02 जुलाई 2009

विद्यार्थी और राजनीति

(यह पर्चा आज हुए ऐ आई एस ऍफ़ के भोपाल में हुए राज्य सम्मलेन के लिए लिखा गया था। लौट कर आया तो सोचा आप को भी पढाया जाए )

छात्र और राजनीति का सवाल नया नहीं है। हमेशा से ही छात्रों से यह कहा जाता रहा है कि कालेज और विश्वविद्यालय पढ़ने लिखने की जगहें हैं न कि राजनीति की। यहां तक कि आजादी की लड़ाई के दौर में भी जब पूरे देश में नौजवान ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्षरत थे , यह कहने वालों की कोई कमी नहीं थी- इसीलिए तो भारतीय युवा की क्रांतिकारी चेतना के प्रतीक “शहीद भगत सिंह को ‘विद्यार्थी और राजनीति’ नामक लेख लिखकर इस विचार का प्रतिकार करना पड़ा। लेकिन यह एक लेख इस धुंध को छांटने के लिए पर्यप्त नहीं था और वर्तमान समय में जब बाजार हमारी हर सोच पर हावी है और राजनीति को एक घृणास्पद “शब्द मे बदल दिया गया है तो परिवर्तन का स्वप्न देखने वाले युवा के समक्ष यह सवाल और भी गंभीर रूप में उपस्थित है।

दरअसल, सबसे पहले तो यह समझना जरूरी है कि राजनीति है क्या? आज जब हम राजनीति की बात करते हैं तो जो रूप हमारे सामने आता है वह है भ्र’टाचार और पतन के दलदल में आकंठ डूबा, येनकेन प्रकारेण सत्ता प्राप्ति का जूगाड़ बैठाता एक ऐसा वर्ग जिसके लिए आदर्श केवल किताबी शब्द है और झूठ फरेब रोजमर्रा की आदत। लेकिन क्या राजनीति का बस यही अरथ होता है? नहीं - सत्ता की इस पतित राजनीति के बरक्स एक और राजनीति होती है रचनात्मक परिवर्तन की। अगर भगत सिंह का ही उदाहरण लें तो वह जो राजनीति कर रहे थे वह किसी व्यक्तिगत या दलगत स्वार्थ से प्रेरित नहीं थी । उसका तो लक्ष्य था व्यापक मूलभूत रचनात्मक परिवर्तन जिससे दुनिया से हर तरह का शोसन समाप्त हो सके और एक जातिविहीन, धरमविहीन और वर्गविहीन समाज की स्थापना हो सके तभी तो उनका दृढ़ विश्वास था कि क्रांति के लिए बंदूकों की नहीं परिवर्तन विचा रों की जरूरत है और इसीलिए अपने अंतिम आलेखों में उन्हांने युवाओं से आह्वान किया कि वे खेतों, खलिहानों और फैिक्ट्रयों में जाकर समाजवादी विचारों का प्रचार करें । यही वह राजनीति है जिसके लिए वह छात्रों को प्रेरित कर रहे थे।
इस संदर्भ में एक और बात जान लेनी बेहद जरूरी है कि कि छात्रसंघ और छात्र राजनीति का अधिकार हमें किसी खैरात में नहीं मिला है। इसे हमारे पूर्ववर्ती पीढ़ियों ने लम्बे सन्घर्ष के बाद अपने खून -पसीने की कीमत पर हासिल किया है। कालांतर में भले ही मुख्यधारा के राजनीतिक दलों ने इसे सन्घर्ष की राजनीति के ट्रेनिंग सेंटर में बदल दिया लेकिन अपने मौलिक रूप में यह विरोध और असुविधा की राजनीति है जिसमें एक छात्र आरंभ से ही अपने लोकतांत्रकि अधिकारों के लिये सन्घर्ष करना सीखता है। किताबों के साथ यह भी एक जरूरी पढ़ाई है जो कहीं और नहीं सीखी जा सकती। और पढ़ाई तथा पढ़ाई के अधिकार के लिये लड़ाई में ऐसा कोई विरोधाभास भी नहीं। हमारे दौर में एक नारा बहुत प्रचलित था - पढ़ो पढ़ाई लड़ने को, लड़ो लड़ाई पढ़ने को।

लेकिन नई आर्थिक नीतियों के दौर में जैसे-जैसे शिक्षा बाजारू माल में तब्दील होती गई वैसे-वैसे विरोध के स्वरों को दबाने के लिये छात्र राजनीति पर हर तरह के अंकुश लगाने की कोशिश की गई। पूंजीपतियों के लिये सेल्समैन और मैनेजर बनाने वाली इस व्यवस्था के लिये राजनीतिक चेतना से लैस नौजवानों का अस्तित्व अपने अस्तित्व के लिए ही एक खतरा होता। बाजार समर्थक बुद्धजिवियों ने इस सोच को बढ़ावा भी खूब दिया। परिवर्तन की ताक़तों के बिखराव ने भी छात्र आंदोलनो पर विपरीत प्रभाव डाला।

ऐसे में आज एक बेहतर और शोषणमुक्त समाज का ख्वाब देखने वाले लोगो की जिम्मेदारी है कि छात्र आंदोलनो की धार तेज करने के लिए लामबंद हों जिससे हमारे शिक्षा संस्थान बाज़ार के चाकर से परिवर्तन के वाहक मे बदल सकें। पैसे की अंधी दौड़ के बरअक्स शान्ति, समृद्धि और समाजवाद के लिये मुि”कल और लंबे संघर्ष की यह राह ही छात्र राजनीति की सही राह हो सकती है जिस पर चलकर भगत सिंह के सपनों को साकार किया जा सकता है।

2 टिप्‍पणियां:

शरद कोकास ने कहा…

हम लोगों ने भी बल्लीसिन्ह चीमा के गीत अब लडाई कर रहे हैं लोग मेरे गाँव के" को अब पढाई कर रहे हैं लोग मेरे गाँव के" के रूप मे गाया था

विजय प्रताप ने कहा…

और हमारे दौर का नारा है -

"लडो पढाई करने को
पढो समाज बदलने को."