गोधरा कांड की जांच कर रहे नानावटी आयोग ने पहले नरेन्द्र मोदी को क्लीन चिट दे दी और जब इस पर तीव्र प्रतिक्रिया हुई तो आयोग की ओर से अब कहा जा रहा है कि वह तो आधी रिपोर्ट थी और आधी रिपोर्ट अब जारी की जाएगी। पूछा जा सकता है कि नानावटी आयोग को आधी अधूरी रिपोर्ट जारी करने की क्या ज़रूरत थी ? जब छह साल से रिपोर्ट का इंतज़ार किया जा रहा था तो क्या छह महीने और नहीं रूक जा सकता था ? अब आयोग यह भी कह रहा है कि उसने नरेन्द्र मोदी को कोई क्लीन चिट नहीं दी है, जिससे उसकी विश्वसनीयता ही संदेह के दायरे में आ गई है। दरअसल जब आयोग ने नरेन्द्र मोदी को जाकर जांच रिपोर्ट सौंपी थी, तभी यह शक पैदा हो गया था कि कहीं न कहीं कोई गड़बड़ ज़रूर है। जिस आयोग ने पहले नरेन्द्र मोदी को क्लीन चिट दी थी, वही आयोग अब अपनी रिपोर्ट से मुँह क्यों छुपा रहा है ? क्या यह न्यायदान के नैसर्गिक सिध्दांतों का उल्लंघन नहीं है ? इसी के साथ एक महत्वपूर्ण सवाल फिर खड़ा हो गया है कि किसी भी बड़े कांड की जांच किसी आयोग को सौंपना कितना न्यायसंगत है ?
अब जबकि नानावटी आयोग ने आधी रिपोर्ट जारी करने की बात कही है तो यह बात भी उठ रही है कि उस पर भारी दबाव था। ऐसे में प्रश्न सहज ही उठता है कि जब आधी रिपोर्ट जारी करने के लिए दबाव बनाया गया तो पूरी रिपोर्ट जारी करने के लिए कितना दबाव बनाया जा रहा होगा ? सवाल यह है कि आयोग को आधी रिपोर्ट जारी करने की क्या ज़रूरत थी ? क्या वह इसके ज़रिये यह जानने की कोशिश कर रहा था कि देखें, इसकी क्या प्रतिक्रिया होती है और उसी के आधार पर शेष रिपोर्ट जारी की जाए ? जब सब तरफ से इस कथित आधी रिपोर्ट की लानत-मलामत हुई है तो मज़बूरी में आयोग को यह कहना पड़ रहा है कि वह तो आधी रिपोर्ट थी, आधी रिपोर्ट और आना बाकी है। अपनी पहली रिपोर्ट में आयोग ने कहा है कि गोधरा स्टेशन पर ट्रेन में आग एक साज़िश के तहत लगाई गई थी और यही बात नरेन्द्र मोदी शुरू से कहते आ रहे थे। क्या इससे यह नहीं लगता कि आयोग भी मोदी की भाषा बोल रहा है। अब जबकि आयोग गोधरा कांड को एक साजिश बता चुका है, जिसकी भारी आलोचना हुई है तो क्या अब आयोग अपनी दी हुई रिपोर्ट को वापस ले लेगा ? नरेन्द्र मोदी के प्रति आयोग की सहानुभूति उसके इस कथन से भी होती है कि मोदी सरकार ने मानवाधिकार आयोग के निर्देशों का ईमानदारी से पालन किया है। यहाँ यह भी जान लेना ज़रूरी है कि मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा ने नानावटी आयोग के गठन के समय ही तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को चिट्ठी लिखकर कहा था कि इस तरह के जांच आयोग पूरी तरह अनुपयोगी हैं। जिस मानवाधिकार आयोग ने नानावटी आयोग के गठन पर ही सवाल उठाया था, उसकेश् बारे में नानावटी आयोग को यह कहने की क्या ज़रूरत थी कि मोदी सरकार ने मानवाधिकार आयोग के निर्देशों का ईमानदारी से पालन किया है ? क्या इससे नानावटी आयोग की विश्वसनीयता पर सवाल नहीं उठता है ? क्या यह विरोधाभासी तथ्य नहीं है कि मानवाधिकार आयोग ने मोदी सरकार पर अंगुली उठाई थी और नानावटी आयोग उसकी तारीफ के पुल बांध रहा है ? इस विरोधाभास का क्या अर्थ है ? नानावटी आयोग का गठन केन्द्र सरकार ने किया था, लेकिन आयोग ने जिस तरह रिपोर्ट बना कर नरेन्द्र मोदी को सौंपी, उससे लगता है कि उसका गठन मोदी सरकार ने किया था। आखिर आयोग को अपनी आधी -अधूरी रिपोर्ट नरेन्द्र मोदी को सौंपने की क्या ज़रूरत थी ? आयोग ने अपनी विश्वसनीयता खुद ही कटघरे में खड़ी कर ली है।
गोधारा कांड की आधी रिपोर्ट आने और उस पर बवाल मचने के बाद अब यह मांग फिर उठने लगी है कि सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को किसी भी जांच आयोग का अधयक्ष नहीं बनाया जाना चाहिए। यह मांग उठाने की भी एक वज़ह है। जीवन भर सरकारी पद की प्रतिष्ठा और सुविधाओं का लाभ उठाने के बाद जब सेवानिवृत्त न्यायाधीश को फिर से कोई ज़िम्मेदारी मिलती है तो उसकी रूचि जांच कार्य जल्दी पूरी करने में कतई नहीं होती है। उसकी नज़र पद की प्रतिष्ठा और सरकारी सुविधाओं का उपभोग करने पर होती है। इसीलिए वह आयोग का कार्यकाल बार-बार बढ़वाने की ही जुगाड़ करता रहता है। यह सिर्फ नानावटी आयोग की ही बात नहीं है। स्वतंत्र भारत में गठित एक भी आयोग ने अपना काम तय समय सीमा में पूरा नहीं किया है। नानावटी आयोग ने छह साल में आधी अधूरी रिपोर्ट तो जारी कर दी है, जबकि बाबरी विधवंस की जांच कर रहे लिब्रहान आयोग की तो चौदह साल भी कम पड़े हैं और इसकी रिपोर्ट कब तक आएगी, यह कोई ज्योतिषी भी नहीं बता सकता है। ऐसे में इस बात पर गंभीरतापूर्वक विचार करने के बाद अमल भी होना चाहिए कि किसी भी आयोग की जांच सेवानिवृत्त न्यायाधीश को नहीं सौंपी जाए।
न्यायदान के प्रति भारत में कहा जाता है कि अदालत में दूधा का दूधा और पानी का पानी हो जाता है, लेकिन नानावटी आयोग ने अपनी आधी अधूरी रिपोर्ट में दूध का पानी बना कर यह सिध्द कर दिया है कि स्वतंत्र भारत में कुछ भी असंभव नहीं है। तहलका डॉट कॉम ने अपने स्टिंग ऑपरेशन के ज़रिये पहले ही यह साबित कर दिया था कि गोधरा कांड के गवाहों को पैसा देकर किस तरह खरीदा जा रहा है। यह रिपोर्ट जारी होते समय ही यह तय हो गया था कि नानावटी आयोग दोषी लोगों के गिरहबान तक हाथ नहीं डाल सकेगा। अब आयोग की रिपोर्ट आने के बाद तहलका की रिपोर्ट सच साबित हुई है। अपनी आधी रिपोर्ट जारी होने के बाद नानावटी आयोग को अब सफाई देना पड़ रही है और शेष आधी रिपोर्ट देने के बाद उसकी क्या दुर्गति होगी, इसका अंदाज़ लगाना भी मुश्किल है। गोधारा कांड और उसके बाद भड़के दंगे के बारे में पूरा देश जानता है कि नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार के साथ भगवा ब्रिगेड ने गुजरात में कितना उत्पात मचाया था, लेकिन नानावटी आयोग इस सच्चाई को सामने लाने में पूरी तरह नाकाम रहा है। ऐसे में उसकी शेष आधी रिपोर्ट पर भी बदनामी के बादल छाना तय है। किसी भी आयोग के गठन के वक्त अक्सर यह सवाल उठाया जाता है कि यह मामले को ठंडा कर उसे दबाने की चाल है, नानावटी आयोग ने इस धारणा को और पुष्ट किया है।
महेश बाग़ी
अब जबकि नानावटी आयोग ने आधी रिपोर्ट जारी करने की बात कही है तो यह बात भी उठ रही है कि उस पर भारी दबाव था। ऐसे में प्रश्न सहज ही उठता है कि जब आधी रिपोर्ट जारी करने के लिए दबाव बनाया गया तो पूरी रिपोर्ट जारी करने के लिए कितना दबाव बनाया जा रहा होगा ? सवाल यह है कि आयोग को आधी रिपोर्ट जारी करने की क्या ज़रूरत थी ? क्या वह इसके ज़रिये यह जानने की कोशिश कर रहा था कि देखें, इसकी क्या प्रतिक्रिया होती है और उसी के आधार पर शेष रिपोर्ट जारी की जाए ? जब सब तरफ से इस कथित आधी रिपोर्ट की लानत-मलामत हुई है तो मज़बूरी में आयोग को यह कहना पड़ रहा है कि वह तो आधी रिपोर्ट थी, आधी रिपोर्ट और आना बाकी है। अपनी पहली रिपोर्ट में आयोग ने कहा है कि गोधरा स्टेशन पर ट्रेन में आग एक साज़िश के तहत लगाई गई थी और यही बात नरेन्द्र मोदी शुरू से कहते आ रहे थे। क्या इससे यह नहीं लगता कि आयोग भी मोदी की भाषा बोल रहा है। अब जबकि आयोग गोधरा कांड को एक साजिश बता चुका है, जिसकी भारी आलोचना हुई है तो क्या अब आयोग अपनी दी हुई रिपोर्ट को वापस ले लेगा ? नरेन्द्र मोदी के प्रति आयोग की सहानुभूति उसके इस कथन से भी होती है कि मोदी सरकार ने मानवाधिकार आयोग के निर्देशों का ईमानदारी से पालन किया है। यहाँ यह भी जान लेना ज़रूरी है कि मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा ने नानावटी आयोग के गठन के समय ही तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को चिट्ठी लिखकर कहा था कि इस तरह के जांच आयोग पूरी तरह अनुपयोगी हैं। जिस मानवाधिकार आयोग ने नानावटी आयोग के गठन पर ही सवाल उठाया था, उसकेश् बारे में नानावटी आयोग को यह कहने की क्या ज़रूरत थी कि मोदी सरकार ने मानवाधिकार आयोग के निर्देशों का ईमानदारी से पालन किया है ? क्या इससे नानावटी आयोग की विश्वसनीयता पर सवाल नहीं उठता है ? क्या यह विरोधाभासी तथ्य नहीं है कि मानवाधिकार आयोग ने मोदी सरकार पर अंगुली उठाई थी और नानावटी आयोग उसकी तारीफ के पुल बांध रहा है ? इस विरोधाभास का क्या अर्थ है ? नानावटी आयोग का गठन केन्द्र सरकार ने किया था, लेकिन आयोग ने जिस तरह रिपोर्ट बना कर नरेन्द्र मोदी को सौंपी, उससे लगता है कि उसका गठन मोदी सरकार ने किया था। आखिर आयोग को अपनी आधी -अधूरी रिपोर्ट नरेन्द्र मोदी को सौंपने की क्या ज़रूरत थी ? आयोग ने अपनी विश्वसनीयता खुद ही कटघरे में खड़ी कर ली है।
गोधारा कांड की आधी रिपोर्ट आने और उस पर बवाल मचने के बाद अब यह मांग फिर उठने लगी है कि सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को किसी भी जांच आयोग का अधयक्ष नहीं बनाया जाना चाहिए। यह मांग उठाने की भी एक वज़ह है। जीवन भर सरकारी पद की प्रतिष्ठा और सुविधाओं का लाभ उठाने के बाद जब सेवानिवृत्त न्यायाधीश को फिर से कोई ज़िम्मेदारी मिलती है तो उसकी रूचि जांच कार्य जल्दी पूरी करने में कतई नहीं होती है। उसकी नज़र पद की प्रतिष्ठा और सरकारी सुविधाओं का उपभोग करने पर होती है। इसीलिए वह आयोग का कार्यकाल बार-बार बढ़वाने की ही जुगाड़ करता रहता है। यह सिर्फ नानावटी आयोग की ही बात नहीं है। स्वतंत्र भारत में गठित एक भी आयोग ने अपना काम तय समय सीमा में पूरा नहीं किया है। नानावटी आयोग ने छह साल में आधी अधूरी रिपोर्ट तो जारी कर दी है, जबकि बाबरी विधवंस की जांच कर रहे लिब्रहान आयोग की तो चौदह साल भी कम पड़े हैं और इसकी रिपोर्ट कब तक आएगी, यह कोई ज्योतिषी भी नहीं बता सकता है। ऐसे में इस बात पर गंभीरतापूर्वक विचार करने के बाद अमल भी होना चाहिए कि किसी भी आयोग की जांच सेवानिवृत्त न्यायाधीश को नहीं सौंपी जाए।
न्यायदान के प्रति भारत में कहा जाता है कि अदालत में दूधा का दूधा और पानी का पानी हो जाता है, लेकिन नानावटी आयोग ने अपनी आधी अधूरी रिपोर्ट में दूध का पानी बना कर यह सिध्द कर दिया है कि स्वतंत्र भारत में कुछ भी असंभव नहीं है। तहलका डॉट कॉम ने अपने स्टिंग ऑपरेशन के ज़रिये पहले ही यह साबित कर दिया था कि गोधरा कांड के गवाहों को पैसा देकर किस तरह खरीदा जा रहा है। यह रिपोर्ट जारी होते समय ही यह तय हो गया था कि नानावटी आयोग दोषी लोगों के गिरहबान तक हाथ नहीं डाल सकेगा। अब आयोग की रिपोर्ट आने के बाद तहलका की रिपोर्ट सच साबित हुई है। अपनी आधी रिपोर्ट जारी होने के बाद नानावटी आयोग को अब सफाई देना पड़ रही है और शेष आधी रिपोर्ट देने के बाद उसकी क्या दुर्गति होगी, इसका अंदाज़ लगाना भी मुश्किल है। गोधारा कांड और उसके बाद भड़के दंगे के बारे में पूरा देश जानता है कि नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार के साथ भगवा ब्रिगेड ने गुजरात में कितना उत्पात मचाया था, लेकिन नानावटी आयोग इस सच्चाई को सामने लाने में पूरी तरह नाकाम रहा है। ऐसे में उसकी शेष आधी रिपोर्ट पर भी बदनामी के बादल छाना तय है। किसी भी आयोग के गठन के वक्त अक्सर यह सवाल उठाया जाता है कि यह मामले को ठंडा कर उसे दबाने की चाल है, नानावटी आयोग ने इस धारणा को और पुष्ट किया है।
महेश बाग़ी
1 टिप्पणी:
acha pryas hai aapke samuh ka. Shubhkaamnayein. Swagat mere blog par bhi.
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