08 अप्रैल 2010

श्रद्धांजलि के स्वर में विलाप

कौन चाहता है इन चिरागों को बुझाना?

  मुझे भी दुख है उन ग़रीब जवानों की असमय मृत्यु पर…

  तब भी होता है जब कहीं दुबकी सी ख़बर  होती है कि आठ नक्सली मारे गये...

  तब भी जब दंगे में मारे गयी लाशें अख़बारों में लहू बहाती हैं…

  यह सारा हमारा ही ख़ून है…   
                      


काश कि असली क़ातिल मारे जायें कि हम ज़िन्दा रह सकें !!!

10 टिप्‍पणियां:

rashmi ravija ने कहा…

बिलकुल, हर बार आत्मा उतनी ही रोती है और मन उतना ही विकल होता है...कब रुकेगा इन धरती के सपूतों के लहू से धरती का लाल होना...
विनम्र श्रधांजलि उन जवानों को...

36solutions ने कहा…

हां यह सारा हमारा ही ख़ून है…

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

हो,
ऐसा भी एक वक्त
इस धरती पर
जब किसी इंसान के हाथों
कोई दूसरा इंन्सान
न मारा जाए!
दोस्त!
तुम सहमत हो?
हाँ,
तो आओ
इस के लिए काम करें
नहीं,
तो तुम्हारा मेरा रास्ता
एक नहीं
तुम जाओ अपने रास्ते
मैं अपने साथी
तलाशता हूँ।

neera ने कहा…

यह सारा हमारा ही ख़ून है… और असली कातिल यमराज की तरह क्यों हमेशा अद्रश्य होता है?

Udan Tashtari ने कहा…

काश!! असली कातिल मारे जाते!

शहीद जवानों को श्रृद्धांजलि!

Randhir Singh Suman ने कहा…

nice

डॉ .अनुराग ने कहा…

शतरंज है ....खेलने वाले बदलते रहते है .बस प्यादे वही रहते है

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

हम बी अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं!
चर्चा में भी ले लिया है इसको!
http://charchamanch.blogspot.com/2010/04/blog-post_09.html

दिगम्बर नासवा ने कहा…

असली कातिल भी तो हमारे अंदर ही है ... उस को भी तो हम ही मार सकते हैं ...
खून निकालने से पहले कोई नही समझता ...

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

आज दिनांक 14 अप्रैल 2010 के दैनिक जनसत्‍ता में संपादकीय पेज 6 पर यह पोस्‍ट समांतर स्‍तंभ में सही रास्‍ता शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई।