21 जून 2013

एक रिपोर्टर की वेताली सवारी !

-- आशीष देवराड़ी


                         फोटो- हुंकार ब्लॉग से / वीडियों यहां -  http://www.facebook.com/photo.php?v=4774292447554

इस तरह की रिपोर्टिंग की कोई आवश्यकता नहीं थी। वेतालनुमा सवारी करके इस रिपोर्टर ने ऐसा कुछ अतिरिक्त रिपोर्ट नहीं किया जिसे कंधे पर सवार हुए बिना नहीं किया जा सकता था औऱ मान भी लिया जाए कि किसी मजबूर ,निर्धन के कंधे पर सवार होकर यदि कुछ अतिरिक्त रिपोर्ट किया भी जाए तो क्या ऐसी रिपोर्टिंग को न्यायसंगत और सही कहा जाएगा ? हजारों लोगों की मौत के बीच कंधे पर सवारी कर रिपोर्टिंग करने जैसा बेहूदगी भरा ख्याल आखिर रिपोर्टर के मन में कहा से पनपा होगा...?

देखा जाए तो मीडिया संसधानों के बीच गलाकाट प्रतियोगिता के माहौल ने ऐसी परिस्तिथियों को पैदा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । यह वह समय है जब हर कोई जल्द से जल्द खास हो जाना चाहता है । रिपोर्टर की समान्य ड्यूटी करने को लगभग महत्वहीन सा समझा जाता है। उससे हर बार कोई खास कोई विशेष रिपोर्ट की अपेक्षा रहती है । इसका प्रभाव इतना ही उस पर भी है। रिपोर्टर भी अपने आप को सबसे अलग दिखना चाहता है। दूसरों से अलग दिखना-दिखाना फैशन भी है और व्यक्तिगत इच्छा भी...आप माने या ना माने इस तरह की इच्छा और दवाब इंसान को संवेदनहीन बनाने की ओर अग्रसर हैं और ऐसी ही संवेदनहीनता से उपजती है ऐसी घटना जब आपके चारों और लोगों हजारों की संख्या में मारे गए होकईयों ने काफी दिनों से कुछ खाया पिया भी नहीं हो और बहुतायत ऐसे इलाकों में फंसे हो जहां से बच निकलना उनके लिए चमत्कार से कम ना हो तो आप किसी गरीब की सिर पर चढ़ कर रिपोर्टिग करें । यानि भयंकर आपदा के इस समय में आपको मानवीय मौते विचलित नहीं करती बल्कि दूसरों से अलग दिखने की चिंता परेशान करती है...

कॉलेज में मीडिया की पढ़ाई के दौरान मीडिया और पत्रकारों की इतने दायित्व गिनाएं जाते है, इतने हसीन ख्वाब दिखाएं जाते हैं कि मानो ऐसा लगता है कि जैसे दुनिया बदलने के रास्ता मिल गया पर टीवी या इंटरनेट पर पत्रकारों के इस तरह के कृत्य भीतर तक निराशा पैदा करते हैं...लगता है जिस मीडिया को हम समाज को दिशा देने और सकारात्मक परिवर्तन लाने का माध्यम मानते आ रहे हैं उसे अभी खुद बहुत बदलने की आवश्यकता है

वैसे तो मीडिया से लेकर कानून, सरकार सब इस देश में गरीब के सिर पर ही सवार रहते हैं । बेचारा गरीब कानून से भी भयभीत रहता है और मीडिया से भी दोनों ही गरीब, असहाय, पिछड़ो में अपनेपन और उसके हितैशी होने का विश्वास अभी पैदा नहीं कर पाएं है । आगे देखते हैं क्या होता है पर उससे पहले ऐसे कई संवाददाताओं और मीडियाकर्मियों के मन में पत्रकारिता व उसकी पक्षधरता के बीज बोने होगे फिलहाल तो यही एक तरीका नजर आता है ताकि पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान देखे जाने वाले हमारे हसीन सपनों में थोड़ी जान बची रहे 




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