कभी कभी लगता है जैसे अभी लग रहा था कि शादी भी एक निपटाए जाने वाला काम है। जिसके निपटने में लगातार देरी होती जा रही है। जिसे अर्थशास्त्री-समाजशास्त्री नौकरी में देरी पढेंगे, उसे हम जैसे बेरोजगार युवा जी रहे हैं और समाज में अपनी जगह बनाने की जद्दोजेहद में रोज़ दो चार हो रहे होते हैं।
अगर अभी तक जो भी कुछ पढ़ा लिखा है उसके आधार पर अपने को ठीक ठाक पढ़ा लिखा मान लिया जाए तब हमें यह सवाल किससे करना चाहिए, किससे पूछना चाहिए कि यदि सरकार ने बचपन से हम पर सैकड़ों हज़ार रुपया फूंक दिया तब भी हमें एक अदद नौकरी के लिए लाले क्यों'पड़े हुए हैं। देश की राजधानी के एक विश्वविद्यालय से पास होने के बावज़ूद चप्पल जूते घिस रहे हैं, जहाँ से पढ़ने के सपने कम से कम उत्तर भारत में तो देखे ही जाते होंगे।
अगर इसी तरह मानव पूंजी निर्माण खर्च किये गए व्यय का पैसे ऐसे ही हम लोगों पर बर्बाद होता रहा, तो हमें ऐसा अनुपयोगी-अनुत्पादक बनाये रखने की जिम्मेदारी किस पर आती है? इसे क्या हम खुद वहां करें या हमें कम नौकरियों वाले देश में नौकरी न माँगने के लिए ही गढ़ा गया है। जैसा कृष्ण कुमार कहते भी थे कि शिक्षा व्यवस्था चयन की प्रक्रिया को वैध बनाकर लगातार असंतोष की स्थितियों को टालती रहती है। और बेवकूफ बनता है सिर्फ वह जो उसके रास्ते से नौकरी वाला हो जाना चाहता है।
हमें लगता था हम इसलिए पढ़ लिख रहे हैं क्योंकि पढ़ लिख लेने के बाद नौकरी लगेगी। नहीं पता था के नौकरी लगना और पढ़ लेना एक ही सिक्के के दो पहलू कभी नहीं रहे। जबकि जब पढ़ रहे थे तब उसका खुद में गलती न लगना ही उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी। शायद तब के प्रस्थान बिंदु ही गलत थे जहाँ नौकरी को स्थायित्व का पर्याय मान लिया। और उस स्थायित्व का मतलब हर माह एकमुश्त तन्खवाह का आना।
पता है अर्थशास्त्र के तर्क इतने ही अमानवीय हैं और उनका मतलब सिर्फ किन्ही विशेष संस्थाओं में राजस्व घाटे और चालू वित्त वर्ष में सकल घरेलू उत्पाद की दर से ज़्यादा नहीं है। पर उसकी एक कीमत हमारी स्थगित हो चुकी ज़िंदगियाँ भी दे रही हैं। जिन्हें स्वाभाविक मान लेना उससे भी अधिक अमानवीय है।
अट्ठाईस साल की उमर में किसी भी इम्तिहान के हो जाने के बाद नतीजों का इंतज़ार करना लॉटरी टिकट खरीद लेने के बाद इनामी नंबर लग जाने वाले जुए की तरह है। जिसका हमारी योग्यता, कार्यकुशलता से कोई लेना देना नहीं। बस उन सबको मात्र संयोग बनाते रहना है। फिर जैसा कि फिल्म के शुरू लिखा होता है उसी की तर्ज़ पर यहाँ भी औपचारिक तरीके से यह कहना शुरू कर देना चाहिए कि आपकी नौकरी लग जाना मात्र एक संयोग है और इसका किसी जीवित मृत्यु या किसी भी घटना से कोई सम्बन्ध नहीं है। न ही इस नौकरी लगने के दौरान किसी कुत्ते बिल्ली हो कोई चोट ही लगी है।
इन सबके बीच हम लगातार 'मिसफिट' होते जा रहे हैं। कहीं किसी मशीन के वैसे पुर्ज़े बनते जाना है जो किसी कारीगर ने गलत डाई उठाकर गलती से बना दिए। अब बन गए हैं तो रक्खे पड़े हैं किनारे। हम शायद वह पहले पुर्ज़े हैं जो उस मशीन में लगेंगे जो कभी नहीं चलने वाली है। जो चल रही हैं उनके इतनी जल्दी पुराने होने की कोई गुंजाईश नही है। पर इसकी पूरी पूरी संभावना है कि उस इंतज़ार में बिना ओवर हॉलिंग के हममे जंग लगता रहेगा।
जबकि ऐसे होते जाने में खुद हमारी कितनी भूमिका है हमें नहीं पता। फिर भी इस अवस्था का दोष हमीं सबसे ज़यादा लेते हैं। लेना पड़ता है। हम तो उस मांग पूर्ति वाले शास्त्र में कहीं से भी अट नहीं पाए। हमें बाहर फेंका नहीं गया, उसकी मंद रफ़्तार ने खुदही हमें बाहर कर दिया। इस पुरे तंत्र का लगातार अमानुषीकरण होते जाना दमनचक्र को ही तेज़ करेगा। कभी हमारे दिल के कोने में कसमसाती तड़पती धड़कन को सुनेगा नहीं। सुनने लायक कान उन कारीगरों ने बनाये ही नहीं, जिन्होंने हमें बनाया था।
फिर इस बिंदु पर आकर बार बार अपने निरर्थक होने का बोध घेर ले तो इसमें कहाँ से हम गलत हैं। सारी प्रक्रियाएं हमें बाहर खदेड़ रही हैं। जबकि हम तो सोचे बैठे थे कि इस देश के संभावना शील संसाधन थोड़ा बहुत तो हाँ भी हैं। पर इधर ऐसा न लगने वाला भाव ज़यादा हावी होता जा रहा है। लगता है इस तंत्र में छोटी मोटी सेंध के लिए अब नए सिरे से तय्यारी करनी होगी। पर क्या जिसे हम आज तक राष्ट्र राज्य' समझते आये थे वह हम पर कई हज़ार किश्तें फिर भरने को राजी है। उसी की भाषा में कहें तो क्या हम 'निवेश' करने लायक 'उपक्रम' हैं भी या नहीं ?..
पता नहीं सारी जिरहें कब अपने अंदर सारे सवालों के जवाब उगाएँगी? भले उसके लिए लाल अमेरिकी गेंहू के साथ उग आई खरपतवार ही लगे, पर कहीं कोई चोर दरवाज़ा मिलेगा इसकी संभावना लगती नहीं है। लगता तो यह है कि इन्हें बस यूँ ही राष्ट्रीय अभिलेखागार में महत्वपूर्ण सवाल मानकर उसकी पाण्डुलिपि को अभी से संरक्षित करने के उपायों पर विज्ञान भवन में कई कई दौर की वार्ताएं आयोजित करवाई जाएँगी।
और हम, हमारे जैसे छोटी मोटी नौकरी लग जाने के बाद शादी वाले कामों को निपटा लेने के बाद बच्चे ऊगा-जमा रहे होंगे।
- शचीन्द्र आर्य
दिल्ली विश्वविद्यालय से एम ए हिंदी , एमएड भी इसी यूनिवर्सिटी से।अपने चिठ्ठे चापरकरन http://karnichaparkaran.blogspot.in पर नियमित लेखन ।
2 टिप्पणियां:
अंदर से ऐसी ईमानदार पीड़ा का निकलना इधर काफी कम हो गया है। लोग इतने परेशान हैं कि चालाक ही नहीं, शातिर हो गएं हैं। ऐसी सारी पीड़ाओं का कोई घोल नहीं बनता जो देश की समस्या का रामबाण खोज सके? शचीन्द्र जी, आप बड़े अपने से लगे तो यह सवाल साझा किया।
इस व्यवस्था में ज्यादा कुछ अव्यवस्थित ही है। रहेगा भी, क्योंकि मानव का चरित्र ही अव्यवस्थित सा है। वह अपनी असफलता का श्रेय तो अपनी काबिलियत और उद्यम को देता है लेकिन असफ़ल हो जाने पर वाह्य परिस्थितियों को दोषी ठहरा देता है। िसके उलट जब वह दूसरों की बात करता है तो विश्लेषण उलट जाता है। यानि दूसरों की सफ़लता उनकी काबिलियत से नहीं बल्कि वाह्य परिस्थितियों जैसे जुगाड़ आदि के कारण नजर आती है और यदि दूसरा असफल हो जाय तो वह उसकी अयोग्यता की वजह से होता है।
इस आलेख में भी कुल मिलाकर यही सोच परिलक्षित होती है।
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