16 सितंबर 2010

अकेले चने की बात ही और है!

मिल के चलो!
संगठन को लेकर इन दिनों तमाम जगहों पर तमाम बहसें दिख जाती हैं। सवाल तमाम हैं पर मक़सद अक्सर एक ही होता है- संगठन के ऊपर व्यक्तिगत आज़ादी को तरजीह। लेकिन क्या संगठन वाकई व्यक्तिगत आज़ादियों का हनन है? क्या प्रतिबद्धता का अर्थ संगठन की हर बात को बस सर झुकाकर मनते चले जाना है? क्या संगठन और व्यक्तियों के बीच संबंध केवल आज्ञा देने वालों और आज्ञा लेने वालों का है?

पिछले 17-18 सालों में विभिन्न संगठनों से अपने जुड़ाव तथा दूसरे अनुभवों से मेरी जो समझ बनी है, वह यह कि एक तरफ़ तो संगठन किसी भी बड़े तथा आमूलचूल परिवर्तन के लिये अत्यंत आवश्यक तथा अपरिहार्य है। कोई अकेला व्यक्ति कभी भी कोई बड़ा परिवर्तन कर ही नहीं सकता। दूसरा यह कि जो लोग आंखे मूंदकर बिना कोई प्रतिरोध दर्ज़ कराये चुपचाप संगठनों की लाईन फालो करते चले जाते हैं, वे ख़ुद को तो नष्ट करते ही हैं साथ में उस उद्देश्य को भी नुक्सान पहुंचाते हैं जिसके लिये उन्होंने संगठन को चुना होता है। 

किन्हीं आपातकालीन परिस्थितियों में तो ऐसा हो सकता है कि संगठन के नेतृत्वकारी निकाय के हर आदेश को तुरत पालित किया जाय, लेकिन सामान्य परिस्थितियों में यह कायर आत्मसमर्पण है। 

अकसर होता यह है कि संगठनों के व्यापक उद्देश्यों के ऊपर व्यक्तिगत स्वार्थ हावी होते चले जाते हैं, ख़ासतौर पर तब जब वे किसी संघर्ष से न जुड़े हों। जैसे अगर लेखक संगठनों का उदाहरण लें तो पिछले लंबे समय से किसी तीक्ष्ण संघर्ष से दूर रहने के कारण ये संगठन कम और लेखकों के काकस ज़्यादा बन गये हैं, जहां इसका उपयोग बस एकदूसरे को प्रमोट करने तथा लाभान्वित करने के लिये किया जाता है। यह किसी जनपक्षधर संगठन के 'स्वार्थों के संगठित गिरोह' में बदलने की शुरुआत होती है और फिर जहां कोई इन दुरभिसंधियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है, उसे अपमानित किया जाता है…बाहर निकाल दिया जाता है।

लेकिन इसका क्या मतलब है? यह कमी संगठन की तो नहीं? यह तो संघर्ष से भागने वाले उन स्वार्थी लोगों की कमी होती है जो अपने घोषित लक्ष्यों की आड़ में अघोषित स्वार्थ को तरजीह देते हैं। लेकिन इसका फायदा 'विद्वान' लोग संगठन की अवधारणा को ही ख़ारिज़ करके देते हैं। क्योंकि संगठन के भीतर एक व्यापक उद्देश्य से जुड़ने के लिये आपको अक्सर अपने छुद्र निजी स्वार्थों को त्यागना पड़ता है, अपने अराजक स्वभाव को त्यागना पड़ता है। इसीलिये 'स्वायत्तत्ता', 'व्यक्तिगत अस्मिता' जैसी बातों की आड़ में व्यक्तिवाद को बढ़ावा दिया जाता है। जबकि सही राह तो यह होगी न कि अपनी पूरी ताक़त के साथ संगठन के भीतर की उन प्रवृतियों से लड़ा जाये, अगर कोई राह न दिखे तो बाहर निकला जाय और नये संगठन बनाया जाये। लेकिन यह रास्ता मुश्किल है…

दर असल, सवाल यह है कि आपके उद्देश्य क्या हैं? अगर कोई व्यापक परिवर्तन तो वह अकेले कभी नहीं होगा…और अगर यह सिर्फ़ वर्तमान के इतिहास में दर्ज़ हो जाना है तो …


1 टिप्पणी:

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

बिल्कुल सही.... वैसे भी संगठन ही काम को उम्दा ढंग से कर पाते तो
बदलाव भी परिलक्षित होते....... शुरू तो किसी उद्देश्य को लेकर होते हैं पर कुछ ही दिनों
भटकाव की स्थिति आ जाती है..... प्रेरणादायी विषय पर बात की है आपने