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03 अगस्त 2010

अब कहां है जाति प्रथा?ब

( यह आलेख हमे युवा संवाद उज्जैन की अपूर्वा ने भेजा है। आमतौर पर यह कहा जाता है कि जाति प्रथा अब ख़त्म हो रही है, कमज़ोर पड़ रही है…आदि-आदि…यह लेख तस्वीर का दूसरा रुख दिखाता है)

उत्तर प्रदेश में स्कूल के कुछ बच्चों ने मिड डे मील खाने से इसलिए इनकार कर दिया क्योंकि इसे दलित महिलाओं ने पकाया था।

बच्चों के बीच ज़हर
 प्राइमरी स्कूल में पढ़ने वाले किसी बच्चे की आयु कितनी होती है? उसे इस आयु में इस बात का बोध नहीं होता कि भोजन पकाने वाली महिला किस जाति या वर्ग की है। स्वाभाविक है कि इन बच्चों के अभिभावकों को जब यह पता लगा होगा कि स्कूल में बच्चों के लिए भोजन पकानेवाली महिला दलित वर्ग से है, तो शायद उन्होंने ही अपने बच्चों को भोजन करने से रोक दिया होगा। अभिभावकों ने केवल अपने बच्चों को वह भोजन खाने से ही मना किया, बल्कि कई स्थानों पर स्कूल के रसोईघर में तोड़फोड़ की और पुलिस पर पत्थर भी बरसाए। मुझे सबसे अधिक अफसोस उन संस्थाओं और उनके स्वनामधन्य नेताओं के प्रति होता है जो हिंदुत्व का एजेंडा लेकर चल रहे हैं और नारा उछालते हैं- गर्व से कहो हम हिंदू हैं। हिंदू समाज की ही एक महिला के हाथ के पके भोजन का तिरस्कार करके उन्हें किस प्रकार के गर्व की अनुभूति हो सकती है? 

हिंदुत्व का एजेंडा लेकर चलने वाली संस्थाओं की प्राथमिकता में अयोध्या में भव्य राम मंदिर के निर्माण की बात है। देश भर में गौवध पर प्रतिबंध लगाने की बात भी है, पाकिस्तान के प्रति कड़ा रुख अपनाने की बात भी है किंतु सारे देश में दलित वर्ग के प्रति जो भेदभाव बरता जाता है, उसे दूर करने का अभियान चलाना उनकी प्राथमिकता में क्यों नहीं है? छुआछूत की इस व्याधि के कारण असंख्य लोगों को मतांतरण करना पड़ा और डॉ. अंबेडकर को यह कहना पड़ा-मैं हिंदू होकर जन्मा अवश्य हूं, किंतु हिंदू रहकर मरूंगा नहीं। 1950 में जब देश में नया संविधान लागू हुआ था, तो उसमें अस्पृश्यता को अपराध घोषित कर दिया गया था। कानून तो बन गया किंतु लोगों की मानसिकता नहीं बदली। 

आज भी देश के विभिन्न भागों से इस प्रकार के समाचार आते रहते हैं कि दूल्हा बने दलित युवक को घोड़ी पर नहीं चढ़ने दिया गया, दलितों को सार्वजनिक कुएं से पानी नहीं भरने दिया गया, किसी दलित को मंदिर में नहीं घुसने दिया गया। देश की संपूर्ण जनसंख्या का पांचवां भाग दलित वर्ग का है। इस पूरे वर्ग को जातिवाद पर आधारित हमारी समाज व्यवस्था में भेदभाव की पीड़ा झेलनी पड़ती है। प्राचीनकाल से ही दलित वर्ग को शिक्षा से वंचित रखा गया। उन्हें भूमि ग्रहण करने या किसी प्रकार की संपत्ति रखने का अधिकार या अवसर तो कभी मिला ही नहीं। देश के लगभग सभी भागों में, विशेषरूप से गांवों में दलित और सवर्ण बस्तियां अलग-अलग बनती रही हैं।

 तमिलनाडु के मदुराई जिले के एक स्थान उत्युपुरम में यह भेदभाव इस सीमा तक है कि सवर्ण जाति के लोगों ने पांच सौ मीटर लंबी दीवार बना ली है, जिससे दलित उनकी बस्ती में न जा सकें। अस्पृश्यता विरोधी कानून, शिक्षा के प्रसार और आधुनिक जीवन के दबाव के कारण, इस व्याधि ने अनेक नए रूप धारण कर लिए हैं। मैला ढोने के काम पर अधिकतर दलितों को ही लगाया जाता है। तमिलनाडु के कुछ गांवों में डाकिये दलितों के घरों में जाकर डाक नहीं देते। स्कूलों में अधिसंख्य अध्यापक सवर्ण जातियों के होते हैं। कक्षा में दलित बच्चों को अलग बैठाया जाता है। सवर्ण जाति के बच्चों के साथ उन्हें पानी नहीं पीने दिया जाता। प्राय: अध्यापक दलित विद्यार्थियों को उनकी जाति के नाम से पुकार कर उनका अपमान करते हैं। यदि किसी दलित विद्यार्थी को अध्यापक शारीरिक दंड देना चाहता है तो यह कार्य किसी दूसरे दलित विद्यार्थी से कराया जाता है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली में उनसे कहा जाता कि सप्ताह के एक विशेष दिन वे अपना राशन लें। 

दलितों ने जब भी इस भेदभाव का विरोध किया सवर्ण जातियों के लोगों ने उनका सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार कर दिया। अधिसंख्यक दलित खेतिहर मजदूर हैं। उन्हें जमीदारों ने खेतों में काम देने से मना कर देते हैं। भूख से मरते हुए लोग संभ्रांत लोगों के समक्ष घुटने टेकने और सभी प्रकार की अन्यायपूर्ण शतर्ें मानने को बाध्य हो जाते हैं। यह स्थिति भी कम खेदजनक नहीं है कि भेदभाव और छुआछूत का समर्थन करने में अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग भी सवर्ण जातियों से पीछे नहीं हैं, जबकि सदियों तक वे स्वयं जात-पात की व्याधि झेलते रहे हैं।  

11 अप्रैल 2010

‘सारे हिन्दू धार्मिक ग्रंथों को तोप से उड़ाकर उनका पुर्नलेखन होना चाहिए।



(युवा दख़ल की यह सौवीं पोस्ट सामाजिक न्याय के प्रखर प्रवक्ता डा अम्बेडकर के विचारों पर केन्द्रित  करते हुए हमें अत्यंत संतोष का अनुभव हो रहा है। एक नौसिखुए की तरह शुरुआत करके हमारा संगठन और ब्लाग इस समयावधि में काफ़ी परिपक्व हुए हैं। इस अवसर पर हम अपने सभी मित्रों, सहयोगियों, साथियों और पाठकों के अत्यंत आभारी है। युवा कहानीकार जितेंद्र का यह आलेख युवा दख़ल के ताज़ा मुद्रित अंक से बाबा साहब के जन्म दिवस 14 अप्रैल के अवसर पर)



डा अम्बेडकर
डा. अंबेडकर और धार्मिक राष्ट्रवाद
जितेन्द्र विसारिया

यह किसी से छिपा नहीं है कि भारतीय इतिहास में दलितोद्धार के जितने भी आन्दोलन चले उनका सीधा विरोध, इस देश में सदियों से वर्तमान असमानता पर आधारित मनुष्यता विरोधी जाति और वर्णव्यवस्था से रहा है। इन आन्दोलनों के नायकों में चाहे कितना ही दृष्टि संकोच रहा हो, किन्तु उनका मानवता पर अटूट विश्वास संदेह से परे की वस्तु है। क्योंकि वे स्वयं इस समाज की अमानवीय व्यवस्था के भुक्तभोगी रह चुके थे। उन्होंने इसीलिए इन अमानवीय प्रथाओं के विरूद्ध आजन्म, कभी मुखर तो कभी शांत रूप में अपना विरोध दर्ज़ किया।...यह प्रक्रिया आज भी जारी है।

बाबा साहब डाॅ. भीमराव अम्बेडकर भी एक ऐसे ही मानवतावादी दलित चिंतक थे। उन्होंने अपने प्रारंभिक जीवन में इस देश की सबसे घृणित और अमानवीय जाति और वर्णव्यवस्था की देन, अस्पृश्यता के दंश को बड़ी गहराई से महसूस किया था। उनका मानना था कि ‘हिन्दू समाज में अन्तर्निहित जातिवाद के कारण, जो एक तरह का रंगभेद ही है, राष्ट्र बनाना मुश्किल साबित हुआ है और इतिहास में राष्ट्रवाद की भावना मौजूदगी की चर्चा करना बिल्कुल बेकार है। उनके अनुसार यह छुआछूत पर आधारित हिन्दू धर्म ही है-जो जोड़ने की जगह टूटने का उपदेश देता है’’(बी आर अम्बेडकर- पाकिस्तान या भारत का विभाजन, बाबा साहब डाॅ.अम्बेडकर संपूर्ण वांग्मय, खंड 15 बंबई, 2000 पृ,198.199) । जाति और वर्णव्यवस्था को हिन्दू धर्म और इस देश से समूल नष्ट करने के लिए उन्होंने, एक बड़े स्तर पर इससे दो-दो हाथ भी किये थे। लेकिन जाति और वर्ण के अहम् में डूबे देश के तत्कालीन सवर्ण समाज का उन्हें इसके लिए कोई सहयोग प्राप्त नहीं हो पाया था। गाँधी जैसे उदार और अश्यपृश्य हितैषी कहे जाने वाले नेता से भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी थी! ‘‘गाँधी जी के चिंतन में भारत की पारंपरिक हिन्दू पहचान को बनाये रखने पर बड़ा जोर हैै। यहाँ तक कि हिन्दू-मुसलिम एकता की अपील करते समय भी अपने सार्वजनिक भाषणों में वह राष्ट्रीय नेता के रूप में दोनों का प्रतिनिधित्व करने वाले के रूप में न बोलकर हिन्दू नेता के रूप में ही अधिक बोलते थे।’’ (श्रीवास्तव रवि-अंबेडकर और उनका राष्ट्रवाद, प्रगतिषील वसुधा दलित स्त्री एवं मुक्ति का प्रश्न रचनात्मक अभिव्यक्ति के संदर्भ मार्च 2009 पृ.35.) बाबा साहब ने अस्पृश्यता के सवाल पर अछूतों को कर्मकांडी धार्मिकता से अलग होकर राजनीतिक अधिकारों पर ध्यान देने और गाँधीवाद से सावधान रहने की चेतावनी दी। उन्होंने कहा, ‘अछूतों को यह बात अपने दिमाग से निकाल देना चाहिए कि हिन्दू धर्म सामाजिक न्याय की स्थापना करेगा चाहे वह काम इस्लाम,ईसाई या बौद्ध धर्म को ही क्यों न करना पड़े। वह तो स्वयं असमानता एवं अन्याय पर खड़ा है’’ (देखें श्रीवास्तव रवि, वही पृ.36) । देश की तथाकथित उच्च-जातियों के असहयोग से वह इतने आहत हुए थे कि उन्हें अपने जीवन के मध्यकाल में ही यह घोषणा करनी पड़ी कि ‘‘मैं भले ही हिन्दू के तौर पर जन्मा हूँ, लेकिन हिन्दू के तौर पर मरूँगा नहीं।’’ और यह सत्य ही सिद्ध हुआ, हिन्दू धर्म और वर्णव्यवस्था के भीतर स्वयं और इस देश के लाखों करोड़ों दलितों को उचित स्थान प्राप्त होता न देख उन्होंने एकला चलो की राह अपनाई। जिसमें उनके साथ अंत तक कोई उदार हिन्दू सम्मलित नहीं हुआ। ऐसा नहीं है कि उन्होंने अपने अपने हिन्दू होकर न मरने के उदघोष के बाद भी हिन्दू धर्म से किसी तरह की अपेक्षा नहीं की हो। वे लगातार संघ और सावरकर की ओर इस अपेक्षा की दृष्टि से सम्पर्क में रहे कि वे हिन्दू धर्म के बारे में कुछ सोचते हैं। इसके लिए उन्होंने एकाध बार संघ और स्वयं सेवकों के कार्यककलापों को नजदीक से देखने के अवसर भी प्राप्त किये थे। (देखें कोई हिन्दू पतित नहीं होताः श्रीधर पराड़कर, स्वदेश दीपावली विशेषांक-2006 ग्वालियर, पृ.08) पर वह अंततः समझ गये कि संघ की दिशा का न तो दलितोद्धार से कोई संबध है न ही एक मानवता पर आधारित एक लोकतांत्रिक राष्ट्रनिर्माण से। लेकिन वह एक दिशा में बढ़ते हुए भी निरंतर इस देश के सवर्ण समाज के उन्मुख रहे, यह सामना कभी सीधा टकराहट भरा होता था तो कभी उदार भाव लिए, हिन्दू धर्म में बने रहने की उनकी तलाश संभवतः आखिरी वक्त तक बनी रही। वरना क्या कारण रहा, कि वह बौद्ध धर्म में प्रस्थान तब करते हैं जब उनके जीवन के मात्र 52-53 दिन ही शेष बच रहे थे! 

मंदिर प्रवेश के प्रश्न पर अंबेडकर ने धर्मशास्त्रों की खुली अवमानना और सीधी कारवाई का रास्ता अपनाया। उसी का परिणाम था, 1924 में त्रावणकोर के वाइकाम मंदिर जाने वाली प्रतिबंधित सड़़क पर शूद्रों-दलितों का उतरना, 20 मार्च 1927 के दिन महाराष्ट के महाड़ में बाबा साहब की अगंवाई में सार्वजनिक तालाब से पानी पीने की घटना जिसे सवर्ण हिन्दुओं ने अपने लिए सुरक्षित रखा था, 20 सितंबर 1927 को बाबा साहब की अध्यक्षता में ढाई हजार दलितों के सम्मेलन में ‘मनुस्मृति’ का दहन। बाबा साहेब ने उसकी तुलना फ्रांसीसी राज्यक्रांति के दौरान बास्तील के पतन से की थी। इस घटना का ऐतिहासिक महत्व था क्योंकि उससे उपजी सवर्णों की हिंसक प्रतिक्रिया पर बाबा साहब ने अपना पक्ष रखते हुए कहा, ‘हमारा उद्देश्य समाज में समान अधिकार पाना है हिन्दू समाज में रहते हुए जिस सीमा तक संभव है उस सीमा तक! यदि जरूरी हुआ तो व्यर्थ की हिन्दू पहचान को हम उतार फेकेंगे।’ (देखें, उद्धृत, एम. एस.गोरे’, द सोशल कांटेक्स्ट आइडियालाजी’ सेज’ दिल्ली’ पृ.91)

 इसके बाद दलित-आंदोलन के इतिहास में जो सबसे बड़ी घटना थी वह थी नासिक के कालाराम मंदिर में अछूतों का प्रवेश। इससे पहले 1923 में बंबई की विधानसभा परिषद ने तालाबों’ कुंओं’ धर्मशालाओं आदि सार्वजनिक स्थलों को अछूतों के उपयोग की वैधानिक छूट दे दी थ्ंाी। मंदिर प्रवेश के लिए बाबा साहब ने 2 मार्च 1930 का दिन चुना। यह वही दिन था जब महात्मा गांधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया था। लगभग पांच हजार अछूतों ने मंदिर की ओर कूच किया। बाबा साहब की यह लड़ाई स्वाधीनता-आंदोलन के गांधीवादी तौर-तरीके के विकल्प में एक समानान्तर आंदोलन की तरह थी। उसके पीछे की भावना था, जो माँग अंग्रेजी राज से तुम्हारी है वही माँग हमारी तुमसे भी है, यानि जाति-प्रथा से मुक्ति।(श्रीवास्तव रवि, वही पृ.34)

 इतना होने के पूर्व ही यदि बाबा साहेब को दलितों के साथ हिन्दू धर्म में रुकने का अवसर मिलता तो भी उनका चेहरा आर.एस.एस या अन्य धार्मिक राष्ट्रवादियों से इतर ही होता। कालाराम मन्दिर प्रवेश के आसपास जब वह हिन्दू धर्म में दलितों को सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए संघर्षरत थे उस समय वह अपने केा प्रोटेस्ट हिन्दू कहलाने के पक्षधर थे। उस समय उनके भीतर नवीन हिन्दू मार्टिन लूथर किंग-प्रथम के प्रोटेस्ट ईसाई सा आकार पा रहा था, जिसने यूरोप में ईसाइयों के धर्मगुरू पोप और चर्च की सत्ता को चुनौती दी थी। बाबा साहब ने जब 3 जून 1927 को कालाराम मन्दिर प्रवेश का सत्याग्रह शुरू किया था, उस समय सावरकर ने उन्हें स्वतंत्र मंदिर बनाने की योजना सुझायी थी। बाबा साहेब ने सावरकर की इस स्वतंत्र मंदिर की अवधारणा का विरोध करते हुए कहा था, ‘‘नए मंदिर की कल्पना सुन्दर है, पर अस्पृश्यता दूर करने के उपाय के रूप में यदि वह अस्तित्व मेें आयेगी तो उससे सही मायने में अस्पृश्यता दूर न होकर, अस्पृश्यता बच्चों का खेल हो जाएगा। अस्पृश्यों को मंदिर में जाना है, उन्हें केवल अपना हक जताना है। अलग व्यवस्था करने से यदि अछूत लोग स्पृस्य होंगे तो अछूत, मांतग, चमार बस्तियाँ अनादिकाल से आज तक अलग हैं, उसका परिणाम क्या हुआ? अमेरिका में भी अश्वेतों के लिए सन् 1896 में वहाँ के सर्वोच्च न्यायालय ने ‘अलग किंतु बराबर‘ (सेपरेट बट इक्वल) कानून का फैसला दिया था, जिसे मार्टिन लूथर किंग द्वतीय एवं अन्य नीग्रो आन्दोलन कारियों लम्बे संघर्ष के बाद अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय ने 1954 में आकर खारिज किया। (देखें दलित साहित्य और अमेरिकन अश्वेत साहित्य-शरण कुमार लिम्बाले, पश्यंती अप्रैल-जून 1998 पृ.73-74) बाबा साहेब हिन्दू धर्म को महान आर्दश और घृणित कार्यों के बीच की पहेली मानते थे। इसीलिए उनका प्रारंभिक चरित्र हिन्दू धर्म से अलगाव का नहीं सुधार का रहा । वह हिन्दू धर्म में असमानता की जड़ उसके धार्मिक ग्रंथ मानते थे। इसलिए उन्होंने एक स्थान पर कहा भी था कि, ‘सारे हिन्दू धार्मिक ग्रंथों को तोप से उड़ाकर उनका पुर्नलेखन होना चाहिए। तब उनका आशय निश्चय ही वर्तमान हिन्दूधर्म से नहीं था जो नानापंथ जाल में फँसा असमानता और शोषण का मायका बना हुआ है। मनुस्मृति दहन के पीछे भी उनकी यही मंशा थी। विध्वंस भी उसे ही शोभा देता है जो नवसृजन का उत्तरदायित्व निभाये। बाबा साहेब ने एक अमानवीय व्यवस्था पोषक ग्रंथ को जलाया तो उसके स्थान पर, इस देश में लोकतंत्र का वाहक और समता पर आधारित एक नया ग्रंथ (संविधान) रचा भी था। संसद भवन के सामने पंडित नेहरू को संविधान सौंपते हुए चित्र में उनके चेहरे पर जो गौरवमयी आत्मसंतुष्टि का तेज दिखाई देता है क्या वह चमक एक पुस्तक (भले ही वह असमानता का हिमालय और शोषण की गंगोत्री रही हो) को जलाने के बाद उसकी जगह बतौर कन्फेशन एक नवीन पुस्तक लिखने की आत्मसंतुष्टि तो नहीं? कहीं हमारा संविधान एक महान समाज सुधारक की लेखकीय संवेदनशीलता और वैचारिक जागरूकता का परिणाम तो नहीं? खैर अगर हम मुद्दे पर लौटतें हैं तब भी बात वहीं आकर ठहर जाती है। क्या डाॅ. अम्बेडकर बौद्ध धर्म में प्रयाण नहीं करते और उन्हें हिन्दू धर्म में सम्माजनक रूप से रूकने का अवसर प्राप्त होता, तब क्या उनका रास्ता वही होता जो आज विश्व हिन्दू परिषद और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का है। जबाब ना में ही होगा क्योंकि वह पुरानी लीक पर ज्यों के त्यों चलने के पक्षधर नहीं थे। हिन्दूधर्म को भी वह उसी रूप स्वीकार करने वाले नहीं थे। वह अवश्य कोई न कोई क्रांतिकारी परिवर्तन किये वगैर न मानते। तब उसमें धामिर्क राष्ट्रवाद और सामाजिक अलगाव बाद के लिए कितना स्थान शेष रहता इसका हम अंदाज लगा ही सकते हैं। क्योंकि जिस बौद्ध धर्म को हम दुनिया का सबसे वैज्ञानिक और तर्काधारित धर्म समझते हैं। उसे भी उन्होंने ठीक वैसा ही स्वीकार नहीं किया था। उसमें भी उन्होंने अपनी बाइस प्रतिज्ञाएँ शामिल की, ‘बुद्ध और उनका धम्म’ नामक एक नवीन ग्रंथ रचा जो दुनिया के बौद्धों के लिए भले ही न सही पर भारत के बौद्धों की ‘बाईबल’ मानी जाती है, जिसके लिए बाबा साहब को बहुत से देशी और विदेशी पूर्व बौद्ध आचार्यों का कोप भाजन बनना पड़ा और सराहना भी मिली थी।7 (देखें, बुद्ध और उनका धम्म-बाबा साहेब अम्बेडकर, अनु. भदंत आनंद कौशल्यान भूमिका पृ0 6) लेकिन इसके लिए वह न तो झुके न ही समझौतावादी रास्ता अख्तियार किया। बाबा साहेब को हिन्दू धर्म में यदि किसी तरह रूकने का मौका/सहयोग और इस दिशा में कुछ स्वतंत्र करने के अवसर प्राप्त होते तो अवश्य ही आज हमारा रास्ता, भागलपुर बेलछी, अयोध्या, गुजरात और गोहाना से होकर नही जाता।  

27 नवंबर 2009

कितना बर्दाश्त करेगा दलित?




विकास और संवृद्धि के आंकडों में तब्दील होते जाने के साथ ही सामाजिक परिवर्तन और समानता आधारित मूल्यों की जो अनदेखी हुई है उसका पहला शिकार इस देश का वंचित-शोषित जन हुआ है। दलित, स्त्री और असंगठित मज़दूर मुख्यधारा की चर्चाओं से बाहर गये हैं और इसके परिणामस्वरूप देश भर में इनकी मुक्ति के लिये चल रहे आंदोलनों की धार कुंद हुई है। नयी आर्थिक व्यवस्था के समर्थकों के लिये तो मानो यह कोई मुद्दा है ही नहीं। आदिवासियों और आम जनों पर नक्सलवादी होने का ठप्पा लगाकर हमले को उद्धत शासन व्यवस्था यह सोच ही नहीं पाती कि आख़िर वे कौन से हालात हैं जिनके बीच फंसकर एक सीधासाधा इंसान हथियार उठाने को बाध्य हो जाता है।


युवा संवाद की फ़ैक्ट फ़ाईंडिंग टीम जब गाडरवारा मे मृत पशुओं का शव उठाने के ख़िलाफ़ लिये गये फ़ैसले के बाद सवर्ण उत्पीडन के शिकार लोगों का जायज़ा लेने पहुंची तो दिल दहला देने वाले तथ्य सामने आये। कुछ खास निष्कर्ष ये हैं।

१ अहिरवार समुदाय के द्वारा आत्मसम्मान के लिए गया यह निर्णय दरअसल सवर्णों की जातिगत श्रेष्ठता के लिए चुनौती जैसा बन गया है।
2 इलाके में सवर्ण/गैर दलित अपने सामाजिक और आर्थिक रौब दिखाकर अहिरवार समुदाय पर लगातार दबाव बना रहें है।

३ मृत मवेशी उठाना एक खास जाति का ही काम है की सांस्कृतिक-सामाजिक मान्यता को कायम रखने की जिद इस उत्पीड़न की जड़ है।
४ दलितों के संवैधानिक मुल्यों की हिफाजत के बदले प्रशासन सवर्णों के यथास्थिति बनाए रखने के कवायद मंे मौन सहभागी बना हुआ है।

04 अक्टूबर 2009

डा आंबेडकर से नई मुलाक़ात का वक़्त



(यह जाने माने विचारक सुभाष गाताडे के लंबे आलेख का एक हिस्सा है जिसे युवा संवाद ने एक पुस्तिका के रूप में छापा है)



एक बात जो लगभग हमारे सहजबोध (कामन सेन्स) का हिस्सा बन गयी है - जिसका हम पहले उल्लेख कर चुके हैं - जो डा अम्बेडकर के बारे में कही जाती है, कि वह ‘दलितों के मसीहा’ थे। दिलचस्प है कि समूचे राजनीतिक स्पेक्ट्रम में यह बात स्वीकार्य है। अपने आप को उनका सच्चा वारिस घोषित करनेवालों के लिए भी यह बात सुनकर कोई बेआरामी नहीं होती।


क्या उनका यह चित्रण पूरी तौर पर सही है ? या उनको दलितों का मसीहा कह देने से उनके जीवन के तमाम पक्ष छूट जाते हैं और उनकी एकांगी किस्म की छवि बनती है।



अगर उनके इस चित्रण को सही मान लें तो उनके लगभग चालीस साला राजनीतिक-सामाजिक जीवन के कई अहम पहलुओं पर चुप्पी साधनी पड़ती है। और यही बात स्वीकारनी पड़ती है कि मनु के विधान की स्वीकार्यतावाले हमारे समाज में - जिसने शूद्रों-अतिशूद्रों-स्त्रिायों की विशाल आबादी को तमाम मानवीय हकों से वंचित किया था - उन्होंने अतिशूद्रों के अधिकारों के लिए कुछ संघर्ष किया एवम कुछ रिआयतें हासिल कीं।


फिर इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन हो जाता है कि क्या वे स्त्रिायों के अधिकारों के लिए संघर्षरत नहीं रहे या क्या किसानों-मजदूरों की समस्या की ओर उनकी दृष्टि नहीं गयी, क्या जनता के आर्थिक सवालों से वह बेख़बर रहे या क्या वह शूद्रों-अतिशूद्रों का नारकीय जीवन जीने के लिए मजबूर करनेवाली जाति/जातियों के खिलाफ थे या उस मानसिकता के खिलाफ थे जिसने इस स्थिति का निर्माण किया था ? शिक्षा संस्थानों का जाल बिछाने के पीछे तथा अख़बार-पत्रा-पत्रिकाओं को शुरू करने के पीछे उनका क्या मकसद था ? और सबसे बढ़ कर क्या उन्होंने उपनिवेशवादियों के खिलाफ जारी राजनीतिक आन्दोलन की सीमा को उजागर नहीं किया जिसके लिए उन्हें जोखिम उठाना पड़ा।



एक गुलाम मुल्क में उपनिवेशवादियों के खिलाफ राजनीतिक आन्दोलनों के साथ एक सुविधा रहती हैं कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समूचे जनसमुदाय का उन्हें समर्थन प्राप्त रहता है लेकिन बाबासाहेब की अपनी जद्दोजहद का अच्छा खासा हिस्सा समाज की अपनी बीमारियों, परम्पराओं, संस्थाओं के खिलाफ, उपनिवेशवादियों के आगमन से पहले से चली आ रही उस सामाजिक-धार्मिक निज़ाम के खिलाफ था। उनके सामने खड़ी चुनौती को आसानी से समझा जा सकता है जहां उन्हें उन लोगों को भी निशाने पर लेना पड़ रहा था जो खुद साम्राज्यवाद से उत्पीड़ित थे या उसके विरोध में संघर्ष के लिए तैयार थे मगर जो खुद भारतीय समाज की उस मंज़िलनुमा बनावट के खिलाफ खडे़ होने के लिए तैयार नहीं थे। अपने एक आलेख में डा अम्बेडकर ने उच्चनीचअनुक्रम, शुद्धता एवम प्रदूषण पर टिकी भारतीय समाज रचना की तुलना उस बहुमंजिली इमारत से की थी जिसमें एक मंज़िल से दूसरी पर जाने के तमाम दरवाजे़ बिल्कुल बन्द थे। वे लोग जो जातिप्रथा को श्रम का विभाजन कह कर महिमामण्डित करते थे, उन्हें करारा जवाब देते हुए उन्होंने यह भी कहा था कि ‘जातिप्रथा श्रम का नहीं बल्कि श्रमिकों का विभाजन है।’



उनके जीवन एवम संघर्ष को सरसरी निगाह से देखने पर पता चलता है कि तमाम शोषितों-उत्पीड़ितों के हालात के प्रति उनका गहरा सरोकार एवम उसको बदल डालने के प्रति उनकी प्रतिबद्धता थी। और अहम बात जो उनके यहां नज़र आती है वह है राजनीतिक-आर्थिक संघर्षों में या सामाजिक-सांस्कृतिक हलचलों के बीच उनके यहां किसी ‘चीन की दीवार’ की अनुपस्थिति। ( क्या यह कहना अनुचित होगा कि उत्तरअम्बेडकर आन्दोलन में इस सिलसिले का बनाये नहीं रखा जा सका)



उनके जीवन के सबसे पहले ऐतिहासिक संघर्ष को ही देखें जब 1927 में महाड के चवदार तालाब पर सत्याग्रह करने वह पहुंचते हैं (19-20 मार्च 2008) जिसके बारे में मराठी में हम कहते हैं कि जब ‘उन्होंने पानी में आग लगा दी।’ मालूम हो कि महाराष्ट्र के कोकण नामक इलाके के महाड नामक क्षेत्रा के सार्वजनिक तालाब पर हजारों की संख्या में दलितों ने अन्य तमाम समानविचारी लोगों डाॅ बाबासाहेब आम्बेडकर के नेतृत्व में एक सत्याग्रह किया था। यूं तो कहने के लिए यह महज पानी पीने का हक था लेकिन इसकी विशिष्टता इसी में निहित थी कि सदियों से उच्चनीचअनुक्रम पर टिके, प्रदूषण एवम शुद्धता पर आधारित समाज केे उत्पीड़ित जनों ने अपने विद्रोह का एक संगठित हुंकार भरा था।



इस अवसर पर आयोजित सम्मेलन के प्रस्ताव गौर करनेलायक हैं। प्रस्तुत सम्मेलन में कई सारे महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किये गये। जंगल की जमीन दलितों को खेती के लिये दी जाय, उन्हें सरकारी नौकरियां मिलें, सरकार न केवल शिक्षा को अनिवार्य करे बल्कि 20 साल के छोटे लड़कों तथा 15 साल से छोटी लड़कियों की शादी पर भी पाबन्दी लगाये आदि विभिन्न आर्थिक सामाजिक मसलों पर प्रस्ताव मंजूर हुए । सरकार से अपील की गयी वह शराबबन्दी लागू करे तथा मरे हुए जानवरों का मांस खाने पर पाबंदी लगा दे । सम्मेलन में उच्चवर्णीयों से भी आवाहन किया कि वे अछूतों को उनके नागरिक अधिकार दिलाने में सहायता करें, उन्हें नौकरियां दें, अपने मरे हुए जानवरों को खुद दफनायें।



सत्याग्रह के दूसरे चरण में उन्होंनेे शुचिता तथा प्रदूषण के आधार पर उनके अपमान को जायज ठहराने वाले पवित्र कहलानेवाले मनुस्मृति नामक ग्रंथ को भी आग के हवाले किया था। (25 दिसम्बर 1927)



सम्मेलन के अपने शुरूआती वक्तव्य में बाबासाहेब ने प्रस्तुत सत्याग्रह परिषद का उद्देश्य स्पष्ट किया ।‘‘ अन्य लोगों की तरह हमभी इन्सान है इस बात को साबित करने के लिए हम तालाब पर जाएंगे । अर्थात यह सभा समता संग्राम की शुरूआत करने के लिए ही बुलायी गयी है । आज की इस सभा और 5 मई 1789 को फ्रांसीसी लोगों की क्रांतिकारी राष्ट्रीय सभा में बहुत समानताएं हैं । .. इस राष्ट्रीय सभा ने राजारानी को सूली पर चढ़ाया था, सम्पन्न तबकों के लिए जीना मुश्किल कर दिया था, उनकी सम्पत्ति जब्त की थी । 15 साल से ज्यादा समय तक समूचे यूरोप में इसने अराजकता पैदा की थी ऐसा इस पर आरोप लगता है। मेरे खयाल से ऐसे लोगों को इस सभा का वास्तविक निहितार्थ समझ नहीं आया।.. इसी सभा ने ‘जन्मजात मानवी अधिकारों को घोषणापत्रा जारी किया था.. इसने महज फ्रान्स में ही क्रान्ति को अंजाम नहीं दिया बल्कि समूची दुनिया में एक क्रांति को जनम दिया ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा‘‘ उन्होंने अपील की थी इस सभा को फ्रेंच राष्ट्रीय सभा का लक्ष्य अपने सामने रखना चाहिए..‘‘ हिन्दुओं में व्याप्त वर्णव्यवस्था ने किस तरह विषमता और विघटन के बीज बोये हैं इस पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि ‘‘ समानता के व्यवहार के बिना प्राकृतिक गुणों का विकास नहीं हो पाता उसी तरह समानता के व्यवहार के बिना इन गुणों का सही इस्तेमाल भी नहीं हो पाता। एक तरफ से देखें तो हिन्दु समाज में व्याप्त असमानता व्यक्ति का विकास रोक कर समाज को भी कुंठित करती है और दूसरी तरफ यही असमानता व्यक्ति में संचित शक्ति का समाज के लिए उचित इस्तेमाल नहीं होने देती। ॥‘‘सभी मानवों की जनम के साथ बराबरी की घोषणा करता हुआ मानवी हकों का एक ऐलाननामा भी सभा में जारी हुआ।



सभा में चार प्रस्ताव पारित किये गये जिसमें जातिभेद के कायम होने के चलते स्थापित विषमता की भत्र्सना की गयी तथा यहभी मांग की गयी कि धर्माधिकारी पद पर लोगों की तरफ से नियुक्ति हो। इसमें से दूसरा प्रस्ताव मनुस्मृतिदहन का था जिसे सहस्त्राबुद्धे नामक एक ब्राहमण जाति के सामाजिक कार्यकर्ता ने प्रस्तुत किया था । प्रस्ताव में कहा गया था कि ‘‘शूद्र जाति को अपमानित करनेवाली उसकी प्रगति को रोकनेवाली उसके आत्मबल को नष्ट कर उसके सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक गुलामी को मजबूती देनेवाली मनुस्मृति के श्लोेकों को देखते हुए ॥ ऐसे जनद्रोही और इन्सानविरोधी ग्रंथ को हम आज आग के हवाले कर रहे हैं।’’



इस सत्याग्रह के अवसर महिलाओं को दिया गया उनका स्वतंत्रा उद्बोधन काफी चर्चित रहा है। मनुस्मृति दहन के बाद रात में स्त्रिायांे को अलग सम्बोधित करते हुए डा अम्बेडकर ने जोर देकर कहा था:



‘‘ परिवार की दिक्कतें स्त्राी एवम पुरूष दोनों मिला कर ही सुलझाते है और उसी तरह समाज की, दुनिया की कठिनाइयों को भी स्त्रिायों एवम पुरूषों को दोनों को मिला कर ही सुलझानी चाहिए। स्त्रिायां ही इस काम को बखूबी कर सकती हैं, इस पर मुझे पूरा यकीन है। इसके आगे आप को भी सभाओं एवम सम्मेलनों में आना चाहिए।आप ने हम पुरूषों को जन्म दिया है। आप के पेट से जन्म लेना आखिर अपराध क्यों माना जाता है और ब्राह्मण स्त्राी के पेट से जन्म लेना पुण्य क्यों समझा जाता है ? .. स्त्रिायां गृहलक्ष्मी बनें यही हमें क्यों सोचना चाहिए, इसके आगे की मंजिल उन्हें क्यों नहीं पार करनी चाहिए ? ... ज्ञान और विद्या की आवश्यकता सिर्फ पुरूषों के लिए नहीं है वह स्त्रिायों के लिए भी उतनीही जरूरी है। इसलिए आनेवाली पीढ़ी को सुधारना हो तो आप को चाहिए कि बेटों के साथ बेटियों को भी शिक्षा दें।
स्त्रिायों को राजनीतिक-सामाजिक सक्रियताओं में उतारने की, उन्हें अधिकारों से लैस करने की चिन्ता हमें उनके समूचे जीवन में दिखती है।



अगर हम 50 के दशक में नेहरू मंत्रिमण्डल से उनके इस्तीफे पर गौर करें तो क्या वजह समझ में आती है। जहां वे इस बात के प्रति क्षुब्ध है कि अनुसूचित जातियों एवम जनजातियों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के प्रति सरकार पर्याप्त गम्भीरता का परिचय नहीं दे रही हैं वहीं वे इस बात को विशेष तौर पर रेखांकित करते हैं कि उनके इस निर्णय लेने के पीछे ‘हिन्दु कोड बिल’ को लेकर नज़र आती सरकार की आनाकानी का मसला अहम था।आखिर क्या था ‘हिन्दु कोड बिल’ ? दरअसल हिन्दु कोड बिल के जरिये आपसी सम्बन्ध विच्छेद एवम जायदाद के मामले में हिन्दु महिलाओं को अधिकार दिए जा रहे थे। सभी जानते हैं कि उसके पहले हिन्दुओं में बहुपत्नीप्रथा कायम थी, यहां तक कि तलाक या सम्पत्ति के मामले में उन्हें कोई अधिकार नहीं प्राप्त थे। हिन्दु कोड बिल को लेकर डा अम्बेडकर को जो जद्दोजहद करनी पड़ी वह अपने आप में एक रोचक इतिहास है। स्त्रिायों को अधिकारसम्पन्न कर ‘हिन्दु संस्कृति एव परम्परा को ध्वस्त करने’ की कोशिश करने के लिए कई बार उनके घर पर प्रदर्शन भी हुए। इस बिल को न केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विरोध था बल्कि कांग्रेस के अन्दर मौजूद रूढिवादी/सनातनी तत्वों ने भी उनके इस कदम की लगातार मुखालिफत की थी जिसमें अग्रणी थे बाबू राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल आदि।नेहरू मंत्रिमण्डल से इस्तीफा सौंपते हुए प्रस्तुत वक्तव्य में उन्होंने लिखा था:



‘हिन्दु कोड बिल एक तरह से इस मुल्क की विधायिका द्वारा हाथ में लिया गया समाज सुधार का सबसे बड़ा कदम था। अतीत में हिन्दोस्तां की विधायिका द्वारा पारित किसी भी कानून से या भविष्य में पारित किए जा सकनेवाले किसी भी कानून से इसकी तुलना नहीं की जा सकती। वर्ग और वर्ग के बीच की गैरबराबरी, लिंगों के बीच की गैरबराबरी - जो हिन्दु समाज की आत्मा है - को अक्षुण्ण बनाये रखना तथा आर्थिक समस्याओं को लेकर एक के बाद एक विधेयक पारित करते रहना, एक तरह से संविधान का माखौल उड़ाना है और गोबर के ढेर पर महल खड़े करने जैसा है। ॥मेरे लिए हिन्दु कोड का यही महत्व रहा है। और अपने मतभेदों के बावजूद इसी वजह से मैं मंत्रिमण्डल का सदस्य बना रहा।’



डा अम्बेडकर के जीवन और संघर्षों की व्यापकता जानना हों तो तीस का दशक कई मायनों में अहम दिखता है जिसमें वह सामाजिक-सांस्कृतिक मोर्चे पर भी नयी जमीन तोड़ते प्रतीत होते हैं वहीं वह राजनीतिक-आर्थिक मसले पर भी एक अलग रास्ता अख्तियार करते नज़र आते हैं।
(शेष अगली पोस्ट में )

27 सितंबर 2009

देश को तोड़ता है जातिवाद

देश में एक सामूहिक चेतना के विकास में सबसे बड़ा बाधक है जातिवाद। ब्राह्मणवाद संचालित हमारी जातिव्यवस्था हमेशा से ही अवसरवाद की चरम अनुयायी और पतनशील राज्यव्यस्थाओ की सहभागी तथा सहयोगी रही है। आजादी के दौर में पनपे तीनो विचारधारात्मक सरणियों में क्रांतिकारी विचारधारा के वैचारिक प्रतिनिधि भगत सिंह ने अछूत समस्या पर पहली बार वैज्ञानिक तरीके से व्याख्यायित किया। वह पूरी सामाजिक- आर्थिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन चाहते थे। इसीलिये यथास्थितिवादी कांग्रेस और पुनरुत्थानवादी मुस्लिम लीग और संघ दोनों ही भगत सिंह की वैचारिक विरासत के वाहक नहीं हो सकते। देशभक्ति उनके लिये देश की जनता को साम्राज्यवाद से मुक्ति दिलाकर एक शोषणमुक्त समाज की स्थापना थी । यह कहा भगत सिंह के जन्म दिवस पर युवा संवाद द्वारा आयोजित खुली बहस में भागीदारी करते हुए सेंट स्टीफ़ेंस कालेज के डा संजय ने। विषय था- देश देशभक्ति और भगत सिंह
अध्यक्ष डा जी के सक्सेना ने कहा कि हम हमेशा से दोहरे संस्कारों से घिरे रहे हैं। यहां अपनी गलतियों के लिये माफ़ी का रिवाज़ नही बल्कि उसे झुठलाने की कोशिश की जाती है। शहीदों की मूर्तियां हमने लगवायीं पर विचार तिरोहित कर दिये।
अजय गुलाटी ने कहा कि युवा संवाद जातीय, धार्मिक तथा लैंगिक भेदभाव के ख़िलाफ़ चेतना विकसित करने का काम करता रहेगा। आम जन आगे आकर हमारा सहयोग करें ताकि इस काम में गति आ सके।।
इस अवसर पर ग्वालियर इकाई द्वारा प्रकाशित पुस्तिका '' भगत सिंह ने कहा'' और भोपाल इकाई द्वारा प्रकाशित '' अंबेडकर से नई मुलाकात का वक़्त'' का विमोचन भी हुआ।
कार्यक्रम में युवा संवाद और स्त्री अधिकार संगठन के साथ शहर के बुद्धिजीवियों, युवाओं तथा नaगरिकों ने प्रभावी भागीदारी की।
भगत सिंह के जन्म दिवस पर