भूख का भूमण्डलीकरण
(अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान द्वारा ज़ारी ‘भूमण्डलीय भूख सूचकांक’ का एक विश्लेषण)
- अशोक कुमार पाण्डेय
अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान की 2006 से हर वर्ष ज़ारी होने वाली ‘भूमण्डलीय भूख सूचकांक’ की सूची और इससे संबद्ध रिपोर्ट पिछले महीने ज़ारी हुई। इस रिपोर्ट के अनुसार लगभग 10 अरब लोग यानि विश्व की कुल आबादी का छठवां हिस्सा पिछले वर्ष भूख से पीड़ित रहा। इसमें सबसे बड़ा हिस्सा सब सहारा देशों और दक्षिण एशियाई देशों का था। दुनिया के 122 देशों के अध्ययन के आधार पर ज़ारी की जाने वाली इस रिपोर्ट में यह सूचकांक तीन प्रमुख आधारों पर बनाया जाता है- कुपोषित जनसंख्या का अनुपात, पांच साल से कम उम्र वाले उन बच्चों का अनुपात जिनका वज़न औसत से कम है और शिशु मृत्यु दर। इन आधारों पर देशों को शून्य से 100 तक के सूचकांक आवंटित किये जाते हैं, जहां शून्य का अर्थ है भूख की अनुपस्थिति। इसके आधार पर सबसे बुरी स्थिति युद्ध पीड़ित अफ्रीकी देश कांगो जनतांत्रिक गणराज्य (सी डी आर) की है जिसके लिये सूचकांक 40 से ऊपर है और इसे ‘अत्यंत चिंताजनक’ रूप से कुपोषित बताया गया है। भारत को इस सूची में चीन, श्रीलंका, नेपाल और पाकिस्तान से भी नीचे 67 वें स्थान पर रखा गया है और दक्षिण एशिया में भूख की स्थिति कुल मिलाकर ‘चिंताजनक’ बताई गयी है। ज्ञातव्य है कि पिछले साल भारत का स्थान 65 वां था। इस बार अभी भारतीय राज्यों के लिये अलग से सूची ( भारतीय राज्यवार भूख सूचकांक ISHI) तो नहीं ज़ारी की गयी है लेकिन रिपोर्ट को देखने से लगता है कि 2008 में ज़ारी उस राज्यवार सूची ( जिसमें सभी राज्यों की स्थिति ‘चिंताजनक’ और मध्यप्रदेश की स्थिति सबसे बुरी बताई गयी थी) के निष्कर्षों में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है।
इसका मुख्य उद्देश्य कुपोषण तथा भुखमरी के आधार पर विश्व की विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं के बीच क्षेत्रीय तथा आर्थिक असमानताओं तथा प्रवृतियों का निर्धारण करना है। इस पूरे अध्ययन के लिये आधार वर्ष 1990 को बनाया गया है तथा सरकारी और गैरसरकारी एजेंसियॉ द्वारा एकत्र किये गये आंकड़ो के आधार पर विभिन्न देशों तथा क्षेत्रों को कुपोषण के आधार पर अलग-अलग श्रेणियों में बांटा जाता है। इस सारणीकरण के लिये उन 122 देशों का चुनाव किया गया है जिनके लिये ये आंकड़े उपलब्ध हैं,
इस रिपोर्ट के मुख्य निष्कर्षों पर अगर नज़र डाली जाय तो इसके अनुसार वैश्विक कुपोषण की स्थिति 1990 की तुलना में कुछ बेहतर ज़रूर हुई है लेकिन विश्व का भूख सूचकांक अब भी ‘गंभीर’ बना हुआ है। जहां 1990 के आधार वर्ष में वैश्विक स्तर पर भूख सूचकांक 19.8 था वहीं 2010 के आंकड़ो के अनुसार यह लगभग एक तिहाई घटकर 15.1 हो गया। कम वज़न वाले और कुपोषित बच्चों की संख्या में भी कमी आई है तथा शिशु मृत्यु दर भी कम हुई है। लेकिन दुनिया भर में कुपोषित लोगों की कुल संख्या में वृद्धि पाई गयी है। यह रिपोर्ट वैश्विक स्तर पर उपस्थित खाद्यान्न संकट को भी स्वीकार करती है। दुनिया भर में खाद्यान्नों की क़ीमत में भयावह बढ़ोत्तरी, कृषि संकट तथा रोज़गार में आई कमी इसका मुख्य कारण हैं। रिपोर्ट के अनुसार कुपोषण की शिकार आबादी में सबसे बड़ा हिस्सा दक्षिण एशिया तथा सब सहारा अफ्रीकी देशों का है, जहां सबसे अधिक क्षेत्रीय सूचकांक स्तर दक्षिण एशिया का है (22.9) जबकि दूसरे क्रम पर सब सहारा अफ्रीकी देश (21.7) हैं। हालांकि अधिक सुधार दक्षिण एशिया में देखा गया है लेकिन जहां इन अफ्रीकी देशों में सरकारों की निष्क्रियता, विवाद, राजनैतिक अस्थिरता और एड्स जैसी बीमारियों के कुप्रभाव के कारण उच्च शिशु मृत्यु दर तथा कुपोषण जैसी स्थितियां इसकी ज़िम्मेदार हैं वहीं दक्षिण एशियाई देशों के संबंध में उच्च सूचकांक स्तर के कारण दूसरे हैं। इस क्षेत्र में थाईलैण्ड और मलेशिया ने तो कुपोषण तथा भुखमरी में उल्लेखनीय रूप से कमी लाने में सफलता पाई है, लेकिन यह रिपोर्ट भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान और इस्ट तिमोर के संदर्भ में यह विशेष रूप से रेखांकित करती है कि इन देशों में जो सकल प्रति व्यक्ति आय है उसकी तुलना में इनके भूख सूचकांक बहुत ऊंचे स्तरों के हैं जबकि चीन, फिजी, वियतनाम, गयाना, होण्डुरास, निकारागुआ और पेराग्युए जैसे देशों में स्थिति इसके विपरीत है, साफ़ है कि भारत में आय तथा वितरण की असमानता में लगातार वृद्धि हुई है । अध्ययन दल की एक सदस्य पूर्णिमा मेनन इस संदर्भ में ‘महिलाओं की स्थिति और ग़रीबी’ को सबसे प्रमुख कारक के रूप में रेखांकित करती हैं। ‘फ्रांस 24’ में प्रकाशित अपने आलेख में अपूर्वा प्रसाद एक जी-20 सदस्य देश (भारत) में विश्व की कुल आबादी के कम वज़न वाले 42 प्रतिशत बच्चों तथा 31 फीसदी अल्पविकसित ( कम लंबाई वाले) बच्चों का घर होने को आश्चर्यजनक तो बताती हैं लेकिन इसके लिये यहां की विशाल जनसंख्या को जिम्मेदार बताती हैं लेकिन यहां वह इस तथ्य को उद्धृत करना भूल जाती हैं कि पिछले वर्षों में जिन देशों ने अपने कुपोषण पर रोक लगाने में सबसे अधिक सफलता पाई है, उनमें सबसे पहला नाम चीन का है। इस रिपोर्ट ने चीन का विशेष उल्लेख उन देशों के उदाहरण के रूप में किया है जिनमें कुपोषण का स्तर उनके प्रति व्यक्ति सकल घरेलू आय की तुलना में बेहतर है , 1990 के आधार वर्ष के लिये इसका सूचकांक 11.6 जो 2010 में घटकर केवल 6 रह गया और वह अब सूची में नौवें स्थान पर पहुंच गया, लेकिन भारत में इसका आरंभिक आंकड़ा 31.7 था 2020 में वह मात्र 24.1 (अर्थात दक्षिण एशिया के औसत के स्तर से भी अधिक) तक पहुंचा और सूची में भारत का स्थान सबसे अंतिम से सिर्फ 17 स्थान ऊपर 67 वें क्रम पर रहा, यहां तक कि पाकिस्तान ने भी इससे बेहतर प्रगति की है और वह 24.7 से 19.1 तक पहुंच कर माली के साथ 52 वें स्थान पर है।
दरअसल, समृद्धि और कुपोषण के संबध में इस रिपोर्ट में की गयी विवेचना और टिप्पणी बेहद ग़ौरतलब है। इसके अनुसार आर्थिक प्रदर्शन और भूख आमतौर पर एक दूसरे से प्रतिलोम रूप से संबद्ध हैं और जिन देशों में प्रतिव्यक्ति सकल घरेलू आय अधिक है उनमें आमतौर पर यह सूचकांक निचले स्तरों का पाया जाता है। लेकिन यह संबध हमेशा ही सही नहीं होता। विवाद, रोग, असमानता, ख़राब प्रशासन और लैंगिक भेदभाव ऐसे कारक हैं जो कई बार देश के भूख सूचकांक को उस स्तर से काफी ऊपर ढकेल देते हैं, जितना उनके आय स्तरों से प्रतिबिंबित होता है। जबकि इसके विपरीत ग़रीबों के पक्ष में होने वाली आर्थिक संवृद्धि, मज़बूत कृषि प्रदर्शन और वृद्धिमान लैंगिक असमानता सूचकांक को बेहतर बना सकते हैं। यही वज़ह है कि क्यूबा और ब्राज़ील जैसे देश मुश्किल परिस्थितियों के बावज़ूद सूचकांक के 5 से कम होने के कारण इस सूची से बाहर रहने में सफल रहे हैं।
भारत जैसे देशों में इन कारकों के प्रभाव को समझना मुश्किल नहीं है। पिछले दिनों गरीबी पर चली लंबी बहस और पहले अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी फिर सक्सेना कमेटी आदि द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों की रोशनी में उन तथ्यों तथा नीतियों की आसानी से पहचान की जा सकती है जिनकी वज़ह से एक तरफ़ अभी 24 तारीख को ज़ारी आई एम एफ़ की एक रिपोर्ट में इसका कोटा बढ़ाकर इसे तीन स्थानों ऊपर जी- 20 देशों के बीच इस आधार पर उसका स्थान 11वें से आठवां कर दिया गया, वहीं भूख सूचकांक के आधार पर यह दुनिया की सबसे पिछड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक है।
स्पष्ट है कि भुखमरी और बेरोज़गारी की समस्या अब विश्व के समक्ष एक भयावह संक्रामक रोग की तरह उपस्थित है। भारत जैसे देश में, जहां अभी राष्ट्रमण्डल खेलों के ‘सफल’ आयोजन के बाद एशियाई खेलों के आयोजन की तैयारी चल रही है, सुरक्षा परिषद में प्रवेश की खुशियां मनाईं जा रही हैं और विश्व आर्थिक महाशक्ति बन जाने के स्वप्न देखे जा रहे हैं, ये आंकड़े उस आर्थिक संवृद्धि का असली चेहरा दिखा रहे हैं जिसने आर्थिक असमानता की खाई को अभूतपूर्व रूप से चौड़ा कर दिया है।
आख़िर इसका इलाज़ क्या है? अगर इस रिपोर्ट की बात करें तो इसके अनुसार ‘ भूख सूचकांको के स्तर में कमी के लिये इन देशों को बच्चों के कुपोषण में तेज़ी से कमी लानी होगी। हाल के उदाहरण बताते हैं कि बच्चों का पोषण सुधारने के लिये जो ‘अवसर की समयावधि’ है वह गर्भधारण से 24 माह तक की ( यानि इनके बीच के एक हज़ार दिनों की ) उसमें मां और बच्चे को उचित मात्रा में पोषण आहार उपलब्ध कराना होगा। … बच्चों का कुपोषण दूर करने के लिये सरकारों को इस समयावधि में बच्चों तथा मांओं को पोषण आहार उपलब्ध कराने के लिये लक्षित हस्तक्षेप करना चाहिये।‘
लेकिन यह होगा कैसे? एक ऐसी अर्थव्यवस्था में जहां बहुसंख्यक आबादी पूरे साल दो जून का पेटभर अनाज़ नहीं पा पाती, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित है, समाज में लैंगिक असमानता गहरे व्याप्त है और भ्रष्टाचार का स्तर अत्यंत ऊंचा है, वहां किसी ‘लक्षित कार्यक्रम’ द्वारा इन ग्यारह महीनों तक मां-बच्चे (जिसमें महिला शिशु भी शामिल है) को पोषण आहार दिला पायेगी, इस पर विश्वास कर पाना कठिन है। कुपोषण या भुखमरी रोग नहीं, दरअसल उसके लक्षण हैं जिनसे मुक्ति रोग को समाप्त करके ही पाई जा सकती है। नियमित तथा सुरक्षित रोज़गार, आय तथा संसाधनों के समानतामूलक वितरण, शिक्षा, स्वास्थ्य और भोजन जैसी आधारभूत सुविधाओं की सम्यक तथा सर्वसमावेशी व्यवस्था तथा सामाजिक परिवर्तन द्वारा जाति, लैंगिक असमानता तथा धर्म जैसी विकासरोधी सामाजिक संरचनाओं के विनाश से ही एक भूखरहित, सुपोषित, स्वस्थ तथा प्रगतिशील समाज की स्थापना हो सकती है। लेकिन यह नव उदारवादी तथाकथित नई आर्थिक नीतियों के तहत संभव है क्या?
1 टिप्पणी:
लेकिन उन्हें शर्म नहीं आती। वे अनाज सड़ने देते हैं।
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