01 अक्तूबर 2009

हिंद स्वराज के बहाने गांधीवाद की खोज

(यह लेख पहले अर्थात पर लगाया था . अब गांधी जयन्ती पर यहाँ भी )

‘‘ गांधी का आध्यात्मवाद बहरहाल हिंदू पुनरुत्थानवाद के साथ ही मेल खाता है। अतः यह राजनैतिक अलगाववाद की ओर ले जायेगा। आध्यात्मवाद राजनीति में धार्मिक वातावरण, हठधर्मिता तथा आनुष्ठानिकता का पुनर्सृजन करता है। यह धर्मतंत्र की वापसी है तथा यह एक से अधिक धर्मों को मानने वाले देश के लिये दोहरा खतरा पैदा करता है।’’प्रो बेनी प्रसाद, हिंदू-मुस्लिम क्वेश्चन, किताबिस्तान, 1941 इलाहाबाद



मोहनदास करमचंद गांधी भारतीय सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य का एक महत्वपूर्ण , अविभाज्य और लगभग मिथकीय हिस्सा है। देश के स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भूमिका तो महत्वपूर्ण रही ही है, स्वातंत्रयोत्तर भारत में भी उनका नाम अक्सर राजनैतिक धाराओं-प्रतिधाराओं के लिये अपने विचारों को सही प्रमाणित करने के लिये अदालत की उस गीता /कुरान की तरह काम करता है, जिन्हें गंभीरतापूर्वक पढने या पुर्नव्याख्यायित करने की जगह पवित्र कपड़ों में लपेट कर रखा जाना बेहतर समझा जाता है। यह अकारण भी नहीं है। ‘गांधीवाद’ की कोई ऐसी विस्तृत सैद्धांतिकी गांधी ने नहीं लिखी जिसमें उस सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक नियमन का कोई विस्तारित और तार्किक ढांचा प्रस्तुत किया गया हो या जिसके आधार पर एक नयी तथा बेहतर व्यवस्था का निर्माण हो सके। अखबारों में लिखे तमाम छोटे-बडे आलेखों, गीता माता, अनासक्ति योग, सत्य के प्रयोग, हिन्दु धर्म जैसी किताबों के बीच अपने राजनैतिक जीवन के बिल्कुल आरंभिक दौर में लिखी ‘‘हिन्द स्वराज’’ ही एकमात्र ऐसी किताब है जिससे उनकी वैचारिक स्रोतों का पता चलता है। आज आजादी के बासठ वर्षों बाद और इस किताब के प्रकाशन के सौ वर्ष पूरे होने पर भूमण्डलीकृत सामाजार्थिक परिवेश में इसका पुनर्मूल्यांकन, दरअसल , गांधी की भूमिका तथा उनके प्रभामंडल मे पनपे प्रभावों का भी अध्ययन तथा पुनर्मूल्यांकन है।



यह पूरी किताब गुरु-चेला संवाद के रूप में लिखी गयी है- जाहिर है गांधी यहां गुरु के रूप में हैं ( वस्तुतः संपादक) और उनके विचारों पर शंका करने वाले शेष सभी जन उद्दण्ड एवं शंकालु शिष्य (पाठक) के रूप में। )महेश गवास्कर इसे धार्मिक प्रवचन की प्रचलित परम्परा से जोडकर देखते हैं और इस रूप में ’’कृष्णार्जुन संवाद’’ तथा ‘‘उन्नीसवीं सदी के इसाई मिशनरियों की धार्मिक शिक्षा की पुस्तिकाओं‘‘ के करीब पाते हैं (देखें इकोनामिक एण्ड पोलिटिकल वीकली, 5 सितम्बर-2009। पुस्तक का यह शिल्प दो बातों का स्पष्ट परिचायक है, पहला तो यह कि गांधी अपने विचारों पर शंका करने वालों से बातचीत के लिये हमेशा प्रस्तुत हैं और दूसरा यह बातचीत बराबरी के स्तर पर नहीं हो सकती - शंकालु हमेशा निचली सीढ़ी पर ही बैठेगा। दरअसल आगे हम देखेंगे कि गांधी का पूरा राजनैतिक-आर्थिक-सामाजिक दर्शन इसी सूत्र से संचालित होता है ‘‘जहां वह अंततः एक ऐसा तानाशाह के रूप में सामने आते हैं जो विरोध बर्दाश्त नहीं कर सकता।’’ (देखें आर सी मजूमदार, हिस्ट्री आफ दि फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिया, पेज 22)



मै शुरुआत उनके आर्थिक विचारों से करुंगा। गांधी मशीनों के खिलाफ थे यह एक सुपरिचित तथ्य है और चरखे के प्रति उनका अतिमोह भी ( वैसे इसी किताब की प्रस्तावना में मिडलटन का जिक्र है जो कहते हैं कि ’’गांधी जी अपने विचारों के जोश में यह भूल जाते हैं कि जो चरखा उन्हें बहुत प्यारा है वह भी एक यंत्र है और कुदरत की नहीं इंसान की बनाई हुई एक अकुदरती- कृत्रिम चीज़ है।’’) लेकिन यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि इसका उत्स कहां है? गांधी का असल विरोध आधुनिकता से था। यह विरोध इतना प्रखर और इतना अंधा था कि वह आगे बढ़कर स्कूली शिक्षा और आधुनिक चिकित्सा का भी विरोध करते हैं। यह विरोध इस हद तक था कि गुजरात में प्लेग फैलने पर उन्होंने सलाह दी कि लोग ‘‘प्रकृति के कार्य में हस्तक्षेप न करें और चूहों तथा मक्खियों को न मारें और अपने आश्रम में चेचक फैलने पर टीकाकरण को गोमांस खाने के बराबर बताया’’ (देखें गांधी आर गांधीज्म , बी आर अंबेडकर )! इस आधुनिकता के विरोध की असली वजह है उनके भीतर कूट-कूट कर भरा यथास्थितिवादी और वर्णवाद समर्थक मानस। इस विरोध के आध्यात्मिक चोले के अन्दर उनका स्त्री, दलित और मज़दूर विरोधी चेहरा बार-बार आता है। विठ्ठल भाई पटेल के जीवनीकार गोरधन भाई पटेल ने लिखा है कि ‘‘जब 1918 में विठ्ठल भाई ने जातिप्रथा विरोधी विधेयक पेश किया तो गांधी ने उसका विरोध किया’’ ( यहां यह बता देना जरूरी है कि जिन्ना ने इस बिल का समर्थन किया था)। गोरधन भाई का निष्कर्ष है कि ’’कम से कम जाति व्यवस्था के मामले में तो गांधी पूरी तरह पुराणपंथी थे ( देखें, विठ्ठल भाई पटेल-लाईफ एन्ड टाईम्स)।’’ इस किताब (हिन्द स्वराज) के पेज़ 39 पर पश्चिमी सभ्यता में औरतों के काम पर जाने की आलोचना करते हुए वह कहते हैं कि ’’जो स्त्रियां घर की रानी होनी चाहिये, उन्हें गलियों में भटकना पडता है।़़’’ यह साफ़ तौर पर औरतों के काम करने का विरोध और उनके घर की सीमाओं के भीतर क़ैद का समर्थन है, चाहे शब्दावली कितनी भी दयालु क्यों न हो। यही नहीं , पार्लियामेंट के विरोध में उन्होंने जिस बांझ और बेसवा (वैश्या) की शब्दावली का प्रयोग किया है वह भी उनके इसी स्त्री विरोधी मानस का परिचायक है। आगे वह ‘बेसवा’ शब्द की विवेचना करते हुए कहते हैं कि वैश्या वह जिसका कोई मालिक नहीं होता या जो एक मालिक के होने पर भी एक सरीखी चाल नहीं चलती- साफ है कि औरत का मालिक किसी पुरुष का होना जरूरी है।


शिक्षा के प्रति उनका नज़रिया उनके यथास्थितिवाद को और स्पष्ट कर देता है। पेज़ 58 पर वह कहते हैं कि ‘‘हज़ारों साल पहले जैसी हमारी शिक्षा थी वही चलती आयी। सब अपना-अपना धंधा करते रहे।’’ यह अपना अपना धंधा क्या था और क्या थी वह हजार साल से चली आ रही शिक्षा? जिसमें कि दलित को हमेशा ही शिक्षा से वंचित रहना था और ब्राह्मणों को सदा ही बिना हाथ-पांव हिलाये भोजन पाना था ( आगे की पंक्तियों में उन्होंने इस हाथ-पांव हिलाने के काफी गुणगान किये हैं।) गांधी जी को इस अपने-अपने धंधे में कोई सड़ांध नहीं आती, कोई विरूपता नहीं दिखती। जबकि अंबेडकर साफ़ देख पा रहे थे कि यह न केवल उत्पीड़क था अपितु श्रम नहीं ‘‘श्रमिकों का विभाजन’’ था। आगे उनका मंतव्य और साफ़ होता है। पेज 79-80 पर वह लिखते हैं कि ’’एक किसान जिसे मामूली तौर पर व्यवहारिक ज्ञान है उसे अक्षर ज्ञान देकर आप क्या करना चाहते हैं? उसके सुख में आप कौन सी बढ़ती करेंगे? क्या उसकी झोपडी या उसकी हालत के बारे में आप उसके मन में असंतोष पैदा करना चाहते हैं?’’ यह है ग़रीब किसानों और मजदूरों के प्रति उनका प्रेम जो कालांतर में ट्रेड यूनियन आंदोलनों से उनकी नफरत के साथ मिलकर उनके कुटिल यथास्थितिवाद का आख्यान गढ़ता है जिसमें एक शिक्षाहीन किसान को हमेशा वैसा ही बना रहना है और साधन संपन्नों को भी।
यही यथास्थितिवाद उनके आर्थिक चिंतन के मूल में है। वह मशीनों के विरोध में इसलिये हैं कि कहीं उस समय की सामंती व्यवस्था पश्चिम के रिनेसां की तार्किकता वाले पूंजीवाद में रूपांतरित न हो जाये। ठीक वैसे ही जैसे बाद में उन्होंने समाजवादी चेतना से लैस किसानों और मजदूरों के आंदोलनों का विरोध किया कि कहीं समाजवाद पूंजीवाद को प्रतिस्थापित करने मे सफल न हो जाये। यही वजह है कि मशीनों को सारे दुर्गुणों का जड़ बताने के बाद भी मिलों को बंद करने के सवाल पर वह कहते हैं कि ‘‘जो चीज़ स्थायी और मजबूत हो गयी है उसे निकालना मुश्किल है। इसीलिये काम शुरु न करना पहली बुद्धिमानी है। मिल मालिकों की ओर हमें नफरत से नहीं देखना चाहिये।’’ साथ ही वह मिलें खत्म करने का रास्ता बताते हैं कि ’’मिल मालिकों को समझाया जाये कि वे खुद अपना काम धीरे-धीरे कम कर दें।’’ हालांकि इतिहास इस बात की कोई गवाही नहीं देता कि गांधी ने कभी अपने बजाजों या टाटाओं को यह समझाया हो या मिलों को बाहर करने के लिये कोई सत्याग्रह चलाया हो।



यही नहीं, वह अपनी बात को साबित करने के लिये मनगढं़त तथा झूठे तथ्य भी पेश करते हैं जैसे वह कहते हैं कि पहले लोग खुली हवा में जितना ठीक लगे उतना काम करते थे (पेज 39), जब मिलों की वर्षा नहीं हुई थी तो औरतें भूखे नहीं मरती थीं (पेज85) आदि-आदि। इतिहास और अर्थशास्त्र का मामूली विद्यार्थी भी यह जानता है कि अपनी तमाम कमज़ोरियों के बावज़ूद औद्योगीकरण ने लोगों के जीवनस्तर में बढोत्तरी की है और भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था और सामंती शासन में ग़रीब और दलित तबका अपनी मर्जी से खुली हवा में नहीं बल्कि अपने प्रभुओं की मर्जी से नारकीय स्थितियों में गुलामों की तरह काम करता था। साथ ही उस दौर में स्त्री की पराधीनता तथा शोषण अपने चरम पर पर यथास्थितिवाद के चश्में से उन्हें भारत के इतिहास का सब अच्छा लगता था यहां तक कि सामंती शासन भी!



यह सच है कि इस किताब में एकाधिक बार उन्होंने उन तत्कालीन सामंती शासकों की भत्र्सना की है जो अपनी प्रजा को कष्ट देते थे परंतु यह भी सच है कि वह अंततः ऐसी ही अधिनायकवादी व्यवस्था के समर्थक थे। ब्रिटिश पार्लियामेन्टरी शासन व्यवस्था के विरोध का अपना कारण उन्होंने बताया कि वह इसलिये बुरी है ( इस संदर्भ में उनके द्वारा प्रयुक्त शब्दावली मैं पहले बता चुका हूं) कि उसका कोई एक मालिक नहीं होता। इसी क्रम में वह आगे कहते हैं कि ’’ज़्यादा लोग जिस बात को कहें उसे थोड़े लोगों को मान लेना चाहिये यह तो अनीश्वरी बात है, एक वहम है।’’ क्या अर्थ निकलता है इसका? स्पष्टतः यह कि पहला तो जो राज्य व्यवस्था हो उसका मालिक एक हो और वह उसके हिसाब से सीधी राह चले ( हिन्दुस्तानी संदर्भ में पति के आदेश पर चलने वाली एक संस्कारी पत्नी ) और दूसरा, उस पर बहुमत का निर्णय मानने की कोई बाध्यता न हो! यह है गांधी का आदर्श स्वराज - जिसमे अदालतें नहीं होंगीं, होंगी तो पुराने ढंग की (पेज 89)। निश्चित तौर पर यह एक अधिनायकवादी, धर्म संचालित, वर्णव्यवस्था आधारित राज्य व्यवस्था का प्रस्ताव है- जहां शिक्षा भी सीमित और ऐसी ही पुनरुत्थानवादी होगी। इस धर्म आधारित तथाकथित भारतीय सभ्यता से उनका मोह इतना गहरा है कि वह चाहते हैं कि हिंदुस्तानी इससे वैसे ही चिपके रहें जैसे मां से बच्चा (पेज 60)। इस बच्चे का बड़ा होना उनको बर्दाश्त नहीं जबकि ब्रिटिश पार्लियामेण्ट के संदर्भ में वह कहते हैं कि अगर सात सौ बरस (अब इस आंकडे़ के बारे मे क्या कहा जाये? 1909 में ब्रिटिश पार्लियामेण्ट की उम्र सात सौ बरस!) के बाद भी पार्लियामेण्ट बच्चा ही बनी रही तो बड़ी कब होगी?


अपनी बात को येन-केन प्रकारेण मनवा ले जाने के लिये वे कई बार अपनी ही बात से पलट जाते हैं। पेज़ 41 पर वह लिखते हैं कि अंग्रेजों से पहले हिन्दू-मुसलमानों में बैर था और फिर पेज़ 46 पर बताते हैं कि जब अंग्रेज हिन्दुस्तान में नहीं थे तब हम एक राष्ट्र थे और आगे पेज 49 पर लिखते हैं कि हिंदू मुसलमानों में झगड़े तो अंग्रेज़ों ने फिर से चालू करवाये, और यह इकलौता उदाहरण नहीं है।


दरअसल, अपने इस एजेंडे में गांधी का सबसे बड़ा सहारा धर्म है। इस पूरी किताब में धर्म और इश्वर इतनी बार आया है कि यह किसी राजनैतिक चेतनासंपन्न व्यक्ति की जगह किसी अधपढे़ हिंदू संत की रचना अधिक लगती है। धर्म से व्यामोह इस क़दर है कि उन्हें ’’धार्मिक ठग दुनियावी ठगों से बेहतर लगते हैं’’! और ’’धर्म के नाम पर हुई लड़ाईयों में बहा अपरिमित ख़ून सभ्यता के संकट के आगे छोटा लगता है’’। यही नहीं वह बड़े ठंढे स्वर में कहते हैं कि ‘‘जहां भोले लोग हैं वहां ऐसा ही चलता रहेगा और लोग मर गये कि सारा सवाल हल हो गया’’!! (पेज 43)। ऐसे में तो शायद मोदी पटेल की जगह गांधी को अपना नायक मानने में जरा भी नहीं झिझकें।


धर्म की यह पवित्र चादर उन्हें वह सब कहने की इज़ाज़त देती है जिसे अन्यथा कहने पर उस समय भी उन्हें खारिज़ कर दिया जाता। बहुमत के निर्णय के अधिकार का विरोध, वर्ण व्यवस्था, जाति पंचायतों तथा ब्राह्मणवादी शिक्षापद्धति का समर्थन, किसानों तथा मज़दूरों की चेतना के विकास का विरोध यह सब वह धर्म की आड़ मंे करते हैं और इस रूप में एक कट्टर तथा शातिर पुनरुत्थानवादी के रूप में सामने आते हैं। यही वज़ह है कि उनके समकालीन कई नेता धर्म पर उनके इस अतिवाद को लेकर खिन्न रहते थे। डी ई वाचा ने लिखा था कि ‘‘यह व्यक्ति अत्यधिक घमंड तथा व्यक्तिगत महात्वाकांक्षा से भरा है और बहुत बडी संख्या में सोचने समझने की क्षमता से रहित लोग इस असुरक्षित गड़रिये के पीछे पीछे भेडों के झुण्ड की तरह चलने में पूरी तरह से पागल प्रतीत होते हैं, जो कि देश को अराजकता तथा अव्यवस्था के किनारे ले जा रहा है’’ और तिलक का कहना था कि ‘‘मंै गांधी जी का अत्यधिक सम्मान और उनकी प्रशंसा करता हूं परंतु मै उनकी राजनीति को पसंद नहीं करता। यदि वे राजनीति छोड दें तथा हिमालय की ओर प्रस्थान कर जायें तो मैं उन्हें अपनी सम्मान की भावना के चलते प्रतिदिन बंबई से ताजे फूल भेजता रहूंगा।’’ धर्म को लेकर उनकी यह आसक्ति इतनी भयावह है कि वह पूरे रिनेसां को वह बस अच्छे कपड़े, खान-पान और अन्य चीज़ों में परिवर्तन में न्यूनीकृत कर देते हैं और फिर धर्म विरोधी होने के कारण खारिज़। कहीं अलग से न लिखे होने के बावजूद चर्च और राजशाही का उनका यह समर्थन भारत के भविष्य के बारे में उनके विचार का स्पष्ट द्योतक है।


उनका यह प्रतिगामी जीवन दर्शन अंतर्जातीय तथा अंतर्धामिक विवाहों के उनके कटु विरोध में भी अभिव्यक्त होता है। यही नहीं, यह सब इस रूप में भी अभिव्यक्त होता है कि उनकी जीवनपद्धति और आचरण इन सिद्धांतों से कतई मेल नहीं खाते। वह रेल का विरोध करते हैं और कहते हैं कि इससे बुरे लोग बुराई फैलाते हैं और अच्छे लोग इसका कम ही उपयोग करते हैं (पेज 46) परंतु खुद रेलों की निरंतर यात्रा करते हैं ( अब यह तो आप ही तय करिये कि वह गलत कह रहे थे या बुराई फैला रहे थे।), वह आधुनिक शिक्षा का विरोध करते हैं और न केवल खुद पढ़े लिखे हैं अपितु नेहरु जैसे अत्यंत आधुनिक और शिक्षित व्यक्ति को अपना वारिस बनाते हैं, किसी अक्षरज्ञानहीन व्यक्ति को उनकी इतनी निकटता मिली हो यह मुझे तो नहीं पता, वह अंग्रेजी के खिलाफ हैं पर अंग्रेजी में अख़बार निकालते हैं, वह आधुनिक दवाओं के खिलाफ हैं पर 1924 में बीमार पडने पर आपरेशन के लिये पूना मिलेट्री अस्पताल के सर्जन कर्नल मैडाक को चुनते हैं। (देखें ग्कोमी वोल्टन, द ट्रेजेडी आफ गांधी), वह कहते हैं कि बस हांथ-पांव जितना चलायें उतना ही चलो और खुद एक धनी सेठ की दान की हुई कार से चलते हैं, वे यंत्र के विरोधी हैं पर घड़ी-चश्में के बिना उनका काम नहीं चलता और उनके अख़बार उस समय के सबसे अच्छे प्रेस में छपते थे। यही नहीं वह भले आश्रम में रहते थे परंतु उनकी इस सादगी की क़ीमत बहुत ज्यादा थी ( देखें धनंजय कीर , महात्मा गांधी पोलिटिकल सेंट एन्ड एन अनार्म्ड प्रोफेट)। सरोजिनी नायडू के अनुसार तो वह राजनीतिक प्रचार पर लाखों खर्च करते थे, कभी-कभी मात्र उनकी संतुष्टि के लिये प्रथम श्रेणी के डब्बे को तृतीय श्रेणी का बनाया जाता था और महलों को कुटीर कहा जाता था। उनका भोजन और रहन सहन वाकई बहुत महंगा था।( वही)


गांधी की सामन्यतः तर्कों से परे होती थीं और उन्हें लागू करवाने का उनका तरीका भी। इसके उदाहरण सुभाष चन्द्र बोस के अध्यक्ष चुने जाने से लेकर जिन्ना के प्रति उनके रवैये में लगातार दिखती है। पर आश्चर्य यह है कि आर्थिकी से जुडे अपने विश्वासों के लिये यह हठधर्मिता उन्होंने कभी नहीं अपनाई। स्वदेशी के उनके आंदोलन को भारतीय पूंजीपतियों का स्पष्ट समर्थन था परंतु उन्होंने इस स्वदेशी के लिये कभी विदेशी मशीनों के बहिष्कार का नारा नहीं दिया। यह उनकी पक्षधरता को स्पष्ट करता है।
यही वज़ह है कि आज भी भूमण्डलीकरण के खिलाफ गांधी को हथियार बनाने की वक़ालत यथास्थितिवाद के समर्थक और किसी आमूलचूल परिवर्तन के विरोधी ही कह रहे हैं। वे आज किसानों को हल-बैल की तरफ लौटने और गरीबी अपनाने की सलाह दे रहे हैं परंतु किसानांे, मजदूरों और आम जनों की संपत्ति हडपने वालों के प्रति कोई सीधा संघर्ष इनके एजेण्डे में नहीं है। हल-बैल की तरफ लौटकर आज कोई लडाई नहीं लड़ी जा सकती। हां ऐसा क़वायदें किसानों और मजदूरों की लडाई को कुंद जरूर करती है। उनके असली अधिकारों की लडाई तो शांति, समृद्धि और समाजवाद के बैनर पर ही लड़ी जा सकती है।

7 टिप्‍पणियां:

समय चक्र ने कहा…

सामयिक सशक्त पोस्ट.
गाँधी जयंती की हार्दिक शुभकामना

दिनेश sharma59028@gmail.com ने कहा…

इस लेख को पढ़ने के बाद ही यह आश्चर्य कुछ हद तक खत्म होता है कि समाजवाद, साम्यवाद के अति-पराभव का और भारतीय जन-मानस में गाँधी की गहरी पैठ का वास्तविक कारण क्या है!

खैर! समयचक्र की दी हुई गाँधी जयन्ती की हार्दिक शुभकामना स्वीकार करें।

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बोधिसत्व ने कहा…

सब कुछ करो लेकिन इतना लंबा तो न करो भाई...कि टें बोल जाएँ....अगर इतना बड़े लोख हो तो कुछ टुकड़ों में दो....गाँधी के अनेक पहलूँ हैं....गाय राम गीता पता नहीं कितना सुभीता

Ashok Kumar pandey ने कहा…

@dinesh sharmaa ji
पराभव और जनमानस में पैठ...दोनों ही मुझे सापेक्षिक लगते हैं.
समाजवाद की पराभव कैसे कह सकते हैं आप? वह सीपीएम या उसके साथियों की हार हो सकती है. आज भी देश के किसी भी कोने में साम्यवाद के स्वप्न पालने वाली आँखें लक्षित की जा सकती हैं. देश भर में गैर बराबरी, शोषण और अत्याचार के खिलाफ लड़ाई अलग-अलग रूपों में जारी है. साथ ही अलग-अलग रूपों में चल रहे दलित, आदिवासी, तथा अन्य आन्दोलन भी उसी व्यापक संघर्ष के हिस्से हैं.

अब जनमानस में पैठ की बात करें तो इस समानता के विचार के बरक्स जो सीधी समांतर और विरोधी धारा है वह वर्ण व्यवस्था समर्थक दक्षिण पंथ की है. गांधी, जैसा कि मैंने लेख में भी कहा पवित्र शब्द भले बन गए हों लेकिन उनके अनुयाईओं ने जो कुछ लागू किया वो गांधीवाद नही था. आप बताइये आज चरखा किस घर में चलता है? हाँ उन्होंने धर्म को राजनीति में घुलाने - मिलाने का जो काम किया था और जिस तरह शेठाश्रित राजनीति को मान्यता प्रदान की थी उसकी तार्किक परिणिति आज नेताओं की कार्यप्रणाली और धार्मिक कर्मकांडो में बढोत्तरी के रूप में सामने आयी है.

भारतीय जनमानस में गांधी भी हैं भगत सिंह भी....पर सिर्फ उनके चहरे...

हाँ और लोहिया से लेकर कल जनसत्ता में पालीवाल तक सब मार्क्सवाद को गरियाते हैं और भारत के लिए अप्रासंगिक बनाते हैं...बेहतर होता कि वे बताते कि उनके ''भारतीय समाजवाद '' का क्या हुआ और क्यूं हुआ?

Ashok Kumar pandey ने कहा…

arthat se ek zaroorii tippanii

डॉ .अनुराग ने कहा…
गांधी एक ऐसे जटिल व्यक्ति रहे है जिनसे आप जीवन भर लव ओर हेट के रिलेशनशिप में रहते है .बचपन से लेकर शायद हमें कंडिशनिंग किया जाता है ..उनके एक बेहतर रूप को देखने को....मानता हूँ समय के उस दौर के लिए उनकी उस छवि का होना आवश्यक है ..परन्तु दिक्कत ये है की भारतीय मानस व्यक्ति पूजा की अपनी आस्था में ये भूल जाता है के वे एक मानव थे ...जाहिर है उनसे भी गलतिया हो सकती है ... उनको मानव दृष्टि से देखी गयी सभी किताबो को चाहे उन्हें उनके किसी निकट वृष्टि ने क्यों न लिखा हो एक सुनियोजित तरीके से .नकार दिया गया ...खुद मै भी उनका बहुत बड़ा प्रशंसक नहीं हूँ..यूँ भी मेरा मानना है की "अपने विचारो को किसी पर थोपना भी एक तरह की हिंसा ही है "....
मसलन कस्तूरबा का आधुनिक चिकित्सा प्रणाली से इलाज़ करवाने को मना करना ....जाहिर है अगर आप इतिहास को निष्पक्ष दृष्टि से खंगालेगे आप उन्हें एक मानव ही पायेगे ...
किताब पढने जैसी है ....

बेनामी ने कहा…

अरे आप तो उत्तेजित हो गये अशोक जी !
जिस आंदोलन के पास आप जैसे सुधि चिंतक और समीक्षक हों उसका पराभव हो भी कैसे सकता है ! देश के कोने-कोने में चल रही लड़ाईयों के भरोसे ही अगर समाजवाद है तो मैं आपको भरोसा दिलाना चाहता हूँ कि इसका हस्र भी शायद गाँधीवाद से अच्छा न हो। ये जो तथाकथित समाजवादी हैं इनके एक-एक के कारनामे और आचरण की पडताल समय रहते कर लीजियेगा। देश के कोने-कोने में जो हो रहा है यदि उसको कारगर मानूं तो शायद वर्णव्यवस्था खतरनाक रूप से लौटने वाली है। वैसे आपका लेख पढ़ने के बाद यह संतोष है कि गाँधीवाद लागू न हुआ तो उनके अनुयायीयों ने ठीक ही किया। मैं तो यह सोचने पर विवश हो गया था कि मैं गांव वालों से कहता हूँ कि पानी में फ्लोराईड़ इससे हम बीमार होंगे और उसी पानी को पीता जाता हूँ तो या तो मैं अफवाह फैला रहा हूँ या मेरी बीमार होने की लालसा है। गाँधी की महामानव की जो छवि थी वह शायद उनके बौद्धिक-राजनैतिक चिंतन के वजह से नहीं उनकी सहृदयता, साधारणता और भारतीयता पर अचूक पकड़ के कारण के कारण थी मुझे कल ही पता चला कि इसके पीछे इतना कपट भरा पड़ा था। अब तक उनसे एक ही शिकायत थी कि उन्हे जवाहर से मोह गया था जिसके चलते वे कुछ समझौते कर गये, लेकिन इसके पीछे की चालाकी भी अभी समझ आयी। इसी प्रकार भगत सिंह को भी एक आम भारतीय की तरह उनके बलिदान और साहस के लिये ही नमन करता रहा हूँ।
मार्कसवाद को यह लोग क्या भारत के लिये ही अप्रासंगिक बताते हैं ?
मैं sharmaa नहीं sharma ही हूं। इस a ग्रेड़ को लौटाता हूँ।
विदा

प्रदीप कांत ने कहा…

सन्दर्भों सहित एक बेहतरीन अध्ययन और सवाल हैं. मैने इस पोस्ट का लिंक तत्सम के पाठकों को भी भेजा है. किन्तु इसी पोस्ट को पढ़ने के तुरन्त बाद कथादेश का सितम्बर अंक मिला. और संयोग से इसमें हमारे समय के मह्त्वपूर्ण कथाकार प्रकाश कान्त का एक आलेख है - हिन्द स्वराज - एक पुस्तक के सौ साल! शायद आपको अपने कुछ प्रश्नों के उत्तर वहाँ मिले.