(कल ही लौटा पटियाला से। इंडियन पोलिटिकल इकोनोमी एसोशियेशन का सेमीनार था।
जाने माने अर्थशास्त्री कमल नयन काबरा जी और उनके साथियों की अथक मेहनत और प्रतिबद्धता से पिछले तेरह सालों से अनवरत चल रहा यह प्रयास खांटी अकादमिक संगोष्ठियों से बिल्कुल अलग सा है। देश के कोने कोने से सामाजार्थिक विषयों के प्रतिबद्ध बुद्धिजीवी अपने खर्चे से आते हैं...बहस मुबाहिसे करते हैं और कुछ बेहतर बनाने के ज़ज्बे से जूझते हैं।
इस बार केन्द्रीय विषय थे -- भूमण्डलीय आर्थिक संकट और भारत, अस्मिता की राजनीति और चुनावी परिदृष्य तथा दक्षिण एशिया में असंतोष और संघर्ष। मैने अंतिम विषय पर अपना पर्चा लिखा था… उसी का एक हिस्सा यहां)
दक्षिण एशियाई देशों की अपनी विशिष्ट सामाजार्थिक- सांस्कृतिक- राजनैतिक स्थिति के कारण समकालीन विश्व में एक विशिष्ट स्थिति है, और यह केवल समकालीन विश्व के लिये ही नहीं अपितु पूरे मध्यकाल के लिये सच है। औद्योगीकरण के पहले भी विश्वव्यापार तथा राजनीति में दक्षिण एशिया की अहम भूमिका थी। यही कारण था कि यह क्षेत्र शेष विश्व के लिये कौतूहल, आकर्षण तथा लोभ तीनों का केन्द्र रहा। तमाम जातीय समूहों के निरन्तर आवागमन के कारण यह क्षेत्र विभिन्न सांस्कृतिक, धार्मिक समूहों के घात-प्रतिघात के फलस्वरूप एक बहुजातीय, बहुधार्मिक तथा बहुसांस्कृतिक क्षेत्र बना। सामंती शासन के भीतर पनपे इन समाजों में इन सबके बीच एक खास तरह की एकता भी रही और निश्चित तौर पर खास किस्म के अन्तर्विरोध भी। सामंती समाजों के विघटन और पूंजीवाद में संक्रमण की सामान्य प्रक्रिया ( जैसा कि यूरोप में हुआ) में अवश्यंभावी था कि इस समाज के तमाम पुराने अंतर्विरोध हल होते और उनकी जगह पर अधिक उन्नत अंतर्विरोध पैदा होते। परंतु इस प्रक्रिया के बीच औपनिवेशिक शासन के परिदृश्य पर उभरने और केन्द्रीय भूमिका में आने से ऐसा संभव नहीं हुआ। जाहिर तौर पर औपनिवेशिक शासन के इस हस्तक्षेप ने पूरी प्रक्रिया को बाधित ही नहीं किया अपितु अपने पितृदेशों के आर्थिक-राजनैतिक हितों के अनुरुप मोडने के प्रयास किये। स्वाभाविक तौर पर इसने विकास की स्वाभाविक गति को उलट-पुलट दिया। यहां जो पूंजीवाद जन्मा वह, जैसा कि अक्सर कहा जाता है, सतमासा और बीमार पूंजीवाद था जिसने जन्मकाल से ही तमाम संक्रामक व्याधियों को जन्म दिया। सामंती समाज के विघटने के साथ जातिप्रथा, सांप्रदायिकता, अंधविश्वास जैसी इसकी लाक्षणिकतायें मूलाधारों में बनी रहीं और स्वाभाविक तौर पर इसका प्रतिफलन समय-समय पर सुपरस्ट्रक्चर में भी दिखाई देता रहा। आर्थिक विषमताओं की खाई तो चैडी हुई ही साथ में व्यक्ति की अस्मिता के सम्मान, स्त्री अधिकारों के प्रति जागरुकता और श्रम के सम्मान जैसे आधुनिक मूल्य भी सामाजिक चेतना का हिस्सा नहीं बन सके। दरअसल लोकतंत्र के राजनैतिक व्यवस्था का हिस्सा बनने के बावजूद यह एक बोध के रूप में सामाजिक चेतना का हिस्सा नहीं बन सका, कई बार तो समाज के सबसे उन्न्त वर्ग की चेतना का भी नहीं।
ग्राम्शी की शब्दावली का प्रयोग करें तो पूरे दक्षिण एशिया में उत्पादन संबधों में परिवर्तन किसी प्रत्यक्ष या निर्णायक क्रांति की जगह लेन-देन और समझौतों पर आधारित निष्क्रिय क्रांति द्वारा हुआ। यही वज़ह रही कि पूंजीवादी अधिरचना द्वारा सामंत-ज़मींदारों की धीरे-धीरे पूरी तरह आत्मसात कर लिए जाने के बावजूद जातिवाद, जेण्डर आधारित भेदभाव, अवैज्ञानिकता तथा अंधविश्वास और सांप्रदायिकता जैसे सामंती अवशेष मूलाधारों में विषाणुओं की तरह हमेशा मौजूद रहे और अनुकूल परिस्थितियों मिलते ही विषबेल की तरह पसर गये।
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प्राकृतिक तथा मानवीय संसाधनों की लूट की बहुराष्ट्रीय कंपनियों की अगाध पिपासा और शासक वर्ग की उनके साथ अनन्य प्रतिबद्धता ने ही वह स्थिति पैदा की है कि उडीसा में वेदान्त और झारखण्ड तथा छत्तीसगढ में अनेकानेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों की खनन योजनाओं को अमली जामा पहनाने के लिये इस क्षेत्र को मुक्त कराने के लिये एक चुनी हुई सरकार अपने ही नागरिकों के खिलाफ आपरेशन ग्रीन हंट करने जा रही है। संरक्षक से शिकारी की भूमिका में बदल चुके शासक वर्ग के खिलाफ असंतोष बढना और उसकी निरंतर और अधिक अतिवादी अभिव्यक्तियां स्वाभाविक ही हैं। साथ ही इस बात की भी पूरी संभावना है कि एक सही लोकतांत्रिक चेतना के अभाव में ये कालांतर में जातीय तथा सांप्रदायिक संघर्षों के रूप में अभिव्यक्त हों।
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5 टिप्पणियां:
aapke blog par aana achcha laga....
पूरा ही आलेख देना था न अशोक भाई, बेशक किश्तों में।
विजय जी की बात पे गौर फरमाए
बीस पेज़ का आलेख है भाई साहब
यहाम लगाना उचित न हो शायद्… आप दोनों मित्रों को अलग से मेल करता हूं।
Mujhe bhi ye aalekh mail kar den.
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