12 मार्च 2014

मैने खुद को खोज लिया..तो हंगामा हो गया


-आशीष देवराड़ी

क्वीन एक बेहतरीन फिल्म है जिसकी तस्दीक मल्टीप्लेक्सों की खाली पड़ी सीटे करती हैं। यह विडंबना ही है कि कहानी के मामलों में रिक्त फिल्में जबरदस्त प्रचार के जरिए कमाई के पिछले सारे रिकार्ड ध्वस्त करती चलती है जबकि क्वीन जैसी फिल्में दर्शकों के लिए संघर्ष करती नजर आती हैं। कमाई के आधार पर फिल्मों को परखना वैसे भी एक गलत ढर्रा ही कहा जाएगा। हालांकि सोशल साइट पर फिल्म को मिल रही सराहना से लोगों में फिल्म को देखने की ललक लगातार बढ़ रही है। परिणामस्वरूप बॉक्स आफिस पर ठंडी ऑपनिंग करने के बाबजूद फिल्म को अब दर्शक मिल रहे हैं।

क्वीन किसी खास लड़की की कहानी नहीं बल्कि समाज की हर उस लड़की की कहानी है जो अपने भीतर एक क्वीन लिए फिरती है, जिसे बाहर आने का मौका कभी यह समाज नहीं देता। आखिर वह कैसा जीवन है जहां आप ठीक से मुस्कुरा ना सके, उछल कूद ना कर सकें,अपने पुरूष मित्र के साथ निसंकोच घूम फिर और रह ना सके?

 फिल्म रानी के घर पर उसकी शादी को लेकर चल रही तैयारियों के दृश्य से शुरू होती है। रानी विजय के साथ होने जा रही अपनी शादी को लेखर खुश है। मेंहदी लगाते समय वह अपने होने वाली पति के बारे में सोचती है , आगे की जिंदगी को लेकर ख्वाब बुनती है। जैसे हर लड़की बुना करती है। वह शादी के बाद अपनी फस्ट नाइट के बारे में भी सोचकर अंदाजा लगाती है कि वह रात शायद दो दिन बाद होगी। हास्य के रूप में दर्शाया गया यह दृश्य वास्तव में शादी को सेक्स करने की सामाजिक, पारिवारिक स्वीकृति के रूप में प्रदर्शित करता है।

फिल्म में रानी जब भी बाहर जाती है उसका छोटा भाई हमेशा उसके साथ दिखता है। एक दृश्य में रानी कहती भी है कि म़ॉ उसके भाई को उसके साथ बाहर भेजती है। मुसीबत में रानी का छोटा भाई उसकी मदद शायद ही कर पाए परन्तु यह हमारे समाज में स्त्री पर पुरूषवादी पहरे को रेखांकित करता है। इस तरह के छोटे बड़े दृश्यों से फिल्म बेहतरीन बन पड़ी है।


खैर शादी की तमाम वयस्तताओं के बीच रानी और विजय बाहर मिलते हैं। मुलाकात में विजय शादी करने से मना कर देता है। विदेश घूम आने के बाद शायद विजय को रानी अपने स्तर की नहीं लगती। रानी की वहीं हालत होती है जो शायद इस देश की अधिकतर लड़कियों की ऐसे मौके पर होगी। बचपन से शादी के सपनों में पालपोसकर बड़ी की गई लड़कियां लड़के के मुकरने से घबराएं भी तो क्यों ना ? रानी के आंसू छलक आते हैं। वह विजय से शादी करने की मन्नते लगाती है। खुद के लिए नहीं बल्कि समाज की संभावित प्रश्नाकिंत नजरों से बचने के लिए।

विजय द्वारा शादी से इनकार करने के बाद रानी भीतर तक टूट जाती है। वह खुद को एक कमरे में बंद कर लेती है। एक दिन वह तय करती है कि हनीमून पर जाएगी, अकेले, विदेश, जहां जाने का सपना उसने देखा था पति के साथ। उसके सपने उसके अपने है। वह अपने सपनों को पति के बंधन से मुक्त कर देती है और चल देती है लंदन। माता पिता अनिच्छा के साथ हामी भर देते हैं।

यह यात्रा रानी की उन संभावनाओं के द्वारा घोलती है जिनकी शादी करते ही हत्या हो जानी थी। वह घूमती है, उछलती है कूदती है। डांस बार जाकर शराब पीती है, नाचती है, छूमती है। पुरूष दोस्त बनाती है। उनके साथ रूम शेयर करती है। वहीं एमंसटरडैम में उसे विजय मिल जाता है। विदेश घूमती रानी उसे शादी के लिए परफेक्ट लगने लगती है। वह अब रानी से शादी करना चाहता है। रानी कहती है वह दिल्ली आकर इस बारे में बात करेगी।




विदेश घुमने के दौरान वह भारत में अपनी सहेली को फोन करती है। उसकी सहेली जल्दी में है क्योंकि उसे अपने बच्चे की पॉटी साफ करनी है।एक तरफ आजाद और अपनी मर्जी की मालिक रानी और दूसरी और उसकी सहेली। यह दृश्य अपना संदेश बखूबी देता है।

रानी दिल्ली वापस लौट आती है। विजय से दिल्ली में मिलने के किए अपने वायदे अनुसार वह विजय के घर पहुंचती है। रानी को अपने घर देखकर विजय खुश है। वह रानी से शादी करना चाहता है। पर रानी आजादी और स्वतंत्रता का स्वाद चख चुकी थी। वह विजय को उसके द्वारा दी शादी की रिंग वापस करती है, गले लगाकर थैक्यू बोलती है और चली आती है आजाद, बेखौफ, निडर...

फिल्म में कंगना की एेक्टिंग भी दिल जीत लेती है। एक देखने लायक फिल्म ।










22 सितंबर 2013

हिन्दी पर रोना कैसा ?


-           मनीष चन्द्र मिश्र

हिन्दी दिवस पर टोटकों का सिलसिला फिर जारी हो गया है. जगह-जगह हिन्दी की चिंता में सेंगोष्ठियों का आयोजन किया जा रहा है. हिन्दी के ठेकेदार और महंथ अपना अपना रोना रो रहे हैं. कहां कोई हिन्दी के कम हो रहे पाठकों पर चिंता जता रहा तो कही किसी को इसमें साजिश की बू आ रही. हिन्दी की चिंता में जीने और मरने वाले लोगों ने अंग्रेजी और कुछ अन्य भाषाओं को गरियाने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा दी. हिन्दी भक्तों के विलाप को देखते हुए सोचना स्वभाविक है कि क्या हिन्दी की स्थिति सच में इतनी बुरी है जितना देखा और समझा जा रहा है ? कई मामलों में हिन्दी दिनों-दिन समृद्ध हुई है. एक युवा जो हिन्दी को जानता है साथ ही दूसरे भाषाओं की समझ भी रखना चाहता है उसके नजर में हिन्दी की स्थिति को समझते हैं.
हिन्दी भाषा उन चंद भाषाओं में से है जो दूसरी भाषा के शब्दों को अपना लेती है. भारतीय भाषा होने के साथ इसमें भारतीयता के गुण भी हैं. अतिथिदेवों भव के सिद्धांत पर हिन्दी ने अंग्रेजी और फारसी जैसे भाषाओं के शब्दों को अपने अंदर इस तरह समेटा कि वह शब्द हिन्दी की होकर रह गई. हिन्दी की समृद्धि को इसके क्षय के रूप में  देखकर हम इसके मूल सिद्धांतों के साथ अन्याय करते हैं. हिन्दी कोई बहुत पुरातन भाषा तो है नहीं. इसके कई और स्वरूप आप ही आएंगे और अभी इसमें कई बदलाव आएंगे. आज के साहित्यकार जिस भाषा को लिखकर उसे एकदम शुद्ध होने का दम भरते हैं दरअसल वह पहले वैसी नहीं थी. समय के साथ बदलते बदलते संस्कृत और अन्य देशज शब्दों को ग्रहण कर हिन्दी समृद्ध होती गई. और इस भाषा में अब कई बदलाव आते रहेंगे. जिसका हमें स्वागत करना चाहिए.
हिन्दी या कोई भी भाषा का मूल उद्देश्य एक दूसरे के बीच संपर्क स्थापित करना होता है.  भाषा के माध्यम से संपर्क जितनी सहजता से स्थापित हो वह उतना ही प्रचलित होता है. हम हिन्दी के संरक्षण के नाम पर अगर इस भाषा को सरल नहीं बनने देंगे तो हिन्दी पाटकों और आम जनों से दूर होती तली जाएगी. हिन्दी के बारे में कुछ लोगों को बड़ी साजिश भी नजर आती है. इन साजिशों में भाषा पर विदेशी आक्रमण जैसी बात भी कही जाती है. लेकिन दरअसल लोगों को हिन्दी से दूर करने में उन साहित्यकारों का भी बड़ा हाथ है जिन्होंने भाषा की शुद्धता के नाम पर इस भाषा को कठिन बनाए रखा.

पिछले एक दशक में हिन्दी ने हर क्षेत्र में अपने सरल सहज स्वभाव से डंका बजाया हैं. देश में लाखों-करोड़ो का विज्ञापन का कारोबार हिन्दी में ही चलता है. घर में टेलीविजन में रोज दिखने वाला विज्ञापन, फिल्म और गानों ने हिन्दी को जन-जन तक पहुंचाया. बंगाल असम और दक्षिण भारत में हिन्दी फिल्मों ने इस भाषा को पहुंचाने का बड़ा काम किया है. इंटरनेट पर युनीकोड के रूप में हिन्दी लिखना इस भाषा की सबसे बड़ी क्रांति के रूप में देखी जाती है. आज हिन्दी भाषी लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है. लोग अन्य भाषाओं के साथ हिन्दी भी जानते हैं. जब हिन्दी के कायाकल्प का समय है तब हिन्दी के लिए रो रोकर चिंता प्रकट करना कुछ समझ नहीं आता. इससे पहले इतिहास में शायद ही कोई समयकाल रहा होगा जब इस भाषा का इतना प्रभाव रहा होगा. तो इस स्वर्णिम समय में हिन्दी के विकास में रोड़ा न बनकर इसे उन्मुक्त रूप में अपना विकास करे दें तो बेहतर होगा. हिन्दी बचाने के नाम पर आपके टोटके शायद ही इसे बचा रही हो. और इसके साथ दूसरी भाषाओं के प्रति दुराग्रह भी ठीक नहीं.

23 जुलाई 2013

हमें कम नौकरियों वाले देश में नौकरी न माँगने के लिए ही गढ़ा गया है !

कभी कभी लगता है जैसे अभी लग रहा था कि शादी भी एक निपटाए जाने वाला काम है। जिसके निपटने में लगातार देरी होती जा रही है। जिसे अर्थशास्त्री-समाजशास्त्री नौकरी में देरी पढेंगे, उसे हम जैसे बेरोजगार युवा जी रहे हैं और समाज में अपनी जगह बनाने की जद्दोजेहद में रोज़ दो चार हो रहे होते हैं।

अगर अभी तक जो भी कुछ पढ़ा लिखा है उसके आधार पर अपने को ठीक ठाक पढ़ा लिखा मान लिया जाए तब हमें यह सवाल किससे करना चाहिए, किससे पूछना चाहिए कि यदि सरकार ने बचपन से हम पर सैकड़ों हज़ार रुपया फूंक दिया तब भी हमें एक अदद नौकरी के लिए लाले क्यों'पड़े हुए हैं। देश की राजधानी के एक विश्वविद्यालय से पास होने के बावज़ूद चप्पल जूते घिस रहे हैं, जहाँ से पढ़ने के सपने कम से कम उत्तर भारत में तो देखे ही जाते होंगे।

अगर इसी तरह मानव पूंजी निर्माण खर्च किये गए व्यय का पैसे ऐसे ही हम लोगों पर बर्बाद होता रहा, तो हमें ऐसा अनुपयोगी-अनुत्पादक बनाये रखने की जिम्मेदारी किस पर आती है?  इसे क्या हम खुद वहां करें या हमें कम नौकरियों वाले देश में नौकरी न माँगने के लिए ही गढ़ा गया है। जैसा कृष्ण कुमार कहते भी थे कि शिक्षा व्यवस्था चयन की प्रक्रिया को वैध बनाकर लगातार असंतोष की स्थितियों को टालती रहती है। और बेवकूफ बनता है सिर्फ वह जो उसके रास्ते से नौकरी वाला हो जाना चाहता है।

हमें लगता था हम इसलिए पढ़ लिख रहे हैं क्योंकि पढ़ लिख लेने के बाद नौकरी लगेगी। नहीं पता था के नौकरी लगना और पढ़ लेना एक ही सिक्के के दो पहलू कभी नहीं रहे। जबकि जब पढ़ रहे थे तब उसका खुद में गलती न लगना ही उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी। शायद तब के प्रस्थान बिंदु ही गलत थे जहाँ नौकरी को स्थायित्व का पर्याय मान लिया। और उस स्थायित्व का मतलब हर माह एकमुश्त तन्खवाह का आना।

पता है अर्थशास्त्र के तर्क इतने ही अमानवीय हैं और उनका मतलब सिर्फ किन्ही विशेष संस्थाओं में राजस्व घाटे और चालू वित्त वर्ष में सकल घरेलू उत्पाद की दर से ज़्यादा नहीं है। पर उसकी एक कीमत हमारी स्थगित हो चुकी ज़िंदगियाँ भी दे रही हैं। जिन्हें स्वाभाविक मान लेना उससे भी अधिक अमानवीय है।

अट्ठाईस साल की उमर में किसी भी इम्तिहान के हो जाने के बाद नतीजों का इंतज़ार करना लॉटरी टिकट खरीद लेने के बाद इनामी नंबर लग जाने वाले जुए की तरह है। जिसका हमारी योग्यता, कार्यकुशलता से कोई लेना देना नहीं। बस उन सबको मात्र संयोग बनाते रहना है। फिर जैसा कि फिल्म के शुरू लिखा होता है उसी की तर्ज़ पर यहाँ भी औपचारिक तरीके से यह कहना शुरू कर देना चाहिए कि आपकी नौकरी लग जाना मात्र एक संयोग है और इसका किसी जीवित मृत्यु या किसी भी घटना से कोई सम्बन्ध नहीं है। न ही इस नौकरी लगने के दौरान किसी कुत्ते बिल्ली हो कोई चोट ही लगी है।

इन सबके बीच हम लगातार 'मिसफिट' होते जा रहे हैं। कहीं किसी मशीन के वैसे पुर्ज़े बनते जाना है जो किसी कारीगर ने गलत डाई उठाकर गलती से बना दिए। अब बन गए हैं तो रक्खे पड़े हैं किनारे। हम शायद वह पहले पुर्ज़े हैं जो उस मशीन में लगेंगे जो कभी नहीं चलने वाली है। जो चल रही हैं उनके इतनी जल्दी पुराने होने की कोई गुंजाईश नही है। पर इसकी पूरी पूरी संभावना है कि उस इंतज़ार में बिना ओवर हॉलिंग के हममे जंग लगता रहेगा।

जबकि ऐसे होते जाने में खुद हमारी कितनी भूमिका है हमें नहीं पता। फिर भी इस अवस्था का दोष हमीं सबसे ज़यादा लेते हैं। लेना पड़ता है। हम तो उस मांग पूर्ति वाले शास्त्र में कहीं से भी अट नहीं पाए। हमें बाहर फेंका नहीं गया, उसकी मंद रफ़्तार ने खुदही हमें बाहर कर दिया। इस पुरे तंत्र का लगातार अमानुषीकरण होते जाना दमनचक्र को ही तेज़ करेगा। कभी हमारे दिल के कोने में कसमसाती तड़पती धड़कन को सुनेगा नहीं। सुनने लायक कान उन कारीगरों ने बनाये ही नहीं, जिन्होंने हमें बनाया था।

फिर इस बिंदु पर आकर बार बार अपने निरर्थक होने का बोध घेर ले तो इसमें कहाँ से हम गलत हैं। सारी प्रक्रियाएं हमें बाहर खदेड़ रही हैं। जबकि हम तो सोचे बैठे थे कि इस देश के संभावना शील संसाधन थोड़ा बहुत तो हाँ भी हैं। पर इधर ऐसा न लगने वाला भाव ज़यादा हावी होता जा रहा है। लगता है इस तंत्र में छोटी मोटी सेंध के लिए अब नए सिरे से तय्यारी करनी होगी। पर क्या जिसे हम आज तक राष्ट्र राज्य'  समझते आये थे वह हम पर कई हज़ार किश्तें फिर भरने को राजी है। उसी की भाषा में कहें तो क्या हम 'निवेश' करने लायक 'उपक्रम' हैं भी या नहीं ?..

पता नहीं सारी जिरहें कब अपने अंदर सारे सवालों के जवाब उगाएँगी? भले उसके लिए लाल अमेरिकी गेंहू के साथ उग आई खरपतवार ही लगे, पर कहीं कोई चोर दरवाज़ा मिलेगा इसकी संभावना लगती नहीं है। लगता तो यह है कि इन्हें बस यूँ ही राष्ट्रीय अभिलेखागार में महत्वपूर्ण सवाल मानकर उसकी पाण्डुलिपि को अभी से संरक्षित करने के उपायों पर विज्ञान भवन में कई कई दौर की वार्ताएं आयोजित करवाई जाएँगी।

और हम, हमारे जैसे छोटी मोटी नौकरी लग जाने के बाद शादी वाले कामों को निपटा लेने के बाद बच्चे ऊगा-जमा रहे होंगे।


- शचीन्द्र आर्य

दिल्ली विश्वविद्यालय से एम ए हिंदी , एमएड भी इसी यूनिवर्सिटी से।अपने चिठ्ठे चापरकरन  http://karnichaparkaran.blogspot.in पर नियमित लेखन 

21 जून 2013

एक रिपोर्टर की वेताली सवारी !

-- आशीष देवराड़ी


                         फोटो- हुंकार ब्लॉग से / वीडियों यहां -  http://www.facebook.com/photo.php?v=4774292447554

इस तरह की रिपोर्टिंग की कोई आवश्यकता नहीं थी। वेतालनुमा सवारी करके इस रिपोर्टर ने ऐसा कुछ अतिरिक्त रिपोर्ट नहीं किया जिसे कंधे पर सवार हुए बिना नहीं किया जा सकता था औऱ मान भी लिया जाए कि किसी मजबूर ,निर्धन के कंधे पर सवार होकर यदि कुछ अतिरिक्त रिपोर्ट किया भी जाए तो क्या ऐसी रिपोर्टिंग को न्यायसंगत और सही कहा जाएगा ? हजारों लोगों की मौत के बीच कंधे पर सवारी कर रिपोर्टिंग करने जैसा बेहूदगी भरा ख्याल आखिर रिपोर्टर के मन में कहा से पनपा होगा...?

देखा जाए तो मीडिया संसधानों के बीच गलाकाट प्रतियोगिता के माहौल ने ऐसी परिस्तिथियों को पैदा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । यह वह समय है जब हर कोई जल्द से जल्द खास हो जाना चाहता है । रिपोर्टर की समान्य ड्यूटी करने को लगभग महत्वहीन सा समझा जाता है। उससे हर बार कोई खास कोई विशेष रिपोर्ट की अपेक्षा रहती है । इसका प्रभाव इतना ही उस पर भी है। रिपोर्टर भी अपने आप को सबसे अलग दिखना चाहता है। दूसरों से अलग दिखना-दिखाना फैशन भी है और व्यक्तिगत इच्छा भी...आप माने या ना माने इस तरह की इच्छा और दवाब इंसान को संवेदनहीन बनाने की ओर अग्रसर हैं और ऐसी ही संवेदनहीनता से उपजती है ऐसी घटना जब आपके चारों और लोगों हजारों की संख्या में मारे गए होकईयों ने काफी दिनों से कुछ खाया पिया भी नहीं हो और बहुतायत ऐसे इलाकों में फंसे हो जहां से बच निकलना उनके लिए चमत्कार से कम ना हो तो आप किसी गरीब की सिर पर चढ़ कर रिपोर्टिग करें । यानि भयंकर आपदा के इस समय में आपको मानवीय मौते विचलित नहीं करती बल्कि दूसरों से अलग दिखने की चिंता परेशान करती है...

कॉलेज में मीडिया की पढ़ाई के दौरान मीडिया और पत्रकारों की इतने दायित्व गिनाएं जाते है, इतने हसीन ख्वाब दिखाएं जाते हैं कि मानो ऐसा लगता है कि जैसे दुनिया बदलने के रास्ता मिल गया पर टीवी या इंटरनेट पर पत्रकारों के इस तरह के कृत्य भीतर तक निराशा पैदा करते हैं...लगता है जिस मीडिया को हम समाज को दिशा देने और सकारात्मक परिवर्तन लाने का माध्यम मानते आ रहे हैं उसे अभी खुद बहुत बदलने की आवश्यकता है

वैसे तो मीडिया से लेकर कानून, सरकार सब इस देश में गरीब के सिर पर ही सवार रहते हैं । बेचारा गरीब कानून से भी भयभीत रहता है और मीडिया से भी दोनों ही गरीब, असहाय, पिछड़ो में अपनेपन और उसके हितैशी होने का विश्वास अभी पैदा नहीं कर पाएं है । आगे देखते हैं क्या होता है पर उससे पहले ऐसे कई संवाददाताओं और मीडियाकर्मियों के मन में पत्रकारिता व उसकी पक्षधरता के बीज बोने होगे फिलहाल तो यही एक तरीका नजर आता है ताकि पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान देखे जाने वाले हमारे हसीन सपनों में थोड़ी जान बची रहे 




22 मार्च 2013

शहीद भगत सुखदेव राजगुरु और "शाइनिंग इण्डिया" का 'अर्थ आवर'


कौन आज़ाद हुआ? किसके माथे से सियाही छूटी ? मेरे सीने में अभी दर्द है महकूमी का मादर-ए—हिन्द के चेहरे पे उदासी है वही .....

                                                   


रे भई, आपकी बात नहीं कर रहा । आप ख़ुद को आज़ाद मानने के लिए स्वतंत्र हैं । मैं तो उनकी बात कर रहा हूँ जो 1947 में आज़ाद होने के बाद आज भी बहुत से मामलों में आज़ाद नहीं हैं । जिनकी आज़ादी मुट्ठी भर रसूख वालों (जो इस मुल्क़ के बमुश्किल 15 प्रतिशत हैं) के पास गिरवी रखी  हुई है । साथ ही वो, जो पैसे-परस्तों, पूरी दुनिया को अपनी हवस में मिटा डालने वालों, बमबाजों और रह-रह कर कल्चर, आर्ट, ट्रेडीशन और सद्भावना-सौहार्द्र की दुहाई देने वालों की गुलामी करने में खींसें निपोरते विह्वल हुये जाते हैं । जो दुनिया भर में सबसे ज़्यादा कचरा पैदा करता है, कालिख उगलता है उसी के सफाई अभियान के अलमबरदार बनने में ख़ुद को प्रकृति-पर्यावरण और पूरी दुनिया के प्रति जागरूक दिखाते हैं । मैं ऐसे गुलामों की बात कर रहा हूँ । अरे भई करो न गुलामी, कोई झगड़ा नहीं है तुमसे...। सुना है जो किसी का नमक खाकर भी उसके खिलाफ जाता है, नमक हराम कहलाता है .... तो बौद्धिक श्रेष्ठिजन, मुझ अल्पबुद्धि को बताओ, उसे क्या कहा जाये जो अपनी आज़ादी के योद्धाओं, उसके बाप-दादाओं के साथ ही उसकी अपनी बेहतर ज़िंदगी के लिए मर मिटे शहीदों को याद करने की ज़रूरत न महसूसता हो ? अरे नहीं-नहीं , मैं उन निर्लज्जों, भीतरघातियों, परजीवियों के सटीक नामकरण के लिए बिलकुल भी चिंतित नहीं हूँ , मेरा सवाल तो आप सब से है कि ऐसे समय में जब ग्लोबलाइज़ेशन की दुहाई देती पूरी दुनिया के साथ ही साथ “इंडिया’’ (ध्यान दें ‘शाइनिंग इंडिया’, भारत नहीं ! ) भी 364 दिन तक फिजूल में बिजली फूँकने के बाद आज 23 मार्च को “ अर्थ आवर” मनाने जा रहा है, वो भी इन हालात में जब पूरे भारत में  घने जंगलों से लेकर  टाउन-हॉलों से घिरे  हज़ारों  गाँव या तो अंधेरे में डूबे होते हैं या 15 दिन बिजली और 15 दिन कटौती का मज़ाक झेलते हैं और लक़दक़ शहर, राजधानियों की सड़कें तक दिन में भी स्ट्रीट लाइट की ऐयाशी का मज़ा लेती हैं !  

तो ऐसे में हम-आप क्या करने वाले हैं ?....जबकि आज ही के दिन 1931 में शहीद-ए-आज़म भगत सिंह और उनके साथियों शहीद सुखदेव, शहीद राजगुरु ने इस मुल्क़ की आज़ादी के लिए, इस मुल्क़ की आज़ाद जनता के लिए अपनी शहादत दी थी । उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि इस देश की जनता भविष्य में बेग़ैरती की हदें पार करते हुये उन्हें यूँ भुला देगी !

जिन युवाओं में वे आज़ाद भारत की बेहतरी का सपना बोना चाहते थे ,उन युवाओं के एक बड़े हिस्से को आज अपने शहीदों के नाम और चेहरे तक याद नहीं । आज अखबारी पहेली से लेकर टी.वी. शो तक में बस एक झलक या केवल नाक-कान-जबड़े से अभिनेता-अभिनेत्रियों की सूरत पहचानने वाला युवा भगत सिंह की बिना हैट वाले फोटो देखते ही मुँह बा देता है। उसके लिए भगत सिंह का वही चेहरा जाना-पहचाना है जो ग्लैमर के रंग में रंगा हुआ हो । यहाँ मेरा मतलब सिर्फ तस्वीर से नहीं है ।  दरअसल मीडिया भगत सिंह की जो रोमांटिक क्रांतिकारी वाली तस्वीर भुनाती है ,आज का युवा सिर्फ उसी से परिचित है । भगत सिंह से उसका मतलब फांसी के फंदे पर हँसते-हँसते झूल जाने वाला दिलेर है , जो इंकलाब ज़िन्दाबाद का नारा देता था । भगत सिंह से शहीद भगत सिंह तक की यात्रा से , भगत सिंह के इंकलाब के मायने से उनका दूर-दूर तक कुछ लेना देना नहीं है । इस अर्थ में वो सिर्फ उसे चेहरे को पहचानते है जो फिल्मी हीरोइज़्म से भरा हो । भगत सिंह के विचारों की सान से उसका कोई राबता नहीं । दूसरी तरफ जिन बौद्धिकों, चिंतकों से शहीदों को भविष्य की रोशनी की उम्मीद थी वे आज कैंडिल-लाइट डिनर में बिज़ी हैं या  बहुत हुआ तो कभी-कभी अपनी गुरु-गंभीर ( पढ़ें ‘टुच्ची’) लफ़्फ़ाज़ियों के साथ कैंडिल-मार्च कर आते हैं ।

 तो ऐसे समय में, ऐसे युवाओं और ऐसे बौद्धिकों (?) के बीच हमें तय करना है कि हम ‘अर्थ-आवर’ “सेलीब्रेट” करती “इंडिया” के साथ हैं या शहीद भगत सिंह, शहीद सुखदेव, शहीद राजगुरु के भारत की जनता के साथ हैं ? महज़ 1 घंटे तक बिजली की बरबादी का रोना रोने वाले हैं या अपने अमर शहीदों की शहादत और उनके मकसद को याद करते हुये, अपनी ऐतिहासिक विरासत को जानने-समझने और  उन  सपनों पर बात करने वाले हैं जो भारत की ही नहीं पूरी दुनिया की बेहतरी के लिए ज़रूरी हैं ?... आप स्वतंत्र हैं अपना पक्ष चुनने के लिए, जैसा कि संविधान घोषणा करता है और सुना भी जाता है । अब ये सवाल मेरा नहीं आपका है, कि आप किस ओर हैं ? पता नहीं आप “मुक्तिबोध” को जानते हैं कि नहीं.....फिर भी उन्हीं के शब्दों में पूछता हूँ – “.... पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?”  


आशुतोष चंदन ( रंगकर्म से जुड़े हुए हूँ, और लेखन का कार्य भी करते हैं )