27 नवंबर 2009

कितना बर्दाश्त करेगा दलित?




विकास और संवृद्धि के आंकडों में तब्दील होते जाने के साथ ही सामाजिक परिवर्तन और समानता आधारित मूल्यों की जो अनदेखी हुई है उसका पहला शिकार इस देश का वंचित-शोषित जन हुआ है। दलित, स्त्री और असंगठित मज़दूर मुख्यधारा की चर्चाओं से बाहर गये हैं और इसके परिणामस्वरूप देश भर में इनकी मुक्ति के लिये चल रहे आंदोलनों की धार कुंद हुई है। नयी आर्थिक व्यवस्था के समर्थकों के लिये तो मानो यह कोई मुद्दा है ही नहीं। आदिवासियों और आम जनों पर नक्सलवादी होने का ठप्पा लगाकर हमले को उद्धत शासन व्यवस्था यह सोच ही नहीं पाती कि आख़िर वे कौन से हालात हैं जिनके बीच फंसकर एक सीधासाधा इंसान हथियार उठाने को बाध्य हो जाता है।


युवा संवाद की फ़ैक्ट फ़ाईंडिंग टीम जब गाडरवारा मे मृत पशुओं का शव उठाने के ख़िलाफ़ लिये गये फ़ैसले के बाद सवर्ण उत्पीडन के शिकार लोगों का जायज़ा लेने पहुंची तो दिल दहला देने वाले तथ्य सामने आये। कुछ खास निष्कर्ष ये हैं।

१ अहिरवार समुदाय के द्वारा आत्मसम्मान के लिए गया यह निर्णय दरअसल सवर्णों की जातिगत श्रेष्ठता के लिए चुनौती जैसा बन गया है।
2 इलाके में सवर्ण/गैर दलित अपने सामाजिक और आर्थिक रौब दिखाकर अहिरवार समुदाय पर लगातार दबाव बना रहें है।

३ मृत मवेशी उठाना एक खास जाति का ही काम है की सांस्कृतिक-सामाजिक मान्यता को कायम रखने की जिद इस उत्पीड़न की जड़ है।
४ दलितों के संवैधानिक मुल्यों की हिफाजत के बदले प्रशासन सवर्णों के यथास्थिति बनाए रखने के कवायद मंे मौन सहभागी बना हुआ है।

9 टिप्‍पणियां:

chandrapal ने कहा…

दलित हमेशा से ही बर्दाश्त करता आया है. आपने जो लिखा है , मै उससे सहमत हूं पर क्या हम उस दिशा में सच्चाई से सोच पा रहे है...ये एक मह्त्वपुर्ण सवाल है.

हिन्दी साहित्य मंच ने कहा…

बहुत ही दुखद है ऐसी घटनाएं । आपकी पोस्ट को पढ़कर वास्तविकता के करीब महसूस कर रहा हूँ । आखिर कैसे जिये भला कोई इस हाल में ? जबकि सरकार कह रही है कि नक्सल और आतंकवाद समान है ।

varsha ने कहा…

मृत मवेशी उठाना एक खास जाति का ही काम है की सांस्कृतिक-सामाजिक मान्यता को कायम रखने की जिद इस उत्पीड़न की जड़ है।
sochne par mazboor karti post.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

विचारणीय और शोचनीय!
मायावती जी कहाँ हो तुम?

Ashok Kumar pandey ने कहा…

पर यह तो शिवराज के राज की घटना है शाष्त्री जी?

Sunita Sharma Khatri ने कहा…

यह पोस्ट पढने के बाद क्या हम सिर्फ सोच-विचार कर सकते है कुछ ऎसा क्यो नही कर सकते जिससे इन्हे रोका जा सके।

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

मध्यप्रदेश इस मामले में बहुत पिछड़ा हुआ है। वहाँ सामंती संबंध अब भी मजबूती के साथ विद्यमान हैं। कारण है धीमा औद्योगिकीकरण। जब तक भूमिहीन दलितों को वैकल्पिक रोजगार नहीं मिलता वे सामंतवाद की जकड़न से बाहर नहीं आ सकते।

शिरीष कुमार मौर्य ने कहा…

द्विवेदी जी का कथन बिलकुल सही है. मेरा शहर पिपरिया भी बगल में ही है. हालांकि उस पूरे परिवेश में मैं बहुत कम रहा हूँ . हमारा परिवार वहाँ का एक तथाकथित बड़ा परिवार माना जाता था और मुझे पहाड़ से वहाँ जाने के बाद एक अजीब सी घुटन होती थी. अब भी होती है - हमारे उत्तराखंडी समाज के बरक्स देखें तो वो इलाका बेहद पिछड़ा और सामंती है और इसकी वजहें वहाँ के राजनीतिक इतिहास में साफ़ देखी जा सकती है !

Unknown ने कहा…

govt ke lagatar attempt ke baad iss tarah ki incidents dukhdai hai.kissi bhi cost ko presurise karke purani parampara ka hawala deker work nahi liya ja sakta. samaj ke seniors ko age laker samasya ka samadhan local level per solve hona hi chahiye. vijaybajaj hatta dist,damoh m.p.