यह हम सब की सहिष्णुता का इंतिहान है! |
नवजात कन्या वध तथा कन्या भ्रूण हत्या
आज के युग में जहाँ भारतीय नारियाँ घर की चहरदिवारी लाँघ कर खुले आसमान के नीचे कुछ अच्छे संकल्प लेकर विचरण कर रही हैं, चाहे वह राष्ट्र की तरक्की हो, विश्वशांति की बांते हो या कोई भी अच्छा निर्माण कार्य हो, हर क्षेत्र में वे अपनी कुशल भूमिका निभा रही है तथा अन्तर्निहित शक्तियों का और अपनी कुशलता का परिचय दे रही हैं। वही कितने अफसोस कि बात हैं कि नवजात कन्या वध तथा कन्या् भ्रूण हत्या का अपराध नासूर सा विकसित हो रहा हैं।
हमारे भारत में जहाँ प्रकृति माँ है, पृथ्वी माँ है, हमारी भारत माँ है, मातृ देवी के रूप में हम उनकी पूजा करते हैं,वहीं माँ के ही शरीर से लड़कियों के जन्म पर घर में मातम सा छा जाता है। जैसे कितनी बड़ी विपदा आ गई हो, कितना बड़ा गुनाह हो गया हों। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, उड़ीसा तमिलनाडु जैसे राज्यों में तो नवजात बालिका वध, या कन्या भ्रूण हत्या तो, जैसे सामान्य बात है।
विचारणीय बात तो यह है कि इन जन्मे या अजन्में बच्चियों की हत्या करते समय न तो इनके, माता पिता को दुःख होता है, न परिवार या समाज को, ‘‘जो इस कुकृत्य मे शरीक हुए रहतें हंै। इन सभी के लिए यह एक आम बात है। प्रायः यही माना जाता है कि इस तरह का अपराध, गरीब, अनपढ़ अविकसित तथा ग्रामीण क्षेत्रों वाले परिवारों में अधिक है, तथा शिक्षित परिवार इससे बचे हैं। लेकिन वास्तव में देखा जाए तो ऐसा नहीं है।
मेरे अपने विचार से ग्रामीण क्षेत्रों में और शहरी संस्कृति मे इन हत्याओं मे सिर्फ ईतना ही फर्क है कि एक हत्या जन्म के बाद तथा दूसरी जन्म के पहले ही कर दी जाती है’’। दुःख कि बात तो यह है कि दोनों ही स्थितियों में करूणामयी कहलाने वाली माँ की भी भूमिका रहती हैं। अतः इसके लिए सिर्फ पुरूष वर्ग को या परिवार वालें को दोषी ठहराना न तो तर्कसंगत है न ही न्याय संगत है।
मैं ग्रामीण या कहे तो अशिक्षित समाज की थोड़ी सी चर्चा करँगी। इसी विषय पर एक गाँव की मालिश करने वाली दाई से मरी बातचीत हुई। उसकी बाँते सचमुच रोंए खड़े कर देने वाले थे। हलांकि इन घटनाओं से उसने खुद को बरी करते हुए बताया कि, नवजात कन्यावध छोटे लोगो के बजाय, ऊँची जाति वाले या उच्च वर्ग वाले ज्यादा करते हैं।
उसने आगे कहा कि जब दाईयाँ मालिश के लिए जाती है तो घर वाले कहते है किं ‘‘इस लड़की को साफ करों वरना हम तुम्हे साफ कर देंगे। ऐसे में किसे अपनी जान प्यारी नहीं’’। इस दाई ने इस अपराध के कई प्रचलित तरीके भी बताए। कहा कि बच्ची के मुंह में 4 चम्मच नमक, या 3 चम्मच यूरिया खाद डाल कर मुंह दबा देना, या फिर रस्सी से गला कस देना। इसके बदले थोड़ा सा अनाज और रूपएं पैसे दे दिए जाते हैं। और इस बात का खुलासा न हो इसके लिए समय-समय पर धमकी भी मिलती रहती है।
जहाँ तक शहर की या शिक्षित समाज की बात है, मेरे आस-पास ऐसे कई उदाहरण है जहाँ माताओं ने ही इस अपराध को अंजाम देने में सक्रिय भूमिका निभाई है।
मेरी एक सहेली हैं, आदर्शवादी, उच्चशिक्षित, आधुनिक सोच वाली प्रगतिशील महिलाएँ उसकी आदर्श हुआ करती हैं। जब उसने पहली बेटी को जन्म दिया, हँसी थी लेकिन आन्तरिक खुशी गायब थी। दूसरी बार से लिंग निर्धारण का सिलसिला चालू हो गया। कन्या भ्रूण ही था उसने अपने घर के बड़े बुजूर्ग से भी सलाह लेना उचित नही समझा तथा पति पर दबाव बनाते हुए उसे नष्ट करवा दी। तीसरी बार भी कन्या भ्रूण थी, फिर वही प्रक्रिया, वही हत्या चैथी बार भी वह अपने आप को हत्यारी माँ बनने से नही रोक पाई। उसके शरीर की जो दुगर्ति हुई से अलग। अन्ततः पुत्र पाकर पूजवाकर उसे चैन मिला। दुःख तो मुझे इस बात से होता है कि मेरी सहेली कन्याओं को जन्म देकर उनकी अच्छी परवरिश कर सकती थी लेकिन न तो उसे कोई ताना देता, न ही कोई आर्थिक तंगी थी। फिर भी उसने ममतामयी माँ बनने के बजाएँ, हत्यारी माँ बनना ज्यादा उचित समझा।
इसी क्रम मे मुझे एक और घटना याद आ रही है, कुछ समय के लिए मै महराजगंज मे थी, वहाँ मेरे मकान मालिक की बेटी ने पुत्र के चाहत में लगातार सात-सात अजन्मी कन्याओं की हत्या करवाई। दुस्साहसी तो इतनी थी कि न तो ससुराल वालों को कुछ बताती थी, न मायकों वालों को। अपनी मनबढ़ता के आगे उसने पति को भी कायल कर रखा था। फलस्वरूप अजन्मी बच्चियों को अपनी कोख से खारिज करते करते गर्भाशय कैंसर को स्थान दे रखा था। अंततः पुत्र को जनम देने के कुछ दिन बाद इस दुनियाँ से विदा ले ली।
क्या इनकी सहृदयता पर हम विश्वास करें ? जिन्होने अपनी ही सुता को हलाहल दे दिया। इस तरह का अपराध सिर्फ इन दो महिलाओं ने ही नहीं किया बल्कि, शहर की सभ्य, पढ़ी लिखी, आधुनिक विचारधारा वाली, कई प्रगतिशील बहनें कर रही है। किसी ने सच ही कहा कि ‘‘जिस खेत को मेड़ खाएं, उसे कौन बचाए’’।
पति-पत्नि के अच्छे ताल-मेल से अच्छी सूझ-बूझ से इस अपराध से बचा जा सकता है। मेरे एक रिस्तेदार हैं पहली बेटी होने पर उस दम्पति ने उसे सहज स्वीकार किया, दूसरी बार गर्भधारण करने पर पता चला कि गर्भस्थ शिशु कन्या है पत्नी उसे हटाना चाहती थी, लेकिन पति अपने अच्छे सूझ-बूझ से अच्छे विचार से तथा अच्छे आदर्श प्रस्तुत करते हुए पत्नी को समझाया और उन्होने दूसरी बेटी को जन्म दिया। आज दो परिवार बहुत खुशहाल है, आज उन्हे देखकर यही सोचती हूँ कि पत्नी की इच्छानुसार अगर अजन्मे शिशु की हत्या हो जाती तो उनका आदर्श धरा का धरा रह जाता। आज उनकी पत्नी उसे सोचकर शर्मिन्दा भी होती है, और अपने पति पर गर्व करती है।
निसंदेह कन्या शिशु की हत्या का यह सिलसिला समाज के माथे पर कलंक है, जो मनुष्य की संवेदनाओं को झकझोर देता है।, लगता है हम संवेदन शून्य होते जा रहे है। इस कुकृत्य में हमें यह भी ध्यान नही रहता है कि इस भ्रूण हत्या के कारण स्त्री पुरूष के जनसंख्या के अनुपात में अन्तर आने लगा है। फलस्वरूप एक अधूरे और विकलांग समाज की संरचना होने लगी हैं। ऐसे में संभव है कि कन्या भ्रूण हत्या के चलते आने वाले समय में हमारे कुलदीपकों को बहुओं की कमी खलने लगेगी।
समाज को चाहिए कि सिर्फ पुरूष वर्ग या परिवार वाले के माथे ये कलंक न मढ़कर स्त्रीयों को मजबूत बनाएं, उनका हौसला बढ़ाएँ और माँ होकर भावी माँ की हत्या पर थोड़ा विचार करें।
मेरे साथ की भी घटना कुछ ऐसी ही है। जब मंै इस दौर से गुजरी तो पति द्वारा जाना कि उन्हें पुत्र की प्रबल इच्छा है। मेरे लड़की के नाम लेते ही वो मुझे कुछ घूर कर देखने लगे। खैर पढ़ाई को माध्यम बना कर मै मायके आ गई वहाँ मैने प्यारी सी बेटी को जन्म दिया। लेकिन शायद पति इतने आहत हुए कि हमे देखना या हमारा हालचाल लेना तो दूर पत्र व्यवहार भी बंद कर दिया। लोक-लाज और समाज की टोका-टोकी अपने जगह थी, मै बेटी देने की सजा पति द्वारा तिरस्कृत रूप में पा रही थी। अन्दर ही अन्दर घोर मानसिक अवसाद मे थी। छः माह निकल गए। मैं स्वयं अपनी हिम्मत जगाइ, और इन्हे पत्र लिखा, ‘‘आप- हमारी नही बल्कि मेरी बेटी से मिलने आईए’’ डरिए मत ये मेरी बेटी है’’। पति आए बेटी से मिले, उसे प्यार किया, आज मै एक और बच्चे की माँ हूँ। लेकिन बेटी मेरे पति की, परिवार की समाज की सबकी प्रिय है। उसके अच्छे संस्कार , और पढ़ाई लिखाई पर मेरा पूरा घर परिवार गर्व करता है। सोचती हूँ कि उस समय अगर पति की प्रतिक्रियानुसार कुछ ऐसा वैसा कर बैठती तो इतनी अच्छी बेटी पाने का सौभाग्य न पाती।
मेरे कहने का मतलब यह है कि अगर हम नारियाँ चाहे तो लाख विरोधाभास के बावजूद भी अपने गर्भ मे पल रही कन्याओं की जान तो बचा ही सकती है। हममें अपरिमित शक्ति और क्षमताएं सन्निहित है। इसका उपयोग हम निर्माण में करे न कि विनाश में।
मानवीय संवेदना, करूणा, ममत्व और वात्सल्य तो हम नारियों की सामान्य विशेषताएं है ही, तथा जिस क्षेत्र में पुरूषों ने सदियों से अपना अधिकार जमाया था, वहाँ भी हमने प्रवेश करके सिद्ध कर दिया है कि हमारा संकल्प हमें श्रेष्ठता और विशिष्ठता दे सकता है। इतनी विशेषताओं के बावजूद क्या हम अपने गर्भ में पल रही कन्याओं की रक्षा नही कर सकते ?
जहां तक कन्या वध की बात है, ये कुप्रथा आमतौर पर उन इलाकों में है जहाँ अशिक्षा गरीबी और अपराधों का बोलबाला है। गरीबी का एहसास उन्हें लड़की को पढ़ा-लिखा कर अन्य परिवार मे देने की बात तक नहीं सोचने देता, बेटी का बाप होना उन्हे हीनता का बोध करता है। इसलिए वो बालिका वध कर डालते है। अन्ततः बात ग्रामीण क्षेत्र की हो या शहरी संस्कृति की, हत्याओं में सिर्फ इतना ही अन्तर है कि एक हत्या कन्या के जन्म लेने के बाद होती है तथा दूसरी कन्या के जन्म लेने से पहले ही कर दी जाती हैं।
यहाँ यह है कि शिक्षा का पर्याप्त प्रचार प्रसार करते हुए गरीबी तथा अपराधी प्रवृत्तियों का उन्मूलन किया जाए, बच्चियों को पालने पोषने के लिए प्रेरित किया जाए। अवंाछित शिशुओं को सरकार या सरकारी संस्थान गोद ले ले। सभ्य शिक्षित और शहरी संस्कृति अपनी कथनी के साथ-साथ अपनी करनी पर भी ध्यान दे। इस अपराध में एक बहुत बड़ी भूमिका ‘महान’ डाक्टरों की भी है। जो पैसा बनाने के चक्कर में यह भूल जाते हैं कि उनका काम जिन्दगी बचाना है न कि गर्भ में ही उन्हें मार डालना। हमारे प्रशासन को चाहिए कि वे मूक-बधिर न बन कर इस जघन्य अपराध के प्रति कार्यवाई करे।
4 टिप्पणियां:
kadva sach...aapke iradon ko salam.seedhi saadi maa kya kare jab vah dekhti hai ki ek apahij beta bhi swasth sundar beti par bhari padta hai.
ओह, पूरा आलेख पढना मुश्किल लग रहा था...पर सच्चाई यही है..इस से कैसे इनकार किया जा सकता है...कुछ घटनाओं का जिक्र तो इतना हृदयविदारक है कि विश्वास करने का मन नहीं हो रहा..इतना क्रूर कोई कैसे हो सकता है..उन नन्ही बच्चियों के प्रति... disgusting
और ये बात संवेदनाओं की है....अनपढ़ और पढ़े लिखों से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता...मेरी खुद की गाँव में रहने वाली ,चाची की पांच लडकियां हैं ...सिर्फ साक्षर दादी ने उन्हें भरपूर प्यार दिया...पर इसमें स्त्रियों की भूमिका अहम् है...पर वे भी क्या करें...लड़के को जन्म देते ही जो इज्जत मिलती है...और लड़कियों के जन्म पे जो जिल्लत..वे भी शिकार हो जाती हैं..पर अगर शिक्षित और आर्थिक रूप से संपन्न युवतियां ऐसा करती हैं तो ये शर्मनाक है और इसकी घोर भर्त्सना की जानी चाहिए .
EK haqiqat jise hum sunthe tho roj hain par vichar nahi karthe. Lekhika ka yah prayash prashanshniya hai. Vidambana ye hai ki jahan Female foeticide jaise ghrunit chalan ka purjor virodh hona chahiye , wahin ye dhire dhire ek samanya waywahar ka roop letha chala ja raha hai, jo ki bhayprad hai.
Sasta vigyapan jaise "......... Abhi 500 kharch kar lijiye nahi tho baad me 500000 kharch karna parega" .......
ek aise hi samajik ku-pratha ki or sanket kartha hai jo ki bhrun hatya ko barhawa dete hain...
Sath hi Lekhika se namra nivedan kartha hoon ki "putra-Prem" aur bhruna hatya me koi samantha nahi hai isilye Lekhika ke Pathi ka jikra is lekh me sarthak nahi hai.
EK haqiqat jise hum sunthe tho roj hain par vichar nahi karthe. Lekhika ka yah prayash prashanshniya hai. Vidambana ye hai ki jahan Female foeticide jaise ghrunit chalan ka purjor virodh hona chahiye , wahin ye dhire dhire ek samanya waywahar ka roop letha chala ja raha hai, jo ki bhayprad hai.
Sasta vigyapan jaise "......... Abhi 500 kharch kar lijiye nahi tho baad me 500000 kharch karna parega" .......
ek aise hi samajik ku-pratha ki or sanket kartha hai jo ki bhrun hatya ko barhawa dete hain...
Sath hi Lekhika se namra nivedan kartha hoon ki "putra-Prem" aur bhruna hatya me koi samantha nahi hai isilye Lekhika ke Pathi ka jikra is lekh me sarthak nahi hai.
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