कल बोधिसत्व भाई की अश्क जी के सन्दर्भ में लिखी पोस्ट पढ़ने के बाद मन बहुत देर तक अशांत रहा।
क्या हम सचमुच अपने इतिहास, अपनी परंपरा और अपने पूर्वजों के प्रति कृतघ्नता की हद तक लापरवाह और भुलक्कड़ हैं? क्या हम बस आज में जीते हुए ज़माने की भेड़चाल में शामिल होना जानते हैं? या फिर किसी अपराधबोध या एहसासे कमतरी से इस क़दर घिरे हुए हैं कि अपने देसज अतीत पर किसी आरोपित, आयातित या फिर कल्पित अतीत को वरीयता देते हैं? यह अतीतजीविता और प्रतिगामिता की प्रतिक्रिया में अपनाई गयी कोई दूसरी अति तो नहीं है?
पिछले बीसेक सालों से ( लगभग वही समय काल जिसमें मेरा/मेरी पीढ़ी का लेखकीय/पाठकीय विकास हुआ है) हम लगातार जन्म शताब्दियां मना रहे हैं। प्रेमचन्द, राहुल सांकृत्यायन, सज़्ज़ाद ज़हीर, सुभद्रा कुमारी चौहान और ऐसे ही तमाम आदमक़द साहित्यकारों की, जिन्होंने आधुनिक हिन्दी-उर्दू साहित्य के लिये बुनियादें भी चुनीं और कंगूरे भी बनाये। बड़े ज़ोर-शोर से कार्यक्रम हुए, पत्रिकाओं के विशेषांक निकले, चर्चा-परिचर्चा, थोड़ी कीच धुलेंड़ी भी और ऐसा लगा कि अब तक जो उनको बिसराये रखा गया, अब सारी कसर पूरी कर ली जायेगी। पर हुआ क्या? जैसी ख़ामोशी उन ख़ास वर्षों के पहले थी…उनके बाद भी कमोबेश बनी ही रही।
रामकुमार वर्मा, दिनकर, रांगेय राघव, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल जैसे तमाम दूसरे साहित्यकारों की जन्मशतियां या तो ऐसे ही बीत गयीं या बीत जाने की उम्मीद है।
मैने जबसे लिखना सीखा-- मार्क्सवाद भी सीखा। जुड़ा ही रहा कहीं न कहीं से। अब मार्क्सवादी विचारधारा पर बात चले और सज़्ज़ाद ज़हीर की बात न आये यह मुमकिन ही नहीं। जब उन्होंने प्रलेस बनायी थी तो एकीकृत कम्यूनिस्ट पार्टी थी। तो आज के प्रलेस के ही नहीं वह किसी भी वामपंथी संगठन के साहित्य संगठन के पुरखे हुए। लेकिन सच तो यह है कि उनकी जन्मशती के पहले तक मैं और मेरे तमाम दूसरे दोस्त उनका नाम तक नहीं जानते थे-- या बस नाम ही जानते थे। जन्मशती वाले साल तमाम चीज़ें मूर्खों की तरह पलक झपकाते हुए पढ़ी और लगा -- …अगले ज़माने में कोई मीर भी था। उस दौरान मंचों से की गयीं दहाड़ें याद हैं और उसके बाद की बेशर्म चुप के हम गवाह हैं।
सज़्ज़ाद साहब के साथ यह तब हुआ जब प्रलेस आज भी लेखकों का सबसे बड़ा संगठन है। तो राहुल जैसे लड़ाके की कौन बिसात। गोरखपुर में राहुल पर हुए कार्यक्रम का मै गवाह हूं। ऐसा लगा था कि राहुल साहित्य अब जन-जन तक पहुंचेगा। पर हुआ क्या? राहुल फाउण्डेशन बना और एक क्रांतिकारी संगठन की शातिर प्रकाशन गृह तक की यात्रा पूरी हुई!
ऐसा तो नहीं कि ये सब बस हमारे लिये उत्सवीय महत्व की मूर्तियां बन कर रह गये हैं? जैसे कुछ दिन गणेश की पूजा अर्चना कर उनकी मूर्तियां नदी-नालों में बहा देते हैं वैसे ही हम अपने पुरखों को विस्मृति के नालों में?
शायद अब याद बस उनको करते हैं जिनसे वर्तमान में कुछ मिल जाने की संभावना होती है। जीते जी अमर हो जाने/ कर देने की चाह तमाम सम्मान समारोहों, महत्व कार्यक्रमों और संपूर्ण प्रकाशनों में साफ़ झलक रही है। ऐसे वर्तमानजीवियों से इतिहास या भविष्य को क्या उम्मीद हो सकती है?
तो क्या अश्क, क्या शमशेर, क्या प्रभाकर और क्या सज़्ज़ाद-- सबको भुला ही दिया जाना है एक दिन।
अब हर कवि का बेटा अमिताभ बच्चन तो नहीं हो सकता?
9 टिप्पणियां:
धीरे-धीरे कर इन्हें भूलाया जा रहा है ताकि आगे आने वाली पीढ़ी भी इन्हें न याद कर-रख सके। चीजों बातों और विचारों को किताबी-विमर्शों में उलझाकर रख दिया गया है। राहुल, सज्जाद या शमशेर को हम अपनी सुविधाओं के हिसाब से याद करते हैं। फिर यह भी तो देखें कि अब तक कितनों ने मन्मथनाथ गुप्त और हंसराज रहबर को यद किया है या उन पर विशेषांक निकाले हैं।
"राहुल फाउण्डेशन बना और एक क्रांतिकारी संगठन की शातिर प्रकाशन गृह तक की यात्रा पूरी हुई!"
- समूची पोस्ट के साथ साथ ये टुकड़ा ....ख़ासा दिलचस्प है...मैं भी अब सोच रहा हूँ. ख़ुशी है कि तुम बोलते हो..इस तरह बोलते हो...हर ज़रूरी जगह बोलते हैं...कितने लोग हैं जो बोलते हैं...इस तरह बोलते हैं...हर ज़रूरी जगह बोलते हैं. मुझे लिखो यहाँ वहाँ पर पुरस्कारों पर तुम्हारा लिखा भी बहुत याद आ रहा है.
शुक्रिया प्यारे दोस्त.
बोधिसत्व भाई मेल पर
भाई मेरे
आप सब हैं तो उन बहुत सारे लेखकों की यादें जिंदा रहेंगी। वैसे कोई भी साहित्यकार अपने लिखे से ही बचेगा। चाहे अश्क जी हों या राहुल या रहबर मन्मथनाथ गुप्त यह सब अपने लिखे से ही जिंदा रहेंगे।
nahin chap raha hai
यह ज़िन्दा रहेंगे और याद भी किये जायेंगे यदि इन्हे भुलाने का कोई ष्ड़यंत्र न किया जाये । इस वर्ष भगवतशरण उपाध्याय की भी जन्म शती है .. यह बात कितनों को पता है ?
बड़े लेखकों को आयोजन के बहाने याद करना ढोंग है.नकली साहित्य्कारों का अपनी चाँदी काटने और चहरे चमकाने के चोंचले हैं. हम उन के लिखे हुए को अपनी स्मृतियों में, व्यवहार में, और अंततः लेखन में ज़रा सा भी बचा पाएं , यह सच्मुच की श्रद्धाँजलि होगी उन के लिए.
और अशोक भाई, हम सब ये कागज़ क्यों काले कर रहे हैं? क्यों कि हम उस् पूरी विरासत को कहीं गहरे में जी रहे हैं.
जीवन को सरसित रखता है, कृतज्ञता का भाव.
उनका कार्य बढे आगे, यह हर पूर्वज की चाह.
हर पूर्वज की चाह, भाव-भाषा में देखो.
श्रृद्धाँजलि यही है, उनसे बेहतर लिक्खो.
यह साधक इस तरह पूजता महापुरु्षों को.
कृतज्ञ होकर सरसित रखता निज जीवन को.
डॉ. रांगेय राघव जिन का आज 87 वाँ जन्मदिन है।
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हम तो फिर भी उन्हें याद कर लेंगे यदि नहीं तो आप जैसे जागरूक याद दिलाते रहेंगे ... लेकिन आगे आने वाली पीढ़ी याद रखेगी? ..यह हमारे लिए सबसे बड़ी चुनोती है ..
nice
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