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03 मार्च 2010

ब्लागजगत के बारे में कुछ निष्कर्ष

कोई दो साल हुए जब मरा पहला परिचय ब्लागजगत से हुआ था..मुझे यह एक नयी दुनिया लगी थी और बड़े उत्साह से कम्प्यूटर से पूरी तरह अनजान होने के बावज़ूद मैने इस जगत में प्रवेश किया था। ब्लाग बनाया, लिखा और टिप्पणियां भी ख़ूब कीं। सहमतियां बनीं, तमाम दोस्त बने और साथ ही असहमतियां और दोस्तों से कहीं ज़्यादा दुश्मन भी। अक्सर यह कहकर मन को बहलाये रखा कि 'कुछ लोग शहर में हमसे भी ख़फ़ा हैं- अपनी भी हरेक से तबियत नहीं मिलती।' लेकिन आज जब मैंने इन दो सालों में 'क्या खोया-क्या पाया' वाली नज़र से पुनरावलोकन करने की कोशिश की तो पिछले दो हफ़्तों में कुछ निष्कर्षों तक पहुंचा। इन्हें आपसे शेयर करना ज़रूरी समझा सो कर रहा हूं।
१) यह एक माध्यम के तौर पर दुतरफ़ा संवादों की भरपूर संभावना वाला माध्यम है।
२) लेकिन अभी इस पर अराजकता इस क़दर हावी है कि असहमतियां दुश्मनी का सबब बन जाती हैं, भाषा का संस्कार और असहमतियों का सम्मान दूर की कौड़ी है और ज़्यादातर लोग इतने आत्ममोहग्रस्त हैं कि उन्हें 'बहुत अच्छा', 'क्या बात है', 'सही कहा' से इतर कुछ भी व्यक्तिगत आलोचना लगता है।
३) समाज में जो लोकतंत्र का अभाव है वह यहां पर कुछ ज़्यादा ही भयावह तरीके से दिखता है।
४) यह कुल मिलाकर, जैसा कि भाई बोधिसत्व कहते हैं - बहता हुआ पानी है! पुराना सबकुछ बस रिकार्ड्स में रहता है।
५) यहां विस्तृत विवेचना संभव नहीं। होता यही है अक्सर कि हम टिप्पणियों पर टिप्पणी कर रहे होते हैं।
६) प्रिंट पर जिस ' म्यूचुएल एडमायरेशन कमेटी' बनते जाने का आरोप है यहां वह प्रिंट से हज़ार गुना ज़्यादा है।
७) सस्ती लोकप्रियता, भाई-भतीजावाद, ग्रुपिज़्म जैसी चीज़ें सिद्धांत में चाहे जितना गरियाई गयी हों असल में यहां उपस्थित हैं और पूरी वीभत्सता के साथ उपस्थित हैं।
८) इस माध्यम का प्रयोग सबसे अच्छी तरह से वही लोग कर रहे हैं जो पाठकों के लिये हिन्दी या विश्व साहित्य तथा अन्य विधाओं से श्रेष्ठ रचनायें उपलब्ध करा रहे हैं।
९) यहां अगर आप संवेदनशील और अपने कहे के प्रति सजग हैं तो समय बहुत जाया होता है और परिणाम अक्सर दुश्मनों की संख्या में बढ़ोत्तरी के रूप में निकलता है।
शायद यही वे निष्कर्ष हैं जिन्होंने मुझे निराश किया है, यहां-वहां टिप्पणियां न देने का निर्णय लेने पर बाध्य किया है और अपना ज़्यादा ध्यान प्रिंट पर केन्द्रित करने के लिये प्रेरित किया है। शायद विद्वतजन यह सब पहले ही समझ चुके थे। आप बताईये मैने क्या ग़लत फ़ैसला लिया है?

18 फ़रवरी 2010

एक पुरानी दोस्त को आखिरी सलाम!

अब कभी नही बैठेंगे हम ऐसे मेरे दोस्त
आज आख़िरी सिगरेट एश ट्रे में डालकर बुझा चुका हूं…
वादा किया था ख़ुद से कि उस दिन ही यह कविता पोस्ट करुंगा तो कर रहा हूं। कोई उपदेश नहीं। इसे छोड़ना मेरे लिये किसी ऐसे दोस्त को छोड़ना है जिससे कोई उम्मीद नहीं बची है पर प्यार ढेर सारा बचा है।


छोड़ ही दूंगा मैं तुम्हें एक दिन…


एक दिन छोड़ दुंगा तुम्हें
सीने पर आला अड़ाये
रोज़ धमकाता है डाक्टर
पत्नी हर कश पर हो जाती है थोड़ा और उदास
बिटिया अक्सर रूठ कर फेर लेती है मुंह
कहे-अनकहे के बीच सब चाहते हैं तुमसे मुक्ति
सांसो के अदम्य मोह से आविष्ट
छोड़ ही दूंगा मैं तुम्हें एक दिन…


एक दिन उठूंगा नींद से
और सूरज की ओर से आश्वस्त हो
उस जानी-पहचानी जगह जब पहुंचेंगे हाथ
तो बस स्मृतियां होंगी तुम्हारी
रसोई के अलावा कहीं नहीं होगी आग


एक दिन जब बहुत दिन बाद
दोस्तों की किसी भरी-पूरी महफ़िल में
हज़ारों बार सुनी कविता पर दूंगा दाद
या यूं ही किसी शेर पर झूम उठूंगा
तो उंगलिया उदास हो ढूंढेगी तुम्हें
एक क्षण के दोस्ती पर जम जायेगा धुंआ

एक शाम जब किसी बिल्कुल नई किताब से गुज़रते हुए
ठहरुंगा किसी पंक्ति पर
और झूम-झूम कर दुहराऊंगा उसे
तब यूं ही खींच ली जायेगी दराज़
और वहां तुम्हारी स्मृतियां होंगी और गंध


तुम
सबके आंखों का कांटा
कब तक समझाउंगा सबको
कि तुम तब रही मेरे साथ जब और नहीं था कोई
सबके आने के बाद
जैसे छूट गईं ढेर सारी चीज़ें
तुम्हें छोड़ना होगा मुझे
चुकानी ही होगी - सामाजिक होने की क़ीमत!

15 फ़रवरी 2010

यह अफ़वाह है, गलती है या साजिश

कल से अब तक एक ही एस एम् एस मेरे पास कई रास्तों से आया है।
इसका अभिधार्थ यह है कि १९३१ में १४ फरवरी को शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी पर चढ़ाया गया था और हम लोग उसे भूल के वेलेन्टाईन डे मना रहे हैं।
सबसे पहले कल सुबह यह एस एम एस एक वरिष्ठ कवि मित्र के नं से आया। मैंने काल बैक करके जब कहा कि गुरु इन क्रांतिकारियों की फ़ांसी २३ मार्च को हुई है तो वे बोले कि मुझे भी वही याद था बस तुमसे कन्फ़र्म किया। फिर एक दोस्त के फोन से आया यही संदेश और अब अंतिम जो संदेश आया है वह हमारी कर्मचारी एसोशियेशन के एक वरिष्ठ नेता के मोबाईल से!
क्या सच में इतना आसान है अफ़वाह फैलाना?
कहीं यह वैलेन्टाईन विरोधियों को नैतिक आधार उपलब्ध कराने के लिये सोची-समझी साजिश तो नहीं?

05 फ़रवरी 2010

इतना कीचड़ मत उछालो अविनाश

हमें गर्व है शमसुल इस्लाम और लालबहादुर वर्मा जैसे दोस्त शिक्षकों पर

अविनाश को मै व्यक्तिगत तौर नहीं जानता…मोहल्ला पर उनकी कारस्तानियों और एनानिमस नामों से आने वाली टीपों के चलते काफ़ी दिनों से वहां जाना छोड़ रखा था। पुस्तक मेले में संवाद के स्टाल पर अपने मित्र विश्वरंजन ( छत्तीसगढ़ वाले साहब नहीं) और मनोज के साथ गप्पें कर रहा था कि ये अचानक नमूदार हुए। सीने पर जसम का पोस्टर चिपकाये-- सैमसंग के विरोध में। संवाद वाले आलोक जी ने परिचय कराया तो अनिच्छा के बावज़ूद सहज व्यवहार से मैंने हाथ बढ़ाये। उन्होंने जब सिग्नेचर कैंपेन के लिये काग़ज बढ़ाया तो मुझे सैमसंग मुद्दा ही लगा पर था अनिल चमड़िया जी के वर्धा से निष्कासन के ख़िलाफ़। मैने सहर्ष उस पर हस्ताक्षर किये औरअपने मित्रों से भी हस्ताक्षर करवाये। मैने सैमसंग मुद्दे का भी ज़िक्र किया और कहा कि इस पर भी कुछ होना चाहिये। साथ में दिलीप मण्डल जी भी थे और उनसे भी मुलाकात हुई और वर्धा के यशस्वी छात्र भाई देवाशीष प्रसून तो ख़ैर संवाद के स्टाल पर थे ही।

लौट कर आने के बाद मैने हर उस ब्लाग पर जहां अनिल जी के निष्काषन की ख़बर थी, वर्धा प्रशासन की भर्त्सना की। मोहल्ला पर नहीं जाता सो नहीं गया…

कल रंगनाथ सिंह को फोन तो किया था अपनी किताब पर राय लेने के लिये पर उन्होंने जब यह बताया कि अविनाश ने एक बार फिर अपनी घटिया हरकत दुहराते हुए लाल बहादुर वर्मा पर कीचड़ उछाला है तो ख़ून खौल गया।

मैने उस संबध में लाल बहादुर वर्मा से बात की। उन्होंने बताया कि अविनाश उनसे मिले ही नहीं थे। कोई और आया था जिससे उन्होंने कहा कि मैं आधे ड्राफ़्ट से सहमत हूं परंतु विभूति नारायण राय के ख़िलाफ़ जो कुछ लिखा है उसका मेरे पास कोई सबूत नहीं। या तो आप उसके समर्थन में सबूत लायें या फिर उसे हटायें। उस व्यक्ति ने ढिठाई से कहा कि इससे आपकी पक्षधरता साबित होगी। वर्मा जी ने जवाब दिया कि तुम बुश हो क्या कि जो तुम्हारे साथ नहीं वह आतंकवादी है!

अविनाश ने कोई डिटेल न देते हुए सरासर झूठ अपने ब्लाग पर लिखा है। अगर आरोप थे तो सबूत होने चाहिये थे। मै अनिल जी का बेहद सम्मान करता हूं और उनके लिखे का फ़ैन हूं तो मुझे उस पत्र पर हस्ताक्षर करने में दिक्कत नहीं हुई। विभूति जी का भी अब तक लंबा लेखकीय और सार्वजनिक रिकार्ड रहा है तो उन पर व्यक्तिगत आक्षेप को बिना सबूत न मानने के पीछे ऐसा कोई सम्मान क्यों नहीं हो सकता? क्या आरोप लगाने वालों का फ़र्ज़ नहीं बनता कि मांगे जाने पर अपने आरोपों के समर्थन में सबूत पेश किये जायें? और ऐसा मांगने वाले की पक्षधरता पर सवाल उठाने का नैतिक अधिकार कैसे है आपके पास?

आख़िर वर्मा जी या कोई ऐसे व्यक्ति ( अविनाश) की विश्वसनीयता पर शक़ क्यों नहीं करे जिसका कुछेक सालों का कैरियर धोखेबाजी, बलात्कार, छेड़छाड़ और झूठ जैसे आरोपों से घिरा रहा हो? और ऐसे आदमी को उस लालबहादुर पर सवाल उठाने का क्या हक़ है जिनका आधी सदी से अधिक का प्रोफ़ेशनल और लेखकीय जीवन किसी भी दाग़ धब्बे से मुक्त रहा हो? जिसके ऊपर कोई आरोप तो छोड़िये किसी पुरस्कार और सम्मान का भी धब्बा नहीं है। कुछ समय पहले खाने और पीने के जुगाड़ में इसी वर्धा के बुलावे पर इलाहाबाद पहुंचे अविनाश किस मुंह से दूसरों पर आरोप लगा रहे हैं? क्या ब्लाग हाथ में होने का मतलब किसी पर किसी भी भाषा में कीचड़ उछालने का अनन्य अधिकार है?

अनिल जी का निष्काषन हम सब के लिये दुखद और विक्षुब्ध करने वाला है। पर अनिल जी अगर ऐसे ही वक़ील किये आपने तो अफ़सोस कि तमाम लोग जो समर्थन करना चाहते हैं इनकी शोशेबाज़ी और विवादप्रियता के चलते निराश ही होंगे। ऐसे लोग जिस काज़ के समर्थन में होते हैं अंततः उसे ही नुक्सान पहुंचाते हैं।
*** रंगनाथ जी ने सही याद दिलाया कि मोहल्ला लाइव पर हिन्दी के अत्यंत सम्मानित एवं प्रतिबद्ध लेखक संजीव पर भी ऐसे ही कीचड़ उछाला गया है। मैं उसका भी इतना ही तीखा विरोध दर्ज़ कराता हूं।

02 फ़रवरी 2010

किताबों के बीच से कौन कमबख्त आना चाहता था...

पंकज बिष्ट, महेश कटारे, शिल्पायन वाले ललित जी और अपन शिल्पायन के स्टाल पर

चार दिन ऐसे बीते कि जैसे चार घण्टे रहे हों।
चारों तरफ़ किताबें, किताबों के शौक़ीन, किताबों की ही बातें…

प्रोफ़ेसर शमसुल इस्लाम, नीलिमा जी,सत्येन्द्र, शिल्पी, पवन मेराज, लाल बहादुर वर्मा और अपन

शब्दों की खुशबू जैसे मदमस्त किये हुए थी…गया था बस एक पिट्ठू लिये लौटा तो चार भरे हुए बैग्स के साथ। मुक्तिबोध और निराला की रचनावलियां, तमाम कविता संकलन, इतिहास, दर्शन और आलोचना की ढेरों किताबें, अनुवाद और पी पी एच से कुछ भूली बिसरी अनमोल किताबें।

बड़ी-बड़ी किताबों के साथ अपन!

और इस बार तो स्टाल पर अपनी किताबें भी लगीं थीं। शिल्पायन से लेखों का संग्रह 'शोषण के अभयारण्य' और संवाद से 'मार्क्स- जीवन और विचार' तथा 'प्रेम'… तो मज़ा दुगना हो गया।

दो साल इसी माहौल की स्मृतियों के सहारे गुज़र जायेंगे। यह विश्वास पुख़्ता हुआ कि शब्द मर नहीं सकते!



23 जनवरी 2010

हैप्पी बर्थडे टू मी!!

( वेरा के बनाये तमाम कम्प्यूटर चित्रों में से एक)



आज पूरे पैंतीस साल हो गये!

पापा बार-बार फोन हाथ में ले बधाई देने की हिम्मत जुटा रहे होंगे। मां ने शायद एकाध दिन पहले से ही पुराना एलबम निकाल लिया होगा…भाई लोग अपनी व्यस्तता के बीच शायद ही याद कर पायें और जब बाद में याद आये तो बिलेटेड कहके झेंप मिटा लें। अभी बस बिटिया उठेगी और किरण के साथ फोन पर ही गायेगी…हैप्पी बर्थडे टू यू!

1975 में आज ही के दिन एक उदास ठंढी रात उस छोटे से गांव में जब मैंने पहली सांसे ली थीं तो बाबा बताते थे कि ताज़िये भी उठ रहे थे। नाना और बाबा दोनों ख़ानदानों की इस पीढी की पहली संतान। खुश कैसे नहीं होते वे…

और बाबा तो बस जैसे जान छिड़कते थे…जब तक रहे इस दिन साथ हों न हों दावत ज़रूर करते रहे और गये तो साथ लेते गये इस दिन की ख़ुशी को भी। 1993…मेरा अठारहवां जन्मदिन। बालिग होने को हम सेलीब्रेट कर रहे थे हास्टल में…अगले दिन पेपर होने के बावज़ूद। चिकन मैंने बनाया था…पहली बार एरिस्टोक्रेट प्रीमियम चखाई थी यार लोगों ने…ग़ुलाम अली की आवाज़ में अहमद फ़राज़ की ग़ज़लें…कहकहे…कवितायें…जाने क्या-क्या! और बाबा बस आठ किलोमीटर दूर गोरखपुर के एयरफ़ोर्स हास्पीटल में आख़िरी सांसे ले रहे थे। मुझे बताया तक नहीं गया था कि कहीं बीए का वह साल न ख़राब हो जाये। चार दिन बाद जब परीक्षा ख़त्म हुई और हाल से बाहर निकलते हुए पापा को बढ़ी हुई दाढ़ी और भरी आंखों में देखा तो कुछ कहने सुनने की ज़रूरत नहीं रही…मैने पूछा – ‘कब हुआ’…पापा बोले – ‘तुम्हारे बर्थडे वाले दिन’…न रुलाई…न आंसू…न शब्द

और आज सत्रह साल बीत गये। कभी सेलीब्रेट कर ही नहीं पाया। बस एक बार एम ए अंतिम वर्ष में दोस्तों ने बिना बताये जो सब कर दिया तो ना नहीं कर पाया। मैं उदास यूनिवर्सिटी पहुंचा तो क्लास ख़त्म होने के बाद वे विभाग के एक कमरे में ले गये मुझे। वहां सारे जमा थे…अल्का घर से केक बनाकर लाई थी…वंदना ने एक पेन सेट गिफ़्ट किया था, विजय ने मज़ाज़ की किताब, शिप्रा ने एक बेहद प्यारा सा कैंडल स्टैंड और भाई लोग ने गोल्डफ़्लैक की पैकेट के साथ लाईटर… सामान तो अब कोई साथ नहीं पर उस दिन की स्मृति कभी नहीं मिट सकती…आज बताता हूं दोस्तों … हास्टल जाकर देर तक रोता रहा था उन सब गिफ़्ट्स को सामने रखकर। तुम जहां भी हो मेरी प्यारी दोस्तों तुम सबको मेरा ढेर सारा प्यार… कौन क्या बना मेरे लिये मायने नहीं रखता…बड़ी बात ये है कि तुम सब बहुत अच्छे इंसान थे…और दुनिया को अच्छाई की बहुत ज़रूरत है।

इस साल बिटिया ने सरप्राईज़ प्लान किया था। पापा से छुपाकर…पर उसे बीमार मौसी को देखने बेंगलौर जाना पड़ा। और आज सुबह पांच बजे जब लखनऊ से लौटकर घर का दरवाज़ा खोला तो बस उसी की याद आई। फोन लिये बैठा हूं आठ बजने के इंतज़ार में।

ब्लाग हमेशा से मुझे ख़ुली डायरी जैसा लगता है…यह सब शायद कहीं और नहीं लिख पाता…आप सबके साथ बांटकर सहज महसूस कर रहा हूं। चाहें तो बधाई भी दे सकते हैं!

ड्रार में थोड़ी सी शराब बची है…आज तन्हाई के साथ इन पैंतीस सालों का लेखा-जोखा किया जाये तो?

08 नवंबर 2009

पटियाला से लौटकर


(कल ही लौटा पटियाला से। इंडियन पोलिटिकल इकोनोमी एसोशियेशन का सेमीनार था।


जाने माने अर्थशास्त्री कमल नयन काबरा जी और उनके साथियों की अथक मेहनत और प्रतिबद्धता से पिछले तेरह सालों से अनवरत चल रहा यह प्रयास खांटी अकादमिक संगोष्ठियों से बिल्कुल अलग सा है। देश के कोने कोने से सामाजार्थिक विषयों के प्रतिबद्ध बुद्धिजीवी अपने खर्चे से आते हैं...बहस मुबाहिसे करते हैं और कुछ बेहतर बनाने के ज़ज्बे से जूझते हैं।

इस बार केन्द्रीय विषय थे -- भूमण्डलीय आर्थिक संकट और भारत, अस्मिता की राजनीति और चुनावी परिदृष्य तथा दक्षिण एशिया में असंतोष और संघर्ष। मैने अंतिम विषय पर अपना पर्चा लिखा था… उसी का एक हिस्सा यहां)


दक्षिण एशियाई देशों की अपनी विशिष्ट सामाजार्थिक- सांस्कृतिक- राजनैतिक स्थिति के कारण समकालीन विश्व में एक विशिष्ट स्थिति है, और यह केवल समकालीन विश्व के लिये ही नहीं अपितु पूरे मध्यकाल के लिये सच है। औद्योगीकरण के पहले भी विश्वव्यापार तथा राजनीति में दक्षिण एशिया की अहम भूमिका थी। यही कारण था कि यह क्षेत्र शेष विश्व के लिये कौतूहल, आकर्षण तथा लोभ तीनों का केन्द्र रहा। तमाम जातीय समूहों के निरन्तर आवागमन के कारण यह क्षेत्र विभिन्न सांस्कृतिक, धार्मिक समूहों के घात-प्रतिघात के फलस्वरूप एक बहुजातीय, बहुधार्मिक तथा बहुसांस्कृतिक क्षेत्र बना। सामंती शासन के भीतर पनपे इन समाजों में इन सबके बीच एक खास तरह की एकता भी रही और निश्चित तौर पर खास किस्म के अन्तर्विरोध भी। सामंती समाजों के विघटन और पूंजीवाद में संक्रमण की सामान्य प्रक्रिया ( जैसा कि यूरोप में हुआ) में अवश्यंभावी था कि इस समाज के तमाम पुराने अंतर्विरोध हल होते और उनकी जगह पर अधिक उन्नत अंतर्विरोध पैदा होते। परंतु इस प्रक्रिया के बीच औपनिवेशिक शासन के परिदृश्य पर उभरने और केन्द्रीय भूमिका में आने से ऐसा संभव नहीं हुआ। जाहिर तौर पर औपनिवेशिक शासन के इस हस्तक्षेप ने पूरी प्रक्रिया को बाधित ही नहीं किया अपितु अपने पितृदेशों के आर्थिक-राजनैतिक हितों के अनुरुप मोडने के प्रयास किये। स्वाभाविक तौर पर इसने विकास की स्वाभाविक गति को उलट-पुलट दिया। यहां जो पूंजीवाद जन्मा वह, जैसा कि अक्सर कहा जाता है, सतमासा और बीमार पूंजीवाद था जिसने जन्मकाल से ही तमाम संक्रामक व्याधियों को जन्म दिया। सामंती समाज के विघटने के साथ जातिप्रथा, सांप्रदायिकता, अंधविश्वास जैसी इसकी लाक्षणिकतायें मूलाधारों में बनी रहीं और स्वाभाविक तौर पर इसका प्रतिफलन समय-समय पर सुपरस्ट्रक्चर में भी दिखाई देता रहा। आर्थिक विषमताओं की खाई तो चैडी हुई ही साथ में व्यक्ति की अस्मिता के सम्मान, स्त्री अधिकारों के प्रति जागरुकता और श्रम के सम्मान जैसे आधुनिक मूल्य भी सामाजिक चेतना का हिस्सा नहीं बन सके। दरअसल लोकतंत्र के राजनैतिक व्यवस्था का हिस्सा बनने के बावजूद यह एक बोध के रूप में सामाजिक चेतना का हिस्सा नहीं बन सका, कई बार तो समाज के सबसे उन्न्त वर्ग की चेतना का भी नहीं।


ग्राम्शी की शब्दावली का प्रयोग करें तो पूरे दक्षिण एशिया में उत्पादन संबधों में परिवर्तन किसी प्रत्यक्ष या निर्णायक क्रांति की जगह लेन-देन और समझौतों पर आधारित निष्क्रिय क्रांति द्वारा हुआ। यही वज़ह रही कि पूंजीवादी अधिरचना द्वारा सामंत-ज़मींदारों की धीरे-धीरे पूरी तरह आत्मसात कर लिए जाने के बावजूद जातिवाद, जेण्डर आधारित भेदभाव, अवैज्ञानिकता तथा अंधविश्वास और सांप्रदायिकता जैसे सामंती अवशेष मूलाधारों में विषाणुओं की तरह हमेशा मौजूद रहे और अनुकूल परिस्थितियों मिलते ही विषबेल की तरह पसर गये।

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प्राकृतिक तथा मानवीय संसाधनों की लूट की बहुराष्ट्रीय कंपनियों की अगाध पिपासा और शासक वर्ग की उनके साथ अनन्य प्रतिबद्धता ने ही वह स्थिति पैदा की है कि उडीसा में वेदान्त और झारखण्ड तथा छत्तीसगढ में अनेकानेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों की खनन योजनाओं को अमली जामा पहनाने के लिये इस क्षेत्र को मुक्त कराने के लिये एक चुनी हुई सरकार अपने ही नागरिकों के खिलाफ आपरेशन ग्रीन हंट करने जा रही है। संरक्षक से शिकारी की भूमिका में बदल चुके शासक वर्ग के खिलाफ असंतोष बढना और उसकी निरंतर और अधिक अतिवादी अभिव्यक्तियां स्वाभाविक ही हैं। साथ ही इस बात की भी पूरी संभावना है कि एक सही लोकतांत्रिक चेतना के अभाव में ये कालांतर में जातीय तथा सांप्रदायिक संघर्षों के रूप में अभिव्यक्त हों।

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23 अक्टूबर 2009

सफ़र ही मंज़िल है








लौट आया…वैसे बुद्धु हो या होशियार लौट के घर तो आता ही है।


क्या जगह है सिक्किम! इतनी प्यारी, इतनी आत्मीय,इतनी ख़ूबसूरत। ख़ुद को ही आदर्श मानने वाले हम कितना कुछ सीख सकते हैं उनसे। सबसे पहले तो यही कि ज़मीन कब्ज़ा करने से दिल कब्ज़ा नही होते। समझ ही नही आया कि क्या कहूं जब गंगटोक के उस टैक्सी वाले ने कहा -' ७४ तक हम आजाद थे...न सेना दिखाती थी...न हथियार..फिर इण्डिया ने हमें अपने नीचे कर लिया...

पर कानून का सम्मान करना खूब आता है इन्हे... ज़रा एमजी रोड पर सिगरेट तो जलाईये! पाँच सौ पांच की सिगरेट का मज़ा मिलेगा!!!


आराम से लिखूंगा कभी...शायद...अभी तो डूबा हुआ हूँ उन पहाडों में।

07 अक्टूबर 2009

भुला दिये जाने का डर


अगले बारह दिन मैं आप सब से, इस ब्लॉग की दुनिया .... सब से दूर रहूंगा। इस दुनिया में प्रवेश के बाद शायद पहली बार।

कितनी अजीब है यह दुनिया...बिना देखे...बिना बतियाये..कितना जानते हैं हम एक दूसरे को...जैसे रोज़ किसी चौराहे की गुमटी पे मिलते हों..जैसे रोज़ किसी गोष्ठी में उलझते हों..जैसे जाने क्या-क्या!


इस बार बस बिटिया की जिद पर --- उसका ही तो होता है अक्सर वह वक़्त जब हम यहाँ लगे होते हैं, लिख रहे होते हैं... पढ़ रहे होते हैं। तो इस बार उसी की बात मान ली और इन छुट्टियों में सफर बिना नेट के...


बहुत मिस करुंगा आप लोगों को...और आप लोग?

इस तेज़ दुनिया में १३ दिनों में भूल तो नही जाएंगे ?

05 अक्टूबर 2009

वेरा के सवालों का जवाब क्या दूँ?




आज वेरा आठ साल की हो गयी...


आठ साल कितने होते हैं? अक्सर पूछती है तो समझ नही आता...बड़े बड़ों से बहस में उलझ जाने वाला मै उसके सामने अक्सर निरुत्तर हो जाता हूँ। वह पूछती है ,'' आप दोनों भगवान को क्यों नही मानते ' और हम दोनों सोचते हैं कि उसे क्या बताएं! वह पूछती है कि आप लोग ये सब क्यूं करते हो..ये भासन-वासन ? हम फिर सोचते हैं कि क्या बताएं ? ऐसे ही कल पूछ बैठी कि मेरे नाम में सरनेम क्यूं नही? सबमे तो है...अभी हम सोच रहे थे कि ख़ुद ही बोली आप ये जात-वात नही मानते ना ..इसीलिए? हम कुछ कहें उसके पहले ही एक और धमाका अच्छा बाबा मानते होंगे इसीलिए आपका सरनेम है!!!


देखिये शायद अगले जन्मदिन तक वह कुछ और सवालों के जवाब ढूंढ ले.



17 सितंबर 2009

पहली किताब का इंतज़ार....

पहली किताब के बारे में बताते हुए पाब्लो नेरुदा ने लिखा है कि जब प्रकाशक के यहाँ से उसे लेकर वो आ रहे थे तो जैसे बच्चों की तरह व्यग्र थे...स्याही की उस खुशबू से मदमस्त

हम क्या कहें ... अभी तो कवर देख के ही मदमस्त हो रहे हैं।
आज का रस रंजन इसी के नाम

06 जून 2009

बहस बनाम कुत्ताघसीटी

ब्लागबाजी में एक मज़ा है - हर आदमी यहाँ १२ फ़ुट का है। कम्पूटर पर बैठे-बैठे सबको लगता है किबस सबसे बड़ी क्रांति वही कर रहा है।
यहाँ दो तरह के लफ्फाज़ सबसे प्रमुख हैं - पहले तटस्थ और दूसरे गेरुए। दोनों का घोषित उद्देश्य है गंद फैलाना और जैसे ही कोई जवाब दे सीधे वामपंथी कहकर गालियाँ बरसाना। तुर्रा यह कि भईया बस यही हो रही है युगान्तरकारी बहस।
और सामूहिक ब्लागों का तो कहना क्या!!! हिन्दी पत्रिकाओं के संपादक शर्मा जायें इनकी तानाशाही देखकर्। पहले सर-सर कहके प्रार्थना करेंगे शामिल करने के लिये और जहां आपने कभी आईना दिखाया तो अपनी औकात पर आ जायेंगे।
ऐसी ही एक पोस्ट पर जब अपन ने लिखा तो क्या हुआ देखिये।
http://janokti.blogspot.com/2009/06/blog-post_9376.html पर

और हमारा अंतिम जवाब यहां

आपसे सर्टिफिकेट मांग कौन रहा है? इसी उम्र में वाम विश्वविद्यालय का कुलपति बन जाने पर बधाई! आपकी अपनी क्रेडिबिलिटी क्या है? बहस चल कहाँ रही है? ये मोहल्ला ये अनोक्ति सब कुत्ताघसीटी में लगे हैं और मुझे इसका हिस्सा नही बनना. इसके लिए क्या आप जैसों से परमिशन लेनी पड़ेगी?और सारी महान बातें बेनामी लोग क्यों करते हैं? जिनमे नाम तक ज़ाहिर करने की हिम्मत नही वे हमें बहस करना सिखायेंगे? किसी पार्टी की गुलामी नही करता कि कोई इस लायक नही लगता तो आप जैसों की क्या करूंगा?लेखक हूं लिखता हूँ जो सही लगता है. यहां भी और वहां भी जिनका बेनामी महोदय ने ज़िक्र किया है. जनता के बीच जाकर काम करता हूँ. नेट पर विप्लव करने वालों को याद होना चाहिए कि यहां आने का सादर आमंत्रण और अनुरोध उन्ही ने दिया था मैंने अर्जी नही लगायी थी. तो अब अगर इससे अलग होना है तो क्या अनुमति लूं? मेरे विचार और विचारधारा कोई छुपी हुई चीज़ नही हैं. फिर लाल गुलाबि आमंत्रण से पहले देखना था और अपने गेरुए से उसको मैच करा लेना था.हाँ बेनामी महोदय आपके विस्मय का हल मेरी लाइब्रेरी कर सकती है ...स्वागत है.वैसे बता दूं कि मार्क्स पर केन्द्रित एक किताब भी लिखी है हमने जो संवाद प्रकाशन से आ रही है.

09 मार्च 2009

होली मुबारक


होली की बधाइयाँ

01 जनवरी 2009

नये साल ऑर क्यूबा की क्रान्ति की ५० वी वर्षगाँठ पर


जलाओ चाँद सितारे चिराग काफ़ी नहीं
ये शब है जश्न की शब रोशनी ज़्यादा रहे
दुआ के हाथ उठाओ के वक़्ते नेक आये
रुख ए अज़ीज पे महकी है उम्र ए रफ़्ता भी
उठाओ हाथ के ये वक़्त खुश मुदाम रहे
ऑर इस चमन में बहारो का इन्तेज़ाम रहे।

नववर्ष की शुभ कामनाओ सहित
अशोक कुमार पाण्डेय

(यह मुझे मेरे दोस्त भाई मुकुल ने एस एम एस से भेजा था)