कौन चाहता है इन चिरागों को बुझाना? |
मुझे भी दुख है उन ग़रीब जवानों की असमय मृत्यु पर…
तब भी होता है जब कहीं दुबकी सी ख़बर होती है कि आठ नक्सली मारे गये...
तब भी जब दंगे में मारे गयी लाशें अख़बारों में लहू बहाती हैं…
यह सारा हमारा ही ख़ून है…
काश कि असली क़ातिल मारे जायें कि हम ज़िन्दा रह सकें !!!
10 टिप्पणियां:
बिलकुल, हर बार आत्मा उतनी ही रोती है और मन उतना ही विकल होता है...कब रुकेगा इन धरती के सपूतों के लहू से धरती का लाल होना...
विनम्र श्रधांजलि उन जवानों को...
हां यह सारा हमारा ही ख़ून है…
हो,
ऐसा भी एक वक्त
इस धरती पर
जब किसी इंसान के हाथों
कोई दूसरा इंन्सान
न मारा जाए!
दोस्त!
तुम सहमत हो?
हाँ,
तो आओ
इस के लिए काम करें
नहीं,
तो तुम्हारा मेरा रास्ता
एक नहीं
तुम जाओ अपने रास्ते
मैं अपने साथी
तलाशता हूँ।
यह सारा हमारा ही ख़ून है… और असली कातिल यमराज की तरह क्यों हमेशा अद्रश्य होता है?
काश!! असली कातिल मारे जाते!
शहीद जवानों को श्रृद्धांजलि!
nice
शतरंज है ....खेलने वाले बदलते रहते है .बस प्यादे वही रहते है
हम बी अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं!
चर्चा में भी ले लिया है इसको!
http://charchamanch.blogspot.com/2010/04/blog-post_09.html
असली कातिल भी तो हमारे अंदर ही है ... उस को भी तो हम ही मार सकते हैं ...
खून निकालने से पहले कोई नही समझता ...
आज दिनांक 14 अप्रैल 2010 के दैनिक जनसत्ता में संपादकीय पेज 6 पर यह पोस्ट समांतर स्तंभ में सही रास्ता शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई।
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