कोई दो साल पहले महाराष्ट्र में कहीं एक पुस्तक मेले से एक महिला कार्यकर्ता को गिरफ्तार किया गया था। उन पर आरोप था कि वह नक्सलवादी साहित्य बेच रही थीं। जिन किताबों के चलते उन पर यह आरोप लगाया गया था उनमें मार्क्स-एंगल्स-लेनिन की किताबों के साथ भगत सिंह के लेखों का संकलन भी था। बताते हैं कि पुलिस अधिकारी ने उनसे कहा कि - ग़ुलामी के वक़्त भगत सिंह ठीक था पर अब उसकी क्या ज़रुरत?
इसके बाद तमाम पत्रकारों, कार्यकर्ताओं आदि की गिरफ़्तारी के बाद यह जुमला सुनने को मिला। हालांकि कभी साफ़ नहीं किया गया कि यह नक्सलवादी साहित्य है क्या बला? जैसे इस बार सीमा आज़ाद के संदर्भ में चे की किताबों का नाम आया तो मुझे पुस्तक मेले का एक वाकया याद आया। संवाद के स्टाल पर एक बिल्कुल युवा लड़की इस ज़िद पर अड़ गयी कि उसे स्टाल पर लगे बड़े से फ्लैक्स बैनर का वह हिस्सा काट कर दे दिया जाय जिस पर चे की फोटो (दरअसल उन पर लिखी एक किताब की) लगी है। आलोक ने टालने के लिये किताब के बारे में, या उनकी एक दूसरी किताब का अनुवादक होने के कारण मुझसे मिलने के लिये कहा। मैने जब उससे चे में दिलचस्पी की वज़ह पूछी तो बोली कि '' बस वह मुझे बहुत एक्साईटिंग लगता है!"
ऐसे ही एक मित्र ने जब माओ की कवितायें देखीं तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि माओ कवि भी हो सकते हैं। पढ़ने के बाद बोले 'यार नेता कैसा भी हो कवि शानदार है।' ज़रा सोचिये माओ के लिखे की प्रशंसा करने वाले वे सज्जन नक्सलवादी साहित्य के पाठक होने के आरोप में अन्दर नहीं किये जा सकते क्या? वैसे मैने दर्शन के विद्यार्थियों को 'ज्ञान के बारे में' या 'अंतर्विरोध के बारे में' जैसे लेख पढ़ते देखा है…बेचारे!
क्या एक जिज्ञासु पाठक होना पुलिसवालों की हत्या, रेल की पटरियां उखाड़ना और आगजनी जितना बड़ा अपराध है?
मेरी समझ में यह नहीं आता है कि जो किताबें मेले के स्टालों में ख़ुलेआम बिकती हैं या बाज़ार में सर्वसुलभ हैं वे किसी के हाथ में पहुंचकर नक्सलवादी साहित्य कैसे हो जाती है?
पढ़ना गुनाह कबसे हो गया?
14 टिप्पणियां:
उन्हें करना हो जब
सर कलम आप का
तो कुछ भी
हो सकता है
गुनाह!
अशोक भाई एइसा ही कुछ तो डॉक्टर विनायक के साथ हुआ और उनके घर से बरामद साहित्य को नक्सली साहित्य की संज्ञा दी गई थी | और यदि एइसा ही है तो हम सब नक्सली हैं, जो साहित्य पढ़ते हैं | समझ नहीं आता कि दिनेश जी कि टिप्पणी सही हो जायें और ये लोग किसी भी साहित्य प्रेमी को नक्सली घोषित कर दें !!! यही तो है गोरी चमड़ी की सत्ता का भूरी चमड़ी की सत्ता मैं हस्तान्त्तरण | हमें इसका पुरजोर विरोध करना चाहिए| यदि इस देश मैं भगतसिंह ही नक्सली घोषित करार दिए जायंगे तो बचेगा क्या ?
सही सवाल उठाया है आपने !!
लानत है ऐसी व्यवस्था पर.
सही बात तो द्विवेदी जी ने कह दी...शायद यही सच है...
जो किताबें मेले और स्टाल्स पर खुले आम बिकती हैं वे किताबें किसी पाठक के घर आकर नक्सलवादी साहित्य कैसे हो जाती है ? जब तक आपके इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता ..मुझे कुछ नहीं कहना है ।
पैमाना यही है तो फिर हम तो गए !
...क्या मार्क्स-एंगेल-लेनिन-माओ-चे ग्वेरा और भगत सिंह की रचनाएँ नक्सली साहित्य हैं ?...
यही सवाल मैंने फेसबुक पर भी रखा है ?
आपके पास कुछ भी नहीं है तो भी आप नक्सलवादी कहें जा सकते हैं. और अगर आप किसी अन्याय के खिलाफ मुंह खोलते हैं तो पक्का मन जाएगा कि आप नक्सलवादी हैं. पर अगर आप देश को धन्ना सेठों और विदेशियों को बेचने के समर्थक हैं और आप देश को धर्म के नाम पर तोड़ने केलिए आमादा हैं तो आप `देशभक्त` हैं.
वो डरते हैं
वो डरते हैं कि एक दिन डरे हुए मजलूम उनसे डरना छोड़ देंगे ... और इस डर से उभरने के तरीके ये भी हैं कि उम्मीद शब्द को प्रतिबंधित कर दिया जाए. फिर कविता को बंदूख कि गोली बताया जा सकता है और गोली को राष्ट्रीय surakchha के लिए की गई आवशक कार्यवाही. मरने वाले भी कई हैं और मरने वाले भी कई .... पर सवाल अपनी जगह कायम है की उम्मीद की शक्ल आखिर कैसी हो?
जो किताबें मेले के स्टालों में ख़ुलेआम बिकती हैं या बाज़ार में सर्वसुलभ हैं वे किसी के हाथ में पहुंचकर नक्सलवादी साहित्य कैसे हो जाती है?
पढ़ना गुनाह कबसे हो गया?
साहित्य रखना अपराध है तो ए के ४७, तमन्चे, गोली रखना क्या है .........
NICE
अशोक जी का सवाल बहुत ही महत्वपूर्ण है, खास तौर से इस माहौल में जब नक्सली आन्दोलन के बहाने प्रतिक्रियावाद भयानक तरीके से हावी होने की तैयारी में है। यह देख कर अच्छा लग रहा है कि ब्लाॅग जगत में भी कुछ लोग है जो विचार के महत्व को समझतें है। लेकिन कल जब दृष्टिकोण की एक पोस्ट पर प्रतिक्रियादियों ने जबरदस्त हमला किया आप लोगों की अनुपस्थिति बहुत खली। दृष्टिकोण की पोस्ट का लिंक हैं ............. कृपया देखें।
http://drishtikon2009.blogspot.com/2010/04/blog-post_14.html
दृष्टिकोण
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