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04 अप्रैल 2011

मार्टिन लूथर किंग को नमन और भारत में दलित संघर्ष की दिशा-




मार्टिन लूथर किंग की पुण्य तिथि पर थोडा भारत में भी दलित संघर्ष पर एक संक्षिप्त  चर्चा हो जाये ! 

यह भी उस क्रांतिकारी को याद करने का एक जरिया है ! दरअसल ,भारत में यह लड़ाई ज्यादा उलझी हुई और दुरूह है ! अमेरिका में ये एक नस्ल की लड़ाई दूसरे नस्ल के साथ थी ! मामला ज्यादा साफ़ था ! भारत में ये एक ही नस्ल के अन्दर का  मामला है, और धर्म से जुड़ा हुआ भी   (हिन्दू और मुस्लिम दोनों की बात है )! हिन्दू धर्म में ये संघर्ष तो काफी समय से चल भी रहा है परन्तु मुस्लिम समुदाय में इसे "मुस्लिम ब्रदरहुड " के नाम पर दबा दिया गया है! फिलहाल मुस्लिम दलित अपने संघर्ष पर खामोश ही दीखता है ! गांधी और आंबेडकर को  इस संघर्ष में योगदान को मैं एक विरोधाभास नहीं बल्कि एक दुसरे के पूरक के रूप में देखता हूँ ! किसी एक को श्रेष्ठ ठहराने कि परंपरा इन दलितों के संघर्ष के विरुद्ध है और नुक्सान देह भी ! जहा आंबेडकर दलितों के अत्मुत्थान के लिए एक विद्रोह कि बात करते थे वही गांधी उच्चजातियों के मानसिक परिवर्तन की बात उठाते थे ! ध्यान से देखें तो दोनों ही सिद्धांत आवश्यक है और एक दुसरे की पीठ थपथपाते  हैं ! यहाँ इस बात को दरकिनार करना होगा कि गाँधी कितने आंबेडकर विरोधी थे और आंबेडकर कितने गांधीविरोधी ! क्योकि दलित उद्देश्य की प्रधानता है न कि व्यक्ति विशेष की ! सिद्धांतों में समय और परस्थितियों के अनुसार टकराव आवश्यक है , इससे नए विकास को बल मिलता है ! उत्तर भारत में ८०-९० दशक में कांशीराम के  व्यावहारिक दलित राजनीति को नज़रंदाज़ करना भी एक भूल होगी! उन्होंने आंबेडकर के सिद्धांतों को गांधीवादी व्यवहारिक राजनीति का रूप देते हुए दलितों को एक मंच पर लाने की कोशिश की जिसके फलस्वरूप आज भारत के सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य में एक दलित महिला राजनीति के उच्च शिखर पर है! आज दलित संघर्ष भारत के दूसरे चरण में पहुच गया है , स्थितियां आंबेडकर और गांधी के ज़माने से आगे निकल चुकी हैं! दूसरे चरण का आशय है कि दलितों को अब आत्मसम्मान के साथ जीने के अलावा समाज में आर्थिक समानता लाने के लिए एक माडल पर विचार करना होगा ! क्योकि दलितों के भीतर भी अमीर  और गरीब की लड़ाई अब तेज़ हो जायेगी ! उन्हें चुनना होगा कि कौन सा विकल्प बेहतर है -वर्तमानं पूंजीवाद का रूप या फिर साम्यवाद/समाज वाद  का माडल ! क्योकि दलित संघर्ष की रणनीति अभी तक यही रही है कि जो भी सिस्टम या माडल हो उसपर कब्ज़ा करो ! लेकिन भारत में अब उनके मुखर और जाग्रत राजनीति को देखकर लगता है कि उन्हें भी अब राष्ट्र निर्माण के लिए समाजवाद का आर्थिक माडल जल्दी ही चुनना पड़ेगा ! 

अगड़ी जातियों के संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों ने पूंजीवाद का ललक कर स्वागत किया है क्योकि ये उन्हें समाज में एक बचने का और संप्रभुता जमाये रखने का एक साधन देता है! दलित संघर्ष अगर समाजवाद  /साम्यवाद से जुड़ जाये तो विरोधी मानसिकता वालों के लिए ये एक संकरा रास्ता भी बंद हो जायेगा ! अब अम्बेडकर और गाँधी से आगे निकलने का वक़्त आ गया है(प्रासंगिकता तो हमेशा रहेगी) क्योंकि  एक नए समाज की रचना बगैर एक सुद्रढ़ आर्थिक माडल के बगैर संभव नहीं है! अगर दलित संघर्ष में मुस्लिम समुदाय की बात न करें तो बात अधूरी रहेगी क्योकि भारत की १/५ आबादी इन्ही की है ! दुर्भाग्य है कि आज का राजनैतिक  नेत्रत्व मुस्लिम समाज को एक अल्पसंख्यक से ज्यादा नहीं देख पाया लेकिन लगभग  ५०% मुस्लिम दलित भी किसी नेतृत्व की आस लगाये बैठे हैं! अच्छा तो यही होता कि उनके लिए आवाज़ मुस्लिम समाज के अन्दर से ही उठती लेकिन ऐसा न होने कि स्थिति में गैर मुस्लिम दलितों और साम्यवादियों को उनको भी राजनीति के मुख्या द्रश्य्पटल पर लाना चाहिए! ये बात जरुर है कि मुस्लिम समुदाय अभी भी फतवों की परंपरा में ही उलझा है! यहाँ शायद गैर मुस्लिम दलितों   और साम्यवादियों को बहुत हिम्मत की जरुरत पड़ेगी.

  • संतोष कुमार पाण्डेय