03 मार्च 2010
ब्लागजगत के बारे में कुछ निष्कर्ष
18 फ़रवरी 2010
एक पुरानी दोस्त को आखिरी सलाम!
छोड़ ही दूंगा मैं तुम्हें एक दिन…
रोज़ धमकाता है डाक्टर
पत्नी हर कश पर हो जाती है थोड़ा और उदास
बिटिया अक्सर रूठ कर फेर लेती है मुंह
कहे-अनकहे के बीच सब चाहते हैं तुमसे मुक्ति
सांसो के अदम्य मोह से आविष्ट
छोड़ ही दूंगा मैं तुम्हें एक दिन…
एक दिन उठूंगा नींद से
और सूरज की ओर से आश्वस्त हो
उस जानी-पहचानी जगह जब पहुंचेंगे हाथ
तो बस स्मृतियां होंगी तुम्हारी
रसोई के अलावा कहीं नहीं होगी आग
एक दिन जब बहुत दिन बाद
दोस्तों की किसी भरी-पूरी महफ़िल में
हज़ारों बार सुनी कविता पर दूंगा दाद
या यूं ही किसी शेर पर झूम उठूंगा
तो उंगलिया उदास हो ढूंढेगी तुम्हें
एक क्षण के दोस्ती पर जम जायेगा धुंआ
एक शाम जब किसी बिल्कुल नई किताब से गुज़रते हुए
ठहरुंगा किसी पंक्ति पर
और झूम-झूम कर दुहराऊंगा उसे
तब यूं ही खींच ली जायेगी दराज़
और वहां तुम्हारी स्मृतियां होंगी और गंध
तुम
सबके आंखों का कांटा
कब तक समझाउंगा सबको
कि तुम तब रही मेरे साथ जब और नहीं था कोई
सबके आने के बाद
जैसे छूट गईं ढेर सारी चीज़ें
तुम्हें छोड़ना होगा मुझे
चुकानी ही होगी - सामाजिक होने की क़ीमत!
15 फ़रवरी 2010
यह अफ़वाह है, गलती है या साजिश
05 फ़रवरी 2010
इतना कीचड़ मत उछालो अविनाश
हमें गर्व है शमसुल इस्लाम और लालबहादुर वर्मा जैसे दोस्त शिक्षकों पर
लौट कर आने के बाद मैने हर उस ब्लाग पर जहां अनिल जी के निष्काषन की ख़बर थी, वर्धा प्रशासन की भर्त्सना की। मोहल्ला पर नहीं जाता सो नहीं गया…
कल रंगनाथ सिंह को फोन तो किया था अपनी किताब पर राय लेने के लिये पर उन्होंने जब यह बताया कि अविनाश ने एक बार फिर अपनी घटिया हरकत दुहराते हुए लाल बहादुर वर्मा पर कीचड़ उछाला है तो ख़ून खौल गया।
मैने उस संबध में लाल बहादुर वर्मा से बात की। उन्होंने बताया कि अविनाश उनसे मिले ही नहीं थे। कोई और आया था जिससे उन्होंने कहा कि मैं आधे ड्राफ़्ट से सहमत हूं परंतु विभूति नारायण राय के ख़िलाफ़ जो कुछ लिखा है उसका मेरे पास कोई सबूत नहीं। या तो आप उसके समर्थन में सबूत लायें या फिर उसे हटायें। उस व्यक्ति ने ढिठाई से कहा कि इससे आपकी पक्षधरता साबित होगी। वर्मा जी ने जवाब दिया कि तुम बुश हो क्या कि जो तुम्हारे साथ नहीं वह आतंकवादी है!
अविनाश ने कोई डिटेल न देते हुए सरासर झूठ अपने ब्लाग पर लिखा है। अगर आरोप थे तो सबूत होने चाहिये थे। मै अनिल जी का बेहद सम्मान करता हूं और उनके लिखे का फ़ैन हूं तो मुझे उस पत्र पर हस्ताक्षर करने में दिक्कत नहीं हुई। विभूति जी का भी अब तक लंबा लेखकीय और सार्वजनिक रिकार्ड रहा है तो उन पर व्यक्तिगत आक्षेप को बिना सबूत न मानने के पीछे ऐसा कोई सम्मान क्यों नहीं हो सकता? क्या आरोप लगाने वालों का फ़र्ज़ नहीं बनता कि मांगे जाने पर अपने आरोपों के समर्थन में सबूत पेश किये जायें? और ऐसा मांगने वाले की पक्षधरता पर सवाल उठाने का नैतिक अधिकार कैसे है आपके पास?
आख़िर वर्मा जी या कोई ऐसे व्यक्ति ( अविनाश) की विश्वसनीयता पर शक़ क्यों नहीं करे जिसका कुछेक सालों का कैरियर धोखेबाजी, बलात्कार, छेड़छाड़ और झूठ जैसे आरोपों से घिरा रहा हो? और ऐसे आदमी को उस लालबहादुर पर सवाल उठाने का क्या हक़ है जिनका आधी सदी से अधिक का प्रोफ़ेशनल और लेखकीय जीवन किसी भी दाग़ धब्बे से मुक्त रहा हो? जिसके ऊपर कोई आरोप तो छोड़िये किसी पुरस्कार और सम्मान का भी धब्बा नहीं है। कुछ समय पहले खाने और पीने के जुगाड़ में इसी वर्धा के बुलावे पर इलाहाबाद पहुंचे अविनाश किस मुंह से दूसरों पर आरोप लगा रहे हैं? क्या ब्लाग हाथ में होने का मतलब किसी पर किसी भी भाषा में कीचड़ उछालने का अनन्य अधिकार है?
अनिल जी का निष्काषन हम सब के लिये दुखद और विक्षुब्ध करने वाला है। पर अनिल जी अगर ऐसे ही वक़ील किये आपने तो अफ़सोस कि तमाम लोग जो समर्थन करना चाहते हैं इनकी शोशेबाज़ी और विवादप्रियता के चलते निराश ही होंगे। ऐसे लोग जिस काज़ के समर्थन में होते हैं अंततः उसे ही नुक्सान पहुंचाते हैं।
02 फ़रवरी 2010
किताबों के बीच से कौन कमबख्त आना चाहता था...
23 जनवरी 2010
हैप्पी बर्थडे टू मी!!
आज पूरे पैंतीस साल हो गये!
पापा बार-बार फोन हाथ में ले बधाई देने की हिम्मत जुटा रहे होंगे। मां ने शायद एकाध दिन पहले से ही पुराना एलबम निकाल लिया होगा…भाई लोग अपनी व्यस्तता के बीच शायद ही याद कर पायें और जब बाद में याद आये तो बिलेटेड कहके झेंप मिटा लें। अभी बस बिटिया उठेगी और किरण के साथ फोन पर ही गायेगी…हैप्पी बर्थडे टू यू!
1975 में आज ही के दिन एक उदास ठंढी रात उस छोटे से गांव में जब मैंने पहली सांसे ली थीं तो बाबा बताते थे कि ताज़िये भी उठ रहे थे। नाना और बाबा दोनों ख़ानदानों की इस पीढी की पहली संतान। खुश कैसे नहीं होते वे…
और बाबा तो बस जैसे जान छिड़कते थे…जब तक रहे इस दिन साथ हों न हों दावत ज़रूर करते रहे और गये तो साथ लेते गये इस दिन की ख़ुशी को भी। 1993…मेरा अठारहवां जन्मदिन। बालिग होने को हम सेलीब्रेट कर रहे थे हास्टल में…अगले दिन पेपर होने के बावज़ूद। चिकन मैंने बनाया था…पहली बार एरिस्टोक्रेट प्रीमियम चखाई थी यार लोगों ने…ग़ुलाम अली की आवाज़ में अहमद फ़राज़ की ग़ज़लें…कहकहे…कवितायें…जाने क्या-क्या! और बाबा बस आठ किलोमीटर दूर गोरखपुर के एयरफ़ोर्स हास्पीटल में आख़िरी सांसे ले रहे थे। मुझे बताया तक नहीं गया था कि कहीं बीए का वह साल न ख़राब हो जाये। चार दिन बाद जब परीक्षा ख़त्म हुई और हाल से बाहर निकलते हुए पापा को बढ़ी हुई दाढ़ी और भरी आंखों में देखा तो कुछ कहने सुनने की ज़रूरत नहीं रही…मैने पूछा – ‘कब हुआ’…पापा बोले – ‘तुम्हारे बर्थडे वाले दिन’…न रुलाई…न आंसू…न शब्द
और आज सत्रह साल बीत गये। कभी सेलीब्रेट कर ही नहीं पाया। बस एक बार एम ए अंतिम वर्ष में दोस्तों ने बिना बताये जो सब कर दिया तो ना नहीं कर पाया। मैं उदास यूनिवर्सिटी पहुंचा तो क्लास ख़त्म होने के बाद वे विभाग के एक कमरे में ले गये मुझे। वहां सारे जमा थे…अल्का घर से केक बनाकर लाई थी…वंदना ने एक पेन सेट गिफ़्ट किया था, विजय ने मज़ाज़ की किताब, शिप्रा ने एक बेहद प्यारा सा कैंडल स्टैंड और भाई लोग ने गोल्डफ़्लैक की पैकेट के साथ लाईटर… सामान तो अब कोई साथ नहीं पर उस दिन की स्मृति कभी नहीं मिट सकती…आज बताता हूं दोस्तों … हास्टल जाकर देर तक रोता रहा था उन सब गिफ़्ट्स को सामने रखकर। तुम जहां भी हो मेरी प्यारी दोस्तों तुम सबको मेरा ढेर सारा प्यार… कौन क्या बना मेरे लिये मायने नहीं रखता…बड़ी बात ये है कि तुम सब बहुत अच्छे इंसान थे…और दुनिया को अच्छाई की बहुत ज़रूरत है।
इस साल बिटिया ने सरप्राईज़ प्लान किया था। पापा से छुपाकर…पर उसे बीमार मौसी को देखने बेंगलौर जाना पड़ा। और आज सुबह पांच बजे जब लखनऊ से लौटकर घर का दरवाज़ा खोला तो बस उसी की याद आई। फोन लिये बैठा हूं आठ बजने के इंतज़ार में।
ब्लाग हमेशा से मुझे ख़ुली डायरी जैसा लगता है…यह सब शायद कहीं और नहीं लिख पाता…आप सबके साथ बांटकर सहज महसूस कर रहा हूं। चाहें तो बधाई भी दे सकते हैं!
ड्रार में थोड़ी सी शराब बची है…आज तन्हाई के साथ इन पैंतीस सालों का लेखा-जोखा किया जाये तो?
08 नवंबर 2009
पटियाला से लौटकर

जाने माने अर्थशास्त्री कमल नयन काबरा जी और उनके साथियों की अथक मेहनत और प्रतिबद्धता से पिछले तेरह सालों से अनवरत चल रहा यह प्रयास खांटी अकादमिक संगोष्ठियों से बिल्कुल अलग सा है। देश के कोने कोने से सामाजार्थिक विषयों के प्रतिबद्ध बुद्धिजीवी अपने खर्चे से आते हैं...बहस मुबाहिसे करते हैं और कुछ बेहतर बनाने के ज़ज्बे से जूझते हैं।
इस बार केन्द्रीय विषय थे -- भूमण्डलीय आर्थिक संकट और भारत, अस्मिता की राजनीति और चुनावी परिदृष्य तथा दक्षिण एशिया में असंतोष और संघर्ष। मैने अंतिम विषय पर अपना पर्चा लिखा था… उसी का एक हिस्सा यहां)
ग्राम्शी की शब्दावली का प्रयोग करें तो पूरे दक्षिण एशिया में उत्पादन संबधों में परिवर्तन किसी प्रत्यक्ष या निर्णायक क्रांति की जगह लेन-देन और समझौतों पर आधारित निष्क्रिय क्रांति द्वारा हुआ। यही वज़ह रही कि पूंजीवादी अधिरचना द्वारा सामंत-ज़मींदारों की धीरे-धीरे पूरी तरह आत्मसात कर लिए जाने के बावजूद जातिवाद, जेण्डर आधारित भेदभाव, अवैज्ञानिकता तथा अंधविश्वास और सांप्रदायिकता जैसे सामंती अवशेष मूलाधारों में विषाणुओं की तरह हमेशा मौजूद रहे और अनुकूल परिस्थितियों मिलते ही विषबेल की तरह पसर गये।
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23 अक्टूबर 2009
सफ़र ही मंज़िल है



07 अक्टूबर 2009
भुला दिये जाने का डर

05 अक्टूबर 2009
वेरा के सवालों का जवाब क्या दूँ?

आज वेरा आठ साल की हो गयी...
आठ साल कितने होते हैं? अक्सर पूछती है तो समझ नही आता...बड़े बड़ों से बहस में उलझ जाने वाला मै उसके सामने अक्सर निरुत्तर हो जाता हूँ। वह पूछती है ,'' आप दोनों भगवान को क्यों नही मानते ' और हम दोनों सोचते हैं कि उसे क्या बताएं! वह पूछती है कि आप लोग ये सब क्यूं करते हो..ये भासन-वासन ? हम फिर सोचते हैं कि क्या बताएं ? ऐसे ही कल पूछ बैठी कि मेरे नाम में सरनेम क्यूं नही? सबमे तो है...अभी हम सोच रहे थे कि ख़ुद ही बोली आप ये जात-वात नही मानते ना ..इसीलिए? हम कुछ कहें उसके पहले ही एक और धमाका अच्छा बाबा मानते होंगे इसीलिए आपका सरनेम है!!!
देखिये शायद अगले जन्मदिन तक वह कुछ और सवालों के जवाब ढूंढ ले.
17 सितंबर 2009
पहली किताब का इंतज़ार....
06 जून 2009
बहस बनाम कुत्ताघसीटी
और हमारा अंतिम जवाब यहां
आपसे सर्टिफिकेट मांग कौन रहा है? इसी उम्र में वाम विश्वविद्यालय का कुलपति बन जाने पर बधाई! आपकी अपनी क्रेडिबिलिटी क्या है? बहस चल कहाँ रही है? ये मोहल्ला ये अनोक्ति सब कुत्ताघसीटी में लगे हैं और मुझे इसका हिस्सा नही बनना. इसके लिए क्या आप जैसों से परमिशन लेनी पड़ेगी?और सारी महान बातें बेनामी लोग क्यों करते हैं? जिनमे नाम तक ज़ाहिर करने की हिम्मत नही वे हमें बहस करना सिखायेंगे? किसी पार्टी की गुलामी नही करता कि कोई इस लायक नही लगता तो आप जैसों की क्या करूंगा?लेखक हूं लिखता हूँ जो सही लगता है. यहां भी और वहां भी जिनका बेनामी महोदय ने ज़िक्र किया है. जनता के बीच जाकर काम करता हूँ. नेट पर विप्लव करने वालों को याद होना चाहिए कि यहां आने का सादर आमंत्रण और अनुरोध उन्ही ने दिया था मैंने अर्जी नही लगायी थी. तो अब अगर इससे अलग होना है तो क्या अनुमति लूं? मेरे विचार और विचारधारा कोई छुपी हुई चीज़ नही हैं. फिर लाल गुलाबि आमंत्रण से पहले देखना था और अपने गेरुए से उसको मैच करा लेना था.हाँ बेनामी महोदय आपके विस्मय का हल मेरी लाइब्रेरी कर सकती है ...स्वागत है.वैसे बता दूं कि मार्क्स पर केन्द्रित एक किताब भी लिखी है हमने जो संवाद प्रकाशन से आ रही है.
09 मार्च 2009
01 जनवरी 2009
नये साल ऑर क्यूबा की क्रान्ति की ५० वी वर्षगाँठ पर
जलाओ चाँद सितारे चिराग काफ़ी नहीं
ये शब है जश्न की शब रोशनी ज़्यादा रहे
दुआ के हाथ उठाओ के वक़्ते नेक आये
रुख ए अज़ीज पे महकी है उम्र ए रफ़्ता भी
उठाओ हाथ के ये वक़्त खुश मुदाम रहे
ऑर इस चमन में बहारो का इन्तेज़ाम रहे।
नववर्ष की शुभ कामनाओ सहित
अशोक कुमार पाण्डेय
(यह मुझे मेरे दोस्त भाई मुकुल ने एस एम एस से भेजा था)