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25 अगस्त 2012

दखल का आयोजन - स्त्रियों के प्रति बढ़ती हिंसा और हमारा समाज




यह पोस्टर यहाँ से 

स्त्रियों के प्रति बढ़ती हिंसा और हमारा समाज
‘खुली बहस’
मुख्य वक्ता – प्रोफ़ेसर सविता सिंह, अध्यक्ष, स्त्री अध्ययन विभाग, इग्नू, दिल्ली

अध्यक्षता – प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा, इतिहासकार व संस्कृतिकर्मी
दिन – 2 सितम्बर, रविवार दिन में ग्यारह बजे से   , स्थान – चैंबर आफ कामर्स, ग्वालियर 




 बात ग्वालियर से शुरू करते हैं. दो घटनाएं हुईं पिछले दिनों. पहली घटना में कुछ गुंडों ने एक मासूम छात्रा को कोचिंग के बाहर से अपहृत कर लिया और फिर दुराचार करने के बाद सडक पर फेंक कर भाग गए. दूसरी घटना में माँ-बाप ने अपनी दुधमुंही बच्ची को अपनाने से यह कहकर मना कर दिया कि ‘हमें तो लड़का हुआ था’. बच्ची दो दिनों में मर गयी. बाद में डी एन ए टेस्ट से पता चला कि बच्ची उन्हीं की थी. और इन घटनाओं के बीच भ्रूण हत्या, भेदभाव, दहेज़ ह्त्या, बलात्कार, यौन उत्पीड़न, छेड़छाड़ जैसी तमाम घटनाओं की एक लम्बी श्रृंखला है जिससे देश का कोई कोना अछूता नहीं. ये घटनाएं समाज के स्त्री के प्रति दृष्टिकोण का आइना हैं. अनचाही औलादों की तरह जन्मीं और फिर बचपन से ही डरते-सहमते दोयम दर्जे के नागरिक की तरह किसी न किसी पुरुष की छाया में जीती हुई उसके सुख-सुविधाओं के प्रबंध में जीवन भर खटती हुई औरत एक मुकम्मल इंसान बन ही नहीं पाती. आज जब पढ़-लिख कर वह समाज में अपनी जगह बनाने की लड़ाई लड़ रही है तो भी उसे लगातार उठी हुई उँगलियों के बीच वैसे रहना होता है जैसे बत्तीस दांतों के बीच जीभ. जरा सा फिसली और चोट सहने को मजबूर. आज भी पुरुष समाज उसकी सारी गतिविधियों को नियंत्रित करना चाहता है और उसकी कोई भी गलती उसके लिए जानलेवा बन सकती है, यहाँ तक कि किसी के प्रेम प्रस्ताव का ठुकराना भी. गुवाहाटी में सरेराह उस मासूम लड़की के साथ जो हुआ, वह हमारे समाज की मानसिकता को दिखाता है. तेज़ाब फेंकने, तंदूर में जलाने, अपहरण और बलात्कार, सरेआम बेइज्जती जैसी ये तमाम घटनाएं बता रही हैं कि सामाजिक-आर्थिक प्रगति और स्त्रियों की पढ़ाई-लिखाई व रोजगार में उल्लेखनीय प्रगति के बावजूद समाज का रवैया उनके प्रति और हिंसक हुआ है.

विडंबना यह कि औरतों के प्रति होने वाले अत्याचार के लिए भी उसे ही जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है. बलात्कार इकलौता ऐसा अपराध है जिसमें अपराधी शान से घूमता है और पीड़िता का जीवन नरक हो जाता है. समाज के नेतृत्वकर्ताओं से लेकर पुलिस प्रशासन के अधिकारी और बड़े-बूढ़े तक लड़कियों को ‘ढंग के कपड़े’ पहनने की सलाह देते हुए यह कभी नहीं सोचते कि चार-पांच साल की बच्चियों और गाँव-देहात की गरीब औरतों पर फिर क्यों अत्याचार होता है? ज़ाहिर है, इसके कारण कहीं और हैं? शायद हमारी मानसिकता और सामाजिक बुनावट में, शायद हमारे राजनीतिक ढाँचे में, शायद गैरबराबरी वाली हमारी बुनियाद में.

आइये खुल कर बात करते हैं इस पर कि भविष्य में इन्हें रोका जा सके...छोटा सा सही, पर कदम तो उठाना ही पड़ेगा...आइये कि हम अपनी बच्चियों को एक सुरक्षित और खुशहाल भविष्य देने की दिशा में कदम उठा सकें.

दखल विचार मंच                     स्त्री मुक्ति संगठन
संपर्क - 9425787930 , 9039968068, 08889291748, 9039003253, 9425754524                                         


12 फ़रवरी 2012

सोनी सोरी की रिहाई के लिए धरना होगा.







दखल विचार मंच की पूर्वनिर्धारित बैठक आज फूलबाग स्थित गाँधी प्रतिमा के पास हुई. इसमें निम्नलिखित निर्णय लिए गए.

१- आगामी शनिवार, १८ फरवरी को फूलबाग गेट पर शाम ३ बजे से ५ बजे तक सोनी सोरी की रिहाई तथा उनका उत्पीडन करने वाले पुलिसकर्मी के पुरस्कार पर पुनर्विचार की मांग के साथ धरना दिया जाएगा. इसमें ग्वालियर के विभिन्न संस्कृतिकर्मी, साहित्यकार, ट्रेड युनियन कर्मी और बुद्धिजीवियों सहित आम जन की भागीदारी होगी.

२- आगामी २३ मार्च को शहीद भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव की शहादत दिवस पर शहीद मेला का आयोजन किया जाएगा. इसमें उन पर आधारित नाटक, जनगीत, भाषण, पुस्तक प्रदर्शनी, पोस्टर प्रदर्शनी आदि का आयोजन होगा.

३- इस अवसर पर युवा दखल का शहीद अंक निकाला जाएगा. यह अंक आजादी की लड़ाई में शहीद हुए उन शहीदों पर केंद्रित होगा जिन्हें मुख्य धारा के इतिहास से बाहर रखा गया है. साथ ही इसमें आज के समय में हाशिए की तमाम लड़ाइयों पर सामग्री होगी. सभी मित्रों से इसमें रचनात्मक तथा अन्य सहयोगों की अपेक्षा तथा अपील है.



बैठक में सर्वश्री राकेश अचल, राजेश शर्मा, जितेन्द्र बिसारिया, अशोक चौहान, अजय गुलाटी, अमित शर्मा, राहुल तिवारी, आशीष देवराड़ी, किरण पाण्डेय तथा अशोक कुमार पाण्डेय शामिल थे.

13 अक्टूबर 2011

भारतीय लोकतंत्र एक सामंती लोकतंत्र है - मदन कश्यप



ग्वालियर में शहीद ए आजम भगत सिंह के जन्म दिवस पर गत २७ सितम्बर को ‘दखल विचार 
मंच’ द्वारा आयोजित व्याख्यानमाला



ग्राम्शी ने कहा था कि एक बुर्जुआ लोकतंत्र में पूँजी जनता के सामूहिक विवेक को नियंत्रित करती है. आज भारत सहित सारी दुनिया में यह देखा जा सकता है. इन लोकतंत्रों में सारे निर्णयों और सारी गतिविधियों के केन्द्र में लोक नहीं पूंजीपति हैं. बड़े स्पष्ट तरीके से नीतियाँ इस प्रकार बनाई जा रही हैं कि वे पूंजीपतियों के वर्ग-हितों के अनुरूप हों. इस प्रक्रिया में स्वाभाविक रूप से समाज का बड़ा हिस्सा वंचना का शिकार होकर हासिये पर जा रहा है. किसान, मजदूर और आदिवासी अब सत्ता विमर्श के केन्द्र पर नहीं हैं. एक ऐसा विकास-विमर्श प्रचलित किया जा रहा है जिसमें पूंजीपतियों की समृद्धि को ही विकास का पर्याय बना दिया गया है. यह केन्द्र लगातार संकुचित हो रहा है और हाशिया बढ़ता जा रहा है. इसके स्रोत सत्ता की बदली हुई शब्दावली में भी देखे जा सकते हैं. संविधान में कहीं ‘केन्द्र’ शब्द का प्रयोग नहीं है. वहाँ ‘संघीय शासन’ की बात की गयी थी. लेकिन आप देखेंगे कि मीडिया से लेकर सत्ता तक की भाषा में ‘केन्द्र सरकार’ का प्रचलन है. यह सिर्फ भाषा का खिलवाड नहीं. यह उस बदले हुए वैचारिक परिदृश्य को भी दिखाता है जिसमें सभी का प्रतिनिधित्व करने वाली और विभिन्न राष्ट्रीयताओं तथा समाजों के एक संघ की प्रतिनिधि सरकार एक सर्वाधिकारी केन्द्रीय सत्ता में तब्दील हो गयी है. यह बातें ग्वालियर स्थित कला वीथिका में शहीद ए आजम भगत सिंह के जन्म दिवस पर गत २७ सितम्बर को ‘दखल विचार मंच’ द्वारा आयोजित व्याख्यानमाला में हिस्सेदारी करते हुए वरिष्ठ कवि तथा विचारक मदन कश्यप ने मुख्य वक्तव्य देते हुए कहीं. पूंजीवादी लोकतंत्र के भीतर पैदा होने वाले विभाजनों की विस्तार से चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि ‘इस केन्द्र और हासिये के विभाजन का असर भी शुरू से ही साफ़ दिखाई देने लगा था. कश्मीर, पूर्वोत्तर ही नहीं देश के तमाम हिस्सों सहित लगभग हर राज्य में इस द्वंद्व का प्रतिफलन हिंसक/अहिंसक संघर्षों में हुआ है. सुविधाप्राप्त तथा वंचितों के बीच बढ़ती खाई ने भारत ही नहीं दुनिया भर में एक ऎसी स्थिति बनाई है जिसमें लोगों का गुस्सा साफ़ दिखाई दे रहा है. अरब देशों से लगाए यूरोप और अमेरिका तक में जारी जनता के विरोध प्रदर्शन पूंजीवादी लोकतंत्र की इसी विफलता के स्वाभाविक परिणाम हैं. यहाँ बड़ी भूमिका निभाने में क्रांतिकारी शक्तियों की अक्षमता ही पूंजीवाद को अब तक ज़िंदा रखे है. ऐसा क्यों है, इस पर गंभीर विचार की ज़रूरत है.’


विषय प्रवर्तन करते हुए वरिष्ठ लेखक डा मधुमास खरे ने विस्तार से भगत सिंह के वैचारिक स्रोतों का ज़िक्र करते हुए कहा कि आज दक्षिणपंथी ताकतें भगत सिंह के नाम पर भ्रम फैलाना चाहती हैं लेकिन उनका लिखा उनकी सही वैचारिक स्थिति और क्रांतिकारी सोच का पता देती है. उन्होंने युवाओं से उनके लेखों को गंभीरता से पढ़ने की सलाह दी.

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए ट्रेड युनियन कर्मी का. राजेश शर्मा ने देश-दुनिया में चल रहे संघर्षों की और इशारा करते हुए कहा कि यह समय दुनिया भर की क्रांतिकारी शक्तियों के तैयार हो जाने का है. पूंजीवादी लोकतंत्र की सीमाएँ सामने आ गयी हैं और जनता उसका असली चेहरा पहचान चुकी है. आज ज़रूरत इसका बेहतर विकल्प प्रदान करने की है.



कार्यक्रम के आरंभ में दखल की सांस्कृतिक टीम ने क्रांतिकारी गीतों की प्रस्तुति की. इस अवसर पर ‘भगत सिंह ने कहा’ सीरीज के पोस्टरों तथा पुस्तकों की एक लघु प्रदर्शनी भी लगाई गयी थी. कार्यक्रम का संचालन युवा कवि अशोक कुमार पाण्डेय ने किया तथा इसमें ज़हीर कुरैशी, ए असफल, संतोष निगम  गुरुदत्त शर्मा, सतीश गोविला, डा अशोक चौहान, डा जितेन्द्र विसारिया, अमित शर्मा, जयवीर राठौर, किरण, ज्योति सिंह, आशीष देवरारी सहित अनेक लोग उपस्थित थे.

प्रस्तुति – फिरोज खान   

18 सितंबर 2011

शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की जयन्ती पर व्याख्यान और परिचर्चा


शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की १०५वीं जयन्ती पर व्याख्यान और परिचर्चा
‘हाशिए का समाज और लोकतंत्र की सीमाएँ’


भगत सिंह भारतीय मुक्ति संग्राम में न केवल एक ऐसे जांबाज सिपाही की तरह सामने आते हैं जिसने दुश्मनों के सामने कभी घुटने नहीं टेके बल्कि एक ऐसे विचारवान क्रांतिकारी की तरह भी सामने आते हैं जिसने भारत के भविष्य के लिए एक ऐसा स्वप्न देखा था जिसमें एक शोषण-विहीन समाजवादी व्यवस्था की स्थापना हो सके. उनमें  वर्तमान और भविष्य को देख-समझ पाने की जो अंतर्दृष्टि थी उसी के चलते अपने लेखों में उन्होंने शायद उस दौर में पहली बार जाति और धर्म जैसे मसलों के आजादी की लड़ाई के साथ आपसी रिश्तों की सटीक पहचान की थी और साथ ही यह भी कहा था कि ‘अगर गोरे अंग्रेजों के बाद यहाँ काले अंग्रेज आ गए तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा. आजादी का अर्थ व्यवस्था परिवर्तन है’. आजादी के इतने सालों बाद उनका जन्मदिन हमें आजादी के वही बचे हुए कार्यभार याद दिलाता है. अपना शासन चलाने के लिए हमने जो राजनैतिक-आर्थिक व्यवस्थाएं चुनीं, आज तमाम तथ्यों की रौशनी में उन पर विचार कर उन शहीदों के सपनों के भारत को बनाने के लिए कोशिश करना ही उनके शहीदी दिवस या जयंतियों के आयोजन को अर्थपूर्ण बना सकता है. ‘दखल विचार मंच’ पिछले तमाम वर्षों से ऐसे ही सवालों से जूझने की कोशिश कर रहा है.

यह कोई छिपा हुआ तथ्य नहीं है कि एक तरफ तो पढ़ा-लिखा शहरी और देश के केन्द्र में रहने वाला तबका वर्तमान राजनैतिक-आर्थिक व्यवस्था से लाभान्वित हुआ है तो दूसरी तरफ उत्तर-पूर्वी भारत, झारखंड, छत्तीसगढ़ और अन्य आदिवासी इलाकों जैसे तमाम हाशिए के समाजों और आर्थिक रूप से पिछड़े हुए तबके को इसकी कीमत चुकानी पड़ी है. इरोम शर्मिला हों या हिमांशु कुमार, इसके खिलाफ आवाज़ उठाने वालों के साथ जो व्यवहार हुआ है उसने लोकतंत्र की मूल भावना को कटघरे में खड़ा किया है. आखिर ‘समानता और भातृत्व’ की बात करने वाला आधुनिक लोकतंत्र देश के इन उत्पीड़ित समाजों को न्याय क्यों नहीं दे पा रहा? यह लोकतंत्र की सीमा है या फिर हमारे नेतृत्वकर्ताओं की?  इसका विकल्प क्या हो सकता है?

इन्हीं सवालों से जद्दोजेहद करने के लिए हमने भगत सिंह जयन्ती , 27 सितम्बर, दिन मंगलवार को पड़ाव स्थित कला वीथिका में शाम साढ़े पाँच बजे से एक व्याख्यान और परिचर्चा आयोजित की है जिसका विषय है - ‘हाशिए के समाज और लोकतंत्र की सीमाएँ’. कार्यक्रम के मुख्य वक्ता होंगे जाने-माने कवि ,विचारक और ‘पब्लिक एजेंडा’ के साहित्य संपादक श्री मदन कश्यप.
               
                      आइये मिलकर विचार करें क्योंकि लोकतंत्र सिर्फ नेताओं नहीं जनता का भी मसला है.
                              
                                                                                                                                 सादर अभिवादन सहित
संयोजन समिति, दखल विचार मंच