(युवा दख़ल की यह सौवीं पोस्ट सामाजिक न्याय के प्रखर प्रवक्ता डा अम्बेडकर के विचारों पर केन्द्रित करते हुए हमें अत्यंत संतोष का अनुभव हो रहा है। एक नौसिखुए की तरह शुरुआत करके हमारा संगठन और ब्लाग इस समयावधि में काफ़ी परिपक्व हुए हैं। इस अवसर पर हम अपने सभी मित्रों, सहयोगियों, साथियों और पाठकों के अत्यंत आभारी है। युवा कहानीकार जितेंद्र का यह आलेख युवा दख़ल के ताज़ा मुद्रित अंक से बाबा साहब के जन्म दिवस 14 अप्रैल के अवसर पर)
डा अम्बेडकर |
जितेन्द्र विसारिया
यह किसी से छिपा नहीं है कि भारतीय इतिहास में दलितोद्धार के जितने भी आन्दोलन चले उनका सीधा विरोध, इस देश में सदियों से वर्तमान असमानता पर आधारित मनुष्यता विरोधी जाति और वर्णव्यवस्था से रहा है। इन आन्दोलनों के नायकों में चाहे कितना ही दृष्टि संकोच रहा हो, किन्तु उनका मानवता पर अटूट विश्वास संदेह से परे की वस्तु है। क्योंकि वे स्वयं इस समाज की अमानवीय व्यवस्था के भुक्तभोगी रह चुके थे। उन्होंने इसीलिए इन अमानवीय प्रथाओं के विरूद्ध आजन्म, कभी मुखर तो कभी शांत रूप में अपना विरोध दर्ज़ किया।...यह प्रक्रिया आज भी जारी है।
बाबा साहब डाॅ. भीमराव अम्बेडकर भी एक ऐसे ही मानवतावादी दलित चिंतक थे। उन्होंने अपने प्रारंभिक जीवन में इस देश की सबसे घृणित और अमानवीय जाति और वर्णव्यवस्था की देन, अस्पृश्यता के दंश को बड़ी गहराई से महसूस किया था। उनका मानना था कि ‘‘हिन्दू समाज में अन्तर्निहित जातिवाद के कारण, जो एक तरह का रंगभेद ही है, राष्ट्र बनाना मुश्किल साबित हुआ है और इतिहास में राष्ट्रवाद की भावना मौजूदगी की चर्चा करना बिल्कुल बेकार है। उनके अनुसार यह छुआछूत पर आधारित हिन्दू धर्म ही है-जो जोड़ने की जगह टूटने का उपदेश देता है’’(बी आर अम्बेडकर- पाकिस्तान या भारत का विभाजन, बाबा साहब डाॅ.अम्बेडकर संपूर्ण वांग्मय, खंड 15 बंबई, 2000 पृ,198.199) । जाति और वर्णव्यवस्था को हिन्दू धर्म और इस देश से समूल नष्ट करने के लिए उन्होंने, एक बड़े स्तर पर इससे दो-दो हाथ भी किये थे। लेकिन जाति और वर्ण के अहम् में डूबे देश के तत्कालीन सवर्ण समाज का उन्हें इसके लिए कोई सहयोग प्राप्त नहीं हो पाया था। गाँधी जैसे उदार और अश्यपृश्य हितैषी कहे जाने वाले नेता से भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी थी! ‘‘गाँधी जी के चिंतन में भारत की पारंपरिक हिन्दू पहचान को बनाये रखने पर बड़ा जोर हैै। यहाँ तक कि हिन्दू-मुसलिम एकता की अपील करते समय भी अपने सार्वजनिक भाषणों में वह राष्ट्रीय नेता के रूप में दोनों का प्रतिनिधित्व करने वाले के रूप में न बोलकर हिन्दू नेता के रूप में ही अधिक बोलते थे।’’ (श्रीवास्तव रवि-अंबेडकर और उनका राष्ट्रवाद, प्रगतिषील वसुधा दलित स्त्री एवं मुक्ति का प्रश्न रचनात्मक अभिव्यक्ति के संदर्भ मार्च 2009 पृ.35.) बाबा साहब ने अस्पृश्यता के सवाल पर अछूतों को कर्मकांडी धार्मिकता से अलग होकर राजनीतिक अधिकारों पर ध्यान देने और गाँधीवाद से सावधान रहने की चेतावनी दी। उन्होंने कहा, ‘अछूतों को यह बात अपने दिमाग से निकाल देना चाहिए कि हिन्दू धर्म सामाजिक न्याय की स्थापना करेगा चाहे वह काम इस्लाम,ईसाई या बौद्ध धर्म को ही क्यों न करना पड़े। वह तो स्वयं असमानता एवं अन्याय पर खड़ा है’’ (देखें श्रीवास्तव रवि, वही पृ.36) । देश की तथाकथित उच्च-जातियों के असहयोग से वह इतने आहत हुए थे कि उन्हें अपने जीवन के मध्यकाल में ही यह घोषणा करनी पड़ी कि ‘‘मैं भले ही हिन्दू के तौर पर जन्मा हूँ, लेकिन हिन्दू के तौर पर मरूँगा नहीं।’’ और यह सत्य ही सिद्ध हुआ, हिन्दू धर्म और वर्णव्यवस्था के भीतर स्वयं और इस देश के लाखों करोड़ों दलितों को उचित स्थान प्राप्त होता न देख उन्होंने एकला चलो की राह अपनाई। जिसमें उनके साथ अंत तक कोई उदार हिन्दू सम्मलित नहीं हुआ। ऐसा नहीं है कि उन्होंने अपने अपने हिन्दू होकर न मरने के उदघोष के बाद भी हिन्दू धर्म से किसी तरह की अपेक्षा नहीं की हो। वे लगातार संघ और सावरकर की ओर इस अपेक्षा की दृष्टि से सम्पर्क में रहे कि वे हिन्दू धर्म के बारे में कुछ सोचते हैं। इसके लिए उन्होंने एकाध बार संघ और स्वयं सेवकों के कार्यककलापों को नजदीक से देखने के अवसर भी प्राप्त किये थे। (देखें कोई हिन्दू पतित नहीं होताः श्रीधर पराड़कर, स्वदेश दीपावली विशेषांक-2006 ग्वालियर, पृ.08) पर वह अंततः समझ गये कि संघ की दिशा का न तो दलितोद्धार से कोई संबध है न ही एक मानवता पर आधारित एक लोकतांत्रिक राष्ट्रनिर्माण से। लेकिन वह एक दिशा में बढ़ते हुए भी निरंतर इस देश के सवर्ण समाज के उन्मुख रहे, यह सामना कभी सीधा टकराहट भरा होता था तो कभी उदार भाव लिए, हिन्दू धर्म में बने रहने की उनकी तलाश संभवतः आखिरी वक्त तक बनी रही। वरना क्या कारण रहा, कि वह बौद्ध धर्म में प्रस्थान तब करते हैं जब उनके जीवन के मात्र 52-53 दिन ही शेष बच रहे थे!
मंदिर प्रवेश के प्रश्न पर अंबेडकर ने धर्मशास्त्रों की खुली अवमानना और सीधी कारवाई का रास्ता अपनाया। उसी का परिणाम था, 1924 में त्रावणकोर के वाइकाम मंदिर जाने वाली प्रतिबंधित सड़़क पर शूद्रों-दलितों का उतरना, 20 मार्च 1927 के दिन महाराष्ट के महाड़ में बाबा साहब की अगंवाई में सार्वजनिक तालाब से पानी पीने की घटना जिसे सवर्ण हिन्दुओं ने अपने लिए सुरक्षित रखा था, 20 सितंबर 1927 को बाबा साहब की अध्यक्षता में ढाई हजार दलितों के सम्मेलन में ‘मनुस्मृति’ का दहन। बाबा साहेब ने उसकी तुलना फ्रांसीसी राज्यक्रांति के दौरान बास्तील के पतन से की थी। इस घटना का ऐतिहासिक महत्व था क्योंकि उससे उपजी सवर्णों की हिंसक प्रतिक्रिया पर बाबा साहब ने अपना पक्ष रखते हुए कहा, ‘हमारा उद्देश्य समाज में समान अधिकार पाना है हिन्दू समाज में रहते हुए जिस सीमा तक संभव है उस सीमा तक! यदि जरूरी हुआ तो व्यर्थ की हिन्दू पहचान को हम उतार फेकेंगे।’ (देखें, उद्धृत, एम. एस.गोरे’, द सोशल कांटेक्स्ट आइडियालाजी’ सेज’ दिल्ली’ पृ.91)
इसके बाद दलित-आंदोलन के इतिहास में जो सबसे बड़ी घटना थी वह थी नासिक के कालाराम मंदिर में अछूतों का प्रवेश। इससे पहले 1923 में बंबई की विधानसभा परिषद ने तालाबों’ कुंओं’ धर्मशालाओं आदि सार्वजनिक स्थलों को अछूतों के उपयोग की वैधानिक छूट दे दी थ्ंाी। मंदिर प्रवेश के लिए बाबा साहब ने 2 मार्च 1930 का दिन चुना। यह वही दिन था जब महात्मा गांधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया था। लगभग पांच हजार अछूतों ने मंदिर की ओर कूच किया। बाबा साहब की यह लड़ाई स्वाधीनता-आंदोलन के गांधीवादी तौर-तरीके के विकल्प में एक समानान्तर आंदोलन की तरह थी। उसके पीछे की भावना था, जो माँग अंग्रेजी राज से तुम्हारी है वही माँग हमारी तुमसे भी है, यानि जाति-प्रथा से मुक्ति।(श्रीवास्तव रवि, वही पृ.34)
इतना होने के पूर्व ही यदि बाबा साहेब को दलितों के साथ हिन्दू धर्म में रुकने का अवसर मिलता तो भी उनका चेहरा आर.एस.एस या अन्य धार्मिक राष्ट्रवादियों से इतर ही होता। कालाराम मन्दिर प्रवेश के आसपास जब वह हिन्दू धर्म में दलितों को सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए संघर्षरत थे उस समय वह अपने केा प्रोटेस्ट हिन्दू कहलाने के पक्षधर थे। उस समय उनके भीतर नवीन हिन्दू मार्टिन लूथर किंग-प्रथम के प्रोटेस्ट ईसाई सा आकार पा रहा था, जिसने यूरोप में ईसाइयों के धर्मगुरू पोप और चर्च की सत्ता को चुनौती दी थी। बाबा साहब ने जब 3 जून 1927 को कालाराम मन्दिर प्रवेश का सत्याग्रह शुरू किया था, उस समय सावरकर ने उन्हें स्वतंत्र मंदिर बनाने की योजना सुझायी थी। बाबा साहेब ने सावरकर की इस स्वतंत्र मंदिर की अवधारणा का विरोध करते हुए कहा था, ‘‘नए मंदिर की कल्पना सुन्दर है, पर अस्पृश्यता दूर करने के उपाय के रूप में यदि वह अस्तित्व मेें आयेगी तो उससे सही मायने में अस्पृश्यता दूर न होकर, अस्पृश्यता बच्चों का खेल हो जाएगा। अस्पृश्यों को मंदिर में जाना है, उन्हें केवल अपना हक जताना है। अलग व्यवस्था करने से यदि अछूत लोग स्पृस्य होंगे तो अछूत, मांतग, चमार बस्तियाँ अनादिकाल से आज तक अलग हैं, उसका परिणाम क्या हुआ? अमेरिका में भी अश्वेतों के लिए सन् 1896 में वहाँ के सर्वोच्च न्यायालय ने ‘अलग किंतु बराबर‘ (सेपरेट बट इक्वल) कानून का फैसला दिया था, जिसे मार्टिन लूथर किंग द्वतीय एवं अन्य नीग्रो आन्दोलन कारियों लम्बे संघर्ष के बाद अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय ने 1954 में आकर खारिज किया। (देखें दलित साहित्य और अमेरिकन अश्वेत साहित्य-शरण कुमार लिम्बाले, पश्यंती अप्रैल-जून 1998 पृ.73-74) बाबा साहेब हिन्दू धर्म को महान आर्दश और घृणित कार्यों के बीच की पहेली मानते थे। इसीलिए उनका प्रारंभिक चरित्र हिन्दू धर्म से अलगाव का नहीं सुधार का रहा । वह हिन्दू धर्म में असमानता की जड़ उसके धार्मिक ग्रंथ मानते थे। इसलिए उन्होंने एक स्थान पर कहा भी था कि, ‘‘सारे हिन्दू धार्मिक ग्रंथों को तोप से उड़ाकर उनका पुर्नलेखन होना चाहिए।’’ तब उनका आशय निश्चय ही वर्तमान हिन्दूधर्म से नहीं था जो नानापंथ जाल में फँसा असमानता और शोषण का मायका बना हुआ है। मनुस्मृति दहन के पीछे भी उनकी यही मंशा थी। विध्वंस भी उसे ही शोभा देता है जो नवसृजन का उत्तरदायित्व निभाये। बाबा साहेब ने एक अमानवीय व्यवस्था पोषक ग्रंथ को जलाया तो उसके स्थान पर, इस देश में लोकतंत्र का वाहक और समता पर आधारित एक नया ग्रंथ (संविधान) रचा भी था। संसद भवन के सामने पंडित नेहरू को संविधान सौंपते हुए चित्र में उनके चेहरे पर जो गौरवमयी आत्मसंतुष्टि का तेज दिखाई देता है क्या वह चमक एक पुस्तक (भले ही वह असमानता का हिमालय और शोषण की गंगोत्री रही हो) को जलाने के बाद उसकी जगह बतौर कन्फेशन एक नवीन पुस्तक लिखने की आत्मसंतुष्टि तो नहीं? कहीं हमारा संविधान एक महान समाज सुधारक की लेखकीय संवेदनशीलता और वैचारिक जागरूकता का परिणाम तो नहीं? खैर अगर हम मुद्दे पर लौटतें हैं तब भी बात वहीं आकर ठहर जाती है। क्या डाॅ. अम्बेडकर बौद्ध धर्म में प्रयाण नहीं करते और उन्हें हिन्दू धर्म में सम्माजनक रूप से रूकने का अवसर प्राप्त होता, तब क्या उनका रास्ता वही होता जो आज विश्व हिन्दू परिषद और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का है। जबाब ना में ही होगा क्योंकि वह पुरानी लीक पर ज्यों के त्यों चलने के पक्षधर नहीं थे। हिन्दूधर्म को भी वह उसी रूप स्वीकार करने वाले नहीं थे। वह अवश्य कोई न कोई क्रांतिकारी परिवर्तन किये वगैर न मानते। तब उसमें धामिर्क राष्ट्रवाद और सामाजिक अलगाव बाद के लिए कितना स्थान शेष रहता इसका हम अंदाज लगा ही सकते हैं। क्योंकि जिस बौद्ध धर्म को हम दुनिया का सबसे वैज्ञानिक और तर्काधारित धर्म समझते हैं। उसे भी उन्होंने ठीक वैसा ही स्वीकार नहीं किया था। उसमें भी उन्होंने अपनी बाइस प्रतिज्ञाएँ शामिल की, ‘बुद्ध और उनका धम्म’ नामक एक नवीन ग्रंथ रचा जो दुनिया के बौद्धों के लिए भले ही न सही पर भारत के बौद्धों की ‘बाईबल’ मानी जाती है, जिसके लिए बाबा साहब को बहुत से देशी और विदेशी पूर्व बौद्ध आचार्यों का कोप भाजन बनना पड़ा और सराहना भी मिली थी।7 (देखें, बुद्ध और उनका धम्म-बाबा साहेब अम्बेडकर, अनु. भदंत आनंद कौशल्यान भूमिका पृ0 6) लेकिन इसके लिए वह न तो झुके न ही समझौतावादी रास्ता अख्तियार किया। बाबा साहेब को हिन्दू धर्म में यदि किसी तरह रूकने का मौका/सहयोग और इस दिशा में कुछ स्वतंत्र करने के अवसर प्राप्त होते तो अवश्य ही आज हमारा रास्ता, भागलपुर बेलछी, अयोध्या, गुजरात और गोहाना से होकर नही जाता।
23 टिप्पणियां:
nice
निश्चित ही अम्बेडकर के पास एक दूरदर्शी दृष्टि थी, जो ये देख रही थी कि हिन्दू धर्म सुधार की लाख कवायदों के बाद भी अपनी वर्णव्यवस्था, जो कि अब जाति में बदल गई है, नहीं छोड़ेगा. इसीलिये उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार किया. लेकिन उसकी भी उन्होंने वही बातें स्वीकार की जो उसे एक तार्किक और समानतावादी धर्म बनाती थीं, शेष बातों को छोड़ दिया.
मनुस्मृति को जलाने के पीछे जो सोच थी, वह सांकेतिक विरोध की थी और निश्चित ही अब भी कोई भी समानतावादी व्यक्ति ऐसी किसी किताब को नहीं मानना चाहेगा, जिसमें दो व्यक्तियों में किसी भी आधार पर जन्मगत भेद स्थापित किया जाता हो, पर ये भी सच है कि अगर हिन्दू धर्म ने उन्हें उस स्तर तक सुधार की गुन्जाइश दी होती जिस स्तर तक वो चाहते थे तो शायद वो बौद्ध धर्म स्वीकार न करते और हिन्दू धर्म में ही रहकर अपना विरोध जताते.
Aapka aakrosh vajib hai...Yah bahut badi bidambana hi hai ki aaj bhi jaativadi soch jan manas mein haavi hai....
Mukti ji ne bahut hi umda lahaje mein steek baat kahai hai......
Samajik ku-vywastha ka aaina dikhane ka aapka prayas sarahniya hai....
वैसे अगर आज का राजनीतिक महॉल देखा जाय तो अंबेडकर के प्रयासों को भी अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए इन नेताओं ने बदनाम कर दिया है .... आज बस राजनीति होती है उन सिद्धांतों पर ....
अरे वाह....
हिन्दू-मुस्तिम का भेद यहाँ भी!
आपसे एक ही निवेदन है कि हमारा एर लेख हिन्दू एकता सिद्धांत एक वार पढ़ लें जो झूठ या गलत लगे उसका एपने मन व दिमाग से उतर दें किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर नहीं ।आशा है हम मिलकर इस दिशा में काम कर सकेंगे वो भी अन्जाम तक पहुंचने के लिए।
लेख ब्लागवाणी पर HTF के नाम से आपके शीर्षक से मिलते जुलते शीर्षक के साथ होगा
HTF यानी सुनील दत्त जी
आपका ब्लाग जितनी कुत्सित, पूर्वाग्रहयुक्त और अश्लील भाषा से भरा हुआ है, उसके बाद आपकी इस अपील का कोई अर्थ नहीं रह जाता। मेरा स्पष्ट मानना है कि हिन्दुत्व सहित सभी धर्मों के धर्मग्रंथों को तोप से उड़ा देने का वक़्त आ गया है। उनमें भी जितना विभेदकारी और जन्म आधारित भेदभाव तथा घृणा और हिंसा हिन्दू धर्म में है उतनी किसी और में नहीं। अंबेडकर का यह कथन इसी संदर्भ में है और यह यूं ही नहीं कि गोलवलकर संविधान के ख़िलाफ़ थे और मनुस्मृति को संविधान की जगह लागू किये जाने के पक्षधर…
हिन्दू एकता सिद्धांता आपका HTF की ओर से बलागवाणी पर इन्तजार कर रहा है।
आप बस यह बताईये कि अम्बेडकर ने हिंदू धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म क्यूं अपनाया? उन्होंने मनुस्मृति जलाई थी … क्या आप इसके लिये तैयार हैं? वह धर्म को स्त्रियों और दलितों का सबसे बड़ा शत्रु मानते थे क्या आप मानते हैं? और सबसे बड़ा सवाल वह इस देश के संविधान को मानते थे जो प्रज्ञा जैसों को अपराधी और देशद्रोही मानता है…क्या आप भी यह मानते हैं?
क्या सबकुछ एक ही वार में तय कर लेना ।जरा सोचो जहां हिन्दुत्व नहीं कश्मीर,पाकिस्तान,अफगानीस्तान वहां हम सब की क्या हालात हैं आप पिर भी उसी ओर जाना चाहते हैं..
बस इतना कि आप के 'हम' में हम शामिल नहीं…हमारा 'हम' इससे कहीं अधिक विस्तृत है जिसमें दुनिया का हर शोषित-पीड़ित शामिल है और हर शोषक बहिस्कृत्…
और हम एक ऐसा समाज बनाना चाहते हैं जिसमें किसी के साथ ग़ैरबराबरी न हो…चाहे वह किसी भी धर्म,जाति,नस्ल या देश का हो
हमारा भी मकसद कुछ ऐसा ही है। कानून जाति,सांप्रदाय,क्षेत्र,भाषा आधारित न होकर सिर्फ बारतीय के लिे बनाया जाना चाहिए ऐसा हमारा मानना है।उसी दिशा हम प्रयासरत हैं ब्लाह को एक वार जरा समय देकर पढ़ने का कष्ट करें।बैसे भी आज तक हम दूसरों के लिए आपस में लड़कर ही दूसरों की हिंसा का सिकार हुए हैं। इतिहास से हमें सबक लेकर आगे बढ़ना चाहिए।
विहार में जिन लोगों ने माओवादियों के हाथों में गन 1960 में दी थी उन्हीं लोगों ने रणवीर सेना के हाथों में गन 1984 में दी परिणास्वारूप हिंसा। दोनों तरफ मरा कौन हिन्दू वोले तो भारतीय।जीता कौन देश के शत्रु
विजय कुमार पुजारी द्वारा लिखी बाबासाहब आम्बेडकर की जीवनी से यह उद्ध्रत कर रहा हूँ ।
" मैं दिनभर निवास के लिये स्थान प्राप्त करने की कोशिश करता रहा । मैं कई मित्रों से मिला । उन्होने कई बहाने बनाकर मुझे टरका दिया । और मैं नहीं सोच पा रहा था कि अब मुझे क्या करना चाहिये । आखिर मैं एक जगह नीचे बैठ गया । मेरा मन उद्विग्न हुआ और मेरी आँखों से आँसूँ बहने लगे " - डॉ.आम्बेडकर ।
पुजारी जी लिखते हैं " डॉ. आंबेडकर बड़ौदा पहुंचे, परंतु निवास के लिये उनको किसी हिन्दू अथवा मुस्लिम होटल में जगह नहीं मिल सकी । सब होटलों और भोजनालयों के दरवाज़े डॉ.आंबेडकर के लिये बन्द थे । किराये का कोई मकान भी उनको न मिल सका । बड़ौदा के महाराजा और मुख्यमंत्री ने सूचित करने पर भी उनके निवास का प्रबन्ध करने की परवाह नहीं की । हिन्दू समाज , हिन्दू धर्म और हिन्दू संस्कृति से इस प्रकार अपमनित होकर डॉ.आंबेडकर ने एक पारसी होटल में एक बनावटी पारसी के तौर पर रहने का निश्चय किया । यह अपना एदलजी सोहराबजी यह बनावटी नाम धारण करके जहाँगीरजी होटलवाला के पारसी होटल में रहने लगे । "
( छठा परिच्छेद -पृष्ठ 42 )
ऐसा व्यक्ति यदि यह कह रहा है तो क्या ग़लत कह रहा है ?
आपका अपना ब्लाग कितनी कुत्सित, पूर्वाग्रहयुक्त और अश्लील भाषा से भरा हुआ है :- "जितना विभेदकारी और जन्म आधारित भेदभाव तथा घृणा और हिंसा हिन्दू धर्म में है उतनी किसी और में नहीं।हिन्दुत्व सहित सभी धर्मों के धर्मग्रंथों को तोप से उड़ा देने का वक़्त आ गया है।" अशोक पाण्डेय जी आपका ब्लाग पूर्वाग्रह से मुक्त कितनी मीठी भाषा से भरा हुआ है। किसी की सही बात सुनने को तैयार नहीं, जो कीचढ़ आप उछाल रहे हैं, उससे अधिक कीचढ़ तो आपके दिमाग में भरा है। फिर यदि आप की बात को मान भी लिया जाये तो हिन्दू धर्म की कथित बुराई के लिए दोषी पंडितों में आपके पिता पाण्डेय जी भी दोषी ठहरते हैं। बाप को गाली देकर बेटा किनारे होजा या अपने बाप के दोष की सजा की सहभागिता बता। यह दोनों ही न करसके तो इस देश के शत्रुओं के बहकाए में आ कर अंट-शंट बकवास के लिए देश से क्षमा मांगने में कोई बुराई नहीं है। इनमें से कुछ भी नहीं किया तो इस बकवास के लिए यही कहा जायेगा "अशोक पाण्डेय का दिमाग फिर गया है पगले की बकवास पर ध्यान न दिया जाये। क्या ख्याल है? कौन शोषित-पीड़ित है, और कौन शोषक इसका निर्णय करने का अधिकार आपको किसने दिया? स्वयं आरोप लगाया , स्वयं झूठी दलीलें दी और स्वयं ही निर्णय भी दे दिया ? दिमागी दिवालियेपन के सभी लक्षण स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं ?"
apki 9:17 ki tippani ke bad ki meri tippani apke anumodan ke liye atki hai. prakashit hogi ya lajavab ho gaye, to chhupadi?
रियल न्यूज़ महोदय
आपकी टिप्पणी के इंतज़ार में रतजगा नहीं किया जा सकता…सुबह कनेक्ट होते ही लगा दी। सीधी बात है कि यदि आपको अम्बेडकर का यह कथन अश्लील,कुत्सित और पूर्वाग्रह ग्रस्त लग रहा है तो आप अपनी कहानी ख़ुद कह रहे हैं। हां मेरे पूर्वज जाति के आधार पर शोषक वर्ग में शामिल होते ही हैं। गांधी के पिता भी राज्य के दीवान थे, चन्द्रशेखर आज़ाद के पिता किसान और शिवाजी के पिता शाही मुलाजिम…तो क्या इनका मूल्यांकन इनके पिताओं के आधार पर होगा? किसी लेखक या कार्यकर्ता का मूल्यांकन केवल उसके जीवन और कार्य के आधार पर होता है … इसीलिये हम अम्बेडकर के ख़ानदान की बात नहीं करते उनके लिखे की बात करते हैं…उनके किये की बात करते हैं। जिनको उससे कष्ट है वे कथित राष्ट्र की सुनहरी चादर के नीचे सड़ते कुष्ठ को नज़र अंदाज करते हैं। यह परंपरा गोलवरकर की किताब 'वी आर आवर नेशनहुड डिफ़ाईण्ड' से शुरु होती है जो एक तरफ़ दलित समस्या को नज़रअंदाज़ करती है तो दूसरी तरफ़ वर्ण व्यवस्था की पुरज़ोर हिमायत।
यह दिमागी दिवालियापन नहीं शातिर और षड़यंत्रकारी कृत्य है।
इसके बाद केवल उन टीपों पर बात संभव है जिनका संबंध इस पोस्ट से है
ग्रंथों से मुक्ति के बिना बदलाव असंभव ही लगता है। धर्म के भीतर रहकर शायद सिर्फ इसी तरह के बदलाव संभव हैं कि पिता की लाश को बेटे की जगह बेटी अग्नि देगी, दलितों को भी कभी-कभी पुजारी वगैरह बना दिया जाएगा, आदि। कर्मकाण्डो और अंधविश्वासों से मुक्ति का वहां कोई रास्ता नहीं दिखता। यह बाबा साहेब की दूरदर्शिता का ही प्रमाण है कि मुक्ति के संदर्भ में कई बार अनपढ़ दलित भी पढ़ी-लिखी महिलाओं से ज़्यादा तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टि का परिचय दे जाते हैं।
"बाबा साहेब हिन्दू धर्म को महान आर्दश और घृणित कार्यों के बीच की पहेली मानते थे"
सही मानते थे। दलित हिन्दु नहीं थे हिन्दुओं के दास थे।
'भारत रत्न' डॉक्टर बाबासाहेब भीमराव आम्बेडकर का आन्दोलन अब बहुत आगे बढ़ चुका है लेकिन उन्होंने भी कल्पना नहीं की होगी कि जिन प्रथाओं के खिलाफ वह लड़ते थे उन्हीं बुराइयों का शिकार उनके अनुयायी यो चुके हैं और यह सिलसिला थमता नहीं दिख रहा. हिन्दू धर्म के कर्मकांड उनके यहाँ थोड़े-बहुत बदले हुए स्वरूप में धड़ल्ले से अपनाए जा रहे हैं, शादी का कार्ड नीले रंग का होता है, पुजारी दलित होता है आदि-आदि. जो गौतम बुद्ध मूर्तिपूजा के घोर खिलाफ थे उनकी और आम्बेडकर की मूर्तियों की गांधी की मूर्तियों से होड़ मची हुई है. मायावती जीते जी पूरे यूपी में अमर हो जाना चाहती हैं. सत्ता के निकट रहने मात्र को महाराष्ट्र में रिपब्लिकन पार्टी छह टुकड़े हो चुकी है और इनमें से हर टुकड़ा खुद को सच्चा आम्बेडकरवादी बता रहा है. नवदलित मुंशी प्रेमचंद की किताबों की प्रतियां जलाने लगे हैं. संघ की ही लाइन पर चलते हुए इतिहास को तोड़-मरोड़ कर समझाते हुए दलित प्रचारक और नेता गैर दलितों के प्रति गहरा घृणा भाव पैदा कर रहे हैं. सुधारवादी आन्दोलनों का यही हश्र होता है. दरअसल इस आन्दोलन को फिर से आम्बेडकर जैसे कद और महान सोच का बड़ा नेता पैदा करना होगा वरना ये सामाजिक रूप में बदले हुए सवर्ण और राजनीतिक रूप में बदली हुई कांग्रेस पार्टी से ज्यादा कुछ नहीं बन पायेंगे.
आलेख बेहतरीन है, दृष्टि बिंदु से ही सहमत हूँ...और टिपण्णी के बीच में जो सामाजिक तत्व आए (जो समाज में बहुलता में उपलब्ध हैं, इसीलिए असामाजिक नहीं कह रहा हूँ) खासकर प्रखर राष्ट्रवाद, उनके न उत्तर सुनने की इच्छा है, न प्रश्नों की पराकाष्ठा जानने की...ये वैचारिक नहीं, व्यवहारिक मतभेद है...जो न "हिन्दू जागो" से बहस करने से सुलझेगा...न ही केवल आंबेडकर वांग्मय को पढने से... आंबेडकर को जितनी आसानी से समझा जा रहा है, उससे आगे आंबेडकर तर्क के रूप में सामने आते हैं...हम आलोचना में रह जाते हैं, बिना किसी निदान पर नज़र डाले .....और जिस तरह हाथ भर में उनके साथ बहस बहस खेल लिया जाता है..राष्ट्रवादी विचारकों के साथ.....तो जवाब वाजिब होगा किन्तु बेवजह...यथार्थ के धरातल और भावना के कल्पित आकाश में अंतर बहुत पहले पनप चुका है...और अब बेहद बढती जा रही है..ये खाई....
इस आलेख का यहाँ होना ज़रूरी था...
Nishant kaushik
www.taaham.blogspot.com
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