03 जनवरी 2012

मिस्र से हिन्दुस्तान तक - क्यूँ असफल हुए जनांदोलन?


युवा दखल के जनवरी-मार्च अंक का सम्पादकीय 

एक लंबे अंतराल के बाद युवा दखल फिर आप लोगों के हाथ में है. इस विलम्ब के कारण कुछ सांगठनिक हैं और कुछ आर्थिक भी. खैर कोशिश यही है कि इसे अब नियमित त्रैमासिक के रूप में निकाला जा सके. 

इस अंतराल में कितना कुछ हुआ. अरब देशों में व्यापक जनउभार के बाद सत्ताओं के परिवर्तन हुए. पूरी दुनिया की जनता ने इनका तहे दिल से स्वागत किया. लेकिन साल भर के भीतर अब लग रहा है कि जनउभार का लाभ जनविरोधी ताकतें उठा ले गयीं. सत्ता तो बदली पर जो नए लोग आये वह भी उसी वर्ग के हिस्सा थे. हालात यह हैं कि मिस्र में पन्द्रह से अधिक ऐसे लोगों की हत्या के समाचार हैं जो उस जनउभार में अत्यंत सक्रिय थे और आने वाले चुनावों में इस्लामी कट्टरपंथियों के विजयी होने की संभावना जताई जा रही है. दूसरे देशों में भी अमेरीकी पिट्ठुओं के नए-नए मुखौटों में सत्ता पर कब्ज़े की ही खबर है. 

आखिर ऐसा क्यूँ हुआ? क्यूँ जनता का वह गुस्सा, वह बलिदान इस तरह और इतनी जल्दी व्यर्थ चला गया? कैसे जनविरोधी ताकतें सत्ता पर काबिज होने में कामयाब हो सकीं? अगर दुनिया के अब तक के इतिहास के आईने में देखें तो इसकी वज़ह कुछ-कुछ साफ़ होती है. इन सब देशों में जनता अगर अपने शासकों के खिलाफ सड़क पर आई थी तो इसके पीछे दुनिया भर में जारी आर्थिक संकटों के फलस्वरूप उन देशों में भी बढ़ती मंहगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, भूखमरी जैसे कारण थे. यहाँ यह बता देना होगा कि इन सभी देशों में हमारे देश की ही तरह नब्बे के दशक में निजीकरण-उदारीकरण की नीतियाँ लागू हुईं थीं. ऐसे में लंबे समय से सत्ता में बैठे शासकों के खिलाफ गुस्सा फूटना स्वाभाविक था. लेकिन इन स्वतः स्फूर्त आन्दोलनों के पीछे उन व्यवस्थाओं के विकल्प को लेकर कोई साफ़ समझदारी नहीं थी. किसे हटाना है यह तो साफ़ था लेकिन उसकी जगह बनाना क्या है, इसका कोई रोड मैप कोई ब्लू प्रिंट तैयार नहीं किया गया. नतीजतन जहाँ जनता अपना खून-पसीना बहाती रही, इसका फ़ायदा उन शासकों को हटाकर खुद सत्ता पर काबिज होने के प्रयास में लगे लोगों ने उठा लिया. धार्मिक कट्टरपंथी संगठनों ने अपने संगठित स्वरूप और जनता के एक हिस्से में अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए अमेरिका की मदद से सत्ता की ओर कदम बढ़ाया. 

अमेरिका में 'कैप्चर द वाल स्ट्रीट' आंदोलन इसके बरक्स सीधे पूंजीवाद पर हमला करने वाला आंदोलन था. स्वतः स्फूर्त होने के बावजूद इसकी समझदारी साफ़ थी कि मुनाफे की हवस और सट्टेबाजी ने निन्यानबे फीसद जनता का जीवन दूभर कर दिया है. लेकिन सांगठनिक तैयारियों का अभाव वहाँ भी साफ़ था. उसकी किसी बड़ी सफलता की उम्मीद तो उसके आयोजकों को भी नहीं थी लेकिन उसने दुनिया भर को यह ज़रूर दिखा दिया की पूंजीवाद के मक्का में भी आम जनता किस तरह त्रस्त है. उसने पूंजीवाद के वर्तमान माडल की विफलता को साफ़ बता दिया. 

इसी के बरक्स अपने देश में अन्ना आंदोलन के उत्थान और पतन को देखा जा सकता है. नई आर्थिक नीतियों से उपजे मंहगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता को अन्ना के रूप में एक नायक दिखा और वह लोकपाल के बारे में जाने बिना उनके पीछे दौड़ गयी. अवतारों के भरोसे परिवर्तन की उम्मीद लगाने वाले समाज में अन्ना एक अवतार की तरह आये. राजनीतिक दलों के अपनी विश्वसनीयता पूरी तरह से खो देने के कारण अन्ना ने जो कहा उसे जनता ने पत्थर की लकीर मान लिया...लेकिन छः महीने बीतते-बीतते अन्ना आंदोलन का जादू उतरने लगा. सारा आंदोलन एक व्यक्ति में, सारी शक्तियां एक तानाशाही ताकत में और सारा विरोध एक पार्टी के खिलाफ केंद्रित कर देने  की ज़िद का परिणाम यह हुआ कि जनता की यह लड़ाई दो दलों की लड़ाई में तब्दील हो गयी. काश कि इस बहाने मुनाफे पर आधारित पूंजीवादी अर्थव्यवस्था पर सवाल खड़े किये जा सकते. 

खैर यह भी सच है कि जनता जब एक बार सड़क पर उतरना सीख जाती है तो फिर वह बार-बार उतरती है. आज बुद्धिजीवियों और एक बेहतर दुनिया का सपना देखने वालों का यह फ़र्ज़ है कि पूंजीवाद के एक सशक्त और कामयाब विकल्प के निर्माण के लिए बौद्धिक और राजनीतिक तैयारी पूरे दमखम से शुरू करें ताकि जनता जब अगली बार सड़क पर उतरे तो शान्ति, समृद्धि और  समाजवाद पर आधारित एक जनपक्षीय व्यवस्था का निर्माण करके ही दम ले.

नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित  

1 टिप्पणी:

murshid Aalam ने कहा…

mishra se hindustan tak aasafal hua hum kyonki hum pet se sochte hai.pure damkham se kamar sidhi karte hai ladhne ke lia. per pet etna badha bana lea hai ki vo lanbi ladhai ki ejajat nahi deta.par nirash hone ki bat nahi hai - kuch hoga kuch hoga/jab mai bolunga/ na tute tilisma satta ka/ mere aander ka kayar tutega/-hum phir...phir ladhenge.aapne lia...dusaron ke lia.