कल ग़दर आन्दोलन के आखिरी जीवित सदस्य भगत सिंह बिल्गा का देहांत हो गया।
बाबा बिल्गा के नाम से जाने जाने वाले इस अप्रतिम योद्धा का जन्म भी शहीदे आज़म भगत सिंह की ही तरह वर्ष १९०७ में हुआ था। वह अपनी मेडिकल की पढाई छोड़कर ग़दर पार्टी में शामिल हुए थे। ग़दर पार्टी के काम के सिलसिले में वह कलकत्ता बर्मा , सिंगापूर, हांगकांग और फिर अर्जेंटीना पहुंचे जहाँ उनकी मुलाक़ात शहीद भगत सिंह के निर्वासित चाचा सरदार अजित सिंह से हुई। उन्होंने ही बिल्गा को आज़ादी के यज्ञ में सब कुछ होम कर देने की प्रेरणा दी।
१९३६ में वह पहली बार गिरफ्तार हुए। उसके बाद कई साल अमृतसर, लाहोर, और अटक की जेलों में iबिताये।
आज़ादी के बाद उन्होंने ख़ुद को सामाजिक कामों के लिये समर्पित कर दिया। साथ ही उन्होंने स्वतत्रता संग्रामियों को मिलने वाली पेंशन लेने से भी ईंकार कर दिया था।
उनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान था जालंधर में 'मेला ग़दरी बेब्यां दा' का सालाना आयोजन।
पिछले दो सालों से वह इंगलैण्ड में थे। वहां जाने से पहले एक बातचीत में उन्होंने कहा था- " यह वह आज़ादी नहीं जिसके लिये हम लडे थे।"
युवा संवाद बाबा बिल्गा को सलाम करता है।
## साथ ही हम सुप्रीम कोर्ट द्वारा मानवाधिकार कार्यकर्त्ता विनायक सेन की जमानत का स्वागत भी करते है.
14 टिप्पणियां:
मुश्किल वक्त में एक और बुरी खबर...
जब जुल्मो-सितम के कोहे-गरां
रुई की तरह उड़ जायेंगे
हम महकूमों के पांव तले
ये धरती धड़ -धड़ धड़केगी
और अहले -हकम के सर ऊपर
जब बिजली कड़ -कड़ कड़केगी
हम देखेंगे .........................
सब ताज उछाले जायेंगे
सब तख्त गिराए जायेंगे
हम देखेंगे .............
सच एक दुखद खबर और एक अच्छी खबर है।
सुभास नीरव
'आज़ादी के बाद उन्होंने ख़ुद को सामाजिक कामों के लिये समर्पित कर दिया। साथ ही उन्होंने स्वतत्रता संग्रामियों को मिलने वाली पेंशन लेने से भी ईंकार कर दिया था।'
- अर्थात वे विरले लोगों में से एक थे. भगत सिंह बिल्गा को नमन.
dukhad khabar hai .aap ki iss post se jan paya warna pata bhi na chalta .
भगत सिंह बिल्गा को सलाम! बिनायक सेन की जमानत कब हुई? पता नहीं लगा। पर यह अच्छी खबर है।
बहुत ही दुख के साथ यह तथ्य स्वीकार करना पडता है, कि जिस आजादी के लिये हमारे पुरखों ने संघर्ष किया था, वो शायद विफल हो गया, अंग्रेजी सत्ता तो चली गयी, लेकिन नीतियां जस की तस रहीं, आज विफल आजादी के गीत गाये जा रहे हैं, और जंग ए आजादी के मतवाले एक एक करके इस गम को सीने में लिये दूर चले जा रहे हैं...
मेरे ब्लॉग पर टिप्पणी करके आपने कहा था कि न तो आप कांग्रेसी हैं, ना ही संघी… बिलकुल सही कहा था आपने… आपके इस ब्लॉग को पढ़ा और जाना… धन्यवाद्।
और साथ में टिप्पणी मॉडरेशन लगाकर भी आपने बहुत कुछ साबित कर दिया… :)
लोकतन्त्र विरोधी कौन है यह तो टिप्पणी मॉडरेशन लगाकर आपने ही साबित किया है… :)
झूठ बोलने की ज़रूरत उनको होती है जो सच से नज़रें मिलाते डरते है चिपलूनकर महोदय।
रहा सवाल माडरेशन का तो भैया ग़ाली ग़लौज़ के अलावा आज तक किसी टिप्पणी को माडरेट नहीं किया आज भी नहीं कर रहा।
उम्मीद करता हूं आप अपने घर में दरवाज़ा लगाकर सोते होंगे यह लोकतंत्र का विरोध नहीं है।
संघी कितने बदतमीज़ हो सकते हैं आप तो बेहतर जानते होंगे तो जैसा कि पहले कहा ग़ाली ग़लौज़ रोकने के लिये माडरेशन ज़रूरी है।
तमीज़ सीखने के लिये यदि संघियों को वामपंथियों के बंगाल जाना पड़े तब तो यह शर्मनाक ही होगा, क्योंकि जिनकी लोकतन्त्र में आस्था ही नहीं है, सदा चीन की तानाशाही के गुण गाते रहते हों, नन्दीग्राम और सिंगूर जैसे कर्मकाण्ड कर चुके हों…। एक बार बंगाल के ही "लाल" मुख्यमंत्री ने देश के गृहमंत्री को अपशब्द कहे थे, ये है लोकतन्त्र में सच्ची आस्था… जय हो…
सच बताऊं-- व्यवहार के स्तर पर बंगाल वाले कथित वामपंथियों और नागपुरी संघियों में मुझे कोई फ़र्क महसूस नहीं होता। दोनों अपने अपने स्तर पर मानवता के शत्रु हो चुके हैं।
बस एक फ़र्क रह जाता है-- बंगाल वाले जो करते हैं खुल के और नागपुरी सिवाय झूठ के कुछ नहीं करते। उन्हें किसी सैद्धांतिक जामे की ज़रूरत नहीं पडती।
जनता अब इससे कम लोकतंत्र के लिये तैयार नहीं हो सकती … काश दोनों अहमकों को यह समझ में आ जाता।
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