जसवंत सिंह गए... सुधीन्द्र कुलकर्णी और अब अरुण शौरी भी मानो जाने के लिए बेकरार हुए जा रहे हैं। आज एन डी टी वी के वाक द टाक पर जनाब भाजपा को डूबता जहाज बता रहे थे तो राजनाथ सिंह को ''एलिस इन ब्लण्डरलैण्ड'' …रूडी ने सही कहा वे अपने ख़िलाफ़ कार्यवाही चाहते हैं।
और निश्चित रूप से यह सूची यहीं ख़त्म नहीं होती…कल तक ख़ुद को पार्टी विथ डिफ़रेंस बताने वाली पार्टी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यह सिर्फ़ पार्टी फ़ार पावर थी। सत्ता के मलाई की बंदरबांट के लिये एकता का नाटक बस तब तक चला जब तक सत्ता की उम्मीद बची थी और इस चुनाव के नतीज़ों से अपनी नियति जान लेने के बाद अब बेचैन हो कर यहां-वहां फ़ुदकने के चक्कर में हैं। न अब धर्म के प्रति इनकी नक़ली आस्था इन्हें बांध पा रही है ना कांधारी राष्ट्रवाद।
दरअसल, संघ परिवार इस वक़्त एक बेहद उलझन के दौर से गुज़र रहा है। जब तक सत्ता में नहीं था धर्म, राष्ट्र और सिद्धांत की हवाई बातें कर इसने अपनी एक आभासी छवि तैयार की थी। अपने सामंती चरित्र के कारण जनता का एक तबका इससे प्रभावित हुआ तो कांग्रेस की जनविरोधी नई आर्थिक नीतियों के चलते वंचना का शिकार पीले बीमार चेहरे वाला युवा वर्ग झूठे अहम और अस्मिता की तलाश में इस तक पहुंचा।
लेकिन सत्ता के दौर में इन सबके सम्मुख यह स्पष्ट हो गया कि यह पार्टी दरअसल पूंजीपतियों की सबसे विश्वस्त सेवक है और राम की आड बस मालिकों की सेवा करने और बदले में उनसे प्राप्त उत्कोच भकोसने के लिए है। आखिर इन शौरी साहब के विनिवेश मंत्री रहते हुए किए कारनामे कौन भूल सकता है। आज संघ की बीन बजा रहे शौरी हमेशा से संघ के प्रिय रहे हैं और साथ ही निजीकरण और उदारवाद के पक्के समर्थक । मोदी भी एक साथ संघ और पूंजीपतियों के प्रिय हैं।
खैर सत्ता और सत्ता की उम्मीद दोनों के चले जाने के बाद अब ये चाकर दूसरे रास्ते तलाश रहे हैं तो इसमे अचरज कैसा।
और निश्चित रूप से यह सूची यहीं ख़त्म नहीं होती…कल तक ख़ुद को पार्टी विथ डिफ़रेंस बताने वाली पार्टी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यह सिर्फ़ पार्टी फ़ार पावर थी। सत्ता के मलाई की बंदरबांट के लिये एकता का नाटक बस तब तक चला जब तक सत्ता की उम्मीद बची थी और इस चुनाव के नतीज़ों से अपनी नियति जान लेने के बाद अब बेचैन हो कर यहां-वहां फ़ुदकने के चक्कर में हैं। न अब धर्म के प्रति इनकी नक़ली आस्था इन्हें बांध पा रही है ना कांधारी राष्ट्रवाद।
दरअसल, संघ परिवार इस वक़्त एक बेहद उलझन के दौर से गुज़र रहा है। जब तक सत्ता में नहीं था धर्म, राष्ट्र और सिद्धांत की हवाई बातें कर इसने अपनी एक आभासी छवि तैयार की थी। अपने सामंती चरित्र के कारण जनता का एक तबका इससे प्रभावित हुआ तो कांग्रेस की जनविरोधी नई आर्थिक नीतियों के चलते वंचना का शिकार पीले बीमार चेहरे वाला युवा वर्ग झूठे अहम और अस्मिता की तलाश में इस तक पहुंचा।
लेकिन सत्ता के दौर में इन सबके सम्मुख यह स्पष्ट हो गया कि यह पार्टी दरअसल पूंजीपतियों की सबसे विश्वस्त सेवक है और राम की आड बस मालिकों की सेवा करने और बदले में उनसे प्राप्त उत्कोच भकोसने के लिए है। आखिर इन शौरी साहब के विनिवेश मंत्री रहते हुए किए कारनामे कौन भूल सकता है। आज संघ की बीन बजा रहे शौरी हमेशा से संघ के प्रिय रहे हैं और साथ ही निजीकरण और उदारवाद के पक्के समर्थक । मोदी भी एक साथ संघ और पूंजीपतियों के प्रिय हैं।
खैर सत्ता और सत्ता की उम्मीद दोनों के चले जाने के बाद अब ये चाकर दूसरे रास्ते तलाश रहे हैं तो इसमे अचरज कैसा।
1 टिप्पणी:
आज जो भाजपा में हो रहा है इसमें वाकई कोई आश्चर्य नहीं ... वैसे भी फसिजिम और अपार्चुनिज्म में कोई ख़ास अंतर नहीं है.... जो जितना बड़ा चूहा होगा वो उतना ही जोर से कतरेगा, और तय है की डूबते जहाज को सबसे पहले वही छोडेगा.
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