19 अक्तूबर 2008

'अच्छे संदिग्ध' की तलाश

सरहदों के नाम पर आखिर लोग इस कदर एक दूसरे के खून के प्यासे क्यों हो जाते हैं ?
यह सवाल अपने अपने दौर के मनीषियों को हमेशा मथता रहा है। इराक पर अमेरिकी आक्रमण के बाद खुद अमेरिका के अन्दर युध्दविरोधी आन्दोलन के प्रवक्ताओं ने इससे जूझने की कोशिश की है और यह जानना चाहा है कि आखिर प्रबुध्द कहलाने वाला अमेरिकी नागरिक या जनतंत्र का प्रहरी कहलाने वाला मीडिया हुकूमतों द्वारा फैलाये जाने वाले सरासर झूठ पर कैसे यकीन करता है, जिसकी परिणति अन्यायपूर्ण युध्दों में होती हो, जहां हजारों हजार लोग मौत की नींद सो जाते हैं ?
अमेरिका के रैडिकल विद्वान हावर्ड झिन (जिनकी किताब ' ए पीपुल्स हिस्ट्री आफ युनाइटेड स्टेटस' की दस लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं और जो दुनिया के कई अन्य भाषाओं में अनूदित भी हुई है ) ने कुछ समय पहले अपने एक लेख में (Howard Zinn , America's Blinders, April 2006 Issue, Progressive) अपने स्तर पर इसकी विवेचना की थी। उनके हिसाब से इसके दो कारण हैं और उनके मुताबिक अगर इन्हें समझा जा सके तो हम धोखा खाने से बच सकते हैं। वे लिखते हैं : ''एक है समय का आयाम, अर्थात ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य का अभाव और दूसरा है स्थान का आयाम अर्थात, राष्ट्रवाद की सीमाओं के बाहर न सोच पाने की क्षमता।' हावर्ड झिन आगे लिखते हैं कि 'हम लोग दरअसल इस अहंकारपूर्ण विचार के शिकार हैं कि यह मुल्क विश्व का केन्द्र है, अत्यधिक सद्गुणसम्पन्न है, प्रशंसनीय है और श्रेष्ठ है।'
अगर कोई यही प्रश्न हमें पूछे तो हम क्या कह सकते है ?
क्या यही विश्लेषण हमारे लिए काफी होगा या इसमें कुछ बात जोड़नी पड़ेगी, जबकि हम खुद देख रहे हैं कि यहां की सरहदें तो महज भौतिक नहीं हैं, वे तो मानसिक भी हैं, समाजी-सियासी -सांस्कृतिक इतिहास द्वारा गढ़ी भी गयी हैं, जहां हम पा रहे हैं कि मुल्क के अन्दर नयी 'सरहदों' का, नए 'बॉर्डरों' का निर्माण होता दिख रहा है।
फौरी तौर पर कहा जा सकता है कि कर्नाटक में जला दिये गये समुदाय विशेष के प्रार्थनास्थलों की राख से, डांग जिले के एकमात्र मुस्लिम बहुल गांव पर सरकारी शह पर जारी हमलों के बीच से या कंधामाल तथा उड़िसा के विभिन्न हिस्सों से गांवों तथा नगरों से खदेड़ दिए गए और अपने ही मुल्क में शरणार्थी बने लोगों की ''वीरान हो चुकी आंखों से या कुम्हेर, खैरलांजी और गोहाना, हरसौला जैसे दलित अत्याचारों की निशानियों से गणतंत्र हिन्दोस्तां में उभरी इन 'सरहदों' का सवाल फिर एक बार हमारे सामने नमूदार हुआ है और सिर्फ हिंसा के उस प्रगट दौर में ही नहीं बल्कि स्थगित हिंसा के लम्बे दौर में, जब लोग जीवन की सुरक्षा का हवाला देते हुए अपने-अपने 'घेट्टो' में पहुंच रहे हैं।
हावर्ड झिन की बहस को आगे बढ़ाते हुए यह रेखांकित किया जा सकता है कि हुकूमतों के लिए भी यह ज्यादा आसान होता है कि वह 'बाहरी दुश्मनों' के सहयोगी 'आन्तरिक दुश्मनों' पर भी जोर दें ताकि नागरिक न केवल खुशी खुशी अपनी सरकारों के इन खूंरेजी अभियानों में साथ जुड़े बल्कि अपने स्तर पर भी इसी लड़ाई को इन 'आन्तरिक दुश्मनों के खिलाफ तेज करे। 9/11 के बाद अमेरिका ने जहां 'आतंकवाद विरूध्द युध्द' के नाम पर अपने एक समय के सहयोगी ओसामा बिन लादेन के खिलाफ या उसे कथित तौर पर सहयोग प्रदान करनेवाली अफगाणिस्तान की तालिबान हुकूमत के खिलाफ या बाद में इराक पर आक्रमण किया वहीं इसी के समानान्तर उसने एक ऐसा वातावरण निर्मित किया जिसके तहत चन्द जिहादी आतंकवादी नहीं बल्कि 'इस्लाम को ही विश्व शान्ति के लिए खतरे के तौर पर पेश किया गया', जिसका नतीजा हमारे सामने हैं। 'आतंकवाद विरोधी युध्द' के इन सात सालों में कितने बड़े पैमाने पर अमेरिका के अन्दर इस्लाम को मानने वालों को प्रताडित, अपमानित होना पड़ा है, इसका हिसाब लगाना मुश्किल है। विडम्बना यही है कि अमेरिकी अवाम के एक हिस्से ने भी अपनी हुकूमतों का इसमें साथ दिया है और अधिक बारीकी में पड़ताल करेंगे तो हम यह भी देख सकते हैं कि यह कोई स्वत:स्फूर्त किस्म की प्रतिक्रिया नहीं थी, सोविएत रूस के पतन के बाद एवम शीतयुध्द की समाप्ति के पश्चात दुनिया पर अपना प्रभुत्व जमाए रखने के लिए 'सभ्यताओं की टकराहट' की जो थीसिस हंटिगण्टन ने पेश की थी, उसी की यह तार्किक परिणति थी।
हमारे यहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सुप्रीमो गोलवलकर अपनी चर्चित रचना 'बंच आफ थॉटस' में (विचार सुमन) में इसी समझदारी को एक सैध्दान्तिक जामा पहनाते हुए चन्द समुदायों एवम विचारशील समूहों को - मुसलमानों, ईसाइयों एवम कम्युनिस्टों को - देश के आन्तरिक दुश्मन घोषित करते हैं। निश्चित ही उनके गोलवलकर के संकीर्ण एवम एकांगी विचारों को माननेवालों के लिए फिर गुजरात 2002 का जनसंहार या उड़िसा में आज जारी संहार एक तरह से 'देशभक्ति का प्रमाण' बन जाता है।
आजादी के बाद तीन ऐसी राजनीतिक हत्याएं हमारे यहां हुई जिसे किसी न किसी रंग के आतंकियों ने अंजाम दिया। चाहे महात्मा गांधी जैसे विश्वविख्यात नेता की हत्या की बात हो - जिसे हिन्दु महासभा के कार्यकर्ता नाथुराम गोडसे ने गोली मारी, प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी जिन्हें उनके सिख बाडीगार्डों ने मार डाला या पूर्वप्रधानमंत्री राजीव गांधी जो तमिल हिन्दु गुरिल्लों के आत्मघाती हमले में मारे गए, इसके बावजूद हमारे यहां का समूचा वातावरण देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय विशेष के खिलाफ इतना विषाक्त क्यों हुआ है।
निश्चित ही कई छोटे बड़े आतंकी समूह सक्रिय होंगे जो इस्लाम को मानने वाले हों, लेकिन क्या यह जांचा जाना जरूरी नहीं कि हिन्दोस्तान की हुकूमत ने जिन संगठनों पर आतंकी या विघटनकारी संगठनों के तौर पर पाबन्दी लगायी है, उनमें आखिर तीन या चार ही मुस्लिम बहुल क्यों हैं ? इसकी पड़ताल कौन करेगा कि इनमें 'उल्फा' या 'लिट्टे' जैसे हिन्दुबहुल संगठन कितने हैं या कितने सिख, बौध्द या ईसाई बहुल संगठन हैं ?
हाल के समयों में संघ परिवार से सम्बध्द बजरंग दल या विश्व हिन्दु परिषद के कार्यकर्ता कई स्थानों पर बम बनाते पकड़े गए हैं या बम बनाते मारे गए हैं ! अप्रैल 2006 का नांदेड हो, फरवरी 2007 में फिर नांदेड में बम धमाके की घटना हो, जनवरी 2008 का तमिलनाडु स्थित तेनकासी में संघ कार्यालय पर बमों से हमला करने में हिन्दु मुन्नानी संगठन के कार्यकर्ताओं की गिरतारी हो या हाल में महाराष्ट्र के वाशी एवम ठाणे में सिनेमाहालों में बम रखते हुए पकड़े गए 'सनातन संस्था' और 'हिन्दू जनजागृति समिति' के कार्यकर्ता हों या सबसे ताजी घटना के रूप में कानपुर बम धमाकों में बजरंग दल के दो कार्यकर्ताओं की मौत का प्रसंग हो , आदि तमाम घटनाएं एवम प्रसंग हमें क्या बताते हैं ?
क्या आतंकवाद पर समुदायविशेष की इजारेदारी कभी हो सकती है ? या यह मानना उचित होगा कि कोई भी ऐसा धार्मिक, सांस्कृतिक या राजनीतिक समूह ऐसी आतंकी कार्रवाइयों पर उतर सकता है, जब उसे लगे कि उसके 'वास्तविक' या 'आभासी' दुखों का निपटारा ऐसे तरीकों से ही हो सकता है।
पांच साल पहले की बात है। गुजरात 2002 के कतलेआम पर कलकत्ता की कविता पंजाबी और उनके दो सहयागियों ने इस जनसंहार के बच्चों और युवाओं पर असर के बारे में एक मर्मस्पर्शी रिपोर्ट 'अगली पीढ़ी ': जनसंहार की छत्राछाया में ' देखने को मिली थी। वे अपनी इस रपट को पूरी करने के लिए तमाम सारे शिविरों में गयी थीं। जनसंहार ने बच्चों को किस तरह अन्दर से धवस्त किया इसका विवरण यह रिपोर्ट पेश करती है। इस रिपोर्ट में आठ साल का सद्दाम भी है जिसकी तस्वीर भी एक मोहक हंसी के साथ रपट में मौजूद है । कविता पंजाबी बताती हैं कि यह उसके चेहरे का स्थायी भाव है जहां उसने यह कृत्रिम सा मुस्कान चस्पा कर लिया है ताकि कोई यह अन्दाज़ा भी न लगा पाये कि उसने अपनी मां के साथ गन्दा काम होते देखा या उसको काट कर जिन्दा जलाये जाते देखा। उनमें आठ साल का जुनैद भी था। यह वही जुनेद है जिसने न केवल अपने मां बाप को मारे जाते देखा बल्कि अपनी चाचियों या मौसियों को पास के कुएं में मार कर फेंकते भी देखा था जिस कुएं के पास वह और उसके अस्सी साल उम्र के दादाजी घण्टों निहारते बैठे रहे और तीन दिन बाद उसकी चाची उसमें से जिन्दा निकली।
कल बड़ा होने पर सद्दाम या जुनैद या उनमें से कोई अन्य, इन्साफ पाने की सभी सूरतें बेकार पाकर, प्रतिशोध के नाम पर किसी आततायी कार्रवाई में जुट जाये, तो यह समाज क्या यह समझने की कोशिश नहीं करेगा कि इसकी जड़ कहां पर है। क्या समाज अपने गिरेबान में झांक कर नहीं देखेगा कि समाज के मौन, उसकी सहभागिता ने ही हालात को यहां पहुंचाया है या वह टाडा या पोटा के और खतरनाक संस्करण के साथ हाजिर होती हुकूमत की तारीफ में कसीदे पढ़ना अपने कर्तव्य की इतिश्री समझेगा!

सुभाष गाताड़े

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