-आशीष देवराड़ी
क्वीन एक बेहतरीन फिल्म है
जिसकी तस्दीक मल्टीप्लेक्सों की खाली पड़ी सीटे करती हैं। यह
विडंबना ही है कि कहानी के मामलों में रिक्त फिल्में जबरदस्त प्रचार के जरिए कमाई
के पिछले सारे रिकार्ड ध्वस्त करती चलती है जबकि क्वीन जैसी फिल्में दर्शकों के लिए
संघर्ष करती नजर आती हैं। कमाई के आधार पर फिल्मों को परखना वैसे भी एक गलत ढर्रा
ही कहा जाएगा। हालांकि सोशल साइट पर फिल्म को मिल रही सराहना से लोगों में फिल्म
को देखने की ललक लगातार बढ़ रही है। परिणामस्वरूप बॉक्स आफिस पर ठंडी ऑपनिंग करने
के बाबजूद फिल्म को अब दर्शक मिल रहे हैं।
क्वीन किसी खास
लड़की की कहानी नहीं बल्कि समाज की हर उस लड़की की कहानी है जो अपने भीतर एक क्वीन
लिए फिरती है, जिसे बाहर आने का मौका कभी यह समाज नहीं देता। आखिर वह कैसा जीवन है जहां आप
ठीक से मुस्कुरा ना सके, उछल कूद ना कर सकें,अपने पुरूष मित्र के साथ निसंकोच घूम
फिर और रह ना सके?
फिल्म रानी के घर पर उसकी शादी को लेकर चल रही तैयारियों के
दृश्य से शुरू होती है। रानी विजय के साथ होने जा रही अपनी शादी को लेखर खुश है।
मेंहदी लगाते समय वह अपने होने वाली पति के बारे में सोचती है , आगे की जिंदगी को
लेकर ख्वाब बुनती है। जैसे हर लड़की बुना करती है। वह शादी के बाद अपनी फस्ट नाइट
के बारे में भी सोचकर अंदाजा लगाती है कि वह रात शायद दो दिन बाद होगी। हास्य के
रूप में दर्शाया गया यह दृश्य वास्तव में शादी को सेक्स करने की सामाजिक,
पारिवारिक स्वीकृति के रूप में प्रदर्शित करता है।
फिल्म में रानी जब भी बाहर जाती है उसका छोटा भाई हमेशा उसके साथ दिखता है। एक दृश्य में रानी कहती भी है कि म़ॉ उसके भाई को उसके साथ बाहर भेजती है। मुसीबत में रानी का छोटा भाई उसकी मदद शायद ही कर पाए परन्तु यह हमारे समाज में स्त्री पर पुरूषवादी पहरे को रेखांकित करता है। इस तरह के छोटे बड़े दृश्यों से फिल्म बेहतरीन बन पड़ी है।
खैर शादी की तमाम वयस्तताओं के
बीच रानी और विजय बाहर मिलते हैं। मुलाकात में विजय शादी करने से मना कर देता
है। विदेश घूम आने के बाद शायद विजय को रानी अपने स्तर की नहीं लगती। रानी की वहीं हालत
होती है जो शायद इस देश की अधिकतर लड़कियों की ऐसे मौके पर होगी। बचपन से शादी के
सपनों में पालपोसकर बड़ी की गई लड़कियां लड़के के मुकरने से घबराएं भी तो क्यों ना
? रानी के आंसू छलक आते
हैं। वह विजय से शादी करने की मन्नते लगाती है। खुद के लिए नहीं बल्कि समाज की संभावित
प्रश्नाकिंत नजरों से बचने के लिए।
विजय
द्वारा शादी से इनकार करने के बाद रानी भीतर तक टूट जाती है। वह खुद को एक कमरे
में बंद कर लेती है। एक दिन वह तय करती है कि हनीमून पर जाएगी, अकेले, विदेश, जहां
जाने का सपना उसने देखा था पति के साथ। उसके सपने उसके अपने है। वह अपने सपनों को पति
के बंधन से मुक्त कर देती है और चल देती है लंदन। माता पिता अनिच्छा के साथ हामी भर देते हैं।
यह
यात्रा रानी की उन संभावनाओं के द्वारा घोलती है जिनकी शादी करते ही हत्या हो जानी
थी। वह घूमती है, उछलती है कूदती है। डांस बार जाकर शराब पीती है, नाचती है, छूमती
है। पुरूष दोस्त बनाती है। उनके साथ रूम शेयर करती है। वहीं एमंसटरडैम में उसे
विजय मिल जाता है। विदेश घूमती रानी उसे शादी के लिए परफेक्ट लगने लगती है। वह अब
रानी से शादी करना चाहता है। रानी कहती है वह दिल्ली आकर इस बारे में बात करेगी।
विदेश
घुमने के दौरान वह भारत में अपनी सहेली को फोन करती है। उसकी सहेली जल्दी में है
क्योंकि उसे अपने बच्चे की पॉटी साफ करनी है।एक तरफ आजाद और अपनी मर्जी की मालिक
रानी और दूसरी और उसकी सहेली। यह दृश्य अपना संदेश बखूबी देता है।
रानी
दिल्ली वापस लौट आती है। विजय से दिल्ली में मिलने के किए अपने वायदे अनुसार वह विजय
के घर पहुंचती है। रानी को अपने घर देखकर विजय खुश है। वह रानी से शादी करना चाहता
है। पर रानी आजादी और स्वतंत्रता का स्वाद चख चुकी थी। वह विजय को उसके
द्वारा दी शादी की रिंग वापस करती है, गले लगाकर थैक्यू बोलती है और चली आती है आजाद,
बेखौफ, निडर...
फिल्म में कंगना की एेक्टिंग भी दिल जीत लेती है। एक देखने लायक फिल्म ।