे हैं आखिर किस मज़बूरी के तहत वैसे ही ख़राब कविताओं पर वह तब सच नहीं कह पाये?
आज विष्णु जी जहां हैं वहां वह नुक्सान-फ़ायदे से ऊपर उठ चुके हैं। अब जब कोई ख़तरा नहीं बचा तो संत वेश धारण करना आसान है। यह सच मारक तब लगता जब उन ख़राब कविताओं के चयन पर वह उठ कर बाहर आ गये होते।
वैसे जिस आलोचक को उदय प्रकाश और अनामिका से बेहतर कवि विनोद भारद्वाज और हेमंत कुकरेती लगते हों उसके विशिष्ट काव्यबोध को समझ पाना आसान नहीं। शायद उन्हें वही कविता जमती है जिसे पढ़ पाना आसान नहीं। अब अंबुज जी पर कुछ कह पाना आसान नहीं था वरना उन्हें भी सिर्फ़ इस बात के लिये ख़ारिज़ किया जा सकता था कि उन्होंने लय को बचा कर क्यूं रखा?
अब इस आपाधापी में पाठक होता तो हम पूछते भाई तुम्हीं कहो कि सच क्या है?
नहीं है तो आलोचक जो कहे वही सच!!!

वैसे राजनीति में ज्ञानचक्षु तब खुलते हैं जब पार्टी बदलनी होती है… यहां क्या माज़रा है राम जाने!