वह शहर का सबसे प्रसिद्ध बाग है - फूलबाग़! चारों कोनों पर चारों धर्मों के पूजा स्थल…वहां जब बड़े गर्व से एक फ्रांसीसी मित्र को घूमाने ले गया तो वे बोलीं- हम नास्तिकों की जगह कहां है? हमने कहा बीच की सारी हरियाली हमारी है!
शादी समारोहों में बदलते बौद्धिक आयोजनों का ख़र्च उठा पाना हमारे वश में नहीं तो यही पार्क हमारी चर्चाओं/कार्यक्रमों का अड्डा बनता है। बीच में घास, गांधी प्रतिमा के आस-पास मार्बल का फ़र्श…बस दरी बिछाई और बैठ गये। बड़े साहित्यकार कभी नहीं आते पर कार्यकर्ता हमेशा आ जाते हैं। पार्क में घूमने आये कुछ लोग भी शामिल हो जाते हैं और मूंगफलियां खाते हुए घण्टे-दो घण्टे बैठकर दुनिया-जहान के मसलों पर बात भी करते हैं। कई बार पत्रकार आते हैं और समझ ही नहीं पाते कि कोई कार्यक्रम चल रहा है…
इस बार भी उसी गांधी चबूतरे पर जमेगी चौपाल…कोई अध्यक्ष नहीं न कोई मुख्य वक्ता…माला-माइक-नाश्ता कुछ नहीं…चाय की गारंटी है…विषय है कि 'शहीद होने का मतलब क्या है'…हम बुला तो हर आमोख़ास को रहे हैं पर उम्मीद आम से ही है!
अगले रविवार 21 तारीख़ की शाम आप आयेंगे न इस चौपाल में!
1 टिप्पणी:
काश हम वहाँ होते...!
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