14 जून 2010

आज के कवियों का लेखन निरुद्देश्य है- बोधिसत्व (अंतिम क़िस्त)

(पिछली क़िस्तों में बोधिसत्व ने हिन्दी कविता की परंपरा, उसके कुछ जातीय लक्षणों आदि पर विस्तार से बात की। इस अंतिम क़िस्त में वह इसी रोशनी में पिछले बीस साल की कविता को देखते हैं)

(पाँच)

तो आज के जो भी कवि लिख रहे हैं उनके लेखन का ऐसा कोई बड़ा उद्देश्य नहीं है। वे केवल लिख रहे हैं। निरुद्देश्य लेखन का इतना बड़ा साम्राज्य शायद ही कभी हिंदी कविता में आया हो। आज साम्प्रदायिकता के खिलाफ लिखने का फैशन कमजोर हो गया है तो ऐसा लग रहा है कि लेखकों के पास कहने और कहने को कुछ बचा ही नहीं है। दलितों की समस्या, स्त्रियों की दुनिया, किसानों की सूखी रूखी भूमि से सुखी समाज के लेखकों का कोई वैसा नाता नहीं है। तथ्य यह भी है बहुत कम लेखक ऐसे है जो किसान-घर से आकर भी किसान जीवन पर नहीं लिखते। आज हिंदी कवियों की दुनिया एक खाते कमाते सुखी लोगों को लोक है। उसकी संबद्धता किसी बड़े व्यापक जन आंदोलन से नही जुड़ती।


बातें शायद मैं कुछ अटपटी कर रहा हूँ लेकिन क्या यह तथ्य नहीं है कि जो आज कविता के नाम पर लिखा जा रहा है वह सब खाना पूरी सा है। इसीलिए पिछली कई पीढ़ियों से कविता के भूगोल में कोई बड़ा बदलाव नहीं दिखा है। आज न कोई वाद है न कोई आंदोलन न कोई काल विभाजन। कितना दुर्भाग्य है हिंदी कविता का कि आज उसका कोई नाम नहीं है। आठवें दशक की कविता कहने से आप किस कवि और किस कविता का चेहरा देख पाते हैं। मेरी सबसे बड़ी समस्या यह है कि 1990 से 2010 तक कविता को क्या कह कर पुकारूँ। पिछले बीस सालों की ही क्यों 1970 से 1990 तक की कविता का भी तो कोई नाम नहीं है। सचाई यह है कि हिंदी साहित्य में आखिरी नाम शायद प्रयोगवाद या नई कविता का है या नकेन वाद-प्रपद्य वाद का। एक नामकरण हुआ था जिसमें साहित्य के एक दौर के लेखकों को भूखी पीढ़ी, नंगी पीढ़ी आदि कह कर पुकारा गया। लेकिन आज न वे लेखक हैं न उनके वंशज। नई कविता और नई कहानी के बाद के तो किसी भी विधा का कोई नामकरण हुआ ही नहीं। एक रोचक और दुखदाई तथ्य यह है कि हिंदी उपन्यास में कभी कोई नामकरण हुआ ही नहीं। प्रेमचंद पूर्व-प्रेमचंद कालीन-प्रेमचंदोत्तर यह है तीन काल विभाजन और नामकरण हिंदी उपन्यास के। यानी आज तक का पूरा हिंदी उपन्यास 1936 से अब तक प्रेमचंदोत्तर उपन्यास है और अगले नामकरण तक वह प्रेमचंदोत्तर ही बना रहेगा। यह नामकरण का शुभ कार्य शायद किसी रामचंद्र शुक्ल के पुनर्जन्म की प्रतीक्षा में स्थगित है। क्योंकि आज के आलोचक बड़े संकोची हैं किसी का नामकरण करके अपनी मर्यादा की सीमा तोड़ना नहीं चाहते। आंचलिक उपन्यासों को छोड़ दे तो पूरा कथा साहित्य बेनाम है।


तो मैं क्या करूँ। आज की कविता को क्या कह कर संबोधित करूँ, क्या नाम दूँ। क्या कहूँ नवे दशक की कविता दशवें दशक की कविता 1990 से 2000 तक की कविता या 2000 से 2010 की कविता। या फिलहाल के लिए यह नामकरण का कार्य किसी आलोचक के लिए छोड़ कर 20 साल की कविता और उसके कवियों पर अपनी राय दूँ और चुप रहूँ। तो मैं यही करता हूँ।

आज के कवियों का बड़ा हिस्सा ऐसा है जो गाँव में जन्में और छोटे शहरों के रास्ते होते महानगरों में में पहुँचे हैं। गिनती के कुछ ही कवि हैं जो गाँवों के करीब के जनपदों और कस्बों में रह रहे हैं।


बड़े नगरों या महा नगरों के कवियों में बहुधा गाँव छूटने का दर्द या गाँव में छूट गए सामानों की याद से भरा पड़ा है। कुछ कवियों ने तो खोज-खोज कर ऐसे सामानों की सूची बनाई फिर उसे कविता के रूप में पेश किया। उनका नाम यहाँ लेना जरूरी नहीं समझता। ऐसे कवियों ने कविता को लगभग निंबध की तरह पूरा किया। उनके लिए आम का अचार और पीतल का लोटा, भी एक पूरी कविता का माध्यम बना। ऐसे घरू मोह कविताओं से हिंदी कविता का परिदृश्य अक्रांत है। और इस तरह की कविता लिखने का दौर थमता नहीं दिखता। अक्रिय घरू मोह क्योंकि हर नई पीढ़ी इस तरह से अपने गाँव को याद करेगी और हिंदी कविता को ग्राम-वियोग के भावों से भरेगी। ऐसा नहीं कि मैं इस तरह की कविता के खिलाफ हूँ। ऐसा लेखन तो होगा ही। लेकिन उसमें कोई नया पन तो हो।

(छ:)

जिन कवियों ने अपनी कविताओं कुछ नया कहने की कोशिश की है उनमें शिरीष कुमार मौर्य, हरि मृदुल, हरे प्रकाश उपाध्याय, राकेश रंजन, कुमार अनुपम, निशांत, मनोज झा, जैसे कवियों का नाम लेना चाहूँगा। इनकी कविता में ऐसा नहीं कि घरू मोह नहीं है। किंतु इन्होंने अपने कथन से कविता को एक नया पन दिया है। इन कवियों ने कहीं भी अपने पीछे के कवियों से प्रभाव ग्रहण करने की कोशिश नहीं की है। उदाहरण के लिए राकेश रंजन के संग्रह चाँद की वर्तनी में संकलित गाय शीर्षक कविता को देख सकते हैं।

जब भी कोई उत्सव होता
बाबा उसे सजाते थे
कभी-कभी तो उसे पूजते
आरती दिखाते थे।

यही कविता यदि कोई निबंध वादी कवि लिख रहा होता तो बहुत देर तक वह गाय के रूप रंग पर लगा होता। लेकिन राकेश रंजन को तो वह कहना है जो लोग नहीं कह रहे हैं। ऐसी गाय जो कि सब सह लेती थी और कुछ भी नहीं कहती थी। वह आँसू पीकर खूँटे से बधी रहती थी। ऐसी गाय को जब लाचार बाबा ने बेंच दिया। तब राकेश रंजन लिखते हैं-

चली गई वह देह सिकोड़े
मुँह लटकाए रोती सी
संझा के बोझल पलछिन में
दृग से ओझल होती सी

कहाँ गई वह चिर दुखियारी
बस्ती या बिराने में
हरे भरे से चरागाह में
या फिर बूचड़ खाने में ?
यह गाय नहीं एक गरीब की बेटी के बिकने की अन्तर्कथा है। यह कविता मुझे भिखारी ठाकुर के बेटी-बियोग कथा की याद दिलाती है। जहाँ एक पिता अपनी सब कुछ सहने वाली चुप रहने वाली पुत्री को किसी के हाथ बेंचता है। भिखारी ठाकुर की एक पंक्ति है-
चेरिया के छेरिया बनवले हे बाबूजी

यानी अपनी पुत्री को बकरी बना कर बेंच दिया पिता ने। राकेश रजन से एकदम अलहदा ढंग से शिरीष मौर्य ने अपनी कविता को एक नया पन दिया है। उनके यहाँ कोई अतिकथन का माहौल नहीं है। ट्रैक्टरों के खेतों में उतरने से एक तरफ किसान को सहूलियत हुई है तो वहीं इस बदलाव से एकांत में छूटते जा रहे एक कमजोर हल का दुख दर्ज करते हैं। यह हल अकेला हल नहीं बल्कि वह कम जोत वाला किसान भी है जो   
कही छूटता जा रहा है-

दिन भर की जोत के बाद पहाड़ में
मेरे घर की दीवार से सट कर खड़ा वह
मुझे किसी दुबके हुए जानवर की तरह
लगता है

आज के ये युवा कवि निश्चय ही अपने पीछे के कवियों से राह बनाना सीख रहे हो फिर भी ये किसी के पद चिन्ह पर चलते नहीं दिख रहे। एकांत श्रीवास्तव, निलय उपाध्याय, मोहन डहेरिया, हरिओम राजौरिया, अष्टभुजा शुक्ल बद्री नारायण, आदि कवियों की काव्य चेतना से अप्रभावित है इन कवियों की ग्राम चेतना। हरे प्रकाश उपाध्याय आज के गाँव का न बदलता सच अपनी इस बरस कविता में रेखांकित करते हैं-

बढ़ई इस बरस चीरेगा लकड़ी
लोहार लोहा पीटेगा
चमार जूता सिएगा
और पंडीजी कमाएँगे जजमनिका
बेदमन्त्र बाँचेंगे
पोथी को हिफ़ाज़त से रखेंगे
और सबकुछ हो पिछले बरस की तरह
आशीर्वाद देंगे ब्रह्मा, विष्णु, महेश....!


हरि मृदुल के यहाँ पहाड़ की दुनिया है। शायद हरि अकेले कवि है जो पहाड़ को बिना अतिरिक्त लाग लपेट के दर्ज कर पाते हैं।

ऐसा नहीं कि जिस कविता ने आज की समकालीन कविता के परिदृश्य को भरा है उनमें सिर्फ वे कवि है जो ग्रामीण चेतना से भरे हैं। उन कवियों में ऐसे भी कई कवि हैं जो अपनी ऊर्जा तो अपने ग्राम जीवन से पाते हैं लेकिन उनकी दृष्टि से शहरी समाज और उसका सच कभी भी ओझल नहीं हो जाता। पिछली पीढ़ी में भी कई कवि ऐसे हैं जिन्हेंने अपने लेखन से हिंदी कविता को समृद्ध किया है इनमें संजय कुंदन, अनिल कुमार सिंह, सुंदरचंद ठाकुर, हेमंत कुकरेती, आर चेतल क्रांति, पवन करण, नरेश चंद्रकर का नाम प्रमुखता से सामने आया था। आज के शहरी परिवेश में जिन कवियों ने अपन लेखन में दर्ज किया है उनमें बसंत त्रिपाठी, तुषार धवल, रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति, रविकांत, उमा शंकर चौधरी अंशुल त्रिपाठी, प्रांजल धर, रमेश पाण्डेय, विशाल श्रीवास्तव, भरत प्रसाद का नाम प्रमुख है। बसंत त्रिपाठी की कविता में उनका स्वअर्जित काव्य कौशल है जिसके सहारे वे एक अलग कोटि की कविता बुनने में कामयाब हो जाते हैं। तबी तो वे एक अधेड़ स्त्री की धार्मिकता के पाखण्ड को ठीक से देख पाते है-
वह साल में एक बार
बृंदावन जरूर जाती है
और निठल्ले भक्तो के साथ
राधे-राधे करती बृंदावन की गलियाँ घूमती है
और.......

अपनी बड़ी बेटी की प्रेम पाती पकड़ते ही
पिछले साल
उसे गर्म सलाख से दाग दिया था।
यह एक अलग तरह का वर्ग है जो प्रेम पर पहरे लगाने के लिए ही समाज में बना हुआ है जैसे। तुषार धवल कम लिखते हैं लेकिन उनका काव्य बोध अलग होता है। अपनी एक कविता में बहनें में एक अलग शब्दावली में बहनों का दुख दर्ज करते हैं-
आंगन में बंधे खम्भे से
लट सी उलझ जाती हैं
बहनें
और
दर्द की एक सदी
खुली छत की गर्म हवा में
कबूतर बन उड़ जाती है।
यदि तुषार के यहाँ संबंधों का एक पहलू है तो प्रांजल धर की कविता में बहने आज भी भाइयों के लिए अपनी उमर तक का दान देती दिखती हैं। लेकिन उस चिट्ठी के लिए भाई के घर में कूड़े दान के अलावा कोई जगह नहीं है-
फूलदार लकीरों से रेखांकित शब्द थे
बहन की चिट्ठी में
आई जो बहुत दूर से थी
भैया को मेरी उमर लग जाए।
विशाल ने कुछ बहुत ही अलग तरह की कविताएँ लिखी हैं। वे कम लिखते हैं लेकिन इनका स्वर उन बहतु सारे सव्रों को दर्ज करता है जो मुन्नू मिसिर की तरह कहीं इतिहास के पन्नों और भव्य सभाओं में जगह नहीं पाते-
बहुत पक्का गला है मुन्नू मिसिर का
अद्भुत गाते हैं मुन्नू मिसिर
फिर भी भव्य सभाओं में नहीं जाते मुन्नू मिसिर
कहीं किसी किताब में नहीं छपा है उनका नाम
उनके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं
रमेश पाण्डेय शायद अकेले कवि हैं जिनकी कविता में जंगल का जीवन दिखता है। किसान दिखता है और वे उस किसान में को रोता नहीं बल्कि किसी और रूप में देखना चाहते हैं, वे अच्छा होता कविता में कहते हैं कि-
मुझे अच्छा नहीं लगता
मेड़ पर बैठकर
सिसकता किसान
अच्छा होता
अब सुबह शाम वह
पुरबी कुएँ की जगत पर
घिसता अपनी कुल्हाड़ी।

उमाशंकर ने अपनी कविता में उस स्त्री को दर्ज किया है जिसका जीवन एक खिड़की के आस पास बीत जता है। यह दृश्य शायद शहर के लोगों के लिए दर्ज करने लायक न हो लेकिन उमा शंकर इस तरह के जीवन की त्रासदी को ठीक से देख पाते हैं। वे देख पाते हैं कि किस तरह वह औरत उस खिड़की से संसार को देखने में लगी है-
वह औरत उस छोटी खिड़की से
देखती है गली में, उस सब्जी वाले को
देती है आवाज गली में खेलते अपने बच्चों को
और करती है इंतजार काम पर से
अपने पति के लौटने का।
छोटी खिड़की कभी बंद नहीं होती।

कुमार अनुपम के यहाँ भरा पूरा घर संसार है। उसमें वे बड़ी बुआ का दुख देख पाते हैं। हमारे घरों में किस तरह लड़कियाँ बिन ब्याही रह जाती है सालों साल। वे घर में बैठ कर गिनती रह जाती है उमर और घर की लड़किया खत्म हो जाती हैं जैसे बड़ी बुआ खोत्म हो गई शायद-
बड़ी बुआ बस बटोरती रहीं
गिरे बाल और नेग।

रविकांत का लिखने का अपना ढंग है। उनका जीवन को लेकर सोचने का ढंग थोड़ा सूफियाना है। वे हर घटना और उसके हर पहलू की पड़ताल करके इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि रुकना बेमानी है । अपने संग्रह यात्रा की एक कविता गिरे तो क्या हुआ कविता में वे कहते हैं-
मुसाफिरी से भरा यह जीवन
जो मिला सो मिला
गलियों में छूटते बच्चे
जो हुआ सो हुआ

अंशुल त्रिपाठी की कविता अपने मित कथन के लिए ध्यान खीचती है। वे बोलना कम चाहते हैं और उनकी कविता सवाल बड़े खड़ी करती है। वे स्त्री जाति के लिए बहुधा चिंतित दिखते हैं। इतिहास में स्त्रियों का स्थान खोजते दिखते है। वे प्रश्न करते हैं कि इतिहास में सित्रियाँ कहाँ थी-
अपने बाँझपन का इलाज कराने में व्यस्त
रानियाँ थीं
गर्भ सम्हाले टहलती हुई दासियाँ थीं
आखेट पर जाकर न लौटने वाली दासियाँ थीं
मकबरे पर रोने को थी वेश्याएँ
इतिहास में स्त्रियाँ कहाँ थी।

भरत प्रसाद न इधर बड़े श्रम से कविता लिखने की कोशिश की है। उन्होंने कुछ अछूते विषयों को कविता के संसार में दाखिला दिलवाया है। एक समय था कि जब प्रकृति की ओर लौटने की बात की जाती थी। लेकिन भरत प्रसाद प्रकृति की सुंदरता से आत्म विभोर हो जाते हैं। तभी तो प्रकृति की ओर कविता में वे लिखते हैं-

मैं तो अल्हड़ बचपन से
झुकी हुई सांवली घटाओं में
धारासार दूध बरसता हुआ
देखता चला आ रहा हूँ।

आत्मविभोर कर देने वाला
यह विस्मय
मुझे प्रकृति के प्रति
अथाह कृतज्ञता से
भर देता है।

मनोज कुमार झा को पिछले साल का भारत भूषण सम्मान मिला है। उनकी उपस्थिति हिंदी कविता को थोड़ा और बल प्रदान करती है। उनकी भाषा बड़ी तरल है और उनमें
एक अलग तरह का शब्द संस्कार भी झलकता है। उनकी कविता में एक भरा पन है तो बड़ी प्रतीक्षा के बाद हिंदी कविता के इलाके में आ पाया है। मनोज की एक कविता है प्रतीक्षा जिसमें एक छुपी हुई दैहिक सांद्रता है-

देह छूकर कहा तूने
हम साथ पार करेंगे हर जंगल
मैं अब भी खडा हूँ वहीं पीपल के नीचे
जहाँ कोयल के कंठ में काँपता है पत्तों का पानी।
(सात)

गीत चतुर्वेदी, गिरिराज किराडू, पीयूष दइया, यतीन्द्र मिश्र, व्योमेश शुक्ल, उन कुछ कवियों में हैं जिनके यहाँ हिंदी कविता का सबसे निर्मल रूप दिखता है। आप शुद्ध काव्य के रूप में इन कवियों की कविता को देख सकते हैं। इनके काव्य संसार में न केवल वर्णन का अपना ढंग है बल्कि इनकी कविता का कथ्य भी अलहदा है। यहां न तो कोई विरोध है न संघर्ष।

गीत चतुर्वेदी की कविता आलाप में गिरह उनके काव्य सुर की सच्ची गवाही देती है। वहाँ न कोई आग्रह है न आकांक्षा केवल स्थिति है और उसका उल्लेख है- पढ़े पूरी कविता

जाने कितनी बार टूटी लय
जाने कितनी बार जोड़े सुर
हर आलाप में गिरह पड़ी है

कभी दौड़ पड़े तो थकान नहीं
और कभी बैठे-बैठे ही टप् से गिर पड़े
मुक़ाबले में इस तरह उतरे कि उसे दया आ गई
और उसने ख़ुद को ख़ारिज कर लिया
थोड़ी-सी हँसी चुराई
सबने कहा छोड़ो भी
और हमने छोड़ दिया
गिरिराज किराड़ू की कविता के बारे में यही कह सकता हूँ कि उनका शब्द संसार मुझे उलझन में जालता है। वे बीतरागी की तरह दुनिया पर एक निगाह डालते हैं-
सुंदर भी वैसे ही नष्ट करता है
यह मेरे न रहने के बाद होती हुई बारिश है
उतना ही खिलाती हुई उतना ही ढहाती हुई
यह मेरे न रहने के बाद मरती हुई दुनिया है
उतनी ही सम्मोहक उतनी ही अवसन्न 
पीयूष दइया हमेशा ही छोटी कविताएँ लिखते हैं। उनका कथन संस्कृत सूक्तियों की याद दिलाता है। उनकी छु्अन कविता देखें-
आवाज़ के पता होने में
छुअन है
बारिश की
बूंदों के जोड़ से बनती

उफ़ !
यह दिल बना है
चलते-चलते

पूरा होता
किस्तों के भेस में
हमेशा वास्ते

यतीन्द्र मिश्र ने बहुत तेजी से हिंदी कविता में अपना मुकाम हासिल किया है। उनके पास एक बहुत सधी हुई भाषा है। कभी-कभी उनकी शब्द सम्पदा देख कर अचम्भा होता है।
इस भूगोल का अपना सुनील जल
काँपता रहता हर पल नई तान पर
संशय का एक पीला पत्ता इसमें गिर जाने से
बदल देता तान को नए सिरे से।

व्योमेश शुक्ल की कविता पर लोगों का ध्यान उनके कथन के कारण गया था। आज भी उनके कहने का ढंग निराला है, उनकी कविता की निष्पतियाँ आकर्षित करती हैं। दीवार पर शीर्षक उनकी एक कविता देखें-
गोल, तिर्यक, बहकी हुईं
सभी संभव दिशाओं और कोणों में जाती हुईं
या वहाँ से लौटती हुईं
बचपन की शरारतों के नाभिक से निकली आकृतियाँ
दीवार पर लिखते हुए शरीफ बच्चे भी शैतान हो जाते हैं 

(नौ)

हिंदी में इतनी कम कवयित्रियाँ सक्रिय हैं कि लज्जा आती है। ले देकर कुल 7 या 10 कवयित्रियाँ के नाम हैं जिनके इर्द-गिर्द पूरा हिंदी समाज पिछले 15 20 सालों से घूम रहा है। अनामिका, गगन गिल, तेजी ग्रोवर, सविता सिंह, अनिता वर्मा जया जादवानी और निर्मला गर्ग। इनके बाद जो पीढ़ी आई है उनमें  नीलेश रघुवंशी, संज्ञा सिंह,  राजुला शाह, रंजना जायसवाल, रंजना श्रीवास्तव, का नाम लिया जा सकता है। संथाली मूल की कवयित्री निर्मला पुतुल का नाम भी लिया जा सकता है। तो भी हिंदी कविता का समकालीन परिदृश्य बहुत सघन नहीं दिखता है।
राजुला शाह की कविता में
इस जनम में

फिर भी
इस जनम में
तुमसे ही
बाकी सब
अपनी जगह पर है
इसलिए
मैं कहीं भी रहूँ
तुम यहीं रहना
मैं कुछ भी कहूँ
तुम यही कहना
मैं हूँ
मैं रहूँगी।

रंजना जायसवाल काफी दिनों से लिख रही हैं। और उनके लेखन की प्रौढ़ता उनकी कविता में दिखती है। उनकी आकांक्षा कविता में एक स्त्री के अधूरे सपनों का दुख दिखता है-
स्त्री
निचोड़ देती है
बूँद-बूँद रक्त

फिर भी
हरे नहीं होते
उसके सपने।
संज्ञा सिंह ने एक समय पर बहुत सारी और अच्छी कविताएँ लिखी थीं। अभी तो मैं यह भी नहीं कह सकता कि वे कहाँ हैं। लिख भी रही हैं या नहीं। उनकी कुछ कविताएँ जो मेरे पास हैं उनके आधार पर कह सकता हूँ कि उनकी कविता में एक सहज गंभीरता है। कविता है। अनुराग तुम्हारा कविता में उनके मन का स्नेह भाव बहुत मार्मिकता से व्यक्त हुआ है-
अखंडित
अनुराग तुम्हारा
राग बना रहा मेरे लिए

खंडित दलित
प्यार मेरा
कहीं से भार नहीं बना
तुम्हारे लिए

तुम सब कुछ करते रहे
आह में चाह के स्वर
सहेजे

मै
तुम्हारे लिए
न बचा सकी
ख़ुद को


रंजना श्रीवास्तव हिंदी की उन कवयित्रियों में हैं जिन्होंने अपने मन की व्यथा को खुल कर सामने रखा है। तभी तो वे रोबोट कविता में कह पाती हैं कि-
लड़की से कहा गया कि
वह कविता न लिखे
इस तरह उसे
जीते जी मार दिया गया


नीलेश रघुवंशी हिंदी कविता का सबसे मेधावी मुखर स्वर है। उनकी कविता का स्वर कभी भी बहुत कमजोर नहीं पाता। वे लगातार लगातार लिख रही हैं। और उनकी कविता में एक भावुक भोले पन के साथ ही एक समझदारी भी बनी रहती है, वे घनघोर आत्मीय क्षण में भी सजग रहती है, सचेत रहती है-


जब जब हारी खुद से आई तुम्हारे पास
मेरे जीवन का चौराहा तुम
रास्ते निकले जिससे कई कई !
वो कौन सी फाँस है चुभती है जो जब तब
डरती हूँ अब तुमसे मिलने और बतियाने से
मिलेंगे जब हम करेंगे बहुत सारी बातें

(10)

अंशु मालवीय अशोक कुमार पाण्डे, कुछेक कवि हैं जिनकी कविता में वाम-वैचारिक-दृढ़ता साफ-साफ देखी जा सकती है। आज जब विचार को बोझ कह कर प्रचारित किया जा रहा है। उस दौर में ये कुछ कवि हैं जो विचारवान होकर कविता कर रहे हैं। आज अंशु मालवीय का विचार बोध उनकी शक्ति है। मेरे हिसाब से वे कुछ एक कवियों में हैं जिनकी कविता बैचारिकता से कमजोर न होकर सबल ही होती है। उनके संग्रह दक्खिन टोला को जितना चर्चा में आना था वह तो नहीं हुआ। आलोचकों ने भी उनकी कविता को दरकिनार किया। फिर भी अंशु अपनी कविता की गभीरता को न केवल बरकरार रख पाए हैं बल्कि उनका कथन और खरा हुआ है। उनकी दृष्टि व्यापक हुई है। तभी तो वे उस खतरनाक सच को ओझल नहीं होने देते जिसमें एक पूरा तबका केवल खटता है और एक पूरा तबका उस श्रम को बेभाव अपने हिस्से में प्रयोग करता है। संताने हतभागी कविता में अंशु लिखते हैं-

धरती के भीतर का पानी
खींचा हमने खेत सधाए
पानी बंधुआ बोतल में
साँस नमी की घुटती जाए
जब से भूख तुम्हारी जागी
पानी बिका
बिकी पानी की संतानें हतभागी
पांड़े कौन कुमति तोहे लागी !  

अंशु की तरह ही अशोक कुमार पाण्डेय की कविता में एक वैचारिक सजगता दिखती है। उनकी कोई कविता मुझे ऐसी नहीं दिखी जिसमें विचार से बचने का कोई आग्रह हो। उन्हें व्यवस्था का बेढ़ंगा पन सालता है और वे चुप रहने के खिलाफ हैं । इसीलिए वे जो चुप हैं उनको अशोक अपनी कविता से कुरेदते उकसाते हैं-

वे चुप हैं
कि उन्हें मालूम हैं आवाज़ के ख़तरे
व चुप हैं कि उन्हें मालूम हैं चुप्पी के हासिल
चुप हैं कि धूप में नहीं पके उनके बाल
अनुभवों की बर्फ़ में ढालते विचारों की शराब
वे चुप हैं।


हालाकि इन कवियों और कवयित्रियों के अलावा और भी युवा स्वर हैं जो लिख रहे हैं लेकिन न तो मैं सब को समेट सकता हूँ न मेरी ऐसी कोई कोशिश ही है। बस यही कह सकता हूँ कि हिंदी कविता का प्रतिनिधत्व करने वाले कवि इसी तरह की कविता लिख रहे हैं। यह कैसी है इसका भविष्य क्या है यह तो समय ही तय करेगा। लेकिन हजारों कवियों के बीच भी अभी वह स्वर आना बाकी है। जिसके लिए हिंदी को प्रतीक्षा है।


8 टिप्‍पणियां:

nilesh mathur ने कहा…

समझना मुश्किल है की किस तरह आज के कवियों का लेखन निरुद्देश्य है? या तो आप के पास पढने का समय नहीं है या कोई और बात है तो मेरी समझ से बाहर है, इस तरह अगर नए लेखकों को हतोत्साहित करने लगे तो और भी बुरा हाल हो जाएगा!

Jandunia ने कहा…

सार्थक पोस्ट

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

मरने के बाद तो सोद्देश्य होगा!

प्रज्ञा पांडेय ने कहा…

आपका आलेख अच्छा लगा .. खासकर उद्धृत कवियों के नाम और उनकी कवितायेँ !इस काल खंड को कोई नाम ना दिया जा सका यह आप ठीक कहते हैं ..लेकिन आज की कविता निरुद्देश्य कहाँ लगती है .

Pratibha Katiyar ने कहा…

आपका लेख बड़े ध्यान से पढ़ रही थी लेकिन जिसका डर था वही हुआ...आखिर में गुड गुड वाली फिजा बन गयी...मेरा मानना है की या तो ऐसे मौकों पर किसी का नाम लिया ही न जाये या फिर पूरी सावधानी से नामो का चयन किया जाये...और भी नाम हैं जो वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ बेहतर लिख रहे हैं...बहुत बेहतर.

Pratibha Katiyar ने कहा…

आपका लेख बड़े ध्यान से पढ़ रही थी लेकिन जिसका डर था वही हुआ...आखिर में गुड गुड वाली फिजा बन गयी...मेरा मानना है की या तो ऐसे मौकों पर किसी का नाम लिया ही न जाये या फिर पूरी सावधानी से नामो का चयन किया जाये...और भी नाम हैं जो वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ बेहतर लिख रहे हैं...बहुत बेहतर.

Rangnath Singh ने कहा…

प्रतिभा जी ने जो कहा वही लिखने के लिए कमेंट बाक्स खोला था। आपने एक दो टुकड़ें में जो जीवंत प्रश्न उठाए उनको अतिसरलीकरण की तरफ ले गए। फिर भी आपके इस लेख से हमें लाभ हुआ है। निसंदेह इस लेख के कुछ भाग बहुत अच्छे हैं। आपकी मूल स्थापना को ध्यान में रखु तो... अधूरा रह जाना इस समय की पहचना बनती जा रही है।

उमा ने कहा…

उमा,
हिंदी कविता की पहचान नहीं बन पा रही है, पर कवियों ने अपनी पहचान जरूर बनाई है। यह ठीक उसी तरह जैसे भारत तो समृद्ध हुआ है, पर भारतीय और भी गरीब। क्या इस पहचान के लिए चिंता कवियों में नहीं होनी चाहिए, क्या आलोचकों में इसकी चिंता है, 21 वीं सदी में साहित्येतिहास पर विचार हुआ है? इसकी पड़ताल भी जरूरी है। एक तरफ आपने दर्जनों नाम गिना दिए, लेकिन यह बताते हुए कि इनके लेखन में निरुद्देश्यता है। निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि फिर इस लेखन का प्रयोजन क्या? मंच पर बुलाकर माला भी पहना दिया और ...
मैंने अपने ब्लाग में यदा-कदा मठाधीशी से लेकर अराजक इतिहास लेखन पर राय जाहिर की है। एक प्रासंगिक अंश दे रहा हूं -
थोक के भाव में लिखे हिंदी साहित्य के इतिहास शायद ही एक भी ग्रंथ हो, जिसने इतिहास लेखन की अकादमिक सीमाओं और मठाधीशी को त्यागा हो। यह परंपरा रामचंद्र शुक्ल से ही शुरू हो जाती है। हिंदी साहित्य मौलिक रूप से जितना ही समृद्ध और जीवंत है, उसका इतिहास लेखन उतना ही दुहराव व अनुकरण से भरा। हिंदी साहित्य के इतिहास लेखकों में अपने समकालीनों को लेकर पाई जानेवाली कुंठा ने उन्हें भले ही तात्कालिक आनंद दिया हो, तृप्ति दी है, पर हमेशा – हमेशा के लिए हिंदी जाति को उसके मूल संस्कार और वाजिब गौरव से काटा है। साहित्य स्रोत है और इतिहास परिप्रेक्ष्य, यह बात जानना इतिहास लेखकों के लिए जितना ही जरूरी, उससे कम जरूरी नहीं साहित्येतिहास लेखकों के लिए भी। लेकिन समाज से कटे लेखकों में मूल दृष्टि का ही अभाव नहींहोता, बल्कि स्रोत की विश्वसनीयता की परख भी नहीं होती। यह अकारण नहीं है। पारिवारिक सर्वेक्षण करने निकले लोगों के उस जत्थे की कल्पना कीजिए जो मोहल्ले की किसी बैठकी में शामिल होकर पूरे मोहल्ले या गांव के ब्योरे इकट्ठे कर लेता है। क्या सारा का सारा इतिहास लेखन इसी तरह बरता गया नहीं लगता है। (यह तो होता ही रहता है)
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