नामवर सिंह जी हिन्दी साहित्य के शीर्ष पर हैं ... प्रलेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं ... महालोचक हैं ... एक बार जिसका नाम ले लें वह कई रात सो नही पाता है… वगैरह-वगैरह
आप किसी भी 'बडे' साहित्यकार से पूछिये और वह शायद यही कहेगा। जिनपे करम नहीं हुआ वे रूठे होंगे पर इस तथ्य से इंकार नहीं करेंगे। जिनके साथ उन्होंने फोटो खींचा ली होगी वे तो ड्राईंगरूम में सजी उस तस्वीर को देखकर ही धन्य-धन्य हो जाते हैं - बाकी मौके की तलाश में रहते हैं। यह सब तब जब कि दशकों से उन्होंने कुछ लिखा नहीं है। फिर भी उनके प्रवचनों को संकलित कर किताब बनाकर छापने की होड लगी रहती है। इन सबके साथ वह हिंदी के वामपंथी लेखकों के प्रतिनिधि तो माने ही जाते हैं।
लेकिन यह भी एक विडम्बना है कि उदय प्रकाश पर पूरे ज़ोर शोर से अपना विरोध दर्ज़ कराने वाला साहित्य समाज नामवर जी पर चुप्पी साध जाता है। एक पुलिस अफ़सर को मुक्तिबोध की पंक्ति में बिठाये तो ख़ैर बहुत वक़्त बीत गया पर हाल में ही वह ज ब भाजपाई जसवंत सिंह की किताब का विमोचन कराने पहुंच गये तो भी सब चुप रहे, फिर अशोक चक्रधर की अध्यक्षता वाली हिंदी एकेडेमी के कार्यक्रम में शरीक़ होने वाले इकलौते बडे और वाम साहित्यकार होने का गौरव प्राप्त किया तो भी वही चुप्पी।
तो साहब यह यहां न रुकना था ना रुका। दो दिन पहले वह पहुंच गये इन्दौर की मध्य भारतीय साहित्य सभा के कार्यक्रम में जो संघ के साहित्यकारों का जमावडा है। इसकी कर्ताधर्ता हैं सुमित्रा महाजन जो ''समाजवादी'' प्रभाष जोशी और ''वामपंथी'' नामवर जी के बीच अपने संघी साथी चतुर्वेदी जी के साथ शान से विराजमान थीं। इंदौर प्रलेस अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष के स्वागत में उपस्थित था या नहीं मै नहीं जानता पर ताई के चेले-चपाटे तो थे ही।
सांप्रदायिकता के सौदागरों यह सिर्फ़ आत्मसमर्पण है… पर आप तो इसे डिफ़ेन्ड करने के तर्क ढूंढ ही लोगे। मेरा सवाल हिन्दी की लेखक बिरादरी से है कि ये चुप्पी कब तक? आखिर कब तक?
19 टिप्पणियां:
निश्चय ही यह चिंताजनक ही नहीं, आपत्तियोग्य भी है। विचार और जीवन के बीच की यह फांक खाई में तब्दील होती जा रही है और हम देख रहे हैं कि इस खाई में हमारी प्रतिबद्धताएं गिरती चली जा रही हैं।
यह चुप्पी ही उन गिरोहगर्द स्थितियों को जन्म देती है अशोक जी।
"जनतंत्र के लिए सबसे ज्यादा हल्लामचाऊ कौम- साहित्यकारों को ज्यादा गैरजनंतांत्रिक मानने" के मेरे आग्रह भी कहीं ऎसी स्थितियों के बीच भी पनपे हैं।
ashok bhai, ab hindi main yahi sab bacha hai. sirf yahi nahi kal indore main aadarniya NAMWARJI pustak mele ke aayojan main BJP sansad SUMITRA MAHAJAN ke sath shirkat kar rahe the.Aur sirf NAMWARJI hi kyon dusre bhi tamam log hai jo ise tarah ke kamon main lage hua hian.
ashok bhai, ab hindi main yahi sab bacha hai. sirf yahi nahi kal indore main aadarniya NAMWARJI pustak mele ke aayojan main BJP sansad SUMITRA MAHAJAN ke sath shirkat kar rahe the.Aur sirf NAMWARJI hi kyon dusre bhi tamam log hai jo ise tarah ke kamon main lage hua hian.
bhai,
pragatishilata ki seema hai, paragatisheelata ki nahin. apaka sangathan sir se panw tak sad gaya hai. chaho to aaj manalo chao to jab daladal me fanso tb man lena
satyanarayan patel
Bizooka film club
indore
प्रभाष जोशी प्रकरण पर ‘चुप्पी’ के एवज में ‘रीछ का बच्चा’ मिला है क्या ?:-)
मुझे बुजदिलों के प्रतिनिधि के रूप में किसी बेनामी टिप्पणी का इंतज़ार था भी।
ना तो मै उस प्रकरण पर चुप था ( देखिये एक जिद्दी धुन पर मेरी प्रतिक्रिया) ना मेरा ' रीछ का बच्चा' है। वह अशोक पाण्डे कबाडखाना ब्लाग के स्वामी हैं और नैनीताल के हैं। मै ग्वालियर मे रहता हूं नाम में भी फ़र्क है।
आप की प्रजाति सारे बडों की चरण वन्दना में शामिल रहती है और उस पर हमला होने पर भों भों करती है और बदले में उच्छिष्ट खाकर डकारते हैं। आप जैसे श्वान मनुष्यों ने ही साहित्य को ऐसा गंदा स्थान बना दिया है। उसके प्रतिनिधि के रूप में मैने आपकी भों भों लगा दी पर अब किसी बेनामी टिप्पणी को नहीं लगाऊंगा। कम से कम नाम और मेल आई डी होने पर ही प्रतिक्रिया प्रकाशित होगी।
namvar singh ko saf kah dena chahiye ki unki vichardhara kya hai. unki koi pratibaddhata hai ya nhi ???
prales,jales aur jasam tino sangathano ko apne padadhikariyo ke naitik vyavhar ki jimmedari leni chahiye....
inke vyavhar se samucha talab ganda hota hai...
श्रमजीवी जनता से दूर अपनी दुनिया बना लेने पर यही होता है। विचार और जीवन में अंतर। वे उस पुराने पीतल के घड़े की तरह हैं जिस का पेंदा घिस गया है और जो रिसने लगा है। उसे परांडी पर नहीं रखा जा सकता। वह केवल लोगों को दिखाने के लिए है कि हमारे पुरखों के जमाने में ऐसे शानदार घड़े हुआ करते थे।
आपने सही वक्त पर सही सवाल उठाया है। युवा लोंगों को ऐसे ही खुलकर सामने आना चाहिए। मैं भी बार-बार यही प्रश्न उठा रहा हूं कि कुछ लोगों से माफी मंगवाई जाती है और कुछ लोग छुट्टे घुमते रहते हैं ! ऐसा क्यों है और कब तक चलेगा ? क्या ‘विभिननता में एकता’, ‘धर्मनिरपेक्षता’, ‘उदारता’, ‘सहिष्णुता’, ‘समानता’ सबके सब मंच पर खेले जाने वाले ड्रामों के नाम थे ?
साथी,
नामवर जी के प्रसंग से क्यों परेषान हैं हम लोग । सत्तासुन्दरी के साथ विचरण करना एक समर्थ पुरूष की प्रव्रत्ति हो सकती है।
चतुरानन
अशोक , हम यह भी जानते हैं कि यह लोग ( बहुवचन मे इसलिये कह रहा हूँ कि इनकी प्रजाति के और भी लोग् हैं ) अपने अध्यात्म की उस परिणति तक पहुंच गये हैं जहाँ ये अपने आप को संत मानने लगे हैं और तदनुसार परिवेश की बदली हुई परिभाषा मे सिर्फ सीकरी से मतलब रखने लगे हैं । जब तक इनके पाँव पखारने वाले लोग हैं तब तक इन्हे किसी बात का भय नहीं । यह सत्ता प्रतिष्ठान है लेकिन जल्दी ही यह ग्ढ़ टूटेंगे ।
ab kya namavar aur kya dusara koi pragatishil, saba ek se badakar ek hain. mohalla ke hamaam me sb ujagar ho raha hai
yahn padhane waale saathi mohalla live par bhi padhe. pragatishilata ka aaj arth hi badal gaya hai. sawal bhi puchho to sawal ke jawaba me basha par bat karenge mudde par nahi. agar bhasha par bat karoge to paragatishilo ke mutabik desh ke bahusankhyko ki bhasha, jan bhasha bat karane aur sawal puchhane yogy nahin hai
aajkal sabhi aur skhlit hone ki hod lagi hai
उम्मीद नहीं थी कि इतने लोग सामने आयेंगे
आभार आप सबका और उनका भी जिन्होंने फोन किया और सहमति ज़ाहिर की।
यह पोस्ट मैने किसी के अपमान के लिये नहीं लगायी थी। मै चाहता था कि जिन लोगों को हमने माडल बनाया था उनके पतन के कारणो की तलाश की जा सके। क्या है वो हम सब देख रहे हैं पर क्यों है इसे देखना ज़रूरी है। हमारा ज़ोर उस पर ही होना चाहिये।
सत्यनारायण भाई तुमने प्रलेस को मेरा संगठन कहा है…पर तुम इसके ज़्यादा महत्वपूर्ण हिस्सा रहे हो। उपमहासचिव तक पहुंचे। ऐसे में सिर से पांव तक इसके सडने की कुछ ज़िम्मेदारी तो आप पर भी होगी ही ना। बावज़ूद इसके कि आज आप विद्रोही भूमिका में हैं। मेरी रूचि इसमें नहीं कि आप इसकी कितनी कमियां निकालते हैं बल्कि इसमें है कि आप नया विकल्प क्या दे रहे हैं? आपकी सही प्रतिबद्धता इसी से तय होगी। मुझे भी इस सडन का एहसास है पर मै डाक्टर की भूमिका से अभी ऊबा नहीं और साथ ही अभी कोई विकल्प (लेखक संगठन के संदर्भ मे )मुझे दिखता नहीं
प्रगतिशील लेखक संघ का मेंबर होने के नाते मेरा सभी साथियों से अनुरोध है किउन्हें जो भी कहना है वे कृपया इकाई में या फ़िर वर्किंग ग्रुप कि मीटिंग में अपनी बात कहें ; सीधे मीडिया से गुफ्तगु करना ठीक नही है
जिन प्रलेस इकाइयों ने खुद को खत्म कर लिया है और जिन लोगों ने प्रलेस से त्यागपत्र दे दिया है या नाता तोड़ लिया है, अब उन्हें प्रलेसं पर कोई टिप्पणी करने की आवश्यकता क्यों महसूस हो रही है। उन्होंने तो अपना निर्णय ले लिया। वे अपनी राह चलें, जो करना हो करें और खुश रहें। प्रलेस 1936 से चल रहा है। लोग आते-जाते रहते हैं। संकट भी आते-जाते रहते हैं। यों भी प्रलेस के साथी किसी ब्लॉग या मीडिया या अलग हो चुके लोगों के प्रति उत्तरदायी नहीं हैं, वे अपने संगठन और कार्यकारिणी के प्रति ही जवाबदेह हैं।
यह एक दरख़्त के बड़े होने की मजबूरी हो सकती है। अनुपयोगी किन्तु आकार में बड़े वृक्ष पहले काट दिए जाते हैं। फिर अपने से अधिक अपनी उपलब्धियों का मोह भी अधिक होता है।
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