कोई दो साल हुए जब मरा पहला परिचय ब्लागजगत से हुआ था..मुझे यह एक नयी दुनिया लगी थी और बड़े उत्साह से कम्प्यूटर से पूरी तरह अनजान होने के बावज़ूद मैने इस जगत में प्रवेश किया था। ब्लाग बनाया, लिखा और टिप्पणियां भी ख़ूब कीं। सहमतियां बनीं, तमाम दोस्त बने और साथ ही असहमतियां और दोस्तों से कहीं ज़्यादा दुश्मन भी। अक्सर यह कहकर मन को बहलाये रखा कि 'कुछ लोग शहर में हमसे भी ख़फ़ा हैं- अपनी भी हरेक से तबियत नहीं मिलती।' लेकिन आज जब मैंने इन दो सालों में 'क्या खोया-क्या पाया' वाली नज़र से पुनरावलोकन करने की कोशिश की तो पिछले दो हफ़्तों में कुछ निष्कर्षों तक पहुंचा। इन्हें आपसे शेयर करना ज़रूरी समझा सो कर रहा हूं।
१) यह एक माध्यम के तौर पर दुतरफ़ा संवादों की भरपूर संभावना वाला माध्यम है।
२) लेकिन अभी इस पर अराजकता इस क़दर हावी है कि असहमतियां दुश्मनी का सबब बन जाती हैं, भाषा का संस्कार और असहमतियों का सम्मान दूर की कौड़ी है और ज़्यादातर लोग इतने आत्ममोहग्रस्त हैं कि उन्हें 'बहुत अच्छा', 'क्या बात है', 'सही कहा' से इतर कुछ भी व्यक्तिगत आलोचना लगता है।
३) समाज में जो लोकतंत्र का अभाव है वह यहां पर कुछ ज़्यादा ही भयावह तरीके से दिखता है।
४) यह कुल मिलाकर, जैसा कि भाई बोधिसत्व कहते हैं - बहता हुआ पानी है! पुराना सबकुछ बस रिकार्ड्स में रहता है।
५) यहां विस्तृत विवेचना संभव नहीं। होता यही है अक्सर कि हम टिप्पणियों पर टिप्पणी कर रहे होते हैं।
६) प्रिंट पर जिस ' म्यूचुएल एडमायरेशन कमेटी' बनते जाने का आरोप है यहां वह प्रिंट से हज़ार गुना ज़्यादा है।
७) सस्ती लोकप्रियता, भाई-भतीजावाद, ग्रुपिज़्म जैसी चीज़ें सिद्धांत में चाहे जितना गरियाई गयी हों असल में यहां उपस्थित हैं और पूरी वीभत्सता के साथ उपस्थित हैं।
८) इस माध्यम का प्रयोग सबसे अच्छी तरह से वही लोग कर रहे हैं जो पाठकों के लिये हिन्दी या विश्व साहित्य तथा अन्य विधाओं से श्रेष्ठ रचनायें उपलब्ध करा रहे हैं।
९) यहां अगर आप संवेदनशील और अपने कहे के प्रति सजग हैं तो समय बहुत जाया होता है और परिणाम अक्सर दुश्मनों की संख्या में बढ़ोत्तरी के रूप में निकलता है।
शायद यही वे निष्कर्ष हैं जिन्होंने मुझे निराश किया है, यहां-वहां टिप्पणियां न देने का निर्णय लेने पर बाध्य किया है और अपना ज़्यादा ध्यान प्रिंट पर केन्द्रित करने के लिये प्रेरित किया है। शायद विद्वतजन यह सब पहले ही समझ चुके थे। आप बताईये मैने क्या ग़लत फ़ैसला लिया है?
25 टिप्पणियां:
हम तो नये हैं यहाँ.पर लगता है चैन कहीं नहीं है.साहित्य ही घाटे का सौदा है.
नही, आपने सही फैसला किया है आपने ..पर असहमति जताते रहें यहाँ भी...और आलोचना/असहमति का मेरे जैसे कुछ लोग हमेशा ही इन्तिज़ार करते हैं.
अपना अपना नजरिया है और अपना अपना विवेक. इसमें पूछना कैसा, भाई.
और फिर हम जैसे क्या कहें जिन्हें प्रिन्ट उपलब्ध ही नहीं या इतना ही उपलब्ध है कि न के बराबर और यह माध्यम न जाने कितना कुछ दे जा रहा है.
विश्व स्तरीय और पुराना साबित साहित्य उपलब्ध कराना तो बहुत अच्छा है किन्तु उसमें कुछ नया जोड़ने की संभावना भी तो हर वक्त बनती है और उस जोड़ को माध्यम से क्या फर्क पड़ता है. वो कुछ भी हो सकता है.
प्रिंट के अपने झमेले हैं और थे तो यहाँ कुछ दीगर. उनके साथ जीने की आदत डालनी होती है और अपना मार्ग स्वयं निर्धारित करना होता है.
यह मात्र मेरा व्यक्तिगत विचार है.
अशोक , तुम्हारी बातों को मैने बहुत ध्यान से पढ़ा है । दो वर्ष कम समय नहीं होता । ऐसे ही निष्कर्ष अन्य लोगों ने भी निकाले होंगे लेकिन बहुत से लोग प्रकट नहीं करते । प्रिंट मीडिया के कई लोग जो ब्लॉग जगत से जुड़े नहीं हैं वे भी लगभग इन निष्कर्षों की बात करते हैं । तुमने यह खुद अनुभव किया है इसलिये इसका महत्व अधिक है ।
यहाँ असहमति की परम्परा तो है लेकिन वह इतने मुखर रूप में नहीं है शायद इसी वज़ह से कुछ लोगों ने अपनी धारणायें बना ली हैं । जो भी हो तुम्हारा निर्णय अनुचित नहीं है लेकिन यहाँ तुम्हारे जैसे लोगों की ज़रूरत है जो एक पुल का काम भी कर रहे हैं । जिस तरह हम लोगों ने कविता में मंच को छोड़ दिया और उसका जैसा हश्र हुआ वैसा ही कुछ यहाँ न हो इसलिये अपनी उपस्थिति दर्ज करते रहना आवश्यक है । आगे तुम्हारी मर्ज़ी !!!
हो सकता है आप का निर्णय सही हो। लेकिन यह एक माध्यम है। आप की बात को लोगों तक पहुँचाता है। सब से बड़ी बात यह कि यह उसे सहेज कर रखता है। कभी भी उस का उपयोग किया जा सकता है। हिन्दी नेट को समृद्ध करने का काम हमें करना चाहिए। बहुत कुछ है जिसे हिन्दी पाठकों के लिये यहाँ उपलब्ध कराना है। सभी लोग इस तरह सोचने लगे तो केवल और केवल कचरा यहाँ रह जाएगा। तब कहीं हम बैठे सोच रहे होंगे कि एक समय था जब हम यहाँ कुछ मनचाहा पैदा कर सकते थे।
nice
I think print and blog are two different things and have different purpose, they do not replace each other.
In print you write and rewrite and follow restrictions in some respect. In blog you have no restrictions, and also not so much responsibility.
Blog is very young as compared to age old print media, requires less resources and no training , no purpose. It is also full of possibilities, to incorporate, articles, sounds, and visuals, which is not possible in print.
आपने सही निष्कर्ष निकाले हैं...
और ये हमारी जिम्मेदारियों को और बढाते हैं शायद...
ऐसा लगता है...
हम ज्यादा उम्मीद पाल लेते हैं...
शुरूआत में कुछ ज्यादा ही अतिउत्साही हो उठते हैं..
सीधा संवाद..कहीं ना कही यह भ्रम पैदा करने लगता है...कि हम सीधा हस्तक्षेप कर पा रहे हैं...दूसरों की चेतनाओं में...
इस पर पहुंच रख पाने वाले सामान्य लोगों की प्राथमिकताएं और वास्तविक उद्देश्यता काफ़ी अलग है...
शरद कोकास और द्विवेदी जी की बात में दम है...
यह साधन है...साध्य नहीं...
व्यक्तिगत तौर पर यह आपके लिए बहुत अच्छा होगा। आप तात्कालिक मुद्दों के बरक्स स्थायी प्रभाव वाली रचनाएं कर पाएंगे।
अशोक कहीं तुम भी तो आत्म मु़ग्धता के शिकार नहीं हो रहे हो ? कैसी दुश्मनी यार ? तुमने अपनी बात कही, किसी को पसंद नहीं आई या उसने पलट के तुम्हें कुछ कह दिया तो इसे दुश्मनी तो नहीं कहा जा सकता न! यदि तुम भी ऎसा ही सोच रहे हो तो मेरी सलाह है, हमें खुद को भी चैक करना चाहिए। सोचना चाहिए कि कहीं हमारी बात ही तो अपने पूरे तर्क के साथ आने से तो नहीं चूक गई। यदि फ़िर भी मामला ज्यों का त्यों ही रहता है तो फ़िर फ़िर वही करते रहने के बाद ही शायद अपनी बात को अपने से असहमत साथी के साथ लगातार संवाद के बाद एक सहमति तक पहुंचने की संभावना को तलाशा जा सकता है। यह मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि जिम्मेदारी उस पर ज्यादा है जो सचेत है, तुम्हें भी मैं एक जिम्मेदार व्यक्ति मानता हूं। डटे रहो। बेशक कम कम ही सही यार।
राजा ने नगर के एक चौराहे पर बड़ा सा पात्र रखवा दिया और सभी नागरिकों से उसमें एक-एक लोटा दूध यज्ञ के लिए अपने-अपने घर से लाकर डालने को कहा। किसी ने एक लोटा पानी ही डाल दिया यह सोचकर कि इतने लोगों के दूध के बीच में इसका पता नहीं चलेगा। जब पात्र लबालब भर गया तो राजा ने देखा कि इसमें पानी ही पानी है। दो चार लोगों का असली दूध पानी में घुल चुका था।
अपना ब्लॉगजगत ऐसे हंस की तलश में है जिसके पास ‘नीर-क्षीर विवेक’ हो। आप आगे क्यों नहीं आते?
विजय गौड़ की बात से सहमत!
आप पिछले दो सालों से ब्लोगजगत से जुड़े हैं तो अवश्य ही इसका कुछ ना कुछ भला भी चाहते होंगे और भला तभी होगा जब आप यहाँ बने रहकर यहाँ की खामियों को दूर करें तथा हिन्दी ब्लोगिंग को सार्थक बनायें।
आपका फैसला एकदम गलत फैसला है और मुझे लगता है कि आपने भी ब्लॉगिंग विधा (मान लें कि हिन्दी ब्लॉगिंग?) को सतही तौर पर समझा और देखा है.
ब्लॉग पर आप दूसरों को देखे बगैर कि वो क्या कीचड़ फैला रहे हैं, तो यह बेहद असरकारी और बढ़िया माध्यम लगेगा - हमेशा. और इन्हें अनदेखा करते हुए, अगर आप अपने रचनाकर्म में लगे रहेंगे बंधु, तो यह प्रिंट मीडिया से हजार गुना ज्यादा पहुँच, त्वरित असर और दोतरफा संवाद का माध्यम आपके लिए सदैव बना रहेगा.
(हिन्दी में )सार्थक ब्लॉगिंग के उदाहरण कई हैं, बस, आग्रह है कि ब्लॉग जगत् के तथाकथित हॉट और हैप्पनिंग से अपनी निगाह उठा लें!
पाण्डेय जी, आपने "दुश्मनी" शब्द का गलत जगह पर गलत अर्थ में उपयोग कर लिया लगता है…। वैचारिक मतभेद और दुश्मनी में बहुत अन्तर है यह तो आप जानते ही हैं। आपकी अपनी विचारधारा है और मेरी अपनी, दोनों अपने-अपने तरीके से उसका विस्तार करने में लगे हैं, यही तो ब्लॉग का माध्यम है…। ब्लॉग के माध्यम की वजह से ही तो ऐसे कई लेखक और उनके कई लेख प्रसिद्ध हो रहे हैं और विभिन्न लोग उन्हें पढ़ रहे हैं जो कि किसी अखबार या न्यूज़ चैनल पर नहीं आते। रही बात टिप्पणियों की, हालांकि यह आपका व्यक्तिगत निर्णय है कि आप कहीं टिप्पणी नहीं करेंगे, लेकिन मुझे लगता है कि आपको इस पर पुनर्विचार करना चाहिये। ये हो सकता है कि आप किसी लेखक से मतभेद रखते हों और उसके लेख पर विरोधी टिप्पणी करने पर उस लेखक के समर्थक आपके विरुद्ध कोई आपत्तिजनक टिप्पणी कर दें, लेकिन इसमें उस लेखक का क्या दोष है, कि आप सभी ब्लॉग्स पर टिप्पणी करने का ही बहिष्कार कर डालें?
अशोक जी,आपने बिलकुल सही आकलन किया है....मैंने भी जब ब्लॉग जगत में कदम रखा था....लगा था...लिखने पढने वाले,परिपक्व सोच वालों की दुनिया में आ गयी हूँ,सबलोग सबका लिखा पढेंगे...मार्गदर्शन करेंगे....उत्साह बढ़ाएंगे....ब्लॉग जगत की यह आभासी दुनिया कुछ अलग ही होगी....पर बहुत जल्दी ही मोहभंग हो गया और चीज़ें स्पष्ट नज़र आने लगीं,जिन सबका उल्लेख आपने किया है.
फिर भी,इस से बिलकुल ही किनारा कर लेना,बुद्धिमानी नहीं है...क्यूंकि इसकी पहुँच बहुत ज्यादा है...और उनलोगों तक है,जिन तक प्रिंट मीडिया नहीं पहुँच पाता,विदेशों में दक्षिण के शहरों में बसे लोग.उन्हें अच्छे साहित्य से वंचित करना,स्वागतयोग्य नहीं है.हाँ ,हर जगह टिप्पणी ना करने का निर्णय बिलकुल सही है.बहुत समय ज़ाया होता है और क्रियेटिविटी पर भी असर पड़ता है.
आपके जो निष्कर्ष हैं, संभव है कि वे आपके अब तक के अनुभव का सटीक निचोड़ हों, और उसमें काफी हद तक सच्चाई भी है, लेकिन सार्थक और स्थायी रूप से ब्लॉगिंग करनी हो तो रवि रतलामी जी की टिप्पणी और उससे भी बढ़कर एक ब्लॉगर के रूप में उनका उदाहरण बहुतों के लिए प्रेरक बन सकता है।
आप बुद्धिमान हैं परिपक्व हैं अपना फैसला खुद लेना सीखिए -प्रेक्षण तो ठीक ठाक हैं !
देखिये सर, आप ब्लॉग को इतना सिरिअसली मत लीजिये... यहाँ हर तरह के लोग हैं, अतिमहत्वक्षांची भी और सिरिअस रीडर भी... कोफ़्त होना लाज़मी भी है, उधर निशांत (ताहम) भी इसी बात को लेकर बैठा है... यह होना स्वाभाविक है... आप जैसा ऊँचे दर्जे का व्यक्ति उम्मीद ज्यादा रखेगा ही या फिर जो भी मेहनात से बेहतर लिखेगा वो तो बेहतर खोजेगा और वही पढ़ेगा और खुल कर वैसी ही प्रतिक्रिया करेगा... पर सभी ऐसे नहीं होते. सामने तारीफ तो खुल कर करते हैं पर उलटी प्रतिक्रिया पर बात लेकर बैठ जाते हैं. ब्लॉग अभी बच्चा है, इंग्लिश ब्लॉग की हालत तो और ख़राब है (मैं अमिताभ बच्चन की बात नहीं कर रहा ) वहां अच्छे से अच्छे लेख पर २-३ कमेन्ट आते हैं. रवि रतलामी जी सही कह रहे हैं.
आप अच्छे ब्लॉगर नहीं हो सकते. साहित्यिक आदमी दुनियादारी में सफल हो जरुरी नहीं, उनके कुछ अपने तरीके होते हैं जो आपका दिल करने से मन करेगा.
आप बेधड़क अपने कर्म में लगें, मैं तो यही कह सकता हूँ.
होता है जब आप ये सोचकर इस दुनिया में आते है के कंप्यूटर के पीछे जहीन दिमाग मिलेगे ...वाजिब बहसे होगी ओर दिमाग के बल्ब ओर रोशन होगे .आप" हाईलाइटर 'लिए समाज के उस हिस्से को भी यहाँ पाते हैनिराश होते है ...... पर दरअसल आपका ये सोचना गलत है के ये दुनिया बाहर की दुनिया से कुछ इतर होगी ..गुजरते वक़्त के साथ आप सलेक्टिव हो जाते है .कम से कम इतनी सहूलियत तो है ...रिमोट की तरह ...
तो क्या ब्लॉग वाकई इतना छिछला है ? एक सवाल ओर है के आप क्या दुनिया बदलने आये है ?मन्नू भंडारी ने कहा था ...."प्रशंसा से आप किसी को भी जीत सकते है .आलोचना से किसी को भी हार 'उनका सन्दर्भ साहित्य जगत से था पर बात यहाँ भी लागू होती है ....सोचिये रात के दो बजे बंगाल के एक हिस्से में बैठे एक शख्स के दिमाग में एक ख्याल जलता है ओर कुछ देर में अमेरिका में बैठा एक शख्स उससे सहमति -असहमति जताता है ...बिना कमरे से बाहर निकले .....संवांद की सीधी प्रक्रिया .जो लेखक को मुहैया नहीं है ....
मै अपने अमेरिका में बैठे दोस्त को राग दरबारी का लिंक भेजता हूँ ....वो उसे पढता है ......यानि चीजों का सही इस्तेमाल ....आखिरकार" सभी छपी सभी चीज़े भी तो आपको प्रभावित नहीं करती ....
एक ओर बात ..कल मैंने किसी बड़े लेखक की एक साधारण सी कविता पर टिप्पणिया देखि...कभी कभी हम किसी विचारधारा को सपोर्ट करते- करते हायपर रियल्टी के मुहाने परखड़ी साधारण चीजों को असाधारण बना देते है .क्या एक असाधारण लेखक कभी साधारण नहीं लिख सकता ?
मेरा मानना है हमें लेख को पढना चाहिए लेखक को नहीं........असहमतिया भी संवांद का एक जरूरी हिस्सा है ये आत्म-मुग्धता से बचाये रखती है.ओर किसी सिस्टम में बने रहकर ही आप उसे बेहतर कर सकते है ......जाहिर है आप जैसे लोग हिंदी ब्लॉग की बेहतरी की एक बड़ा हिस्सा है ....परोक्ष रूप में ही सही .....सो जिम्मेवारी तो निभानी होगी....फिर प्रिंट मीडिया से मोह हंग हुआ तो ?
यह एक माध्यम के तौर पर दुतरफ़ा संवादों की भरपूर संभावना वाला माध्यम है।
bas isi sambhawna ka dohan keejiye...aur shayad aapne kiya bhi hain.
I would say, you will find these issue wherever you will go. I also sensed that but that should not stop you putting your views irrespectie of grouping etc ...keep on doing your job, keep fighiting ....let's be a change so that other aspirants dont feel wht u and me r feeling ....
गुरु
नया मंत्र है....आज ही सूझा है
देखो
भागो मत, दुनिया को बदलो।
दुनिया न बदले तो खुद बदलो।।
कुछ तो लिखो.....जैसे आज का यह विचार भरा लेख।
मैं स्वयं भी ब्लाग के बारे इसी प्रकार के आत्ममंथन के दौर से गुजर रहा था और लगभग यही निष्कर्ष निकाल रहा था। आपको पढ़कर एक राहत का अनुभव किया कि कमोबेस हम सब शिद्दत से इस विषय में एक ही दिशा में जा रहे हैं कि तू मुझे टिप्पणी करेगा तो मैं तुझे टिप्पणी दूंगा । अच्छाा लगे तो टिप्पणी करना अपने को तिरस्कृत करने जैसा आत्ममोह हो गया है।
और भूसें में हीरे की बारीक सी किर्ची ढूंढने जैसा है अच्छे लिखें जा रहे ब्लाग का पता करना।
अपने अन्य साथियों की बात पढ़ने पर रवि भाई की यह बात अच्छी लगी कि हम ज्यादातर मामलों में अति आषावादी और आत्मापेक्षी होते हैं। आत्मदंभ को बिल्कुल सिर पर धरकर चलते हुए। रंगनाथ , सिद्धार्थषंकर आदि लोगों ने बड़े संतुलित और निरन्तर आशावादी बने रहने के परवाइल्ले का मंत्र भी दिया है जो ज्यादा कारगर और सार्थक है।
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