पंकज बिष्ट, महेश कटारे, शिल्पायन वाले ललित जी और अपन शिल्पायन के स्टाल पर
चार दिन ऐसे बीते कि जैसे चार घण्टे रहे हों।
चारों तरफ़ किताबें, किताबों के शौक़ीन, किताबों की ही बातें…
प्रोफ़ेसर शमसुल इस्लाम, नीलिमा जी,सत्येन्द्र, शिल्पी, पवन मेराज, लाल बहादुर वर्मा और अपन
शब्दों की खुशबू जैसे मदमस्त किये हुए थी…गया था बस एक पिट्ठू लिये लौटा तो चार भरे हुए बैग्स के साथ। मुक्तिबोध और निराला की रचनावलियां, तमाम कविता संकलन, इतिहास, दर्शन और आलोचना की ढेरों किताबें, अनुवाद और पी पी एच से कुछ भूली बिसरी अनमोल किताबें।
बड़ी-बड़ी किताबों के साथ अपन!
और इस बार तो स्टाल पर अपनी किताबें भी लगीं थीं। शिल्पायन से लेखों का संग्रह 'शोषण के अभयारण्य' और संवाद से 'मार्क्स- जीवन और विचार' तथा 'प्रेम'… तो मज़ा दुगना हो गया।
दो साल इसी माहौल की स्मृतियों के सहारे गुज़र जायेंगे। यह विश्वास पुख़्ता हुआ कि शब्द मर नहीं सकते!
11 टिप्पणियां:
अरे यहां तो बहुत बड़े-बड़े साहित्यिक क्रांतिवीर जुटे हुए हैं।
दीदार कराने के लिए शुक्रिया!
अरे वाह ! अब समझा... तो हमें ललचाने के लिए इसका लिंक दिया था ... मैं समझ सकता हूँ आपको कितना आनंद आया होगा..
बधाई हो बधाई हो बधाई हो .. मज़ा आ गया यह देख कर .तुम्हारी.जिस किताब का कवर देखा था उसे अन्य किताबों के साथ स्टाल पर देखकर मज़ा आ गया । अब यह किताबें जल्दी से जल्दी पढ़ने को मिल जाये तो और मज़ा आ जाये ।
पुस्तक मेला तो सदैव ही मुझे प्रिय रहा है क्योंकि यह लेखक - प्रकाशक - पाठक के मध्य संवाद का भी एक अवसर उपलब्ध कराता है. और इस वर्ष यह विशेष भी रहा क्योंकि मुझे मेरे बचपन के मित्र से वर्षों पश्चात मिलाने का माध्यम बना.
meri kitab nahin dikhi?
.... प्रभावशाली प्रस्तुति !!!!
बोधि भाई
आपकी किताब की दो कापी ले ली है भाई
छूट गयी थी संवाद के स्टाल पर अब एक दो दिन में आ जायेगी…
कविता कैसे छोड़ता…शिरीष,मोहन डहेरिया, गीत सबकी ले आया…
प्रिंस
यार तुमसे मिलने का इतना मन था…गले लग के सब याद करना चाहता था…पर तुम मिले तो इतनी भीड़ थी…इतना शोरगुल कि बस मिल ही पाये…जल्दी ही इत्मीनान से मिलेंगे…किताबें कैसी लगीं बताना।
अशोक लिखुं या सोनु?
दिल्ली आये
बिना बताये
और चले भी गये
अब बतला रहे हैं
????????????????
दर्शन मैं भी आपके और आपके साथ के कर लेता पर मेरा भाग्य ऐसा नहीं रहा, भाग्य में नहीं लिखा होगा इसलिए नहीं मिल पाया। अब भाग्य में कब मिलना होगा, देखते हैं ?
`समझो वहीं हमें भी दिल हो जहाँ हमारा`
एक टिप्पणी भेजें