'नई सोच' कालम के तहत इस बार का लेख लिखा है हमारे संगठन के सक्रिय साथी मनोज विसारिया ने. आप सबकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी
चित्र यहाँ से |
हमारे भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति विश्व की स्त्रियों की तरह बड़ी ही दुविधा पूर्ण रही है। एक ओर और वह वेदों की श्रचाओं का निमार्ण करती दिखाई देती है, तो दूसरी और उसे राज सभा में पुरूषों के बराबर शास्त्रार्थ करते भयभीत भी किया जाता रहा है। एक ओर वह देवी के रूप में युद्धस्थल में युद्ध करते पाते हंै, तो दूसरी ओर वह दहलीज के भीतर लक्ष्मण रेखाएँ कैद मिलती हैं। वह जगत जननी भी है और नरक की खान भी। ऐसे में हम भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति का सहज अनुमान नहीं लगा सकते।
आदिम युग में जब स्त्रियाँ अधिकार और कृषि युग में घर में रहते हुए अग्नि की रक्षा, गौ दोहन और मनुष्य के बच्चे पालने लगीं तब से ही उनकी गुलामी का दौर शुरू हुआ, जो आज भी जारी है। स्त्री पैदा नहीं होती बनाई जाती है, फ्रांसीसी नारीवादी लेखिका सिमोन द बउवार का कथन पूर्णरूपेण सत्य है। स्त्री पर जन्म से ही बहुत सारी अश्क्तताएँ लाद दी जाती हैं कि वह शारीरिक और मानसिक रूप से अपने को अक्षम पाती है। हमारा समाज आज भी तमाम वैज्ञानिक चेतना और सांस्कृतिक नवाचार के बाद भी स्त्री खासकर लड़कियों को लेकर आज तक सहज नहीं हो पाया है।
आज भी हमारे समाज में लड़कियों को चहारदिवारी के भीतर रखे जाने का रिवाज़ बदस्तूर जारी है। हमारे गाँवों में आज भी लड़कियों को बचपन में पिता ए युवावस्था में पति और बुढ़ापे में पुत्रों की आज्ञा का पालन करते रहना ही अच्छा माना जाता हैं। पिता उसे शिक्षा दिलाये या न दिलाये, उसका विवाह चाहे जहाँ और चाहे जैसे पति के साथ विवाह दे उसे मुँह खोलने की इज़ाज़त नहीं है। लड़कियों को हमेशा सीख दी जाती है कि पति जैसा कहे वैसा मानो, जैसे रखे वैसे रहो, पति परमेष्वर होता है। उसकी हर स्थिति में आज्ञा का पालन करना चाहिये, उसी में तुम्हारी भलाई है, यही तुम्हारा धर्म है, पति के प्रतिकूल जाने वाली लड़की पाप की भागीदारी होती। गाँव में देखने को मिलता है कि वहाँ के पुरूष अपने आस-पड़ौस में बैठ कर आराम से ताश या जुआ खेलते है और स्त्रियाँ घर और खेतों पर काम करती है। फिर भी उनके श्रम को समाज में कोई महत्व नहीं है। हमारे गावों में प्रायः देखने में आता है कि यदि लड़कियाँ घर से पढ़ने कुछ दूर के ही स्कूल में जाती हैं तो उसके अपने परिवार तथा पड़ोस वाले ही उस पर तमाम तरह के लांछन लगाने से नहीं चूकते। कभी-कभी यह स्थिति इतनी अपमानकारी होती है कि लड़की स्वयं ही या माता-पिता अपनी इज्ज़त की खातिर पढ़ाई बीच में ही समाप्त करवा देते हैं। लड़कियों के बाल विवाह के पीछे सबसे ज्यादा समाज की दकियानूसी परंपराएँ और घर-परिवार की इज्ज़त का सवाल ही अधिक जिम्मेवार होता है। गाँव की निचली जातियों के परिवारों में लड़कियों की अशिक्षा और अवनति का कारण गरीबी और अंधविष्वास तो है ही गाँव की तथाकथित ऊँची जातियों के बिगड़ैल लड़कों के भय के कारण भी लड़कियों के अशिक्षित और कम उम्र में विवाह के तथ्य सामने आये हैं।
समूह चर्चा के दौरान यह भी तथ्य उभर कर सामने आया कि दहेज और लड़कियों के विवाह पर होने वाले अत्यधिक खर्च भी लड़कियों की पैदाइश को रोकते हैं, ज्यादातर ऊंची जाति व वर्ग के लोग विवाह के लिए विशेष पार्टी हाल बुक करवाते है। जबकि सामान्य व्यक्ति के लिए इस तरह का खर्चा कर पाना संभव नही, लेकिन सामाजिक प्रतिष्ठा के कारण ज्यादातर माता-पिता को लगता है कि उनका कर्तव्य है कि अपनी बेटियों की शादी पर दिल खोलकर खर्च किया जाए ैं। ऊंची जाति के एक सामान्य विवाह में 15 से 20 लाख का खर्च आता है। सब जानते है कि दहेज प्रथा फिजूलखर्च है और दहेज में कार देना कोई सामान्य बात न होने के बावजूद, दहेज देने का सामाजिक दबाब इतना अधिक है कि कुछ लोग अपनी जमीनें तक बैच देते है और कुछ लोग बैंक से कर्जा लेते हैं।
समस्या यह है कि दहेज लेन-देन का ये कार्यक्रम विवाह तक ही सीमित न रह विभिन्न त्यौहारों, बच्चे की जन्म इत्यादि के रूप में जीवन पर्यंत चलता रहता है, इसीलिए ज्यादातर लोग, जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएं भी शामिल हैं का मानना है कि ‘‘लड़की की शादी मतलब बरबादी, क्योंकि ससुराल वालों के मुंह तो हमेशा ही खुले रहते हैं। वैसे भी हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक ढांचे में लड़की के परिवार का दर्जा ससुराल वालोें की निगाह में हमेशा कम ही होता है, बेटी के माता-पिता हरदम इस खतरे से आशंकित रहते हैं, कि कहीं उन्हें लड़की के ससुराल पक्ष से अपर्याप्त दहेज या लड़की का व्यहार आदि के कारण अपमानित न होना पड़े, बेटी की सुरक्षा को लेकर भी बेटी के माता-पिता चितित रहते हैं, माता-पिता नही चाहते कि उनकी बेटी ससुराल में अपने पति या संबंधियों के द्वारा हिंसा का शिकार हो, चाहे वह हिंसा शारीरिक हो या मौखिक, एक महिला का कहना था, ‘मैं अपनी बेटी को रोज-रोज मरते हुए नहीं देख सकती, इससे अच्छा है कि मैं उसे पैदा ही न होने दूं, उसकी एक मौत तो मैं सह लूंगी पर उसकी रोज-रोज की मौत और जिल्लत तो मैं बरदाश्त ही नही कर सकती’’
एक लड़की का जोखिम ससुराल में तब और अधिक बढ़ जाता है जब वह एक पुरूष वारिस उत्पन्न करने में असमर्थ होती है, एक बेटे के होने मात्र से ही वह पति के परिवार में अपनी स्थिति सुरक्षित रख सकती है, एक महिला के नजरिए से लिंग जांच करवा बेटा उत्पन्न करने के, सबसे व्यवहारिक तरीके हैं- अल्ट्रसाउंड और अन्य प्रौद्योगिकियां लेकिन इसके भयंकर परिणाम लिंग अनुपात की गिरावट के रूप में समाज के सामने आते है। समूह में विचार-विमर्ष के दौरान यह भी उभरकर सामने आया कि लड़की के माता-पिता लगातार उसकी सेक्सुअल्टी में हो रहे परिवर्तनों को लेकर सतर्क रहते हैं, जिस क्षण लड़की यौवनावस्था में पहुंचती हैं, तो उसका शरीर उसके लिए शर्म व अपमान का स्रोत न बन जाए इसको लेकर वह अरिरिक्त रूप से सावधान रहते हैं। ऐसी स्थिति से बचने के लिए लड़कियों पर लगातार पहरा लगाया जाता है और उनके व्यवहार पर सदैव निगरानी रखी जाती हैं, किशोर से युवा होती लड़की जब विभिन्न प्रकार के मानसिक और शरीरिक परिवर्तनों से गुजर रही होती है तो पितृसत्तात्मक व्यवस्था की बेड़ियां और कड़ी हो जाती हैं, गांव तथा घर में उसकी गतिविधियों को सीमित कर दिया जाता हैं, किशोर लड़की के माता-पिता उसकी यौनिकता (सेक्सअल्टी) को लेकर सदैव चिंतित रहते हैं, उस पर अनगिनत सामाजिक और शारीरिक प्रतिबंध लगा दिए जाते हैं, यहां तक अगर स्कूल गांव की सीमा के भीतर नहीं है तो लड़की को स्कूल जाने की भी अनूमति नहीं दी जाती, ऐसी स्थिति न आए इसके लिए गांव वालों ने संयुक्त परिवार वालों को ज्यादा बेहतर बताया, उन्होंने कहा कि एकल परिवार की अपेक्षा संयुक्त परिवार में लड़कियों पर निगरानी रखना ज्यादा आसान होता है, परिवारों के सीमित होते जाने से बच्चों की गतिविधियों पर निगरानी रखना कठिन हो गया है, एक लड़की जिसने अपने माता-पिता की इच्छा के विरू़द्ध एक लड़के से साथ विवाह किया था, उसके इस कदम का सारा दोष उसके एकल परिवार को दिया और कहा गया कि ‘‘क्योंकि लड़की के माता-पिता संयुक्त परिवार मेें नहीं रहते इसलिए वह अपनी लड़की पर निगरानी नहीं रख पाए’’ परिणामस्वरूप उसी गांव की छह लड़कियों का स्कूल जाना सिर्फ आशंका के आधार पर बंद कर दिया गया कि कहीं वह भी कुछ ऐसा ही कदम न उठा लें, जिससे समाज में माता-पिता की इज्जत को दाग लग जाए, दरअसल माता-पिता भयभीत हैं कि कहीं उनकी बेटी भी अपने व्यवहार से उनका सिर न झुका दे इसलिए लड़की का घर बैठना ही परिवार की इज्जत के लिए ज्यादा सुरक्षित है, लेकिन इस सच्चाई से वाकिफ होने के बावजूद कि आर्थिक-सामाजिक रूप से वे स्वतंत्र नहीं है, वे जानती हैं कि वह इतनी सशक्त नही है कि इस कठोर पितृसत्तात्मक व्यवस्था को चुनौती दे सकें, फिर भी वह जीने की आकांक्षा रखती हैं, खुले आकाश में उड़ने की, वे कहती हैं-
‘‘ मैं खुली जिंदगी जीना चाहती हूँ ’’
‘‘ मैं अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती हँू’’
‘‘ मैं आगे पढ़ना चाहती हूँ ’’
वह जानती हैं कि उनकी इच्छाएं पूरी नहीं होगी, माँ व दादी का वर्तमान ही उनका भविष्य होगा, दरअसल लड़कियाँ समझती हैं कि इस कठोर पितृसत्तात्मक संरचना से वे भिड़ नहीं सकती है, ऐसी हालत में उनके लिए मौजूद विकल्प वहीं हैं जो सामाजिक-सांस्कृतिक ढांचे ने उन पर थोप दिए हैं, समाज में उनकी भूमिका नातेदारी के संबंधों-जिनमें पुरूषों का वर्चस्व है-में ही बांध दी गई हैं, इसको निभाते हुए ही उन्हें सामाजिक सुरक्षा का आश्वासन मिल पाता है, वे इस सुरक्षा के लिए सक्रिय होकर समझौते करती हैं, ऐसी स्थिति में लड़कियों के विरूद्ध होने वाली तमाम हिंसाओं को, चाहे वह तकनीक के द्वारा भ्रूण-हत्या हो, लिंग के आधार पर गर्भपात, आनर-किलिंग हों, को एक सामाजिक वैधता मिल जाती है, मात्र कानून बनाने से यह हालत नहीं सुधरेगी जब तक पारिवारिक संरचना में स्त्रियों को बेहतर समानता के अवसर देकर सामाजिक परिवर्तन नहीं किया जाता।
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मनोज विसारिया दख़ल विचार मंच के सक्रिय कार्यकर्ता हैं और इन दिनों बी एड कर रहे हैं |
हमारे भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति विश्व की स्त्रियों की तरह बड़ी ही दुविधा पूर्ण रही है। एक ओर और वह वेदों की श्रचाओं का निमार्ण करती दिखाई देती है, तो दूसरी और उसे राज सभा में पुरूषों के बराबर शास्त्रार्थ करते भयभीत भी किया जाता रहा है। एक ओर वह देवी के रूप में युद्धस्थल में युद्ध करते पाते हंै, तो दूसरी ओर वह दहलीज के भीतर लक्ष्मण रेखाएँ कैद मिलती हैं। वह जगत जननी भी है और नरक की खान भी। ऐसे में हम भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति का सहज अनुमान नहीं लगा सकते।
आदिम युग में जब स्त्रियाँ अधिकार और कृषि युग में घर में रहते हुए अग्नि की रक्षा, गौ दोहन और मनुष्य के बच्चे पालने लगीं तब से ही उनकी गुलामी का दौर शुरू हुआ, जो आज भी जारी है। स्त्री पैदा नहीं होती बनाई जाती है, फ्रांसीसी नारीवादी लेखिका सिमोन द बउवार का कथन पूर्णरूपेण सत्य है। स्त्री पर जन्म से ही बहुत सारी अश्क्तताएँ लाद दी जाती हैं कि वह शारीरिक और मानसिक रूप से अपने को अक्षम पाती है। हमारा समाज आज भी तमाम वैज्ञानिक चेतना और सांस्कृतिक नवाचार के बाद भी स्त्री खासकर लड़कियों को लेकर आज तक सहज नहीं हो पाया है।
आज भी हमारे समाज में लड़कियों को चहारदिवारी के भीतर रखे जाने का रिवाज़ बदस्तूर जारी है। हमारे गाँवों में आज भी लड़कियों को बचपन में पिता ए युवावस्था में पति और बुढ़ापे में पुत्रों की आज्ञा का पालन करते रहना ही अच्छा माना जाता हैं। पिता उसे शिक्षा दिलाये या न दिलाये, उसका विवाह चाहे जहाँ और चाहे जैसे पति के साथ विवाह दे उसे मुँह खोलने की इज़ाज़त नहीं है। लड़कियों को हमेशा सीख दी जाती है कि पति जैसा कहे वैसा मानो, जैसे रखे वैसे रहो, पति परमेष्वर होता है। उसकी हर स्थिति में आज्ञा का पालन करना चाहिये, उसी में तुम्हारी भलाई है, यही तुम्हारा धर्म है, पति के प्रतिकूल जाने वाली लड़की पाप की भागीदारी होती। गाँव में देखने को मिलता है कि वहाँ के पुरूष अपने आस-पड़ौस में बैठ कर आराम से ताश या जुआ खेलते है और स्त्रियाँ घर और खेतों पर काम करती है। फिर भी उनके श्रम को समाज में कोई महत्व नहीं है। हमारे गावों में प्रायः देखने में आता है कि यदि लड़कियाँ घर से पढ़ने कुछ दूर के ही स्कूल में जाती हैं तो उसके अपने परिवार तथा पड़ोस वाले ही उस पर तमाम तरह के लांछन लगाने से नहीं चूकते। कभी-कभी यह स्थिति इतनी अपमानकारी होती है कि लड़की स्वयं ही या माता-पिता अपनी इज्ज़त की खातिर पढ़ाई बीच में ही समाप्त करवा देते हैं। लड़कियों के बाल विवाह के पीछे सबसे ज्यादा समाज की दकियानूसी परंपराएँ और घर-परिवार की इज्ज़त का सवाल ही अधिक जिम्मेवार होता है। गाँव की निचली जातियों के परिवारों में लड़कियों की अशिक्षा और अवनति का कारण गरीबी और अंधविष्वास तो है ही गाँव की तथाकथित ऊँची जातियों के बिगड़ैल लड़कों के भय के कारण भी लड़कियों के अशिक्षित और कम उम्र में विवाह के तथ्य सामने आये हैं।
समूह चर्चा के दौरान यह भी तथ्य उभर कर सामने आया कि दहेज और लड़कियों के विवाह पर होने वाले अत्यधिक खर्च भी लड़कियों की पैदाइश को रोकते हैं, ज्यादातर ऊंची जाति व वर्ग के लोग विवाह के लिए विशेष पार्टी हाल बुक करवाते है। जबकि सामान्य व्यक्ति के लिए इस तरह का खर्चा कर पाना संभव नही, लेकिन सामाजिक प्रतिष्ठा के कारण ज्यादातर माता-पिता को लगता है कि उनका कर्तव्य है कि अपनी बेटियों की शादी पर दिल खोलकर खर्च किया जाए ैं। ऊंची जाति के एक सामान्य विवाह में 15 से 20 लाख का खर्च आता है। सब जानते है कि दहेज प्रथा फिजूलखर्च है और दहेज में कार देना कोई सामान्य बात न होने के बावजूद, दहेज देने का सामाजिक दबाब इतना अधिक है कि कुछ लोग अपनी जमीनें तक बैच देते है और कुछ लोग बैंक से कर्जा लेते हैं।
समस्या यह है कि दहेज लेन-देन का ये कार्यक्रम विवाह तक ही सीमित न रह विभिन्न त्यौहारों, बच्चे की जन्म इत्यादि के रूप में जीवन पर्यंत चलता रहता है, इसीलिए ज्यादातर लोग, जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएं भी शामिल हैं का मानना है कि ‘‘लड़की की शादी मतलब बरबादी, क्योंकि ससुराल वालों के मुंह तो हमेशा ही खुले रहते हैं। वैसे भी हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक ढांचे में लड़की के परिवार का दर्जा ससुराल वालोें की निगाह में हमेशा कम ही होता है, बेटी के माता-पिता हरदम इस खतरे से आशंकित रहते हैं, कि कहीं उन्हें लड़की के ससुराल पक्ष से अपर्याप्त दहेज या लड़की का व्यहार आदि के कारण अपमानित न होना पड़े, बेटी की सुरक्षा को लेकर भी बेटी के माता-पिता चितित रहते हैं, माता-पिता नही चाहते कि उनकी बेटी ससुराल में अपने पति या संबंधियों के द्वारा हिंसा का शिकार हो, चाहे वह हिंसा शारीरिक हो या मौखिक, एक महिला का कहना था, ‘मैं अपनी बेटी को रोज-रोज मरते हुए नहीं देख सकती, इससे अच्छा है कि मैं उसे पैदा ही न होने दूं, उसकी एक मौत तो मैं सह लूंगी पर उसकी रोज-रोज की मौत और जिल्लत तो मैं बरदाश्त ही नही कर सकती’’
एक लड़की का जोखिम ससुराल में तब और अधिक बढ़ जाता है जब वह एक पुरूष वारिस उत्पन्न करने में असमर्थ होती है, एक बेटे के होने मात्र से ही वह पति के परिवार में अपनी स्थिति सुरक्षित रख सकती है, एक महिला के नजरिए से लिंग जांच करवा बेटा उत्पन्न करने के, सबसे व्यवहारिक तरीके हैं- अल्ट्रसाउंड और अन्य प्रौद्योगिकियां लेकिन इसके भयंकर परिणाम लिंग अनुपात की गिरावट के रूप में समाज के सामने आते है। समूह में विचार-विमर्ष के दौरान यह भी उभरकर सामने आया कि लड़की के माता-पिता लगातार उसकी सेक्सुअल्टी में हो रहे परिवर्तनों को लेकर सतर्क रहते हैं, जिस क्षण लड़की यौवनावस्था में पहुंचती हैं, तो उसका शरीर उसके लिए शर्म व अपमान का स्रोत न बन जाए इसको लेकर वह अरिरिक्त रूप से सावधान रहते हैं। ऐसी स्थिति से बचने के लिए लड़कियों पर लगातार पहरा लगाया जाता है और उनके व्यवहार पर सदैव निगरानी रखी जाती हैं, किशोर से युवा होती लड़की जब विभिन्न प्रकार के मानसिक और शरीरिक परिवर्तनों से गुजर रही होती है तो पितृसत्तात्मक व्यवस्था की बेड़ियां और कड़ी हो जाती हैं, गांव तथा घर में उसकी गतिविधियों को सीमित कर दिया जाता हैं, किशोर लड़की के माता-पिता उसकी यौनिकता (सेक्सअल्टी) को लेकर सदैव चिंतित रहते हैं, उस पर अनगिनत सामाजिक और शारीरिक प्रतिबंध लगा दिए जाते हैं, यहां तक अगर स्कूल गांव की सीमा के भीतर नहीं है तो लड़की को स्कूल जाने की भी अनूमति नहीं दी जाती, ऐसी स्थिति न आए इसके लिए गांव वालों ने संयुक्त परिवार वालों को ज्यादा बेहतर बताया, उन्होंने कहा कि एकल परिवार की अपेक्षा संयुक्त परिवार में लड़कियों पर निगरानी रखना ज्यादा आसान होता है, परिवारों के सीमित होते जाने से बच्चों की गतिविधियों पर निगरानी रखना कठिन हो गया है, एक लड़की जिसने अपने माता-पिता की इच्छा के विरू़द्ध एक लड़के से साथ विवाह किया था, उसके इस कदम का सारा दोष उसके एकल परिवार को दिया और कहा गया कि ‘‘क्योंकि लड़की के माता-पिता संयुक्त परिवार मेें नहीं रहते इसलिए वह अपनी लड़की पर निगरानी नहीं रख पाए’’ परिणामस्वरूप उसी गांव की छह लड़कियों का स्कूल जाना सिर्फ आशंका के आधार पर बंद कर दिया गया कि कहीं वह भी कुछ ऐसा ही कदम न उठा लें, जिससे समाज में माता-पिता की इज्जत को दाग लग जाए, दरअसल माता-पिता भयभीत हैं कि कहीं उनकी बेटी भी अपने व्यवहार से उनका सिर न झुका दे इसलिए लड़की का घर बैठना ही परिवार की इज्जत के लिए ज्यादा सुरक्षित है, लेकिन इस सच्चाई से वाकिफ होने के बावजूद कि आर्थिक-सामाजिक रूप से वे स्वतंत्र नहीं है, वे जानती हैं कि वह इतनी सशक्त नही है कि इस कठोर पितृसत्तात्मक व्यवस्था को चुनौती दे सकें, फिर भी वह जीने की आकांक्षा रखती हैं, खुले आकाश में उड़ने की, वे कहती हैं-
‘‘ मैं खुली जिंदगी जीना चाहती हूँ ’’
‘‘ मैं अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती हँू’’
‘‘ मैं आगे पढ़ना चाहती हूँ ’’
वह जानती हैं कि उनकी इच्छाएं पूरी नहीं होगी, माँ व दादी का वर्तमान ही उनका भविष्य होगा, दरअसल लड़कियाँ समझती हैं कि इस कठोर पितृसत्तात्मक संरचना से वे भिड़ नहीं सकती है, ऐसी हालत में उनके लिए मौजूद विकल्प वहीं हैं जो सामाजिक-सांस्कृतिक ढांचे ने उन पर थोप दिए हैं, समाज में उनकी भूमिका नातेदारी के संबंधों-जिनमें पुरूषों का वर्चस्व है-में ही बांध दी गई हैं, इसको निभाते हुए ही उन्हें सामाजिक सुरक्षा का आश्वासन मिल पाता है, वे इस सुरक्षा के लिए सक्रिय होकर समझौते करती हैं, ऐसी स्थिति में लड़कियों के विरूद्ध होने वाली तमाम हिंसाओं को, चाहे वह तकनीक के द्वारा भ्रूण-हत्या हो, लिंग के आधार पर गर्भपात, आनर-किलिंग हों, को एक सामाजिक वैधता मिल जाती है, मात्र कानून बनाने से यह हालत नहीं सुधरेगी जब तक पारिवारिक संरचना में स्त्रियों को बेहतर समानता के अवसर देकर सामाजिक परिवर्तन नहीं किया जाता।
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2 टिप्पणियां:
समाज में स्त्रियों की दशा के लिए जिम्मेदार परिस्थितियों और उनसे बनी सोंच और समझ का लगभग पूरा ब्यौरा दिया गया है यहाँ इस लेख में ! समाधान न तो इतना आसान है और न ही तुरत-फुरत हो जाने वाला ! यह दीर्घकालित विचार-विमर्श का मुद्दा है ! अभी बहुत सी बातें सामने आने को हैं !
सच और सिर्फ सच कहा है आपने बहतरीन प्रस्तुती
आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
पृथिवी (कौन सुनेगा मेरा दर्द ) ?
ये कैसी मोहब्बत है
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