27 फ़रवरी 2013

मै नास्तिक क्यों नहीं ( मेरा अंतरद्वंद्व)

(युवा दख़ल ब्लॉग पर हम एक नया कालम शुरू कर रहे हैं - नई सोच. इसके तहत हम देश के विभिन्न हिस्सों में रह रहे युवाओं की सोच को सबके सामने लाना चाहते हैं. आप सब मित्रों को इस कालम का खुला न्यौता...लिखिए और हमें ashish.deorari@yahoo.in पर भेज दीजिये.)
- मनीष चन्द्र मिश्र 

धर्म और बाजार के गठबंधन की सरकार


किसी समाजिक आर्थिक मुद्दों पर समान्यतः बात 1991 के भूमंडलीकरण से शुरू होती है मानों सारी समस्यायों की जड़ 1991 ही हो, पर मैने दुनियां 1992 से देखनी शुरू की यानी 22 फरवरी 1992 मेरे जन्म की तारीख और शायद दुनिया  को समझने का प्रयास 1997 से ही जारी है. बाजार और धर्म के गठबंधन की बात करें तो यह सबसे बड़ा खतरा है जो  हमें भटका भटका कर सारे तरीकों से लूटता है. आज बाजार हमें गरीब कर रहा और हमारी गरीबी में भी धर्म अपना बाजार तलाशती है. समस्याओं से ग्रस्त हो तो फलां बाबा का भलां यंत्र खरीदो.  वैसे बाजार के सभी पैतरों को देखें तो आज विज्ञापनों को जंगल में हमें और कुछ नहीं सूझता . चारों तरफ विज्ञापन और बाजार. आपके अंदर -अंदर तक सिर्फ बाजार ही बाजार है. आपके मस्तिष्क की सत्ता बाजार के हाथ में है. फिर जो कुछ लोग विपक्ष में खड़े बाजार से लड़ रहें हैं उनके पास सही हथियार नहीं. 

अविनाशी धर्म !


भूमंडलीकरण से पहले भी बाजार बाजार ही था. कहानी किस्सों और उपमाओं से लगा कि समाज में उस वक्त कुछ नौतिकता जरूर रही होगी.  यहां तक कि 'बाजार में खड़े हो जाओ', बेचना या बिकना भी बुरा ही माना जाता था.  बाजार भी शातिर तो हमेशा से रहा है मगर धर्म से इसके गठबंधन के बाद इसकी प्रकृति और विध्वंसक हो गया है. धर्म ने तो मानव इतिहास के प्रारंभ से ही लोगों को अपने नशे में रखा और अब जब सबकुछ पुराना मिटता या सिमटता जा रहा है तो इस धर्म ने बाजार को अपना साथी बना फिर अपनी चमक बढ़ा ली है. अब नशा उतरे तो कैसे ? अब तो धर्म के अनेको प्रॉडक्ट बाजार में मौजूद हैं. उदाहरण के तौर पर लाल पीली किताब, अलग अलग तरह के चमत्कारी बाबा आदि आदि. और क्या इतना बड़ा साम्राज्य इतनी जल्दी खत्म हो सकता है. क्या हो जाता है जब किसी स्वामी के आश्रम में किसी की हत्या हो जाती है. क्या हो जाता है जब हजारों लोगों को तथाकथित गुरू किसी के साथ रंगरलिया मनाते हुए सीडी में दिखाए जाते हैं. क्या तब लोगों की आस्था टुटती है ? नहीं भीड़ तो बढ़ती ही जा रही है.  तो मान लिया जाय कि धर्म अविनाशी है ? क्योंकि बाजार है तो धर्म है. और बाजार तो है ही. 

धर्म, तब और अब


अगर ईमानदारी से बात की जाय तो धर्म की लाख कुरीतियों के बाद भी बहुत समय तक इस धर्म में बताए रास्ते ने लोगों को बांधे रखा. नैतिकता की राह पर लोग धर्म को ध्यान में रखकर चलते रहे. पर अब ऐसा कुछ रह नहीं गया. धर्म का आड़ में सबसे अधिक  आडंबर होता है. नैतिकता किस चिड़िया का नाम है कुछ याद नहीं रहा किसी को.  लेकिन यह कहकर धर्म का पक्ष रखना कि धर्म हमें नैतिक रहना सिखाता है तो अब कोई नहीं मानने वाला. पर धर्म ने कितना पीछे कर दिया हमें. किसी भी धर्म की बात कीजिए. महिलाओं के लिए बड़ी बड़ी बाते करने वाला धर्म ने महिलाओं के साथ कितना अन्याय किया है . तो कुल मिलाके धर्म सच में अफीम है. पर सवाल यह है कि भारत के अंदर धर्म के साथ फैले इस अंधविश्वास के कैसे मिटाया जाए. कुछ लोग धर्म की बुराई कर चाहते है कि लोगों का इन सब से पीछा छुट जाएगा लेकिन अगर इस तरीके को अपने भारतीय पर रख के सोचा जाए ते यह कत्तई संभव नहीं है. भारत की जनता को धर्म और विशेषकर अंधविश्वास को दूर करने के लिए सिर्फ विज्ञान का प्रचार और प्रसार ही काम आ सकता है.  अब ये बात मैं अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं. लोग आपपे भरोसा नहीं करेंगे अगर आप उनकी तरह नहीं सोचते तो. आपके प्रसाद खाना होगा चाहे लाख आपका तार्किक मन कहे कि वैज्ञानिक तरीके से प्रसाद खाने का कोई औचित्य नहीं. और हमें किस अंधविश्वास के खत्म करना है ये भी सोचना होगा. क्या हम लोगों की भावना आहत करना चाहते हैं या लोगों का विनाश और अंधकार से निकाल विकासोन्नमुख और प्रकाश की ओर ले जाए. और शायद इसलिए मैं लाख अंधविश्वास को देखने समझने के बाद भी मैं नास्तिक नहीं बन पाया. मुझे पता है कोई चमत्कार नहीं होता कभी फिर भी मुझे अपने परंपरा से लगाव है. कबीर के किसी दोहे में लिखा था कि सभी नए बुरे नहीं और सभी पुराने अच्छे नहीं. हमें अपने विवेक से अच्छे बुरे की परख करनी होगी. मुझे डर है कि कोई इतना भी वौज्ञानिक सोच का न हो जाए कि उसे मां बाप के सम्मान में कोई फायदा नजर न आए.

अब तय करना है कि हमें किस कुरीति से लड़ना है. अंधविस्वास के वह नियम  जिसमे औरतों को बुरके और घुंघट में रहने को मजबूर किया जाता है, हमारी लड़ाई उस कायदे से है जहां स्त्रियों को हीन समझा जाता है. धर्म के उस पाखंड से लड़ना है जो महिलाओं के सम्मान का ढ़ोंग कर देवी का स्थान देकर चतुराई से उसके अधिकारों के छीनता है. हमें उस पितृसत्तात्मक समाज से लड़ना है या पुरूष जाती को खत्म करने की मुहिम चलानी है.  एक आम आदमी के अंदर के द्वंद को समझना होगा.  क्या इस बाजारू धर्म को  गरियाने से इसकी शक्ति कम होती है ? नहीं. इस से निपटने के लिए हमें धैर्य रखना होगा. लोगों के विश्वास के जीतकर भी तो इसके खतरों को बता सकते हैं हम. निर्मल बाबा की लाख बुराई कर ली फिर भी बाबा कमाते रहे. इस लड़ाई में बाजार धर्म के हाथ मजबूत कर रहा है. अब समय है इसपर सोचने का. कुछ भी इतनी जल्दी नहीं होगा. वर्षों लग गए सती प्रथा को खत्म करने में. मेरे इस पूरे लेख का अंत OMG की तरह न हो जाए इसकी आशंका है मुझे. इसलिए अंत में यह लिख कर अपने को जागरूक धार्मिक इंसान बताने की कोशिश रहेगी. नास्तिक शब्द मुझे कुछ पसंद नहीं.  मै यह मानता हूं कि कोई चमत्कार नहीं होता पर मुझे और मेरे जैसे आम आदमी के लिए धर्म आज भी महत्व रखता है. हम  बहुमुल्य छुट्टी  के दिन को भी मंदिर में बिता आते हैं. कारण स्पष्ट है. मुझे  धर्म के उस बाजारू खतरे का अभास है इसलिए मै किसी बाबा का चेला नहीं हूं न ही कोई यंत्र  खरीदा है. मै लोगों को विज्ञान की बातें बताता हूं क्योकि भारत के नागरिक होने के नाते यह मेरा कर्तव्य भी है. 

9 टिप्‍पणियां:

Ashok Kumar pandey ने कहा…

बढ़िया...इस कालम के माध्यम से युवा लोगों के बीच एक वैचारिक सरगर्मी बनाने के इरादे का स्वागत!

alok bajpai ने कहा…

welcome move.the author needs to further develop his thesis with the help of Marx's original writings on religion and also Gandhi's understanding of Religion with capital R.The author is a young man ,so can devote a lot of time to thoroughly ponder over the topic which is of crucial importance.

Shamshad Elahee "Shams" ने कहा…

एक सार्थक लेख के लिए बधाई स्वीकार करे ....

narendra kumar tomar ने कहा…

मेरा अपना अनुभव यह है कि हर अनीश्‍वरवाद को अपने वैचारिक जीवन की किसी न किसी, प्राय: प्रारंभिक अवस्‍था पर धर्म और ईश्‍वर को लेकर अनिश्‍चय की स्थिति से गुजरना पडता है। विरासत में मिला उसका विश्‍व द्दष्टिकोण और उसके संस्‍कार उसे ईश्‍वर यानी समस्‍त विश्‍व को जन्‍म देने और नियंत्रित करने वाली पारलौकिक सत्‍ता के अस्‍तित्‍व को नकारना बहुत कठिन कर देते है। यह अनीश्‍वरवाद को केवल पारलौकिक सत्‍ता को नकारना मात्र मानने पर और भी मुश्किल हो जाता हैं। मेरी समझ में तो अनीश्‍वरवाद का अर्थ प्रकृति और समाज के परिवर्तन और विकास के नियमों को समझना है और इनके ही आधार पर मनुष्‍य की सोच और व्‍यवहार का विश्‍लेषण करना है।
यह जानने समझने के लिए कि पुजारी पंडों और मुल्‍ला मौलवियों आदि के द्वारा बार बार ठगे जाने के बावजूद साधारण व्‍यक्ति ईश्‍वर और धर्म में क्‍यों आस्‍था रखता है उसके जीवन की आर्थिक सामाजिक कारणों का वैज्ञानिक विश्‍लेषण करना आवश्‍यक है।
और कोई भी इनको समझे बग्‍ौर वास्‍तविक अनीश्‍वरवादी या नास्तिक नहीं बन सकता है।

अरुण अवध ने कहा…

धीरे-धीरे जहर उतारने की पैरोकारी करता है आलेख ! यह सोंच भी सही है !

Mandan Jha ने कहा…

धर्म और इसकी चर्चा के अपने प्रभाव है। मैं चाहकर भी इस मुद्दे की प्रासंगिकता नहीं ढूंढ पा रहा हूँ। जहां हमारे पास बाजार और इसकी तथाकथित अदृश्य शक्तियों से निपटने के उपकरणों की कमी है। उस दौर में जहाँ मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं को भी आंकड़ों में तौल कर दरकिनार कर दिया जाता है, क्या हमें धर्म जैसे अंतहीन विषयों की चर्चा करनी चाहिए? मार्क्स जिन्होंने ने धर्म को पहली बार अफीम कहने का साहस किया था, उन्होंने ये भी स्पष्ट किया है की धर्म एक सामूहिक आवेग से बढ़कर कुछ भी नहीं है- "धर्म असंतुष्टि की अभिव्यक्ति है और असंतुष्ट नहीं है उनकी भी अभिव्यक्ति है।" शायद यही एक कारण दिखता है मुझे जिसकी वजह से कोई अपने आप को नास्तिक कहने से बचता है, क्यूंकि कोई भी संतुष्ट नहीं हो सकता।
मनीष जी के लिखे से अक्षरशः सहमत होते हुए भी मेरा व्यक्तिगत मत है की धर्म और इससे जुड़े अंधविश्वासों से बचने के लिए हमें इसकी चर्चा से ही बचना चाहिए।। अगर लेखनी का कुठाराघात सकारात्मक सामाजिक प्रभाव ला सकता है तो विषयों को प्राथमिकताएँ देना सबसे जरूरी काम होगा। अतिशयोक्तियों के लिए क्षमा चाहूँगा।।

Mandan Jha ने कहा…

धर्म और इसकी चर्चा के अपने प्रभाव है। जहां हमारे पास बाजार और इसकी तथाकथित अदृश्य शक्तियों से निपटने के उपकरणों की कमी है। उस दौर में जहाँ मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं को भी आंकड़ों में तौल कर दरकिनार कर दिया जाता है, क्या हमें धर्म जैसे अंतहीन विषयों की चर्चा करनी चाहिए? मार्क्स जिन्होंने ने धर्म को पहली बार अफीम कहने का साहस किया था, उन्होंने ये भी स्पष्ट किया है की धर्म एक सामूहिक आवेग से बढ़कर कुछ भी नहीं है- "धर्म असंतुष्टि की अभिव्यक्ति है और असंतुष्ट नहीं है उनकी भी अभिव्यक्ति है।" शायद यही एक कारण दिखता है मुझे जिसकी वजह से कोई अपने आप को नास्तिक कहने से बचता है, क्यूंकि कोई भी संतुष्ट नहीं हो सकता।
मनीष जी के लिखे से अक्षरशः सहमत होते हुए भी मेरा व्यक्तिगत मत है की धर्म और इससे जुड़े अंधविश्वासों से बचने के लिए हमें इसकी चर्चा से ही बचना चाहिए।। अगले तबके के सुशिक्षित लोग सारे तर्कों को मानते हुए भी, वयवहार में कन्नी काट जाते हैं और अपेक्षतया पिछड़े सामजिक व्यवस्थाओं में ये मुद्दा कहीं ज्यादा संवेदनशील हो जाता है और अनीश्वरवाद हमेशा की तरह नकार दिया जाता है।

Unknown ने कहा…

aap mandir jate he aue aap dharam ki kitabe bhi pardhte he.... to aap ye hame batane ka sahas kare ki kya mandir me bethhe bhagawan aur dharam ki book ka chitran kitna netik aur wegyanik he???

Unknown ने कहा…

aap mandir jate he aue aap dharam ki kitabe bhi pardhte he.... to aap ye hame batane ka sahas kare ki kya mandir me bethhe bhagawan aur dharam ki book ka chitran kitna netik aur wegyanik he???