(युवा दख़ल पत्रिका पिछले दो सालों से ग्वालियर युवा संवाद द्वारा निकाली जा रही है। इस बार इसमें कुल पन्ने हैं १६ और मूल्य ५ रु… कवर पेज़ बनाया भाई रवि कुमार रावतभाटा ने। मंगाने के लिये मुझे मेल करें या फोन... यहाँ इसी अंक से विष्णु नागर जी का एक आलेख)
भविष्यफल और वैज्ञानिकता
- विष्णु नागर
वैज्ञानिक जंयत नार्लीकर समेत विद्वानों ने फलित ज्योतिष की सच्चाई जानने के संबंध में एक दिलचस्प प्रयोग किया, जिसके बारे में ‘नवनीत’ मासिक के ताजा अंक में एक आलेख छपा है। इन चारों ने मिलकर - जिनमें एक फलित ज्योतिष का ज्ञान रखने वाले भी है- 100 मेधावी और 100 सामान्य छात्रों की अलग-अलग जन्मककुंडलियां बनवाई। फिर इन सारी कुंडलियों को आपस में मिला दिया गया और इन छात्रों की बौद्धिक छमता के बारे में भविष्यवाणी करने के लिए सार्वजनिक रूप से ज्योतिषियों को आमंत्रित किया। 51 ज्योतिषी इतने कम? सामने आए और अपना जवाब भेजने की जहमत इनमें से भी लगभग आधे ज्योतिषियों 27 ने ही उठाई। उन्हें 40-40 कुंडलिया भेजी गई थी। इन 27 ज्योतिषियों ने जो जवाब भेजे, उनका सांख्यिकी विश्लेषण करने पर यह दिलचस्प नतीजा सामने आया कि उनकी भविष्यवाणी उतनी भी ठीक नहीं थीं, जितनी कि सिक्का उछाल कर चित-पट के आधार पर की गई कोई भविष्यवाणी निकलती है। अब ज्योतिषी इसके जवाब में पचास तर्क दे सकते हैं, जन्म समय ठीक नहीं रहा होगा, जन्मकुंडली बनाने वाला ठोक नहीं रहा होगा आदि-आदि, जैसा कि वे हमेशा करते हैं और करते रहेंगे। खैर, इन चार विद्वानों ने अपने आलेख में पश्चिम में हुए दो अन्य प्रयोगों का जिक्र किया है, जिनके नतीजे भी इसी तरह के निकले थे। मिशिगन विश्वविद्यालय में पीएचडी शौध का एक विषय जन्मकुडलियों की सच्चाई का वैज्ञानिक अध्ययन करना था। शोधकर्ता ने शोध के लिए कुल 3,456 जोड़ों को चुना, जिनमें से 2,978 सफल वैवाहिक जीवन बिता रहे थे। बाकी तलाक ले चुके थे या अलग रह रहे थे। इनकी जन्मकुडलियों को भी आपस में मिलाकर दो ज्योतिषियों को दिया गया। उनसे आपसी विचार-विमर्श करके यह तय करने को कहा गया था कि इन जोड़ों की जन्मकुंडलियां आपस में मिलती हैं या नहीं। उन्होंने जो नतीजे दिए, वे खोखले निकले। एक ओर प्रयोग यह किया गया कि क्या जन्म के समय ग्रहों की स्थिति ज्योतिष की मान्यता के अनुसार से उस व्यक्ति के स्वभाव और व्यवहार का निर्धारण होता है और क्या यह कहा जा सकता है कि उसके जीवन में ये-ये प्रमुख घटनाएं भविष्य में होंगी? इस मामले में भी काफी कम भविष्यवाणियां सही निकलीं।
तो यह हाल है उस ज्योतिष का, जिसे विज्ञान बताने के हर संभव प्रयास होते हैं जबकि विज्ञन किसी भी सत्य की परीक्षा प्रयोग के द्वारा करने पर जोर देता है और कोई भी प्रयोग, समान स्थितियों में करें तो वही नतीजे आने चाहिए, जो कि किसी ओर स्थान, समय तथा काल में आए थे। लेकिन यह बात कभी ज्योतिषी पर लागू नहीं होती। बहरहाल, ईश्वर और ज्योतिषी कम-से-कम दो ऐसे विषय हैं जिनमें इनकी अंधश्रद्धा है, उन्हें आप तर्कों से भले ही चुप करा दें, उनके ‘विश्वासों’ से उन्हें नहीं डिगा सकते। इसके कई जटिल कारण हैं। एक तो शायद यह है कि हममें से ज्यादातर को ‘संस्कारों’ से ही अवैज्ञानिकता मिलती है और विज्ञान की थोड़ी-बहुत पढ़ाई और अन्य छिटपुट अध्ययन-पर्यवेक्षण व्यक्ति के उन ‘संस्कारों’ में सेंध नहीं लगा पाते। एक कारण शायद जीवन की अनिश्चितताएं हैं। आजकल जिसके पास जितना ज्यादा है, वह उतना ही ज्यादा आशंकित और अनिश्चत भी है। वह और अधिक पाना चाहता है लेकिन जो उसने पा लिया है, उसके खोने का डर भी उसे लगातार रहता है। एक कारण शायद यह भी है कि हमारे यहां अंधविश्वासों और धर्म का लगभग चोली-दामन का साथ है, दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। इसके अलावा धर्म का आर्थिक साम्राज्य बहुत बड़ा है इसलिए उसका यह आर्थिक साम्राज्य धार्मिक साम्राज्य को कभी नष्ट नहीं होने देता। फिर तथाकथित जितने ‘सेलिब्रिटी’ हैं उनमें से 95 प्रतिशत या और भी ज्यादा धर्म तथा अंधविश्वासो से अपनी नजदीकी बताने में कोई संकोच नहीं करते। हमारे नेता, हमारे पूंजीपति, हमारी फिल्मी हस्तियां सबके सब धार्मिक से ज्यादा, अंधविश्वासी हैं।
इन्हीं सब वजहों से तमाम टीवी चैनल भी धड़ल्ले से और आत्मविश्वासों के साथ अंधविश्वासों का प्रचार करते हैं। फिर हम अखबार वाले भी तो अपना ‘विनम्र’ योगदान देते ही हैं! ऐसे में जयंत विष्णु नार्लीकर कितने कितने ही बड़े वैज्ञानिक हों, कितने ही विषयों पर कितनी ही तर्कपूर्ण बातें पिछले दो-तीन दशकों से करते रहें हों, उन्हें कोई भी सड़क छाप ज्योतिषी झिड़क देगा कि इन्हें आता क्या है? और इनकी बात पहुंची भी कितने लोगों तक है और पहुंचती भी है तो इस पहुंचने में निरंतरता कितनी होती है? और होती भी है तो धर्म तथा अंधविश्वास का प्रसार जिस निरंतरता से होता रहता है, उसके आगे इस वैज्ञानिक निरंतरता की क्या हैसियत? और फिर हमारे देश में तो अंतरिक्षयान भी जब नारियल फोड़ कर भेजा जाता है तो किस वैज्ञानिकता की बात करें? वैज्ञानिक भी जरूरी नहीं वैज्ञानिक दृष्टि वालें ही हों। आज जब विज्ञान का इतना विस्तार हो चुका है, तो विज्ञान भी दरअसल एक तकनीकी काम ज्यादा बन चुका है इसलिए बिना वैज्ञानिक दृष्टि के भी अच्छा सफल वैज्ञानिक बने रहना संभव है। मुझे तो अपना हिंदी लेखक समाज अपनी तमाम बुराइयों-कमियों के बावजूद कई बार ज्यादा वैज्ञानिक दृष्टि-संपन्न लगता है। कम से कम अपने सृजनात्मक व्यवहार में, अपने जीवन में भी ज्यादा समय, हालांकि इस बात को भी ज्यादा दूर खींचना ठीक नहीं। इसकी भी अपनी सीमाएं हैं। बहरहाल, तथ्य और सत्य भले ही धारा कि विपरीत हो, उन्हें सुनने-समझने को तैयार लोग कम हों तो भी उो कहना जरूरी है। तभी इसका दीर्घकालिक असर होता है। एक समय तो पृथ्वी सूर्य के चक्कर लगाती है, इसे भी सत्य मानने को धर्म तैयार नहीं था लेकिन आज है। आज धर्म विज्ञान से सीधी-सीधी मुठभेड़ मोल नहीं लेता। आज धर्म की कोशिश विज्ञान को हजम कर जाने की है, हालांकि विज्ञान में इतनी ज्याद हड्डियां हैं कि उसे पचाना भी आसान नहीं है बल्कि असंभव है। लकिन विज्ञान से ज्यादा मुश्किल है वैज्ञानिक दृष्टि का विकास और प्रसार। यह मनुष्यता की एक जटिल चुनौती है। इसलिए ज्योतिष सहित तमाम अवैज्ञानिक चीजें अपनी अंधविश्वास ताकत भविष्य में दिखाती रहेंगी। पुट्टपार्थी के साईबाबा टाइप लोग चमत्कार दिखा कर फलते-फुलते रहेंगे और उनके द्वारा किए गए ‘चमत्कारों’ के वैज्ञानिक आधार को स्पष्ट करने वाले उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगे। बीसवीं सदी विज्ञान की सदी कहलाती थी और थी भी। लेकिन पता नहीं कौन सी सदी वैज्ञानिक सोच की सदी होगी? क्या यह इक्कीसवीं सदी, जिसका पहला दषक ही अभी चल रहा है?
र
11 टिप्पणियां:
is bare men Nagar ji aksar likhte hain aur apni kavitaon men bhi lagatar prahar karte hain
bahut khaas likhaa hai. badhaai.jaaree rakhen....
manik
अशोक जी,रवि जी के ब्लॉग का पता आपने गलत छांप दिया है. वह भाई गिरिजेश जी का ब्लॉग है.
रवि जी का ब्लॉग यह रहा - सृजन और सरोकार http://ravikumarswarnkar.wordpress.com/
nice
शुक्रिया लवली जी सही पता लगा दिया!
ग्वालियर की "युवा दखल' पत्रिका में छपा विष्णु नागर जी का यह लेख बहुत विस्तार से फलित ज्योतिष के अवैज्ञानिक आधार को स्पष्ट करता है ।वैज्ञानिक द्रष्टि के अभाव के कारण ही यह व्यवसाय फल फूल रहा है । नागपुर की अ.भा. अन्द्धश्रद्धा निर्मूलन समिति का विगत कई वर्षों से ज्योतिषियों को एक चैलेंज है जिसे स्वीकार करने कोई नही आया है ।
कविता नहीं लग पाई...
ऐसे आलेखों की भी जरूरत है...बेहतर...
25वीं सदी में ही यही मिलेगा
वैज्ञानिकता पिछड़ ही रही होगी।
लकिन विज्ञान से ज्यादा मुश्किल है वैज्ञानिक दृष्टि का विकास और प्रसार।
यह मनुष्यता की एक जटिल चुनौती है।
सही फरमाया,आपने....पर लगता है,इसके प्रसार में सदियाँ लग जाएँगी...क्यूंकि ये अंधविश्वास तो ख़त्म होने के बजाय और फल फूल रहा है..
लकिन विज्ञान से ज्यादा मुश्किल है वैज्ञानिक दृष्टि का विकास और प्रसार।
यह मनुष्यता की एक जटिल चुनौती है।
सही फरमाया,आपने....पर लगता है,इसके प्रसार में सदियाँ लग जाएँगी...क्यूंकि ये अंधविश्वास तो ख़त्म होने के बजाय और फल फूल रहा है..
जरूरी लेख है। पढ़ कर मजा आया।
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