10 जून 2010

हिंदी लेखक सत्ता से समझौता करके चलने वाला एक सामाजिक है…

बोधिसत्व

(अब प्रौढ़ हो रहे हिन्दी के युवा कवियों में बोधिसत्व अपने बेबाक रवैये और अध्ययनशीलता के लिये जाने जाते हैं। अभी परिकथा के युवा कविता अंक में उनका आलेख पढ़कर जब मैने उसे अपने ब्लाग के लिये मांगा तो उन्होंने बताया कि वह उनके एक लंबे आलेख का हिस्सा है। उस पूरे आलेख को यहां तीन-चार क़िस्तों में लगाने की योजना है। 
आमतौर पर हम हिन्दी कविता को प्रतिरोध की कविता कहते हैं लेकिन बोधिसत्व ने उस प्रतिरोध की सीमाओं की पड़ताल की है जो नई बहस की ज़रूरत की ओर इशारा करती है।)
हिंदी कविता का पिछला बीस साल
(एक)

मेरा पहला ही सवाल है कि क्या कविता को दशक और पंच वर्षीय योजनाओं में विभाजित किया जा सकता है। उत्तर है कि कुछ लोग तो हर साल की सर्वश्रेष्ठ कविता खोज लेते हैं। और कुछ तो इस शोधन-कला में इतने पारंगत हैं कि वे चाहें तो हर महीने हर हप्ते हर दिन हर पल की कविता में श्रेष्ठ और घटियाँ का निर्णय कर सकते हैं। लेकिन मैं इतना गुणी और पारखी नहीं हूँ और मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मेरे पास इस तरह का कोई पैमाना नहीं है कि मैं हिंदी कविता को दस-दस साल के खाँचे में फिट करके उसका मूल्यांकन कर सकूँ।

मान्यता है कि 20 साल की एक पीढ़ी होती है। तो मैं कोशिश करता हूँ कि 1990 से 2010 तक की कविता पर अपनी राय दे सकूँ। यदि 1986 से जोड़ूँ तो 24-25 साल से हिंदी के साहित्य संसार में भटक रहा हूँ। थोड़ी बहुत पढ़ाई कविता के इतर जो लेखन हो रहा है या हुआ है उसकी भी की है। लेकिन थोड़ी ही। बहुत नहीं। पिछले 9-10 सालों से उस तरह लग कर न पढ़ पा रहा हूँ न लिख पा रहा हूँ। यहाँ मुंबई के रस हीन साहित्य समाज में तो साहित्य चर्चा के लिए भी दो चार नाम नहीं हैं। और जो हैं उनके मन में सब फ्रीज फिक्स हो गया है। उनसे आप गप्प कर सकते हैं, बतरस हो सकती है बतकुच्चन हो सकती है साहित्य विमर्श नहीं। यहाँ आलोचना शत्रुता का कारक है और प्रसंशा करने वाले बौद्धिक माने जाते हैं।

20 सालों यानी एक पीढ़ी की कविता पर बात करने के पहले मैं कुछ दो चार बातें हिंदी साहित्य की मनोदशा पर करना चाहूँगा। ये बातें मेरी अपनी समझ और मनोदशा की भी परिचायक हैं। यदि हम 1900 से 2010 तक के साहित्य को अपनी सुविधा के लिए आजादी के पहले और बाद के साहित्य में विभाजित कर दें तो मेरी बात समझने में थोड़ी सहूलियत होगी। 1947 के पहले के साहित्य को यदि हम गुलाम भारत का साहित्य माने जो कि एक कड़वा सच है भी। और इस कड़वे सच की साखी में उस दौर के साहित्य को परखें तो बड़े दिल दहलाने वाले नतीजे सामने आते हैं। क्या आप उस दौर के साहित्य को पढ़ कर यह नतीजा निकाल सकते हैं कि भारत पर अंग्रेजों की हुकूमत थी। अंग्रेजों की भारत की गई ज्यादतियाँ शून्य के बराबर भी आपको किसी उपन्यास कहानी कविता में दर्ज शायद ही मिलें। छायावाद के दौर की बात करें या प्रगतिशील लेखकों द्वारा सृजित साहित्य को देखें। कहीं भी खलपात्रों में भी अंग्रेज नहीं हैं जब कि कई कहानियाँ और कविताएँ मिल जाएँगी जिनमें मुसलमान शासकों को खल पात्र के रूप में चित्रित किया गया है। प्रेमचंद, प्रसाद, निराला और पंत जैसे महान शिल्पियों ने भी अपने किसी लेखन में कहीं सीधे सीध अंग्रेजों के अत्याचारों को अपने लेखन से रेखांकित करने की कोशिश की हो ऐसा मुझे नहीं दिखा। जब्तशुदा तरानों में भी इन मुख्यधारा के शिल्पियों का लेखन गौड़ रूप से भी शामिल नहीं है।

(दो)

यदि अंग्रेज सरकार द्वारा जब्त गीतों या कविताओं की बात करें तो उनमें मुख्याधारा के कवियों की रचनाएँ बहुत कम हैं। जिन कवियों की रचनाओं पर रोक लगी उनमें शामिल हैं माखन लाल चतुर्वेदी( पुष्प की अभिलाषा), जयशंकर प्रसाद( हिमाद्रि तुंग), सुभद्रा कुमारी चौहान(आजादी की देवी), सोहन लाल द्विवेदी( खादी गीत)। राम प्रसाद विस्मिल, श्याम लाल गुप्त पार्सद, विचारान्नद सरस्वती जैसे कवियों का स्थान कितना और किस हिंदी साहित्य में हैं आप सबसे छिपा नहीं है। सोहन लाल द्विवेदी औरक माखन लाल जी का कितना मान हैं मैं भी जानता हूँ।

मेरे कहे पर निश्चय ही कई आलोचकों और पाठकों को उलझन होगी। लेकिन आप खुद सत्यता की जाँच परख कर लें। गोदान से लेकर कफन तक हर कहीं खल पात्र और वर्ण्य विषय कौन है आप आसानी से देख सकते हैं। कहीं ऐसा भी संकेत नहीं है कि अंग्रेजों की लूट और देश को उपनिवेश मानने समझने के चलते भारतीय जन की यह दुर्दशा है। निराला किसी कविता में नहीं लिखते या संकेत करते कि जो लोग लूट रहे हैं उन्हें भगाओ। जागो फिर एक बार जैसी कविताएँ किस तरीके से अंग्रेजी शासन का विरोध कर रहीं थीं मेरी तो समझ में नहीं आता। जबकि उन्हीं निराला जी के यहाँ शासन करते थे मुसलमान जैसी पंक्तियाँ बड़े शान से लिखी जाती रही हैं। इसके अलावा कुछ उग्र हिंदू राजाओं के नाम लिखी उनकी कविताएँ उनकी मानसिक बनावट का साफ संकेत करती हैं। लेकिन उनके यहाँ भूल कर अंग्रेजों के प्रति कोई ऐसा वाक्य मेरे देखे में नहीं मिला। यदि हो तो आप या निराला के आलोचक उन पंक्तियों को समाज के सामने रेखांकित करके रखने की कृपा करें। कुकुरमुत्ता में भी निराला जी नवाब तक ही हमला कर पाते हैं।

यह मानने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि तत्कालीन परिस्थितियाँ अंग्रेज सरकार के खिलाफ कुछ भी लिखने या कहने की छूट नहीं देती रही होंगी। ऐसी ही परिस्थितियों में धनपत राय को प्रेमचंद बनना पड़ा था। लेकिन यह या ऐसी ही तमाम घटनाएँ क्या एक लेखक को सच कहने या यथार्थ का वर्णन करने से रोक देती हैं। या हम यह कहें कि गुलाम भारत के लेखकों ने एक स्वचालित प्रतिबंध लगा रखा था। लोगों के मन में अंग्रेज सरकार का एक भय बस गया था और लोग अपने आप से उन मुद्दों को नहीं उठाते थे जिससे सरकार की नाराजगी मोल लेनी पड़े।

मैं अंग्रेजों के गुलामी में रचे गए सारे साहित्य के न तो पारखी हूँ न मेरा उतना व्यापक अध्ययन है। मैंने जितना पढ़ा है वह बहुत कम और छिछला सा ही पठन मानता हूँ। उसके आधार पर कह रहा हूँ कि हिंदी लेखक सत्ता से समझौता करके चलने वाला एक सामाजिक है। इसका अपना एक समुदाय है। वह सत्ता से दूर रह सकता है। वह कुंभन दास हो सकता है और संतन को कहाँ सीकरी सो काम का राग अलाप सकता है। लेकिन घनाननंद की तरह वह किसी सुजान के लिए हाथी के पैरों तले रौंदा जाना अपने हिस्से में नहीं रखता। वह सत्ता से परहेज कर सकता है सत्ता से किसी मुद्दे पुर टकराना उसके चरित्र में नहीं है। वह टकराव का चरित्र भारतीय बुद्धिजीवियों का स्वभाव नहीं है। इसीलिए लेखक और कवि होना भारतीय समाज में कायरता की निशानी मानी जाती है

1947 के थोड़ा पहले और बाद के साहित्य में कुछ और बातें जो मुझे खटकती हैं वह है यथार्थ का एक कल्पित संसार। कुछ लेखकों जिनमें प्रेमचंद और उनके रास्ते पर चलने वाले लेखक थे को छोड़ दिया जाए तो अधिकतर को यथार्थ से परहेज है। मैं एक बड़ा आक्षेप लगा रहा हूँ और यह सोच समझ कर कह रहा हूँ कि हिंदी का कवि लेखक मूल रूप से कल्पना जीवी है। उसे यथार्थ से कोई मतलब नहीं होता। यह आप मध्यकाल की कविता से लेकर आज तक के लेखन में देख सकते है। कबीर और जायसी मीरा आदि तीन चार कवियों को छोड़ दें तो पूरा भक्ति काव्य मोक्ष के लिए तड़पते भक्तों की आर्त वाणी है। देश भले ही किसी और दशा में हो तुलसी का मन राम चरित में रमा है और सूर का साहित्य गोपियों के श्याम के तुतलाहट से लेकर किलकारी तक और माखन चोरी से लेकर बंशीबट के बीच हिंडोले पर झूलता रहता है

मैं मध्यकाल के महान कवियों पर कोई दोषारोपण नहीं कर रहा। मैं तो उनके कथ्य और उनके तत्कालीन समाज के यथार्थ के बीच एक तालमेल बैठाने की कोशिश कर रहा हूँ। लेकिन कहाँ मध्यकाल का उथल पुथल भरा समाज और कहाँ मध्यकाल की कविता। कहाँ इतिहास में घटती घटनाएँ और कहाँ उस दौर के कवियों का साहित्य। क्या हम पूरे भक्ति साहित्य को सामने रख कर भारत का एक मध्यकालीन इतिहास रच सकते हैं। क्या उसकी एक झलक भी बनती दिख सकती है। वहाँ भी भूषण आदि इक्के दुक्के कवि ही हैं जो तत्कालीन परिस्थियों पर कुछ लिखते दिखते हैं लेकिन उनका स्वर भी कितना साम्प्रदायिक और अपने संरक्षकों के प्रति श्रद्धा से भरा है। तो वहाँ भी जो यथार्थ है वह श्रद्धा से विगलित यथार्थ है। उस यथार्थ में नस्लवाद की हुँकार है।

 (क्रमशः)


8 टिप्‍पणियां:

nilesh mathur ने कहा…

बहुत हद तक सहमत हूँ, और ये ध्यान देने वाली बात है की अंग्रेजों की खिलाफत वाली कविताए ना के बराबर है!

Udan Tashtari ने कहा…

जारी रखिये..रोचक और विचारणीय आलेख है..

रवि कुमार, रावतभाटा ने कहा…

बोधिसत्व कई गंभीर सवाल खड़े कर रहे हैं...
कई सच भी...

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

एक हद तक सहमत हुआ जा सकता है। लेकिन जब पुष्प की अभिलाषा जैसी कविता को प्रतिबंधित किया जा सकता है तब लेखन की स्थिति क्या रही होगी? इस का अनुमान किया जा सकता है। फिर मैं नहीं मानता कि कवि या लेखक का काम लड़ाई के मोर्चे पर आगे की भूमिका निभाना हो सकता है। साहित्य तलवार या तोप नहीं हो सकता। वह तोप चलाने की प्रेरणा हो सकता है। गीता गान अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित कर सकता है। स्वयं युद्ध में कोई भूमिका अदा नहीं कर सकता। करेगा भी तो किसी का सारथी बन कर ही। आप के आलेख के आगे के अंशों की प्रतीक्षा रहेगी।

Rangnath Singh ने कहा…

यह आलेख काफी विचारोत्तेजक है। आप अन्य कड़ियां जल्द प्रकाशित करें। तभी कोई सम्यक राय बन सकेगी।

Pratibha Katiyar ने कहा…

agali kadiyon ka intzar hai...

Ashok Kumar pandey ने कहा…

दिनेश जी…क्या उस दौर की कविता उस दौर के संघर्ष को उसी तरह प्रेरित कर रही थी जैसे लोर्का, हिकमत,ब्रेख्त या नेरुदा की कविता अपने-अपने देशों में कर रही थी…क्यों भगत सिंह की डायरी में कोई हिन्दी कविता नहीं जबकि एंत्सेबर्गर और नेरुदा की कवितायें वहां के लड़ाकों के झोले में पाई जाती हैं?

कविता रावत ने कहा…

Saargarbhit Aalekh...
..Upyogi aur saarthak jaankari ke liye dhanyavaad