कल इस लेख की दो पंक्ति मैंने फेसबुक पर दी थी। काफी प्रतिक्रिया हुई। मित्रों ने उद्धरणों की मांग की। उनकी यह मांग स्वाभाविक है। यह लेख इस रूप में कई साल पहले लिखा गया था। इसलिए आज इसको जांचने-परखने की भी जरूरत है। इस ख्याल से भी मित्रों के बीच प्रस्तुत करना जरूरी है।-- राजू रंजन प्रसाद
भारत एक राष्ट्र नहीं था। राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया की शुरुआत 1857 की क्रांति के बाद होती है और राष्ट्रवाद की प्रथम अभिव्यक्ति सन् 1885 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में होती है। इससे पहले हिन्दुस्तान कई छोटे-छोटे प्रदेशों में बंटा हुआ था और सारे लोग आपस में, संघर्ष में उलझे हुए थे, फलतः हमारा देश गुलाम हुआ। लोग इस मनोदशा के शिकार थे कि कोई राजा हो हमें क्या फर्क पड़ता है। पराधीनता की इस बेड़ी को मजबूत और अकाट्य बनाये रखने के लिए ब्रिटिश हुकूमत ने भारतीयों को धर्म, जाति एवं संप्रदाय के नाम पर बांटना शुरू किया। ध्यान रहे कि भारत में अंग्रेजी राज की स्थापना में दलितों ने मदद पहुंचाई थी। धर्म एवं जाति के नाम पर लोगों को आपस में बांटकर शासन करने की नीति साम्राज्यवादियों की बड़ी पुरानी नीति थी। सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि आयरलैंड की जनता को भी उसने धर्म के नाम पर तोड़ा था। (रामविलास शर्मा, मार्क्स और पिछड़े हुए समाज , पृष्ठ 67)। अंग्रेज शासकों ने उसी पुराने फार्मूले का भारत में भी अमल में लाने की कोशिश की और नारा दिया, ‘फूट डालो और शासन करो।’ इसके उलट अंग्रेजों ने बहुत सारे ऐसे काम किए जिनसे अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया की सुगबुगाहट तेज हुई।
हिन्दुस्तान में जैसे-जैसे राष्ट्रवाद का विकास हुआ, हिन्दू-मुस्लिम विद्वेष भी उसी हिसाब से बढ़ा। अब शायद यह अतीत की बात हो गई थी कि 1857 की क्रांति में हिन्दू एवं मुसलमानों ने अंग्रेजों के खिलाफ कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया था। डा. अखिलेश कुमार ने अपनी पुस्तक ‘कम्युनल रॉयट्स इन मॉडर्न इंडिया ' में सांप्रदायिक दंगों का संबंध कांग्रेस की स्थापना से ठीक ही जोड़ा है। आप कह ले सकते हैं कि भारत में राष्ट्रवाद एवं सांप्रदायिकता के उद्भव एवं विकास की लगभग एक ही प्रक्रिया रही है। ‘भारतीय राष्ट्रवाद’ जिस नवजागरण का फल है, उस नवजागरण में हिन्दू नवजागरण और मुस्लिम नवजागरण साथ-साथ घटित हुए। (नामवर सिंह, बहुमत -3, पृष्ठ 5)। राष्ट्रवाद और हिन्दू जातीयता और मुस्लिम कौमियत, ये साथ-साथ पैदा हुईं। भारत में राष्ट्रवाद एवं सांप्रदायिकता दोनों जुड़वा भाई हैं। लगता है, सांप्रदायिकता राष्ट्रवाद की ही एक अपरिपक्व धारा है और राष्ट्रवाद सांप्रदायिकता का ही एक ब्यूटीफायड (संस्कृत, संस्कारित) नाम है। (राजू रंजन प्रसाद, बहुमत -3, पृष्ठ 40)।
यह एक सामान्य ऐतिहासिक तथ्य है कि भारतीय राष्ट्रवाद, अंग्रेजी साम्राज्यवाद की प्रतिक्रिया में पैदा हुआ है। इसलिए उसमें इसके अंतर्विरोध भी शामिल है। यह भारतीय राष्ट्रवाद का अपना अंतर्विरोध है, उसके निर्माण की प्रक्रिया का दोष। इस अंतर्विरोध का असर उस जमाने की राजनीति एवं संस्कृति जैसे तमाम मोर्चों पर देखने में आता है। इसलिए हिन्दी साहित्य के लेखकों का इससे बेअसर रहना बिल्कुल ही मुमकिन तथा वैज्ञानिक नहीं था। इसके असर से हम प्रेमचंद जैसे रचनाकार को भी मुक्त नहीं पाते हैं। वे कभी तो बहुत आगे निकले हुए प्रतीत होते हैं और कभी पीछे छूट गए से लगते हैं। तत्कालीन राजनीति में भी ऐसी दिलचस्प घटनाएं घटी हैं। रजनी पाम दत्त ने ठीक ही लिखा है, ‘कभी-कभी हम बहुत आगे निकल जाते थे, लगता था मानो आंदोलन ने अपनी मंजिल को पा लिया है लेकिन दूसरे ही क्षण उसका अंत समझौते की हार में होता था।’
प्रेमचंद इस दौर के अकेले सबसे बड़े साहित्यकार हैं जिन्होंने राष्ट्रीय एकता की समस्या को सबसे ज्यादा गंभीरता के साथ हल करने की कोशिश की है। इस क्रम में उन्हें सांप्रदायिकता, जाति-व्यवस्था और अंधविश्वास जैसी भयंकर बाधाओं से जमकर लोहा लेना पड़ा है। जब हम यह कह रहे होते हैं कि प्रेमचंद ने अपने साहित्य के माध्यम से राष्ट्रीय आंदोलन का इतिहास लिखा है तो इसका अर्थ यह कदापि नहीं होता कि कांगेसी नेतृत्व में चले आंदोलन का उन्होंने तर्जुमा मात्र किया है। उनको पढ़ते हुए हम भारत के किसान आंदोलन, मजदूरों में अपने देश के प्रति सजगता एवं धार्मिक-सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ संगठित हो रही ताकतों से भी परिचित होते हैं। निश्चित रूप से ऐसी ताकतें कांग्रेस के बाहर की भी होती हैं।
‘प्रेमचंद : सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद ’ विषय को चुनते हुए हम काफी सतर्क हैं। हमारा प्रयास केवल इतना भर है कि प्रेमचंद पर अब तक जो लिखा गया है, विशेषकर जड़, यांत्रिक एवं कट्टर मार्क्सवादी आलोचना, उसके जाल से निकलकर वस्तुस्थिति की जांच हो, क्योंकि समय आ गया है कि हम अपनी गलतियों पर विमर्श करें और उससे आवश्यक सबक लें।
प्रेमचंद ने जो कुछ भी कहा, प्रगतिशीलता के आग्रह में लोगों ने उसे बेहिचक सही और तर्कसंगत मान लिया। प्रस्तुत आलेख में प्रेमचंद के इन्हीं वैचारिक अंतर्विरोधों की चर्चा है। ‘प्रगतिशील’ आलोचकों को अब तो मान लेना चाहिए कि प्रेमचंद के यहां सब कुछ स्पष्ट और तर्कसंगत नहीं है।
हिन्दू होने का अहसास और फिर हिन्दू धर्म पर गौरव, प्रेमचंद के संस्कार में कहीं किसी कोने में सदा के लिए बैठ गया लगता है। 1909 प्रेमचंद के लेखन का आरंभिक दौर है। ‘सोजे-वतन ’ अभी-अभी प्रकाशित हुआ था। इससे पहले उनके विचारों का एक संग्रह ‘कलम, तलवार और न्याय ’ शीर्षक से प्रकाशित हो चुका था। इन दोनों ही पुस्तकों में राजपूतों की गौरव-गाथाओं का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है। हिन्दू होने का उनका यह ‘अहसास’ लगभग अंत तक कायम रहा। बाद के दिनों में भी ‘हिन्दू’ शब्द के साथ उनका वैसा ही रागात्मक संबंध कायम रहा। सन् 1925 के जनवरी के ‘माधुरी ’ में प्रेमचंद लिखते हैं, ‘हिन्दू जाति यदि अपने पुरुखाओं को किसी धर्म संग्राम में आत्मोत्सर्ग करते हुए देखकर प्रसन्न न हो तो सिवाय इसके और क्या कहा जा सकता है कि इसमें वीर पूजा की भावना भी नहीं रह जो किसी जाति के अधःपतन का अंतिम लक्षण है। ’ आगे वे और लिखते हैं, ‘जब तक हम अर्जुन, प्रताप, शिवाजी आदि वीरों की पूजा और कीर्ति पर गर्व करते हैं तब तक हमारे पुनरुद्धार की कुछ आशा हो सकती है। ’ कहना होगा कि प्रेमचंद के देश के पुनरुद्धार में हिन्दू जाति का पुनरुद्धार आवश्यक रूप से जुड़ा हुआ है।
महाराणा प्रताप, शिवाजी आदि इतिहास पुरुषों को राष्ट्रीय नायक के रूप में चित्रित करने का मतलब होगा मुसलमानों की संपूर्ण सत्ता को विदेशी करार देना। ऐसी स्थिति में प्रेमचंद साम्राज्यवादी इतिहासकारों के काल-विभाजन यथा हिन्दू काल, मुस्लिम काल एवं आधुनिक काल को ही पुष्ट करते नजर आते हैं। यह भारतीय इतिहास की अत्यंत ही नस्लवादी एवं सांप्रदायिक व्याख्या है।
भारत के संपूर्ण इतिहास को अगर देखने की कोशिश करें तो पता चलेगा कि यहां दोनों ही तरह की परंपराएं हैं, दोनों ही तरह के आदर्श हैं। एक तरफ अगर औरंगजेब, राणा प्रताप एवं ‘वीर’ शिवाजी हैं तो दूसरी तरफ अकबर एवं अशोक की महान और उदार परंपरा भी है। भारत के इतिहास में अकबर साझी संस्कृति का प्रतीक है, फिर भी अगर प्रेमचंद , शिवाजी की ही कीर्ति पर गर्व करते हैं तो बात सचमुच मतलब से खाली नहीं है। आज सांप्रदायिकता को हवा देनेवाली ताकतें इन्हें ही अपना आदर्श मानती हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान बाल गंगाधर तिलक ने भी इन्हीं वीर नायकों को अपना आदर्श बनाया था जिसके फलस्वरूप सांप्रदायिक राजनीति की जड़ें मजबूत हुईं और राष्ट्रीय आंदोलन कमजोर हुआ। कहना न होगा कि आर. एस. एस. तिलक को अपना वैचारिक गुरु मानता है। इसलिए राष्ट्रीय आंदोलन का जो अंतर्विरोध रहा या फिर इसकी जिन मोर्चों पर हार हुई, उसका कारण बहुत हद तक उस विचारधारा को माना जा सकता है जिसे तिलक स्वीकार किये बैठे थे, और जिसे प्रेमचंद भी जोश में याद कर लेते हैं।
प्रेमचंद ने सांप्रदायिकता के खिलाफ स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहासकारों में सबसे ज्यादा और बेहद मजबूती के साथ लिखा है। लेकिन इस समस्या के बारे में ऐसा लगता है, उनकी समझ बहुत स्पष्ट और वैज्ञानिक नहीं थी। प्रेमचंद मानते हैं कि राष्ट्रीयता वर्तमान का कोढ़ है, उसी तरह जैसे मध्यकालीन युग का कोढ़ सांप्रदायिकता थी। मार्क्सवादी आलोचक खगेन्द्र ठाकुर बहुत हाल तक मानते रहे हैं कि सांप्रदायिकता, आधुनिक युग की नहीं मध्यकाल की चीज है। (आलोचना -59)। दरअसल, राष्ट्रीयता एवं सांप्रदायिकता दोनों ही आधुनिक भारत की उपज हैं। इस तरह की गलती का मूल कारण है कि लोग सांप्रदायिकता एवं सांप्रदायिक तनाव दोनों को एक ही चीज मान बैठते हैं। सांप्रदायिकता औपनिवेशिक भारत की देन है जबकि सांप्रदायिक तनाव अथवा संघर्ष मध्य युग में भी था। (डा. अखिलेश कुमार की कृति 'कम्युनल रॉयट्स इन मॉडर्न इंडिया ’ इस विषय की विस्तृत जानकारी के लिए देखें)।
प्रेमचंद यह भी लिखते हैं कि ‘दोनों संप्रदायों में कशमकश और सन्देह और घृणा की जड़ें इतिहास में हैं।’ लेकिन चूंकि इतिहास का समीकरण कुछ इस तरह का है कि वे मान बैठते हैं कि ‘मुसलमान विजेता थे और हिन्दू विजित।’ (प्रेमचंद के विचार , भाग-1, पृष्ठ 353)। तब वे यह भी सोचने को बाध्य होते हैं कि ‘मुसलमानों की तरफ से हिन्दुओं पर अक्सर ज्यादतियां हुईं।’ इसलिए हिन्दुओं की दिन-प्रतिदिन घटती हुई आबादी उनकी चिंता का कारण बनी। (वही)
सामान्यतः, सांप्रदायिकता के होने में इस ‘मिथ्या चेतना’ का प्रमुख हाथ है कि समान धर्म को माननेवाले लोगों के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक हित समान होते हैं, तथा एक धर्म विशेष के माननेवालों के हित दूसरे धर्म के अनुयायियों के हितों के सर्वथा विरोधी होते हैं। संप्रदायवादी इस विचारधारा को काफी तूल देते पाये जाते हैं कि हमारा देश छोटी-छोटी धार्मिक इकाइयों में विभाजित है अर्थात् वे विभिन्न धार्मिक समुदायों के स्वतंत्र अस्तित्व को काफी जोर देकर प्रचारित करना चाहते हैं। इस संप्रदायवादी चिंतनधारा के खिलाफ प्रेमचंद के लेखन में जबर्दस्त प्रतिवाद का अभाव खटकता है। एक जगह तो प्रेमचंद हिन्दू-मुसलमान के पृथक अस्तित्व को न केवल स्वीकार करते हैं बल्कि इस बात की घोषणा भी करते हैं कि यह अस्तित्व शाश्वत है। प्रेमचंद बिल्कुल स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं, ‘हिन्दू और मुसलमान न कभी दूध और चीनी थे, न होंगे और न होने चाहिए। दोनों की अलग-अलग सूरतें रहनी चाहिए और बनी रहेगी। ’ (वही, पृष्ठ 355)। आधुनिक भारत की राजनीति में इसी ख्याल ने संप्रदायवाद के उद्भव को आधार प्रदान किया है। संप्रदायवादियों का मूलमंत्र है कि हिन्दू एवं मुसलमान दो भिन्न धार्मिक इकाइयां हैं। इसे स्वीकार करने में प्रेमचंद को कोई एतराज नहीं है।
दूसरी तरफ दिसंबर 1933 के ‘जमाना ’ में नेहरु को उद्धृत करते हुए प्रेमचंद ने लिखा है कि ‘आज भारत में मुस्लिम और हिन्दू जनता में कोई वंशगत या सांस्कृतिक भेद नाम को भी नहीं है। अवध या बुंदेलखंड के किसी मुस्लिम या हिन्दू किसान में ऐसा कोई अंतर न मिलेगा, जो एक को दूसरे से अलग कर दे। ’ प्रेमचंद को पढ़ते हुए हमें कई दफा हिन्दुओं एवं मुसलमानों के वंशगत या संस्कारगत भेद का अहसास होता है। हिन्दू उनके लिए उदारता एवं सादगी का प्रतीक है जबकि मुसलमानों के लिए ठीक यही भाव नहीं है। गांव के बड़े-बूढ़ों के बीच अब भी ‘हिन्दू बढ़े नेम से मुसलमान बढ़े कुनेम से ’ वाली बात प्रचलित है। हिन्दुओं में मांस, मुर्गी, अंडा आदि खाना आदर्श रूप में वर्जित है। मांसाहार करना ही मुसलमान होने के लिए पर्याप्त है। प्रेमचंद की रचनाओं के माध्यम से भी यह बात उभरकर सामने आती है।
14 जुलाई 1936 को प्रेमचंद की बच्चों के लिए एक कहानी आई थी-‘कुत्ते की कहानी ’ । इसमें एक पात्र डफाली है जिसका कुत्ता जकिया है। डफाली चूंकि मांस खाकर अपना गुजारा करता था, इसलिए जकिया को भी लगभग रोज ही मांस मयस्सर हो जाता था। इस भाव को स्पष्ट करने में प्रेमचंद का ‘टिपिकल’ हिन्दू संस्कार अपनी छाप छोड़ जाता है। वे लिखते हैं, ‘मगर भाई जकिया पक्का मुसलमान था रोज मांस खाता। ’ वहीं प्रेमचंद पंडित जी के कुत्ते के लिए लिखते हैं, ‘चूहों को खिला-खिलाकर जान से मार डालता था, पर खाता न था। ’ इस तरह प्रेमचंद के यहां हिन्दू-मुस्लिम के वंशगत या संस्कारगत भेद का हमें तीखा अहसास होता है।
जीवनपर्यंत प्रेमचंद गहरे वैचारिक अंतर्विरोध के बीच जीते हैं। वे सांप्रदायिकता की समस्या का हल ढूंढ़ नहीं पाते। हालांकि धर्म के फरेब को वे अच्छी तरह जानते थे। हिन्दू-मुसलमानों की राजनीतिक लीला भी उनसे छिपी न थी। इसलिए सांप्रदायिकता के कारणों में वे धर्म की बजाय जनता के बीच राजनीतिकरण के अभाव को प्रमुख मानते हैं। उन्होंने लिखा था, ‘हमारा दृढ़ संकल्प है कि ज्यों-ज्यों हमारा राजनैतिक विकास होगा, सांप्रदायिकता मिटती जायगी और आर्थिक समस्याएं उसका स्थान लेती जाएंगी।’ एक जगह वे बहुत साफ शब्दों में कहते हैं, ‘कल की लड़ाई आर्थिक होगी।’
साम्प्रदायिकता संबंधी विचारों के मामले में हम प्रेमचंद के यहां चिंतन की एक दूसरी धारा भी देखते हैं, जहां अभिजातवर्गीय दृष्टिकोण खुलकर सामने आता है। गांधीजी का मानना था कि अगर हमारे नेता आपस के द्वेष को भुला दें तो सांप्रदायिकता जैसी समस्याओं का अंत संभव हो सकता है। गांधीजी सांप्रदायिकता के मूल कारणों को खोज पाने में असमर्थ हैं, इसलिए उनके समाधान भी बिल्कुल सतही और भ्रमोत्पादक हैं। प्रेमचंद को भी इन नेताओं पर कुछ जरूरत से ज्यादा ही भरोसा है। वे मानते हैं कि सांप्रदायिकता को समाप्त करने के लिए ‘जरूरत सिर्फ इस बात की है कि उनके नेताओं में परस्पर सहिष्णुता और उत्सर्ग की भावना हो।’ ऐसा ख्याल इस मान्यता को प्रमाणित कर देता है कि सचमुच हमारा समाज हिन्दू, मुसलमान एवं सिक्ख जैसी इकाइयों में बंटा है। तब हम जाने-अनजाने संप्रदायवादियों के ही सिद्धांत कि एक समुदाय के सारे लोगों के हित समान होते हैं, को समर्थन दे रहे होते हैं। इस तरह राष्ट्रवादियों और संप्रदायवादियों के बीच का भेद मिटता नजर आता है। प्रेमचंद एवं गांधीजी के विचारों के विपरीत, नेहरु का मानना था कि सांप्रदायिकता को समाप्त करने के लिए जनता के बीच एकता कायम करनी होगी।
हिन्दी में सृजनात्मक साहित्य के माध्यम से सांप्रदायिकता फैलानेवाले लेखकों की भी एक परंपरा रही है। भारतेंदु और प्रताप नारायण मिश्र के जमाने से लेकर प्रेमचंद के जमाने तक इस परंपरा को फलते-फूलते देखा जा सकता है। प्रेमचंद ने इस तरह के लेखन से लोगों को हमेशा सतर्क एवं सावधान रखने की कोशिश की है। धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की स्थापना के लिए उन्होंने संघर्ष का रास्ता अपनाया। यहां ‘इस्लाम का विष-वृक्ष ’ की चर्चा करना अप्रासंगिक न होगा। इसके लेखक थे श्री चतुरसेन शास्त्री। इस पुस्तक में इस्लाम का इतिहास है। साथ ही इसमें सांप्रदायिकता को भड़कानेवाली बातें लिखी हुई थीं। प्रेमचंद भला इसे कब बर्दाश्त करनेवाले थे। उन्होंने शास्त्री जी को लगभग डांटते हुए लिखा, ‘हम उनसे प्रार्थना करते हैं कि ऐसी जटिल और द्रोहभरी रचनाएं लिखकर अपनी प्रतिभा को और हिन्दी को कलंकित न करें और राष्ट्र में जो द्रोह और द्वेष पहले से ही फैला हुआ है, उस बारूद में आग न लगावें।’ हिन्दी एवं उर्दू का प्रेमचंद के लेखन में कोई विरोध नहीं है। दोनों ही भाषाओं में सांप्रदायिकता का दुष्प्रचार करनेवालों को वे सबक सिखाते हैं। नियाज फतेहपुरी एक ऐसे ही पत्रकार थे जिनमें देशभक्ति के तमाम दावों के बावजूद हद दर्जे की सांप्रदायिक भावनाओं और विचारों को प्रकट करने का साहस भी था, जिसके लिए प्रेमचंद ने इनको काफी भला-बुरा लिखा था। इस तरह प्रेमचंद के लेखन की जो मुख्यधारा है, वह धर्मनिरपेक्ष मूल्यों एवं राष्ट्रवादी चेतना को प्रोत्साहित करती है।
यह और बात है कि धर्मनिरपेक्षता एवं राष्ट्रवाद की बात करते-करते अचानक प्रेमचंद का सोया हिन्दू मन जाग उठता है और यहां तक कि ‘स्वराज’, जिसमें हिन्दू-मुसलमान जैसी चीजों का न होना था, वहां भी हिन्दू रंग एक बार चढ़ जाता है। शासन में मुसलमानों की भागीदारी के नाम पर एक ‘टिपिकल हिन्दू’ के रूप में प्रेमचंद कहते हैं, ‘अव्वल तो अपने दिल से यह ख्याल निकाल देना चाहिए कि हमारे देश-भाई अब भी हम पर हुकूमत का इरादा रखते हैं क्योंकि हिन्दू संख्या में, धन-दौलत में, शक्ति में मुसलमानों में किसी तरह से कम नहीं हैं।’ (प्रेमचंद के विचार , भाग-1, पृष्ठ 414)।
प्रेमचंद के ये अंतर्विरोध भारतीय राष्ट्रवाद के अंतर्विरोध हैं। राष्ट्रवाद एक आधुनिक विचारधारा है। भारत में इसका उद्भव एवं विकास स्वाभाविक रूप से साम्राज्यवाद विरोधी विचारधारा के रूप में हुआ। अंग्रेज शासकों एवं उपनिवेशवादी इतिहासकारों का ख्याल था कि भारत का अपना कोई इतिहास नहीं है। अंग्रेजों के इस दुष्प्रचार का शिकार होकर कभी मार्क्स ने भी स्वीकार किया था कि भारत का कोई इतिहास नहीं है; इतिहास के नाम पर विदेशी आक्रमण की कुछ घटनाएं हैं। फलतः भारत में राष्ट्रीय चेतना का निर्माण औपनिवेशिक धारणाओं और आधारवाक्यों के अस्वीकार एवं आत्मसम्मान के लिए संघर्ष के बीच हुआ। इसलिए यह भी उतना ही स्पष्ट है कि भारतीय राष्ट्रवाद के विकास के प्रथम चरण में औपनिवेशिक मान्यताओं का जबर्दस्त खंडन होना था। यहां तक कि लोगों ने प्राचीन भारत में जनतंत्रात्मक शासन प्रणाली के होने की बात पर जोर देना शुरू कर दिया। कभी-कभी तो राष्ट्रवाद इस कदर हावी हो गया कि वे अपने अतीत को वर्तमान से भी अधिक सुंदर देखने लगे। इसके साथ ही पश्चिम की हर अच्छी-बुरी चीज का प्रत्याख्यान हुआ। निराला जब कहते हैं, ‘योग्य जन जीता है। पश्चिम की उक्ति नहीं। गीता है, गीता है। स्मरण करो बार-बार ’, तो यही भाव है। डार्विन के विकासवाद को खुली चुनौती है यह। भारत की राष्ट्रीय चेतना इस चिंतनधारा से प्रभावित रही है। प्रेमचंद भी इस चेतना से अप्रभावित नहीं थे, खासकर अपने आरंभिक दौर में इस रंग में रंगे हुए थे।
राष्ट्रवाद के विकास के प्रथम चरण में शिवाजी, महाराणा प्रताप आदि क्षेत्रीय नायकों को राष्ट्रवादियों ने राष्ट्रनायक के रूप में चित्रित किया। आश्चर्य नहीं कि ‘आत्मचेता क्रांतिकारी’ (सेल्फकंशस रिवोल्यूश्नरी) नेहरु के लिए भी गुप्त साम्राज्य का उत्कर्ष राष्ट्रीयता का अभ्युदय था। सिर्फ राष्ट्रवादी चिंतकों की ही ऐसी स्थिति न थी बल्कि बहुत हद तक मार्क्सवादी विचारधारा के लोग भी चीजों को ठीक इसी रूप में देख रहे थे। ‘पहल ’ के इतिहास अंक के लेख ‘मार्क्सवादी इतिहास-विश्लेषण की समस्याएं ’ की एक पाद-टिप्पणी में इरफान हबीब ने लिखा है, ‘पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस शिवाजी को एक ऐसा ही राष्ट्रीय नायक मानता था और उनके सम्मान में उनके राज्याभिषेक के अवसर पर संस्कृत में लिखी गई एक लंबी कविता का संस्करण भी उसने निकाला था, हालांकि उसमें एक दरबारी कवि की अतिशयोक्ति के अलावा ऐतिहासिक मूल्य की दृष्टि से कुछ भी नहीं है। ’ उन्हीं के उद्धरण का सहारा लेकर कहूं कि ‘‘सी. पी. आई के मुखपत्र ‘न्यू एज ’ ने एक बार शिवाजी को, ‘वे जो कुछ भी थे ’, अर्थात् दमनकारी कहने के लिए, मोरारजी के बारे में भला-बुरा भी लिखा था।’
प्रेमचंद का अंतर्विरोध बहुत हद तक किसी तर्कसंगत विचारधारा के अभाव की वजह से है। आपने जो दृष्टि प्राप्त की थी, वह विचारधारा की नहीं ‘ऑब्जर्वेशन’ की दृष्टि थी। लेकिन उसमें तोलस्तोय की गहराई न थी। भारतीय समाज की जटिल संरचना, खासकर सांप्रदायिकता जैसी विचारधारात्मक अवधारणाओं को स्पष्टतः समझने में इनकी दृष्टि फंस जाती है और अपनी दूरदर्शिता खो बैठती है। बहुत संभव है कि अपने अंतिम दिनों तक प्रेमचंद ने मार्क्सवाद का विधिवत अध्ययन न किया हो। कहना होगा कि उनके लेखों में मार्क्सवादी शब्दावली का, जिसका आरंभिक मार्क्सवादी लेखन में बाहुल्य है, अभाव प्रतीत होता है। प्रेमचंद के अंतर्विरोध का यह भी एक संभव कारण हो सकता है। नेहरु इसलिए भी चीजों को साफ देख पा रहे थे-खासकर विचारधारात्मक प्रश्नों को।
इस तरह के अंतर्विरोध की परंपरा साहित्य के साथ-साथ इतिहास एवं राजनीति के क्षेत्रों में भी रही है। यह बात अलग है कि सांस्कृतिक मंच से भारत के पुरातन समाज और सांस्कृतिक पुनरुत्थान के इन रूपों ने राष्ट्रीय चेतना को तीव्र तो किया, पर साथ ही आलोचनात्मक सामाजिक चेतना को कुंठित भी किया। प्रेमचंद को हम इस पृष्ठभूमि से अलग काटकर नहीं देख सकते। किसी भी सामाजिक समस्या या सवाल की सही पहचान के लिए यह आवश्यक है कि उसे निश्चित ऐतिहासिक-सामाजिक सीमाओं के भीतर परखा जाये, जिसमें ये सवाल पैदा होते हैं। औपनिवेशिक काल की सीमाओं के भीतर उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन में प्रेमचंद की भूमिका महत्वपूर्ण है। और यह भी उतना ही सत्य है कि अपनी औपनिवेशिक सीमाओं के भीतर, हमारा राष्ट्रवाद एक धर्मनिरपेक्ष मूल्य था।
लेखक - राजू रंजन प्रसाद
प्रकाशनः सहमत मुक्तनाद , अंक 35, जून 2006।
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