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31 अक्टूबर 2010

बेचारे गरीब नेता!

निर्धन देश के धनवान सांसद


संतोष खरे
केंद्र सरकार ने सांसदों का वेतन तीन गुना से भी अधिक कर दिया है अब प्रत्येक सांसद 50 हजार रुपये वेतन के रूप में तथा उनके कार्यालय और चुनाव क्षेत्र का भत्ता 45 हजार रूपये साथ ही 10 हजार (कर रहित) संसदीय क्षेत्र का भत्ता दिया जायेगा। उनकी पेंशन की राशि भी बढ़ाकर 20 हजार रुपये कर दी गई है इसके अलावा अन्य सुविधायें जैसे निजी वाहन खरीदने के लिये मिलने वाला ब्याज मुक्त कर्ज चार लाख रुपये तक, सड़क से यात्रा करने पर 16 रुपये प्रति किलोमीटर की दर से, सांसद महोदय की पत्नी या पति अब जितनी बार चाहें एक्जीक्यूटिव श्रेणी से नि:शुल्क विमान यात्रा कर सकते हैं। सांसदों की सुविधा के लिये सरकार दो रुपये में चार चपाती, ढ़ाई रुपये में सादा डोसा, दो रुपये मे भरपेट चावल (बासमती या अच्छे ब्रांड के) बारह रुपये पचास पैसे में चार पांच सब्जी, रायता, रसम और मिष्ठान के साथ मिलने वाली शाकाहारी थाली प्रतिदिन संसद के शानदार भोजनालय मे उपलब्ध रहती है। (भले ही 20 रुपये रोज पर गुजर करने वाली सामान्य जनता साधारण से ढाबे पर इस कीमत पर भोजन प्राप्त न कर सके ) एक अनुमान के अनुसार भारत सरकार प्रति सांसद प्रतिवर्ष लगभग 57 लाख रुपये खर्च करती है।

सांसदों के वेतन भत्ते बढऩे के पीछे सांसदों का कड़ा संघर्ष है जब संसद के केंद्रीय कक्ष में स्वघोषित लालू प्रसाद यादव प्रधानमंत्री, गोपीनाथ मुंडे स्पीकर और मुलायम सिंह यादव संसदीय कार्यमंत्री बने तथा सदन स्थगित होने के बाद इन नेताओं ने अपनी मर्जी से सदन चलाना शुरू कर दिया और लगभग 70 मिनट तक ‘समानांतर संसद’ चलाई तब वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी को मजबूर होकर आश्वासन देना पड़ा कि सांसदों के वेतनवृद्धि के मसले पर पुर्नविचार किया जायेगा तथा पुर्नविचार किया भी गया और दस हजार रुपये मासिक करमुक्त भत्ता स्वीकृत किया गया। यह कुछ उसी तरह हुआ जैसे किसी औद्योगिक संस्थान की ट्रेड यूनियन हड़ताल कर अपनी मांगें मनवा लेते हैं। यह बात अलग है कि सांसद लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के अंर्तगत निर्वाचित प्रतिनिधि होते हैं जबकि कोई भी सचिव या शासकीय कर्मचारी का निश्चित सेवाकाल होता है तथा सेवा में आने के पूर्व उन्हे साक्षात्कार और योग्यताओं से गुजरना होता है वे अपने सेवाकाल में कोई निजी व्यापार अथवा आय का साधन अर्जित नहीं कर सकते, जबकि सांसदों पर ऐसा कोई नियम लागू नहीं होता। सांसद रहते हुये भी वे अपना निजी व्यवसाय/व्यापार कर सकते हैं और नं.2 की कमाई करने के स्रोतों की तो बात ही मत करिये। पैसे के बदले प्रश्र पूछने का घपला कोई बहुत पुराना नहीं है। ऐसी स्थिति में सांसद न रहने के बाद बीस हजार रूपया प्रतिमाह पेंशन लेने के औचित्य पर यदि देश की जनता प्रश्न चिन्ह लगाती है तो उसे गलत कैसे कहा जा सकता है!


लोकसभा में छद्म प्रधानमंत्री बनने के बाद लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव आदि ने एक और मांग की थी कि उन्हें करमुक्त वेतन दिया जाना चाहिये किंतु उनकी मांग को स्वीकार नहीं किया गया। सरकार ने शरद यादव के इस सुझाव को भी स्वीकार किया कि सांसदों के वेतन भत्ते निर्धारित करने के लिये अलग से समिति का गठन किया जाना चाहिये, जिसमें सांसदों की कोई भूमिका न हो किंतु ऐसी समिति के गठन के पूर्व ही सरकार ने सांसदों के वेतन-भत्ते बढ़ा दिये। सरकार सांसदों के वेतन भत्ते बढ़ाने के मामले में भरपूर दरियादिली दिखाती है पर उसकी यह ‘दरियादिली’ पता नही कहां चली जाती है जब वह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई सलाह कि सरकार द्वारा खरीदे गए अनाज के गोदामों की उचित व्यवस्था के अभाव में सडऩे के निकट पहुंच गए लाखों टन अनाज को गरीबों को मुफ्त या कम दाम पर दिया जाना चाहिये, को स्वीकार नहीं करती।


इस लोकसभा में तीन सौ सांसद करोड़पति हैं। आंध्रप्रदेश के कांग्रेस सांसद राजागोपाल के पास 2004 के चुनाव में नौ करोड़ 60 लाख की संपत्ति थी जो अब एक अरब 22 करोड़ हो गई। हरियाणा के कांग्रेसी सांसद नवीन जिंदल की 12 करोड़ 12 लाख की संपत्ति एक अरब 31 करोड़ हो गई है। 2004 में राहुल गांधी के पास 45 लाख की संपत्ति थी, जो 2009 में चुने जाने पर दो करोड़ 32 लाख की हो गयी। सुरेश कलमाड़ी की तीन करोड़ 94 लाख की संपत्ति 12 करोड़ 85 लाख की हो गयी। भाजपा सांसद मेनका गांधी की संपत्ति छह करोड़ 62 लाख की संपत्ति 17 करोड़ 60 लाख रुपये हो गई। लालू प्रसाद यादव की 86 लाख 69 हजार की संपत्ति तीन करोड़ 17 लाख की हो गई। शरद यादव की तीन करोड़ 27 लाख की संपत्ति आठ करोड़ 72 लाख हो गयी। यह श्रृंखला बहुत लंबी है और संक्षेप में कहा जाये तो कांग्रेस के जो करोड़पति सासंद हैं उनमें कमलनाथ, कपिल सिब्बल, श्रीप्रकाश जायसवाल, अजहरूद्दीन, मिलिंद देवड़ा, जितेन प्रसाद, शशि थरूर, महावल मिश्र, शैलजा, प्रिया दत्त, अनु टंडन और कृष्णा तीरथ हैं। भाजपा के करोड़पति सांसद यशोधरा राजे सिंधिया, सुषमा स्वराज, मुरलीमनोहर जोशी, राजनाथ सिंह, नवजोत सिंह सिद्धू, जसवंत सिंह, दुष्यंत सिंह और वरुण गांधी, सपा के करोड़पतियों में मुलायम सिंह यादव, जया प्रदा, उषा वर्मा, रेवती रमण सिंह, ब्रजभूषण दास सिंह और नीरज शेखर प्रमुख है। बसपा के सांसदों में जगदीश सिंह राणा, तबस्समु बेगम, सुरेंद्र सिंह नागर, राजकुमारी चैहान तथा भीष्मशंकर तिवारी आदि प्रमुख हैं। इसी प्रकार जनता दल यूनाइटेड, एन.सी.पी., डी.एम.के., टी.डी.पी. और बीजू जनता दल के सांसदों की संख्या कम नहीं है। कहा जा सकता है कि सभी दलों के सांसद इस मामले में एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। यह भी मानना पड़ेगा कि वेतन और भत्तो की वृद्धि के मामले में सभी दलों के सांसदों में भारी एकता है। और इसी कारण इस मामले में कम्युनिस्ट पार्टी के सांसदों को छोड़ शायद ही कोई सांसद असहमति या विरोध व्यक्त करता हो।


संसद के इतिहास में ‘छद्म लोकसभा’ पहली बार देखने-सुनने को मिली है। 70 सांसदों ने कार्यवाही में हिस्सा लिया। सांसदों की वेतन वृद्धि विधेयक पर चर्चा हुई और स्वघोषित प्रधानमंत्री ने उसे खारिज किया। देश के सामान्य नागरिक यह समझने में असमर्थ हैं कि संवैधानिक ढंग से गठित लोकसभा का अस्तित्व होने के बाबजूद छद्म लोकसभा गठित करने और इस हास्यास्पद/अवैधानिक ‘नाटक’ का क्या औचित्य था? क्या यह सदन की अवमानना नहीं थी? बजाय इसके कि इस कार्यवाही की निंदा या उपेक्षा की जाये, इससे आतंकित होकर सरकार ने उनके भत्तों की राशि में वृद्धि कर दी। आश्चर्य है कि इस असंवैधानिक, अवैधानिक, आधारहीन और हास्यास्पद कार्यवाही का किसी ने विरोध नहीं किया, उल्टे उसे गंभीरता से लिया। यह ‘छद्म लोकसभा’ यदि ‘परंपरा’ की तरह शुरू हुई तो ‘वास्तविक लोकसभा’ की गरिमा कैसे बनी रहेगी? बाद में लालकृष्ण आडवानी और सुषमा स्वराज ने भले ही इस संबंध में गोपीनाथ मुंडे से जबाब-तलब किया पर यह ‘तलबी’ इस आधार पर अधिक थी कि मुंडे ने भाजपा को लालू-मुलायम के पीछे कैसे खड़ा कर दिया? उधर राज्यसभा में अरुण जेटली ने भाजपा सांसदों से कहा कि कोई भी सांसद वेतन की मांग नहीं उठायेगा। उन्होंने तो यह भी कहा कि यदि वे वेतन की राजनीति करने आये हैं तो बेहतर होगा कि कोई और काम कर लें। सांसदों की जिनमें आडवानी, सुषमा और जेटली भी सम्मिलित हैं, वेतन भत्तों के वृद्धि स्वीकृत होने के बाद अब भाजपा के र्शीष नेताओं के द्वारा की गई यह कार्यवाही हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और की तरह नहीं है क्या?



सांसदों की इस वेतन वृद्धि के कारण होने वाले दूरगामी प्रभावों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिये। उपरोक्त वेतन वृद्धि के तत्काल बाद किसी आयोग के सदस्यों ने यहां मांग की है कि उनको मिलने वाले पारिश्रमिक में भी वृद्धि होनी चाहिये। इस तरह की मांग उठाना अस्वाभाविक नहीं। यदि सांसदों की तीन गुने से अधिक वेतन वृद्धि हो सकती है तो औरों की क्यों नहीं? अब तो यह भी संभावना है कि सांसदों की देखा-देखी विधायकों, पंचायतों के सदस्य, नगरपालिकाओं के पार्षद, सहकारी समितियों के सदस्य तथा अन्य सरकारी, अद्र्धसरकारी या स्वायत्त संस्थाओं के सदस्य इसी तरह की मांग उठाने लगेंगे। दिल्ली में तो यह हो भी गया है। उस स्थिति में सरकार क्या करेगी? उस दशा में करो का बोझ बढ़ता जायेगा। निर्वाचित सदस्य वे चाहे सांसद, विधायक, पार्षद, पंचायतों के सदस्य आदि कोई भी हो, है तो जनप्रतिनिधि, जिनका मुख्य कार्य जनसेवा है। जनसेवा के साथ ऊंचा पारिश्रमिक कहां तक उचित कहा जा सकता है? जन सेवक कोई वेतनभोगी कर्मचारी में अंतर होता है। गांधी, नेहरू, शास्त्री के जमाने में इस तरह सरकारी धन की बंदरबांट कभी नहीं हुई। यही कारण है कि जब जनप्रतिनिधि स्वयं के लिये वेतन या पेंशन वृद्धि की मांग करते हैं या अधिक सुविधायें चाहते हैं और सरकार उन्हें स्वीकार करती है तो जनता प्रकट में भले ही कुछ न कहे पर उसके मन में उनके खिलाफ असंतोष उपजता है। जनता अपने स्तर पर यही कर सकती है कि अगले चुनाव मे ऐसे ‘लालची नेताओं’ को वोट न दे। पर बिडंबना यह है कि जहां लोकसभा में आधे से अधिक सांसद अपराधी या दागी हों और जो चुनाव जीतने की कला में माहिर हों उनसे देश की जनता किस तरह निपटेगी?



इन पंक्तियों के लेखक ने ‘समयांतर’ (अक्तूबर 2006) मे एक आलेख ‘कितने लाभ लेगे सांसद?’ के माध्यम से यह आशंका व्यक्त की थी कि ‘कानून के निर्माताओ के द्वारा स्वयं के लिये मनमाने ढ़ंग से वेतन या पेंशन बढ़ाने या अन्य सुविधाओ के लिये कानून बनाने की प्रक्रिया पर यदि न्यायालयों के द्वारा रोक नहीं लगाई गई तो इस शक्ति का दुरूपयोग होता रहेगा’………और यह सच्चाई अब सामने आ गई है। सरकार कानून बनाने की शक्तियों का खुला दुरुपयोग कर रही है। स्वंतत्रता के 63 वर्षों के बाद क्या इस देश के लोकतंत्र का यही अर्थ रह गया है?

06 जून 2010

जाति की जनगणना पर इत्ते पैसे क्यूं खर्च करना भाई!!

हर तरफ़ बहस चल रही है कि जाति की गणना जनगणना में शामिल होनी चाहिये कि नहीं…

मेरी समझ में यह नहीं आता कि अगर होनी चाहिये तो इसमें सरकार को इतने पैसे ख़र्च करने की क्या ज़रूरत है? मेरे पास एक आसान फार्मूला है…

पिछले चुनाव में जितने विधानसभा या लोकसभा के उम्मीदवारों (ख़ास तौर पर हारे हुए) का एक सम्मेलन बुलाया जाय। उन सबसे विधानसभा वार या चाहें तो गांव और मोहल्ला वार जाति की सारी डिटेल्स मिल जायेंगी…

तो भाई… आधिकारिक सरकारी गणना में हमें तो बस इतनी सी शिक़ायत है!!

02 जून 2010

मर्सियों के बीच एक छोटी सी टीप

(आज सुबह से जहां गया बंगाल के स्थानीय निकायों के चुनावों का तिया-पांचा हो रहा है। इनमें हुई वाममोर्चे की शिकस्त को यूं पेश किया जा रहा है जैसे कि बस्तील ढह गया।ठीक भी है…इतनी लंबी पारी के बाद पहली बार  इस क़दर बीट हुए हैं कि आऊट होने का ख़तरा साफ़ दिख रहा है। वैसे कम लोगों को याद होगा कि जिस चुनाव के बाद मोदी अपराजेय से होकर उभरे उसके ठीक पहले हुए स्थानीय निकाय में उन्हें पटखनी मिली थी लेकिन जो लोग इसका मर्सिया पढ़ रहे हैं या फिर इसके उल्लास में पागल हुए जा रहे हैं उनसे कुछ सवाल तो किये ही जा सकते हैं। इसी क्रम में आदरणीय दिनेश जी के ब्लाग अनवरत की एक पोस्ट पर की गयी टिप्पणी यहां लगा रहा हूं।)

यह सच है कि बंगाल में सी पी एम की हार हुई है…यह एक तरह से संसदीय वाम की भी हार है। सीपीएम को मैं भी संशोधनवादी मैं भी मानता हूं।


आगे की सोचिये कामरेड
 एक सवाल है कि जो गैरवामपंथी लोग यहां आकर मर्सिया पढ़ रहे हैं … ऐसे कि जैसे चुनावी राजनीति में कभी किसी पार्टी की हार हुई ही नहीं उनके सीने तब क्यूं नहीं फटे जब इन्दिरा गांधी और राजीव गांधी जैसे तुर्रम खां हार गये, जब मीडिया द्बारा बनाये गये महान नेता अटल बिहारी बाजपेयी धूल चाटने पर मज़बूर हुए,उत्तर प्रदेश में कल्याण और भाजपा अर्श से फर्श पर आ गयीं… चुनावी राजनीति में हार क्या इतना बड़ा मुद्दा है? आज सी पी एम से जो सवाल पूछे जा रहे हैं वे उनसे क्यों नहीं पूछे गये। 

साफ है कि यह बस अंधवामविरोधियों के विराट दुष्प्रचार का हिस्सा है जिसमें कई बार घोषित वामपंथी भी फंस जाते हैं। जहां और जगहों पर पांच सालों में एंटी इन्कमबेन्सी का राग अलापा जा सकता है तो वही लाजिक तीसेक सालों के वाम शासन पर क्यों नहीं? अटल बिहारी की हार पर जनता को कोसने वाले लोग यहां लोकतंत्र के कसीदे काढ़ रहे हैं…

क्या यह एक बेहतर विकल्प है
क्या यह मान लिया गया है कि वाम बंगाल में फिर शासन में नहीं लौटेगा? क्या उसके विकल्प में उभरी अवसरवादी-अराजक ममता बनर्जी से वाकई बड़ी उम्मीदें पाली जा सकतीं हैं? क्या अपने भ्रष्टतम रूप में भी वाम मोर्चा सरकारें भाजपा,बसपा,कांग्रेस या समाजवादी दलों से बेहतर नहीं रही हैं? क्या आंकड़ो की कसौटी पर कंगाल बनाने वाला तर्क सही उतरता है?

यह एक चुनावी हार है। यह सीपीएम और उसके साथियों को अपनी रणनीति,कार्यनीति और साथ ही संसद्परस्त राजनीति पर पुनर्विचार का अवसर उपलब्ध कराती है। अगर वे ऐसा कर सके तो चुनावी हार के जीत में बदलते देर नहींं लगेगी।


बंगाल का पतन बस्तील का पतन नहीं है…

सी पी एम के क्रांतिकारी चरित्र पर पूर्ण अविश्वास के बावज़ूद मैं उसे एक सामाजिक जनवादी पार्टी मानता हूं और संसदीय लोकतंत्र में साप्रदायिकता विरोधी तथा पूंजीवाद विरोधी पक्ष के रूप उसकी उपस्थिति को भी ज़रूरी मानता हूं। 

16 फ़रवरी 2010

क्या आपके पास नक्सलवादी साहित्य है?

कोई दो साल पहले महाराष्ट्र में कहीं एक पुस्तक मेले से एक महिला कार्यकर्ता को गिरफ्तार किया गया था। उन पर आरोप था कि वह नक्सलवादी साहित्य बेच रही थीं। जिन किताबों के चलते उन पर यह आरोप लगाया गया था उनमें मार्क्स-एंगल्स-लेनिन की किताबों के साथ भगत सिंह के लेखों का संकलन भी था। बताते हैं कि पुलिस अधिकारी ने उनसे कहा कि - ग़ुलामी के वक़्त भगत सिंह ठीक था पर अब उसकी क्या ज़रुरत?
इसके बाद तमाम पत्रकारों, कार्यकर्ताओं आदि की गिरफ़्तारी के बाद यह जुमला सुनने को मिला। हालांकि कभी साफ़ नहीं किया गया कि यह नक्सलवादी साहित्य है क्या बला? जैसे इस बार सीमा आज़ाद के संदर्भ में चे की किताबों का नाम आया तो मुझे पुस्तक मेले का एक वाकया याद आया। संवाद के स्टाल पर एक बिल्कुल युवा लड़की इस ज़िद पर अड़ गयी कि उसे स्टाल पर लगे बड़े से फ्लैक्स बैनर का वह हिस्सा काट कर दे दिया जाय जिस पर चे की फोटो (दरअसल उन पर लिखी एक किताब की) लगी है। आलोक ने टालने के लिये किताब के बारे में, या उनकी एक दूसरी किताब का अनुवादक होने के कारण मुझसे मिलने के लिये कहा। मैने जब उससे चे में दिलचस्पी की वज़ह पूछी तो बोली कि '' बस वह मुझे बहुत एक्साईटिंग लगता है!"

ऐसे ही एक मित्र ने जब माओ की कवितायें देखीं तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि माओ कवि भी हो सकते हैं। पढ़ने के बाद बोले 'यार नेता कैसा भी हो कवि शानदार है।' ज़रा सोचिये माओ के लिखे की प्रशंसा करने वाले वे सज्जन नक्सलवादी साहित्य के पाठक होने के आरोप में अन्दर नहीं किये जा सकते क्या? वैसे मैने दर्शन के विद्यार्थियों को 'ज्ञान के बारे में' या 'अंतर्विरोध के बारे में' जैसे लेख पढ़ते देखा है…बेचारे!
क्या एक जिज्ञासु पाठक होना पुलिसवालों की हत्या, रेल की पटरियां उखाड़ना और आगजनी जितना बड़ा अपराध है?
मेरी समझ में यह नहीं आता है कि जो किताबें मेले के स्टालों में ख़ुलेआम बिकती हैं या बाज़ार में सर्वसुलभ हैं वे किसी के हाथ में पहुंचकर नक्सलवादी साहित्य कैसे हो जाती है?
पढ़ना गुनाह कबसे हो गया?

10 जनवरी 2010

सरकार के पास गरीबी हटाने के लिए पैसा नही है!


ग़रीब कौन है? सरकारी आंकड़ों के हिसाब से अब तक तो वह ग़रीब था जो कैसे भी ज़िन्दा रहने भर का राशन जुगाड़ लेता था। आलोचनायें हुईं तो फिर से विचार किया गया और अब तेंदुलकर समिति कहती है कि ग्रामीण क्षेत्रों 444रुपये 68 पैसे और शहरी क्षेत्रों में 578 रुपये और ८० पैसे कमाने वाला ग़रीब नहीं है। इस आधार पर दैनिक उपभोग की राशि शहरों में लगभग 19 रुपये और गांवों में लगभग 15 रुपये ठहरती है जो विश्वबैंक द्वारा तय की गयी अंतर्राष्ट्रीय ग़रीबी रेखा (20 रुपये) से कम है। यह हाल में आयी सक्सेना समिति की रिपोर्ट से बिल्कुल अलग है।


इस पूरी बहस को विस्तार से यहां क्लिक करके पढ़ सकते हैं।


ग़रीबी रेखा के रूप में आय या आवश्यक कैलोरी उपभोग के किसी एक ख़ास आंकड़े को विभाजक बना देना रोज़ बदलती क़ीमतों और रोज़गार की अनिश्चितता की रोशनी में दरअसल एक भद्दा मज़ाक है। जब दाल 90 रुपये, चावल 20 रुपये, आटा 17 रुपये किलो बिक रहा है, डाक्टरों की फीस आसमान छू रही है, दवायें इतनी मंहगी हैं और बसों तथा रेलों से कार्यस्थल तक पहुंचने में ही 10-15 रुपये ख़र्च हो जाते हैं तो दिल्ली में बैठकर यह तय करना कि 15 या 20 रुपये रोज़ में एक आदमी अपना ख़र्च चला सकता है और उससे अधिक पाने वालों को सहायता देने की कोई ज़रूरत नहीं है उस सरकार की प्रतिबद्धता को स्पष्ट कर देता है जो पिछले साल पिछले बज़ट में पूंजीपतियों को सहायता और करों में छूट के रूप में 4,18,095 करोड़ रुपयों की सौगात दे चुकी है।

08 नवंबर 2009

पटियाला से लौटकर


(कल ही लौटा पटियाला से। इंडियन पोलिटिकल इकोनोमी एसोशियेशन का सेमीनार था।


जाने माने अर्थशास्त्री कमल नयन काबरा जी और उनके साथियों की अथक मेहनत और प्रतिबद्धता से पिछले तेरह सालों से अनवरत चल रहा यह प्रयास खांटी अकादमिक संगोष्ठियों से बिल्कुल अलग सा है। देश के कोने कोने से सामाजार्थिक विषयों के प्रतिबद्ध बुद्धिजीवी अपने खर्चे से आते हैं...बहस मुबाहिसे करते हैं और कुछ बेहतर बनाने के ज़ज्बे से जूझते हैं।

इस बार केन्द्रीय विषय थे -- भूमण्डलीय आर्थिक संकट और भारत, अस्मिता की राजनीति और चुनावी परिदृष्य तथा दक्षिण एशिया में असंतोष और संघर्ष। मैने अंतिम विषय पर अपना पर्चा लिखा था… उसी का एक हिस्सा यहां)


दक्षिण एशियाई देशों की अपनी विशिष्ट सामाजार्थिक- सांस्कृतिक- राजनैतिक स्थिति के कारण समकालीन विश्व में एक विशिष्ट स्थिति है, और यह केवल समकालीन विश्व के लिये ही नहीं अपितु पूरे मध्यकाल के लिये सच है। औद्योगीकरण के पहले भी विश्वव्यापार तथा राजनीति में दक्षिण एशिया की अहम भूमिका थी। यही कारण था कि यह क्षेत्र शेष विश्व के लिये कौतूहल, आकर्षण तथा लोभ तीनों का केन्द्र रहा। तमाम जातीय समूहों के निरन्तर आवागमन के कारण यह क्षेत्र विभिन्न सांस्कृतिक, धार्मिक समूहों के घात-प्रतिघात के फलस्वरूप एक बहुजातीय, बहुधार्मिक तथा बहुसांस्कृतिक क्षेत्र बना। सामंती शासन के भीतर पनपे इन समाजों में इन सबके बीच एक खास तरह की एकता भी रही और निश्चित तौर पर खास किस्म के अन्तर्विरोध भी। सामंती समाजों के विघटन और पूंजीवाद में संक्रमण की सामान्य प्रक्रिया ( जैसा कि यूरोप में हुआ) में अवश्यंभावी था कि इस समाज के तमाम पुराने अंतर्विरोध हल होते और उनकी जगह पर अधिक उन्नत अंतर्विरोध पैदा होते। परंतु इस प्रक्रिया के बीच औपनिवेशिक शासन के परिदृश्य पर उभरने और केन्द्रीय भूमिका में आने से ऐसा संभव नहीं हुआ। जाहिर तौर पर औपनिवेशिक शासन के इस हस्तक्षेप ने पूरी प्रक्रिया को बाधित ही नहीं किया अपितु अपने पितृदेशों के आर्थिक-राजनैतिक हितों के अनुरुप मोडने के प्रयास किये। स्वाभाविक तौर पर इसने विकास की स्वाभाविक गति को उलट-पुलट दिया। यहां जो पूंजीवाद जन्मा वह, जैसा कि अक्सर कहा जाता है, सतमासा और बीमार पूंजीवाद था जिसने जन्मकाल से ही तमाम संक्रामक व्याधियों को जन्म दिया। सामंती समाज के विघटने के साथ जातिप्रथा, सांप्रदायिकता, अंधविश्वास जैसी इसकी लाक्षणिकतायें मूलाधारों में बनी रहीं और स्वाभाविक तौर पर इसका प्रतिफलन समय-समय पर सुपरस्ट्रक्चर में भी दिखाई देता रहा। आर्थिक विषमताओं की खाई तो चैडी हुई ही साथ में व्यक्ति की अस्मिता के सम्मान, स्त्री अधिकारों के प्रति जागरुकता और श्रम के सम्मान जैसे आधुनिक मूल्य भी सामाजिक चेतना का हिस्सा नहीं बन सके। दरअसल लोकतंत्र के राजनैतिक व्यवस्था का हिस्सा बनने के बावजूद यह एक बोध के रूप में सामाजिक चेतना का हिस्सा नहीं बन सका, कई बार तो समाज के सबसे उन्न्त वर्ग की चेतना का भी नहीं।


ग्राम्शी की शब्दावली का प्रयोग करें तो पूरे दक्षिण एशिया में उत्पादन संबधों में परिवर्तन किसी प्रत्यक्ष या निर्णायक क्रांति की जगह लेन-देन और समझौतों पर आधारित निष्क्रिय क्रांति द्वारा हुआ। यही वज़ह रही कि पूंजीवादी अधिरचना द्वारा सामंत-ज़मींदारों की धीरे-धीरे पूरी तरह आत्मसात कर लिए जाने के बावजूद जातिवाद, जेण्डर आधारित भेदभाव, अवैज्ञानिकता तथा अंधविश्वास और सांप्रदायिकता जैसे सामंती अवशेष मूलाधारों में विषाणुओं की तरह हमेशा मौजूद रहे और अनुकूल परिस्थितियों मिलते ही विषबेल की तरह पसर गये।

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प्राकृतिक तथा मानवीय संसाधनों की लूट की बहुराष्ट्रीय कंपनियों की अगाध पिपासा और शासक वर्ग की उनके साथ अनन्य प्रतिबद्धता ने ही वह स्थिति पैदा की है कि उडीसा में वेदान्त और झारखण्ड तथा छत्तीसगढ में अनेकानेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों की खनन योजनाओं को अमली जामा पहनाने के लिये इस क्षेत्र को मुक्त कराने के लिये एक चुनी हुई सरकार अपने ही नागरिकों के खिलाफ आपरेशन ग्रीन हंट करने जा रही है। संरक्षक से शिकारी की भूमिका में बदल चुके शासक वर्ग के खिलाफ असंतोष बढना और उसकी निरंतर और अधिक अतिवादी अभिव्यक्तियां स्वाभाविक ही हैं। साथ ही इस बात की भी पूरी संभावना है कि एक सही लोकतांत्रिक चेतना के अभाव में ये कालांतर में जातीय तथा सांप्रदायिक संघर्षों के रूप में अभिव्यक्त हों।

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29 अगस्त 2009

ताकि सच ज़िन्दा रहे

(यह ख़बर गोरखपुर से मित्र चक्रपाणि ने भेजी है। चक्रपाणि वहां छात्र आंदोलन में सक्रिय हैं।)

गोरखपुर। पूरे देश में नक्सलवाद-माओवाद के नाम पर सरकार तथा पंूजीवादी मीड़िया आमजन में दहशत का माहौल निर्मित करने का बखूबी प्रयास कर रहे हैं। हर जनान्दोलन को नक्सलवाद का नाम देकर उसे कुचुलने का प्रयास किया जा रहा है।

ऐसी ही एक खबर पिछले दिनों 22 अगस्त 09 को गोरखपुर के प्रतिष्ठित दैनिक समाचार पत्र (अमर उजाला) में प्रकाशित हुई। खबर का शीर्षक लगाया गया था ‘‘नक्सली आमद ने उड़ाये होश’’। समाचार के बीच में एक तस्वीर थी जिसमें एक व्यक्ति बंदूक लिए, अपने मँुह को बाॅधे हुए एकदम आतंकी जैसा प्रतीत हो रहा था।

खबर में यह बताया गया था कि पुलिस को सूचना मिली कि नक्सली महानगर में प्रवेश कर चुके हैं तथा स्टेशन स्थित किसी होटल में ठहरे हैं। पुलिस ने जब सैकड़ों की संख्या में वहाँ छापा डाला तो वहाँ कोई माओवादी या नक्सलवादी नही मिला बल्कि तीन निर्दोष युवक पकड़े गये जिन्हे जांॅच के बाद छोड़ दिया गया।

खबर के द्वारा यह जाना जा सकता है कि गोरखपुर में नक्सलियों की सुगबुगाहट मात्र एक वर्ष पूर्व से हुई है। जब से गोरखपुर विश्वविद्यालय के दो छात्र नक्सलियों के प्रदेश कार्य समिति में चुने गये हैं। खबर में इस बात का हवाला दिया गया है कि जून 2008 में नैनीताल में देश के सारे नक्सली एकत्रित हुये थे। जिसमें बरेली के छात्रनेताओं को अध्यक्ष व उपाध्याक्ष चुना गया था।

खबर को पढ़ने से यह ज्ञात होता है कि कुछ माह पूर्व कुशीनगर में भी यही बातें प्रकाश में आयी थी। पत्रकार महोदय की माने तो देवरिया और कुशीनगर में नक्सलियों ने अपना नेटवर्क तैयार कर लिया है तथा गोरखपुर-बस्ती की ओर प्रयासरत है।

शाबाश! ‘अमर उजाला’ के मेहनती पत्रकार महोदय इतनी मेहनत से आपने खबर लिखी। शायद इतनी मेहनत अगर आपने अपने अखबार के लिए ‘विज्ञापन’ जुटाने में किया होता तो आपको कुछ फायदा हुआ होता। लेकिन आपने तो अपनी असलियत ही दिखा दिया। पत्रकार महोदय अगर आपको पूर्वांचल के लोगों से इतना ही प्रेम है तो आप ‘इंसेफलाइटिस’ जैसी जानलेवा बीमारी के बारे में जन प्रातिनिधियों और सरकार के खिलाफ खबरे क्यों नही लिखते? आप ‘मैत्रेय परियोजना’ के खिलाफ खड़े किसानांे की मांगो के समर्थन में खबर क्यो नही लिखते? वर्षो से ‘खाद कारखाना’ बंद है उसे खोलने के लिए सरकार पर खबर लिखकर दबाव क्यों नही बनाते? विश्वविद्यालय में सीट वृद्धि की समस्या के बारे में प्रमुखता से क्यों नही लिखते? पूर्वाचल के शिक्षा माफियों के खिलाफ खबरे क्यों नही लिखते? लेकिन शायद आपकी चिन्ता का विषय यह खबरें नही बनती। क्योंकि आप जैसे पत्रकारों ने तो देश में भय का माहौल कायम करने का ठेका ले रखा है।

उक्त समाचार को पढ़कर कुछ सवाल खडे होते हैं कि सम्मानित पत्रकार महोदय यह बतायें कि गोरखपुर के आसपास के जिलों में जिनकी आप चर्चा करते हैं आज तक कितनी नक्सली घटनायें हुई है। होटल में जब पुलिस छापा डालती है तो इसका समाचार सिर्फ केवल आपके ही सामाचार पत्र में छपता है क्या अन्य अखबार वाले सो गये थे। क्या आपने कभी विश्वविद्यालय प्रशासन से यह जानना चाहा कि उसके यहाँ दो छात्र नक्सली हैं उन्होने परिसर में कितनी वारदातों को अंजाम दिया है?

बतातें चलें कि एक वर्ष पूर्व भी जब ‘परिवर्तनकामी छात्र संगठन’ का ‘छठा सम्मेलन’ समाप्त हुआ था तब भी गोरखपुर के एक प्रमख हिन्दी दैनिक ‘राष्ट्रीय सहारा’ ने भी इसी तरह की खबर प्रकाशित की थी। फिर हद तो तब हो गई थी जब ‘रामनगर नैनीताल’ से प्रकाशित ‘‘नागरिक अधिकारों को समर्पित’’ (हिन्दी पाक्षिक)के पाठको तथा वितरको के ऊपर प्रशासन द्वारा हमले शुरू कर दिये गये। ‘नागरिक’ पढने वालो को अखबार पढ़ने से रोका गया, अखबार को नक्सल समर्थित बताया गया। पाठको में भय का माहौल निर्मित करने का प्रयास प्रशासन के अधिकारियों ने किया। कई स्थानो पर तो नागरिक पाठको से वसूली तक की गई।

कुल मिलाकर सच तो यह है कि अगर आप इस जनविरोधी पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ बोलते है, लिखते है, पढ़ते हैं तो आप सरकार की नजर में ‘नक्सलवादी-माओवादी’ हैं। ऐसे में पंूजी के इस लोकतंत्र में व्यक्ति या संगठनों को बोलने तक की आजादी नहीं रह गयी है। इस देश की मीडिया भी सरकार के साथ इस खेल मे शामिल है।

24 अगस्त 2009

सत्ता के चुम्बक बिना बिखरती भाजपा

जसवंत सिंह गए... सुधीन्द्र कुलकर्णी और अब अरुण शौरी भी मानो जाने के लिए बेकरार हुए जा रहे हैं। आज एन डी टी वी के वाक द टाक पर जनाब भाजपा को डूबता जहाज बता रहे थे तो राजनाथ सिंह को ''एलिस इन ब्लण्डरलैण्ड'' …रूडी ने सही कहा वे अपने ख़िलाफ़ कार्यवाही चाहते हैं।

और निश्चित रूप से यह सूची यहीं ख़त्म नहीं होती…कल तक ख़ुद को पार्टी विथ डिफ़रेंस बताने वाली पार्टी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यह सिर्फ़ पार्टी फ़ार पावर थी। सत्ता के मलाई की बंदरबांट के लिये एकता का नाटक बस तब तक चला जब तक सत्ता की उम्मीद बची थी और इस चुनाव के नतीज़ों से अपनी नियति जान लेने के बाद अब बेचैन हो कर यहां-वहां फ़ुदकने के चक्कर में हैं। न अब धर्म के प्रति इनकी नक़ली आस्था इन्हें बांध पा रही है ना कांधारी राष्ट्रवाद।

दरअसल, संघ परिवार इस वक़्त एक बेहद उलझन के दौर से गुज़र रहा है। जब तक सत्ता में नहीं था धर्म, राष्ट्र और सिद्धांत की हवाई बातें कर इसने अपनी एक आभासी छवि तैयार की थी। अपने सामंती चरित्र के कारण जनता का एक तबका इससे प्रभावित हुआ तो कांग्रेस की जनविरोधी नई आर्थिक नीतियों के चलते वंचना का शिकार पीले बीमार चेहरे वाला युवा वर्ग झूठे अहम और अस्मिता की तलाश में इस तक पहुंचा।

लेकिन सत्ता के दौर में इन सबके सम्मुख यह स्पष्ट हो गया कि यह पार्टी दरअसल पूंजीपतियों की सबसे विश्वस्त सेवक है और राम की आड बस मालिकों की सेवा करने और बदले में उनसे प्राप्त उत्कोच भकोसने के लिए है। आखिर इन शौरी साहब के विनिवेश मंत्री रहते हुए किए कारनामे कौन भूल सकता है। आज संघ की बीन बजा रहे शौरी हमेशा से संघ के प्रिय रहे हैं और साथ ही निजीकरण और उदारवाद के पक्के समर्थक । मोदी भी एक साथ संघ और पूंजीपतियों के प्रिय हैं।

खैर सत्ता और सत्ता की उम्मीद दोनों के चले जाने के बाद अब ये चाकर दूसरे रास्ते तलाश रहे हैं तो इसमे अचरज कैसा।

05 अगस्त 2009

90 years later, Rosa Luxemburg's remains are found By Ingo Niebel


Gara A CubaNews translation by Giselle Gil.Edited by Walter Lippmann


Sooner or later victims reappear and demand justice। This typical crime novel thesis has been confirmed once more in Germany। Michael Tsokas, director of Pathology at the Charité hospital in Berlin, has reported the existence of a body that could be that of communist leader Rosa Luxemburg This charismatic communist leader was killed and made to disappear by right-wing militarists in 1919। The crime was perpetrated with the blessings of the German Social Democrats, one of its perpetrators acknowledged in 1970। The possible appearance of Luxemburg's remains will have consequences for the Social Democratic Party of Germany (SPD) in a very important election year। This party is fighting for its survival as a mass party। When Michael Tsokas became head of Pathology at the Charité hospital in 2007 he came across the remains of an anonymous woman who had been part of his institute's collection for 90 years। The body is missing its head, arms and legs। After two years of research, Tsokas made the results of its findings public: he believes that these are the remains of communist heroine Rosa Luxemburg, because the skeleton measured one and a half meters and has a hip deformation consistent with the political activist’s characteristic way of walking। However, Tsokas' finding is inconsistent with the report drafted by the two most prestigious German coroners in 1919। It seems they performed an autopsy on another woman’s body, whose hip was perfect। Furthermore, the wound they found in her skull is not consistent with the brutal blow inflicted with a rifle butt Luxemburg received, before she was shot in the temple at close range।


MANY QUESTIONS: Who was buried with her comrade Karl Liebknecht on June 19, 1919 in the Friedrichsfelde cemetery in Berlin under the name of Rosa Luxemburg? Who ordered this violation of the law? Did the SPD, governing at the time, pressure the forensic experts into falsifying an autopsy so as to rapidly take a dead woman who was still causing them serious problems off their hands? This recent discovery does not change the historical facts। On January 15, 1919, several soldiers led by the ultra right-wing official Waldemar Pabst, arrested Luxemburg and Liebknecht after the failure of a communist uprising in Berlin. They took the two activists to their headquarters where they tortured them brutally. Pabst ordered them killed after receiving approval from the highest echelons of the SPD. The party was carrying out an uncompromising struggle for power against all political parties to their left. They did it with the support of the most reactionary forces of the defunct monarchy. During that civil war, rightwing soldiers executed thousands of leftists without any trial. In 1962 Pabst acknowledged that the Minister of War, Gustav Noske (SPD) authorized all the deaths. In 1970, he added that the authorization required the endorsement of the president and head of the German SPD, Friedrich Ebert. That night in January, Liebknecht was shot in the back. His body was then handed over to the police, claiming he died during an “escape attempt ". The lifeless body of Luxemburg was thrown in one of the channels of Berlin, where it appeared four months later.


REQUEST FOR A PROPER BURIAL Tsokas believes the arms and legs are missing, because they tied weights to the body with cables and, in an advanced state of decomposition, the cables cut them off। The coroner did not rule out that the skull could have disappeared, because at that time pathologists included the head of the famous in their macabre collections। Now, he is expecting that a DNA test will reveal the identity of the dead woman. A niece of Luxembourg is now living in Warsaw. Should Rosa Luxemburg’s identity be confirmed, the head of the Die Linke parliamentary group, Gregor Gysi, will demand from the President, from the Federal Government and from Linke a proper burial in the “cemetery of the Socialists" in Berlin. Every second Sunday in January, thousands of activists pay tribute here to those who died for a better world. In this election year, Die Linke could take advantage of the appearance of Luxemburg in the battle of ideas against the SPD, not just by clarifying the collaboration established by the social democrats with the extreme right-wing in 1919, but also by clarifying the doubts concerning the alleged suicide with firearms of the high echelon of the Red Army Faction (RAF) in a high-security prison in 1977. These violent deaths occurred when Helmut Schmidt was head of the social democratic government.


(यह लेख कामरेड राव ने उपलब्ध कराया)



31 जुलाई 2009

एक और बाबरी?

पुरानी मस्जिद का गिराया जाना
चक्रपाणि
पिछले दिनों उ0प्र0 के गोरखपुर महानगर में स्थित एक प्राचीन मस्जिद गिराने का मामला प्रकाश में आया। उक्त मस्जिद से आमजन को किसी भी प्रकार की कोई असुविधा नही हो रही थी। लेकिन गोरखपुर जिला प्रशासन ने सरकारी जमीन पर अवैध कब्जे का हवाला देतें हुए पिछले दिनों बुलडोजर लगाकर ढ़हा दिया। इस घटना के बाद शहर का माहौल तो नही बिगड़ा लेकिन अल्पसंखयक समुदाय में जर्बदस्त नाराजगी व्याप्त है। सर्वविदित है कि गोरखपुर के ऐसा शहर है जहाॅ सामप्रदायिक दंगे छोटी-छोटी बातों को लेकर भडक जातें है यहां सामप्रदायिक दंगा भडकाने तथा अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ जहर उगलने का काम यहां के सांसद व गोरक्षपीठ के उत्तराधिकारी योगी आदित्यनाथ अक्सर किया करते है। मस्जिद मिराने के पीछे यह तक दिया जा रहा है कि वह सरकारी जमीन में थी। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या जिलाप्रशासन उन सारे स्थानों को खाली कराने की हिम्मत रखता है जो कि हिन्दू मंदिरों के नाम पर कब्जा किये गये है। चाहे वह गोरखपुर विश्वविद्यालय के पास सडकों के किनारे बने भव्य मंदिर हों या गोलघर या फिर रेलवे स्टेशन रोड पर बने अनेक मंदिर क्या ये मंदिर आतिक्रमण या अवैध कव्जों के अन्तर्गत नही आते ?
अगर मस्जिद के बजाय किसी हिन्दू मंदिर पर इस प्रकार की विध्वंसक कार्यवाही हुई हाती तोे, सडक से लेकर संसद तक बवाल मचगया गया होता लेकिन यह मामला अल्पसंख्यक समुदाय का होने के नातें कोई बोलने को तैयार नही है पढा-लिखा मुस्लिम तबका शांतिपूर्ण तरीके से अपना विरोध दर्ज करा रहा है। वह कोई उग्र कार्यवाही से बच रहा हे वह नही चाह रहें है कि शहर का माहौल बिगडे क्योकि मौका पातें ही हिन्दु युवावाहिनी के लम्पट तत्व शहर को सामप्रदायिकता की आग में जला डालेगे । मुस्लिमों के बीच भय का माहौल सिर्फ गोरखपुर मे ही नहीं बल्कि पूरे देश में व्याप्त है हर जगह अल्पसंख्यक समुदाय के ऊपर अक्सर हमले होतें रहे है। बतादे कि जबसे गोरखपुर में यह घटना घटी है तबसे पुलिस प्रशासन द्वारा पुलिस बल को दंगा भडकने की स्थिति में कैसे कार्य किया जाता है इस बात का प्रशिक्षण दिलाया जा रहा है। गली मुहल्लों में सौकडो की संख्या में पुलिस मार्च कराया जा रहा है। पुलिस अधिकारियों द्वारा बताया जा रहा है कि यह सब जनता की सुरक्षा द्वारा के लिए किया जा रहा है। लेकिन प्रशासन की मंशा साफ है वह पुलिसया मार्च करा कर आमजन को भयग्रस्त करना चाहते है।
खैर यह घटना चाहे प्रदेश की बसपा सरकार के इशारे पर हुई हो या किसी साम्प्रदायिक व्यक्ति के इशारे पर अगर शहर में कोई साम्प्रदायिक दंगा फैलता है तो नुकसान यहां के निर्दोष नागरिकों का ही होगा। साम्प्रदायिक ताकतें तो हमेशा की भांति फसल काटने की तैयारी करेगी। इतना तो तय है कि ये प्रतिक्रियावादी ताकतें भले ही ऐसी कार्यवाही प्रायोजित कर अपनी क्षुद्र राजनीतिक रोटी सेकने का प्रयास करें लेकिन बुद्ध, कबीर, प्रेमचन्द्र, फिराक, बिस्मिल की जमीन के अमन पसन्द नागरिक शहर का माहौल बिगडने नहीं देगें।
(लेखक, समाजिक कार्यकर्ता है।)
सम्पर्क सूत्र- 09919294782

02 जुलाई 2009

विद्यार्थी और राजनीति

(यह पर्चा आज हुए ऐ आई एस ऍफ़ के भोपाल में हुए राज्य सम्मलेन के लिए लिखा गया था। लौट कर आया तो सोचा आप को भी पढाया जाए )

छात्र और राजनीति का सवाल नया नहीं है। हमेशा से ही छात्रों से यह कहा जाता रहा है कि कालेज और विश्वविद्यालय पढ़ने लिखने की जगहें हैं न कि राजनीति की। यहां तक कि आजादी की लड़ाई के दौर में भी जब पूरे देश में नौजवान ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्षरत थे , यह कहने वालों की कोई कमी नहीं थी- इसीलिए तो भारतीय युवा की क्रांतिकारी चेतना के प्रतीक “शहीद भगत सिंह को ‘विद्यार्थी और राजनीति’ नामक लेख लिखकर इस विचार का प्रतिकार करना पड़ा। लेकिन यह एक लेख इस धुंध को छांटने के लिए पर्यप्त नहीं था और वर्तमान समय में जब बाजार हमारी हर सोच पर हावी है और राजनीति को एक घृणास्पद “शब्द मे बदल दिया गया है तो परिवर्तन का स्वप्न देखने वाले युवा के समक्ष यह सवाल और भी गंभीर रूप में उपस्थित है।

दरअसल, सबसे पहले तो यह समझना जरूरी है कि राजनीति है क्या? आज जब हम राजनीति की बात करते हैं तो जो रूप हमारे सामने आता है वह है भ्र’टाचार और पतन के दलदल में आकंठ डूबा, येनकेन प्रकारेण सत्ता प्राप्ति का जूगाड़ बैठाता एक ऐसा वर्ग जिसके लिए आदर्श केवल किताबी शब्द है और झूठ फरेब रोजमर्रा की आदत। लेकिन क्या राजनीति का बस यही अरथ होता है? नहीं - सत्ता की इस पतित राजनीति के बरक्स एक और राजनीति होती है रचनात्मक परिवर्तन की। अगर भगत सिंह का ही उदाहरण लें तो वह जो राजनीति कर रहे थे वह किसी व्यक्तिगत या दलगत स्वार्थ से प्रेरित नहीं थी । उसका तो लक्ष्य था व्यापक मूलभूत रचनात्मक परिवर्तन जिससे दुनिया से हर तरह का शोसन समाप्त हो सके और एक जातिविहीन, धरमविहीन और वर्गविहीन समाज की स्थापना हो सके तभी तो उनका दृढ़ विश्वास था कि क्रांति के लिए बंदूकों की नहीं परिवर्तन विचा रों की जरूरत है और इसीलिए अपने अंतिम आलेखों में उन्हांने युवाओं से आह्वान किया कि वे खेतों, खलिहानों और फैिक्ट्रयों में जाकर समाजवादी विचारों का प्रचार करें । यही वह राजनीति है जिसके लिए वह छात्रों को प्रेरित कर रहे थे।
इस संदर्भ में एक और बात जान लेनी बेहद जरूरी है कि कि छात्रसंघ और छात्र राजनीति का अधिकार हमें किसी खैरात में नहीं मिला है। इसे हमारे पूर्ववर्ती पीढ़ियों ने लम्बे सन्घर्ष के बाद अपने खून -पसीने की कीमत पर हासिल किया है। कालांतर में भले ही मुख्यधारा के राजनीतिक दलों ने इसे सन्घर्ष की राजनीति के ट्रेनिंग सेंटर में बदल दिया लेकिन अपने मौलिक रूप में यह विरोध और असुविधा की राजनीति है जिसमें एक छात्र आरंभ से ही अपने लोकतांत्रकि अधिकारों के लिये सन्घर्ष करना सीखता है। किताबों के साथ यह भी एक जरूरी पढ़ाई है जो कहीं और नहीं सीखी जा सकती। और पढ़ाई तथा पढ़ाई के अधिकार के लिये लड़ाई में ऐसा कोई विरोधाभास भी नहीं। हमारे दौर में एक नारा बहुत प्रचलित था - पढ़ो पढ़ाई लड़ने को, लड़ो लड़ाई पढ़ने को।

लेकिन नई आर्थिक नीतियों के दौर में जैसे-जैसे शिक्षा बाजारू माल में तब्दील होती गई वैसे-वैसे विरोध के स्वरों को दबाने के लिये छात्र राजनीति पर हर तरह के अंकुश लगाने की कोशिश की गई। पूंजीपतियों के लिये सेल्समैन और मैनेजर बनाने वाली इस व्यवस्था के लिये राजनीतिक चेतना से लैस नौजवानों का अस्तित्व अपने अस्तित्व के लिए ही एक खतरा होता। बाजार समर्थक बुद्धजिवियों ने इस सोच को बढ़ावा भी खूब दिया। परिवर्तन की ताक़तों के बिखराव ने भी छात्र आंदोलनो पर विपरीत प्रभाव डाला।

ऐसे में आज एक बेहतर और शोषणमुक्त समाज का ख्वाब देखने वाले लोगो की जिम्मेदारी है कि छात्र आंदोलनो की धार तेज करने के लिए लामबंद हों जिससे हमारे शिक्षा संस्थान बाज़ार के चाकर से परिवर्तन के वाहक मे बदल सकें। पैसे की अंधी दौड़ के बरअक्स शान्ति, समृद्धि और समाजवाद के लिये मुि”कल और लंबे संघर्ष की यह राह ही छात्र राजनीति की सही राह हो सकती है जिस पर चलकर भगत सिंह के सपनों को साकार किया जा सकता है।

06 जून 2009

बहस बनाम कुत्ताघसीटी

ब्लागबाजी में एक मज़ा है - हर आदमी यहाँ १२ फ़ुट का है। कम्पूटर पर बैठे-बैठे सबको लगता है किबस सबसे बड़ी क्रांति वही कर रहा है।
यहाँ दो तरह के लफ्फाज़ सबसे प्रमुख हैं - पहले तटस्थ और दूसरे गेरुए। दोनों का घोषित उद्देश्य है गंद फैलाना और जैसे ही कोई जवाब दे सीधे वामपंथी कहकर गालियाँ बरसाना। तुर्रा यह कि भईया बस यही हो रही है युगान्तरकारी बहस।
और सामूहिक ब्लागों का तो कहना क्या!!! हिन्दी पत्रिकाओं के संपादक शर्मा जायें इनकी तानाशाही देखकर्। पहले सर-सर कहके प्रार्थना करेंगे शामिल करने के लिये और जहां आपने कभी आईना दिखाया तो अपनी औकात पर आ जायेंगे।
ऐसी ही एक पोस्ट पर जब अपन ने लिखा तो क्या हुआ देखिये।
http://janokti.blogspot.com/2009/06/blog-post_9376.html पर

और हमारा अंतिम जवाब यहां

आपसे सर्टिफिकेट मांग कौन रहा है? इसी उम्र में वाम विश्वविद्यालय का कुलपति बन जाने पर बधाई! आपकी अपनी क्रेडिबिलिटी क्या है? बहस चल कहाँ रही है? ये मोहल्ला ये अनोक्ति सब कुत्ताघसीटी में लगे हैं और मुझे इसका हिस्सा नही बनना. इसके लिए क्या आप जैसों से परमिशन लेनी पड़ेगी?और सारी महान बातें बेनामी लोग क्यों करते हैं? जिनमे नाम तक ज़ाहिर करने की हिम्मत नही वे हमें बहस करना सिखायेंगे? किसी पार्टी की गुलामी नही करता कि कोई इस लायक नही लगता तो आप जैसों की क्या करूंगा?लेखक हूं लिखता हूँ जो सही लगता है. यहां भी और वहां भी जिनका बेनामी महोदय ने ज़िक्र किया है. जनता के बीच जाकर काम करता हूँ. नेट पर विप्लव करने वालों को याद होना चाहिए कि यहां आने का सादर आमंत्रण और अनुरोध उन्ही ने दिया था मैंने अर्जी नही लगायी थी. तो अब अगर इससे अलग होना है तो क्या अनुमति लूं? मेरे विचार और विचारधारा कोई छुपी हुई चीज़ नही हैं. फिर लाल गुलाबि आमंत्रण से पहले देखना था और अपने गेरुए से उसको मैच करा लेना था.हाँ बेनामी महोदय आपके विस्मय का हल मेरी लाइब्रेरी कर सकती है ...स्वागत है.वैसे बता दूं कि मार्क्स पर केन्द्रित एक किताब भी लिखी है हमने जो संवाद प्रकाशन से आ रही है.

05 जून 2009

वे ज़हर खाकर मर जायेंगे

शरद यादव पुराने लोहियावादी हैं अब आडवानी जी की गोद में बैठे हैं तो का हुआ भाषण देना थोड़े भूल गए। आज संसद में बोलते हुए फार्म में आये तो महिला आरक्षण का विरोध करते हुए बोल गए की ज़हर खा लूँगा अगर यह लागू हो गया यह।
का करें बिचारे इतनी महिलओं को संसद में देखकर लगता है बौरा गए हैं । कहां सोचा था की आडवानी की सरपरस्ती में मंत्री बनकर मलाई चाभेंगे और कहाँ दूसरी बार बैठाना पद रहा है विपक्ष में। ऊपर से बिहार की ही मीरा कुमार बन गयीं सभापति। अब जाति के भरोसे राजनीति के कमज़ोर होने का अहसास हो रहा है तो बेकल होना स्वाभाविक है। और बेकली में ही तो नंगे होते हैं लोग।
आप बताइये आप क्या करेंगे और कहेंगे महिला आरक्षण बिल के पास होने पर ?

25 मई 2009

अवसान आखिरी गदरी का/ विनायक सेन की जमानत का स्वागत

कल ग़दर आन्दोलन के आखिरी जीवित सदस्य भगत सिंह बिल्गा का देहांत हो गया।
बाबा बिल्गा के नाम से जाने जाने वाले इस अप्रतिम योद्धा का जन्म भी शहीदे आज़म भगत सिंह की ही तरह वर्ष १९०७ में हुआ था। वह अपनी मेडिकल की पढाई छोड़कर ग़दर पार्टी में शामिल हुए थे। ग़दर पार्टी के काम के सिलसिले में वह कलकत्ता बर्मा , सिंगापूर, हांगकांग और फिर अर्जेंटीना पहुंचे जहाँ उनकी मुलाक़ात शहीद भगत सिंह के निर्वासित चाचा सरदार अजित सिंह से हुई। उन्होंने ही बिल्गा को आज़ादी के यज्ञ में सब कुछ होम कर देने की प्रेरणा दी।
१९३६ में वह पहली बार गिरफ्तार हुए। उसके बाद कई साल अमृतसर, लाहोर, और अटक की जेलों में iबिताये।
आज़ादी के बाद उन्होंने ख़ुद को सामाजिक कामों के लिये समर्पित कर दिया। साथ ही उन्होंने स्वतत्रता संग्रामियों को मिलने वाली पेंशन लेने से भी ईंकार कर दिया था।
उनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान था जालंधर में 'मेला ग़दरी बेब्यां दा' का सालाना आयोजन।
पिछले दो सालों से वह इंगलैण्ड में थे। वहां जाने से पहले एक बातचीत में उन्होंने कहा था- " यह वह आज़ादी नहीं जिसके लिये हम लडे थे।"
युवा संवाद बाबा बिल्गा को सलाम करता है।

## साथ ही हम सुप्रीम कोर्ट द्वारा मानवाधिकार कार्यकर्त्ता विनायक सेन की जमानत का स्वागत भी करते है.

17 मई 2009

चलिए अभी खुश हो लेते है!!!

आ गए चुनावों के परिणाम।

किसी ने कांग्रेस की ऎसी जीत की कल्पना नही की थी, न बी जे पी की ऎसी हार की।
तीसरा , चौथा मोर्चा सूटकेसों और मनुहारों की कल्पना से उबर भी नही पाया हो अब तक शायद।

गांधीनगर से दिल्ली के दो वेटिंगटिकट थे - दोनों कन्फर्म नही हुए! इलाहाबाद वाले अब वाया बनारस दिल्ली पहुंचे तो अब टर्राने लगे हैं। इन वेटिंग टिकटों की किस्मत में आर ऐ सी होना भी नही लिखा !

अब शायद यह देश की जनता इन चेहरों के पीछे छिपे खतरनाक मंसूबो को धीरे धीरे पहचान रही है। चलिए मान लेते है और खुश हो लेते हैं। और साथ ही तैयार रहिये निजीकरण की आंधी के लिए.

25 अप्रैल 2009

मोदी , माफी और मज़बूती

देश के पी एम् इन वेटिंग नंबर दो नरेन्द्रमोदी को गुजरात दंगो में माफी जैसा कुछ नही लगता। क्यूँ लगे इतने दिनों संघ के गुरुकुल में जो सीखा था वही तो किया था उन्होंने! फिर काहे की माफी? आख़िर मुसलमानों की ह्त्या कराने या करने में पाप जैसा क्या है? और संविधान को तो बहुत पहले गुरूजी उर्फ़ गुरुघंटाल खारिज कर चुके थे और उनकी मांग तो मनु स्मृति को संविधान बनने की थी जिसमे सवर्णों के अलावा किसी की भी ह्त्या जायज़ है।

माफी माँगने के लिए मज़बूत कलेजा और सिद्धांतो के प्रति गहन निष्ठा की ज़रूरत होती है। जिन लोगो ने आज़ादी के समय अंग्रेजों की चाकारी की हो आज़ादी के बाद गांधी sह्त्या, फिर बैन लगाने पर चाटुकारिता और मौका मिलते ही नफरत फैलाने के इकलौते एजेंडे पर चलते हुए सेठ साहूकारों की सेवा की हो उनसे ऎसी उम्मीद नही की जा सकती।

उन्हें तो बस सज़ा ही दी जा सकती है जो समय देगा ही!!

12 मार्च 2009

आपकी पालीटिक्स क्या है पार्टनर ?



लोकसभा चुनावो के आते ही सियासी जोड़ तोड़ का दौर शुरु हो गया है। वैसे तो चुनावी फ़ायदे नुक्सान और निजी पूर्वाग्रहो को सिद्धान्तों का जामा पहना कर पेश करने के खेल में कोई पीछे नही है, लेकिन प्रकाश करात के नेतृत्व में सीपीएम ने जिस तरह साम्प्रदायिकता को चूँ – चूँ का मुरब्बा बना दिया है वह समकालीन राजनीति के पतनशील चेहरे का सबसे बदनुमा धब्बा है । पूरे चार साल काँग्रेस को इसी मुद्दे पर समर्थन देने के बाद परमाणु क़रार के मुद्दे पर किनारा कसने के बाद अब करात तीसरा मोर्चा बनाने की जुगाड़ में है। इस मोर्चे के लिये जिन दलों से उन्होने दोस्ती गाँठी है, उनका राजनीतिक चरित्र और अब तक का आचरण साम्प्रदायिकता के पूरे विमर्श के ही विरूद्ध रहा है। लेकिन इन्हें सेकुलर होने का प्रमाणपत्र बाँटकर सीपीएम न केवल अपनी विरासत को कलंकित करने पर तुली हुई है बल्कि आमजन के बीच इस मुद्दे की गम्भीरता को भी पूरी तरह से नष्ट कर रही है। बीरबल की खिचड़ी से भी ज़्यादा विचित्र इस मोर्चे में अवसरवाद और भ्रष्टाचार में गले तक डूबे तमाम क्षेत्रीय दल हैं जिन्होंने अपने राजनैतिक स्वार्थो के लिये समय समय पर काँग्रेस से लेकर भाजपा तक की निर्बाध यात्रा की है।
इस भानुमति के पिटारे में सबसे महत्वपूर्ण नाम है उत्तरप्रदेश की मुख्यमन्त्री और बीएसपी की सर्वेसर्वा सुश्री मायावती। काशीराम की दलित राजनीति की विरासत सतीश द्विवेदी के सोशल इन्जीनियरिन्ग तक पहुँचा चुकी मायावती एक नहीं कई बार भाजपा के साथ साझीदारी कर चुकीं हैं । समकालीन राजनीति में साम्प्रदायिकता का सबसे बड़ा प्रतीक बन चुके गुजरात दंगे के समय भी वह बीजेपी के साथ ही थीं और इन दंगों के नायक नरेन्द्र मोदी पर अमेरिका ने भले ही प्रतिबंध लगाया हो और पूरे देश के सेकुलर समाज ने इसकी निन्दा की हो बहन मायावती उनका चुनाव प्रचार करने बाक़ायदा गुजरात गयी थीं । यही नहीं अपने पूरे शासनकाल में वह हिन्दू साम्प्रदायिक तत्वों के प्रति उदार रहीं हैं । पिछले दिनों कानपुर की घटना हो या फिर गोरखपुर में आदित्यनाथ द्वारा फैलाया गया आतंक, मायावती जी ने कभी भी इसके खिलाफ़ कोई सख्त क़दम नहीं उठाया। उनके राज के दौरान ही राजधानी लखनऊ में ही अन्तर्धामिक विवाह करने वाली लड़कियो के धर्मपरिवर्तन की खबरे भी आयी थी, लेकिन उस दौरान भी कोई कार्यवाही नही की गयी। जहां तक सैद्धांतिक अवस्थिति का सवाल है तो अभी बहुत दिन नहीं बीते जब बसपा कम्यूनिस्टो को नागनाथ बताती थी और सीपीएम इसे एक जातिवादी दल। अब इसमें भ्रष्टाचार के दानवाकार आरोपो को और जोड़ दें तो क़िस्सा पूरा हो जाता है। यहाँ आर्थिक नीतियो का ज़िक्र करना बेमानी होगा।
यही सबकुछ थोड़ा फेरबदल के साथ इस मोर्चे की दूसरी महत्वपूर्ण भागीदार जयललिता के बारे में भी कहा जा सकता है। तमिलनाडु की प्रादेशिक राजनीति के हिसाब से पाला बदलती रहीं जयललिता को अपने शासनकाल मे नर्म हिन्दुत्व तथा भ्रष्टाचार के ही लिये जाना जाता है।
अगर सीपीएम के अन्य दोस्तों चन्द्रबाबू नायडू और नवीन पटनायक की बात करें तो इन दोनो का रिश्ता बीजेपी से बस अभी अभी टूटा है। बरसों बीजेपी की पीठ पर बैठकर सत्तासुख भोगते हुए उड़ीसा के साम्प्रदायीकरण और इसाईयो पर हमले के मूकदर्शक बने रहे नवीन बाबू चुनाव आते ही नये समीकरणो की तलाश में गठबन्धन से बाहर आ गये और करात साहब ने गोधरा दन्गो के गवाह चन्द्रबाबू के साथ उन्हें भी सेकुलर होने का सर्टिफ़िकेट ज़ारी कर दिया।
दरअसल, ज्योति बसु और सुरजीत के बाद सीपीएम के केन्द्र में आये प्रकाश करात ने सँसदवादी वामपंथी राजनीति को उसकी तार्किक परिणिति तक पहुँचा दिया है। पिछले चुनावों की सफलता के अतिउत्साह को सकारात्मक मोड़ देकर भारतीय राजनीति मे अपना सार्थक हस्तक्षेप बनाने की जगह एक ऐसी दम्भी तथा अहम्मन्य प्रवृति ने ले लिया जिसके अन्तर्गत आत्मालोचना और सिद्धान्तनिष्ठा जैसी चीज़े पूरी तरह बिसरा दी गयी। सारा ज़ोर येन केन प्रकारेण सत्ताकेन्द्रो के क़रीब बने रहने पर केन्द्रित हो गया। लोकसभा में परमाणु क़रार के मुद्दे पर अपने सही रुख के बावज़ूद उसके इसी रवैये के कारण जनता के बीच नकारात्मक सन्देश गया। आमतौर पर यही माना गया कि इसके पीछे करात साहब का व्यक्तिगत अहम है और सिद्धान्त से ज़्यादा इसे उन्होने निजी प्रतिष्ठा का मुद्दा बना लिया है और इस पूरे घटनाक्रम में उन्होंने जिस तरह खींचतान मचाते हुए मायावती को प्रधानमन्त्री बनाने की घोषणा कर पूरी पार्टीलाईन ही बदल डाली उससे इसे और बल मिला ।
इस पूरी प्रक्रिया मे साम्प्रदायिकता का तो मज़ाक बना ही है आर्थिक चिन्तन का तो दिवाला ही निकल गया है। देश मे नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के सबसे प्रमुख प्रवक्ता चन्द्रबाबू नायडू और समन्दर का पानी तक बेच डालने वाले नवीन बाबू के सहारे सीपीएम साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ कौन सी जंग छेड़ने जा रही है यह कोई भी समझ सकता है। यहाँ यह बता देना उचित ही होगा कि उड़ीसा मे निजीकरण और कई सेज़ परियोजनाओं के विरुद्ध सन्घर्ष में नेतृत्वकारी भूमिका मे सीपीएम ही थी। नन्दीग्राम और सिन्गूर मे पहले ही अपनी साख खो चुके करात इस समझौते के बाद किस मुँह से नई आर्थिक नीतियों का विरोध करेंगें ?
तीसरे मोर्चे का चुनाव के दौरान और बाद में क्या हश्र होगा यह तो भविष्य बतायेगा पर इतना तो तय है कि इस परिघटना के बाद सीपीएम की बची-खुची विश्वसनीयता भी धूल में मिल जायेगी और करात शायद इस ताबूत में आखिरी कील लगाने वाले की तरह याद किये जायेंगे।

04 दिसंबर 2008

Hotel Taj : icon of whose India ?

Watching at least four English news channels surfing from one another during the last 60 hours of terror strike made me feel a terror of another kind. The terror of assaulting one's mind and sensitivity with cameras, sound bites and non-stop blabbers. All these channels have been trying to manufacture my consent for a big lie called - Hotel Taj the icon of India.Whose India, Whose Icon ? It is a matter of great shame that these channels simply did not bother about the other icon that faced the first attack from terrorists - the Chatrapathi Shivaji Terminus (CST) railway station. CST is the true icon of Mumbai. It is through this railway station hundreds of Indians from Uttar Pradesh, Bihar, Rajasthan, West Bengal and Tamilnadu have poured into Mumbai over the years, transforming themselves into Mumbaikars and built the Mumbai of today along with the Marathis and Kolis
But the channels would not recognise this. Nor would they recognise the thirty odd dead bodies strewn all over the platform of CST. No Barkha dutt went there to tell us who they were. But she was at Taj to show us the damaged furniture and reception lobby braving the guards. And the TV cameras did not go to the government run JJ hospital to find out who those 26 unidentified bodies were. Instead they were again invading the battered Taj to try in vain for a scoop shot of the dead bodies of the page 3 celebrities. In all probability, the unidentified bodies could be those of workers from Bihar and Uttar Pradesh migrating to Mumbai, arriving by train at CST without cell phones and pan cards to identify them. Even after 60 hours after the CST massacre, no channel has bothered to cover in detail what transpired there. The channels conveniently failed to acknowledge that the Aam Aadmis of India surviving in Mumbai were not affected by Taj, Oberoi and Trident closing down for a couple of weeks or months. What mattered to them was the stoppage of BEST buses and suburban trains even for one hour. But the channels were not covering that aspect of the terror attack. Such information at best merited a scroll line, while the cameras have to be dedicated for real time thriller unfolding at Taj or Nariman bhavan.The so called justification for the hype the channels built around heritage site Taj falling down (CST is also a heritage site), is that Hotel Taj is where the rich and the powerful of India and the globe congregate. It is a symbol or icon of power of money and politics, not India. It is the icon of the financiers and swindlers of India. The Mumbai and India were built by the Aam Aadmis who passed through CST and Taj was the oasis of peace and privacy for those who wielded power over these mass of labouring classes. Leopold club and Taj were the haunts of rich spoilt kids who would drive their vehicles over sleeping Aam Aadmis on the pavement, the Mafiosi of Mumbai forever financing the glitterati of Bollywood (and also the terrorists) , Political brokers and industrialists.
It is precisely because Taj is the icon of power and not people, that the terrorists chose to strike. The terrorists have understood after several efforts that the Aam Aadmi will never break down even if you bomb her markets and trains. He/she was resilient because that is the only way he/she can even survive.Resilience was another word that annoyed the pundits of news channels and their patrons this time. What resilience, enough is enough, said Pranoy Roy's channel on the left side of the channel spectrum. Same sentiments were echoed by Arnab Goswami representing the right wing of the broadcast media whose time is now. Can Rajdeep be far behind in this game of one upmanship over TRPs ? They all attacked resilience this time. They wanted firm action from the government in tackling terror. The same channels celebrated resilience when bombs went off in trains and markets killing and maiming the Aam Aadmis. The resilience of the ordinary worker suited the rich business class of Mumbai since work or manufacture or film shooting did not stop. When it came to them, the rich shamelessly exhibited their lack of nerves and refused to be resilient themselves. They cry for government intervention now to protect their private spas and swimming pools and bars and restaurants, similar to the way in which Citibank, General Motors and the ilk cry for government money when their coffers are emptied by their own ideologies. The terrorists have learnt that the ordinary Indian is unperturbed by terror. For one whose daily existence itself is a terror of government sponsored inflation and market sponsored exclusion, pain is something he has learnt to live with. The rich of Mumbai and India Inc are facing the pain for the first time and learning about it just as the middle classes of India learnt about violation of human rights only during emergency, a cool 28 years after independence. And human rights were another favourite issue for the channels to whip at times of terrorism.
Arnab Goswami in an animated voice wondered where were those champions of human rights now, not to be seen applauding the brave and selfless police officers who gave up their life in fighting terorism. Well, the counter question would be where were you when such officers were violating the human rights of Aam Aadmis. Has there ever been any 24 hour non stop coverage of violence against dalits and adivasis of this country? This definitely was not the time to manufacture consent for the extra legal and third degree methods of interrogation of police and army but Arnabs don't miss a single opportunity to serve their class masters, this time the jingoistic patriotism came in handy to whitewash the entire uniformed services. The sacrifice of the commandos or the police officers who went down dying at the hands of ruthless terrorists is no doubt heart rending but in vain in a situation which needed not just bran but also brain. Israel has a point when it says the operations were misplanned resulting in the death of its nationals here. Khakares and Salaskars would not be dead if they did not commit the mistake of traveling by the same vehicle. It is a basic lesson in management that the top brass should never t ravel together in crisis. The terrorists, if only they had watched the channels, would have laughed their hearts out when the Chief of the Marine commandos, an elite force, masking his face so unprofessionally in a see-through cloth, told the media that the commandos had no idea about the structure of the Hotel Taj which they were trying to liberate. But the terrorists knew the place thoroughly, he acknowledged. Is it so difficult to obtain a ground plan of Hotel Taj and discuss operation strategy thoroughly for at least one hour before entering? This is something even an event manager would first ask for, if he had to fix 25 audio systems and 50 CCtvs for a cultural event in a hotel. Would not Ratan Tata have provided a plan of his ancestral hotel to the commandos within one hour considering the mighty apparatus at his and government's disposal? Are satelite pictures only available for terrorists and not the government agencies ? In an operation known to consume time, one more hour for preparation would have only improved the efficiency of execution.
Sacrifices become doubly tragic in unprofessional circumstances। But the Aam Aadmis always believe that terror-shooters do better planning than terrorists. And the gullible media in a jingoistic mood would not raise any question about any of these issues. They after all have their favourite whipping boy - the politician the eternal entertainer for the non-voting rich classes of India. Arnabs and Rajdeeps would wax eloquent on Nanmohan Singh and Advani visiting Mumbai separately and not together showing solidarity even at this hour of national crisis. What a farce? Why can't these channels pool together all their camera crew and reporters at this time of national calamity and share the sound and visual bites which could mean a wider and deeper coverage of events with such a huge human resource to command? Why should Arnab and Rajdeep and Barkha keep harping every five minutes that this piece of information was exclusive to their channel, at the time of such a national crisis? Is this the time to promote the channel? If that is valid, the politician promoting his own political constituency is equally valid. And the duty of the politican is to do politics, his politics. It is for the people to evaluate that politics. And terrorism is not above politics. It is politics by other means.To come to grips with it and to eventually eliminate it, the practice of politics by proper means needs constant fine tuning and improvement. Decrying all politics and politicians, only helps terrorists and dictators who are the two sides of the same coin. And the rich and powerful always prefer terrorists and dictators to do business with. Those caught in this crossfire are always the Aam Aadmis whose deaths are not even mourned - the taxi driver who lost the entire family at CST firing, the numerous waiters and stewards who lost their lives working in Taj for a monthly salary that would be one time bill for their masters.Postscript: In a fit of anger and depression, I sent a message to all the channels, 30 hours through the coverage. After all they have been constantly asking the viewers to message them for anything and everything. My message read: I send this with lots of pain. All channels, including yours, must apologise for not covering the victims of CST massacre, the real mumbaikars and aam aadmis of India. Your obsession with five star elite is disgusting. Learn from the print media please. No channel bothered. Only srinivasan Jain replied: you are right. We are trying to redress balance today. Well, nothing happened till the time of writing this 66 hours after the terror attack.
Gnani Sankaran- Tamil writer, Chennai.

27 नवंबर 2008

यकीन मगर कब तक


क्या लिखूं और लिख लिख कर होगा क्या?मुंबई नहीं हुई गरीब की भैंस हो गयी .. जो चाहे जब चाहे दुह ले जाए.. अभी माले गावं चल ही रहा था की ये सब हो गया... चुनाव के ठीक एक दिन पहले... पता नहीं क्या सच है क्या ... झूठ इतना तो तय है की आप तब तक ही जिंदा हैं जब तक कोई आपको मारना नहीं चाहता...बाकि डेमोक्रेसी वगैरह अब दिल के खुश रखने का ख्याल बस रह गया है.तो ... जिंदा है तो ज़िन्दगी की जीत पर यकीन कर..कम से कम तब तक , जब तक तेरे शहर में कोई धमाका नहीं हो जाता!!!!

24 नवंबर 2008

वोट नही देना भी क्या एक वोट नही है ?

साथियों
देश के कई राज्यों में चुनाव की गहमागहमी है। ऐसे में किसे वोट देन का नारा लेकर नेता उपस्थित हैं तो 'वोट ज़रूर दे' का नारा लेकर एनजीओ के समाजसुधारक बंधू जनता को शिक्षाएं दी जा रही हैं। चाय पिलाकर जगाया जा रहा है और वोट न देने वालों को धिक्कारा जा रहा है।
लेकिन आख़िर जनता अगर वोट नही देती है तो क्या इसका एक दूसरा पक्ष नही है? क्या लोग सिर्फ़ इसीलिए वोट दे की सांपनाथ की जगह नागनाथ सत्ता में आ जायें और उनका खून चूसें?
क्या वोट न देने का मतलब सरकारों और व्यवस्था से मोहभंग नही है? क्या वोट न देना भी एक वोट नही है?